क्या हमारा समाज सभ्यता की न्यूनतम शर्तें पूरी करता है?

Afeias
28 Nov 2019
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Date:28-11-19

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किसी समाज का स्वास्थ्य उसके नागरिकों के शारीरिक स्वास्थ्य से भिन्न नहीं होता है। किसी गंभीर बीमारी के प्रारंभिक लक्षणों को नजरअंदाज कर देने पर जिस प्रकार आप अचानक आपातकाल की स्थिति में आ जाते हैं, उसी प्रकार से समाज में अपने गुस्से और शिष्टता पर नियं़त्रण खोकर हम बर्बरता की ओर जा रहे हैं।

मूल रूप से तो हम सभ्य हैं, परन्तु जहाँ-तहाँ बर्बरता के काँटे उगते दिखाई दे रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो हम उन्नाव की क्रूरता, मुर्शिदाबाद के एक परिवार की दर्दनाक हत्या और झारखंड में एक व्यक्ति की भीड़-हत्या को कैसे बर्दाश्त कर लेते? आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के जीवन को तो असभ्य होते सुना है, परन्तु अब आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग भी इस ओर जा रहे हैं। अगर हम अपने को नैतिकता के रेड अलर्ट पर नहीं डालते हैं, तो समझ लीजिए कि हम डूब जाएंगे।

‘न्यूनतम सभ्य’ का अर्थ एक समाज में उपलब्ध सर्वोत्तम नैतिक मानक से है, जो अपनी रोशनी में भी अचेतन ही रहते हैं। एक न्यूनतम सभ्य समाज शोषण या अन्याय से मुक्त नहीं होता। इसे राजनीतिक समानता का रूप देने की जरूरत नहीं है। फिर भी, यह एक विलक्षण गुण रखता है। यह दूसरों की हत्या और दूसरों के प्रति किए जाने वाले दुव्र्यवहार को प्रभावी निषेधाज्ञा की मदद से रोकता है। इसमें ‘बुनियादी प्रक्रियात्मक न्याय’ जैसा एक सिस्टम भी काम करता है। यह न्याय का एक प्रारम्भिक रूप है, जिसमें मध्यस्थता और निष्पक्ष वार्ता का अधिकार होता है। यह बहुत अधिक भिन्न लोगों के मध्य अस्वाभाविक और अस्थायी समझौते की मान्यता को अनुमति देता है। यह अच्छे जीवन की विभिन्न धारणाओं को साथ चलने योग्य बनाता है। यह सह-अस्तित्व अनमनी महत्वाकांक्षा और अधीन आत्मविश्वास पर ही संभव होता है। यह हर किसी की आवाज को ऐसी गूंज बनाता है, जो सुनी जा सके। राजनीतिक क्षेत्र में हर किसी को देख सकने योग्य बनाता है। और समाज के शोषित और वंचितों को भी बातचीत में स्थान दिलवाता है। संक्षेप में कहें, तो यह समाज के सभी सदस्यों के बीच बातचीत और संबंध को जारी रखा है। इस प्रकार यह न्यूनतम सभ्य समाज का निर्माण करता है।

सपाट होता नैतिक परिदृश्य

दूसरी ओर, जिस समाज में न्यूनतम नैतिक मूल्यों को भी छोड दिया गया हो, वह बर्बर कहलाता है। सामान्यतः ऐसा गिरती आर्थिक स्थितियों के तहत होता है। चैंकाने वाली बात यह है कि महानता की खोज में या महज आर्थिक और राजनैतिक सफलता की होड़ में भी न्यूनतम नैतिक मूल्यों को छोड़ दिया जाता है। एक बार जब नैतिक कार्यवाई में बाधा उत्पन्न हो जाती है, तो सार्वजनिक जीवन और लोगों के दिमाग से बुनियादी निष्पक्षता और प्रक्रियात्मक न्याय की धारणा दूर हो जाती है। एक प्रकार का निष्क्रिय नैतिक परिदृश्य बन जाता है। कुछ भी निषिद्ध या सीमित नहीं होता है। ऐसे में हिंसा और वर्चस्व का रास्ता खुल जाता है। एक ऐसे बर्बर समाज में; जहाँ बुनियादी प्रक्रियात्मक न्याय को समाप्त कर दिया जाता है, वहाँ बातचीत का स्थान दमनकारी मौन ले लेता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और नाजी शासन के आतंक के बीच हैम्पशायर ने यह निष्कर्ष निकाला था कि, ‘‘यातना और हत्या के विशाल उद्यमों को चलाना कितना आसान था। इस क्षेत्र में अधिकारियों ने सभी नैतिक बाधाओं को हटा दिया था।’’ बल, भय का उत्पीड़न या लंबे समय तक चलने वाले संघर्षों से अक्सर जनता के जीवन की नैतिकता नष्ट होती जाती है, और वह निर्दयी शासन के लिए तैयार हो जाती है।

नीतिहीन निजी जीवन

जब सार्वजनिक जीवन में नैतिकता नष्ट हो जाती है, तो इससे शेष संसार भी अछूता नहीं रह जाता है। बुराई हमेशा सार्वजनिक से निजी परिधि में फैलती है और यह चिर-परिचित संबंधों को भी प्रभावीत करने लगती है। दोस्त, प्रेमी, परिवार के सदस्य सभी संदिग्ध कार्यों में उलझ सकते हैं। दरअसल, दोस्त और दुश्मन के बीच का अंतर बहुत धंधुला होता जाता है।

चाहे 1984 के दंगों का मामला हो या बर्लिन वॉल के गिरने के दौरान की स्थितियां हों, ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि कैसे अपनी रक्षा हेतु लोगों ने अपने निकट संबंधियों से धोखा किया।

हम एक न्यूनतम सभ्य समाज हैं। क्रमशः समाज में अभद्रता और पतन दृष्टिगोचर हो रहा है। जब समाज में न्यूनतम शालीनता भी समाप्त होने लगती है, तो उसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय और मुक्ति की राह पर वापस लाना कठिन हो जाता है।

इस तरह के अनिश्चित समय में, सही नैतिक मानकों तक पहुँचने की बजाय, अपने को धरातल से जोड़े रखने के लिए गलत कामों से बचना जरूरी होता है। ऐसे मुद्दों पर गांधी हमारी नैतिक धुरी बने हुए हैं। हांलाकि वे उपवास आत्म-रूपान्तरण के लिए किया करते थे, परन्तु उनका उद्देश्य नाजुक सामाजिक समझौते को मजबूत करने के लिए एक उपकरण बनना था। इस व्यावहारिक उपकरण से वे क्रूरता को हर कीमत पर समाप्त करना चाहते थे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित राजीव भार्गव के लेख पर आधारित। 15 अक्टूबर, 2019

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