ए आई की उपयोगिता और नैतिकता

Afeias
09 Sep 2019
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Date:09-09-19

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किसी भी तकनीक का मूल्यांकन उसके उपयोग और उसके सर्जक की नीयत को देखकर किया जाना चाहिए। अगर मूल्यांकन का वर्गीकरण किया जाए, तो इसके तीन आयाम हो सकते हैं। (1) अगर स्वार्थ की दृष्टि से कोई सृजन किया गया है, तो वह सिर्फ स्वयं का भला करेगा। (2) अगर उपयोगितावादी दृष्टिकोण से किया गया है, तो वह बहुतों का भला करेगा। इन दोनों ही परिप्रेक्ष्य में किसी सृजन को कल्याण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया गया माना जा सकता है। इसे ‘टेलियोलॉजिकल दृष्टिकोण’ कहा जा सकता है। (3) नैतिकता की दृष्टि से किए गए सृजन, जिसे ‘डीऑन्टोलॉजिकल दृष्टिकोण’ कहा जा सकता है, में परिणाम से ज्यादा सर्जक की नियत पर ध्यान दिया जाता है।

इन तीन आधारों पर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के संबंध में कहा जा सकता है कि व्यावसायिक रूप से प्रयुक्त ए आई टेलियोलॉजिकल ही है। उदाहरण हेतु इसके फेस रेंकगनीशन को लिया जा सकता है। 2015 में शुरू की गई यह विशेषता तब विफल हो गई, जब इसने अफ्रीकी-अमेरिकी चेहरों को पूर्ण रूप से नहीं पहचाना। इसके सर्जक गूगल ने तुरन्त ही कुछ सुधार के प्रयास किए। टेलियोलॉजिकल दृष्टिकोण से तो ए आई के इस बिगड़े तंत्र के साथ भी आगे बढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई? क्योंकि 2010 की जनगणना के अनुसार ए आई द्वारा पूर्णता से पहचाने जाने वाले कोकेशियन अमेरिकियों की संख्या 72.4 प्रतिशत थी, और ए आई सिस्टम उनका फेस रेकगनीशन अच्छी तरह कर रहा था।

अब अगर नीयत की दृष्टि से इस सृजन को देखें, तो इस सिटम का बहिष्कार किया जाना चाहिए, क्योंकि शायद इस सिस्टम को सभी नस्ल के लोगों की पहचान के लिए नहीं बनाया गया। जबकि इसे नैतिकता की दृष्टि से बनाया जाना चाहिए था। यहाँ एक प्रश्न भी उभरकर सामने आता है कि क्या डिजीटल कंपनियों को, जिनका प्रसार बहुत से देशों में है, सभी नस्ल के लोगों के चेहरों को समान तरीके से पहचाने जाने के तकनीकी-लक्ष्य को लेकर नहीं चलना चाहिए था ?

आज केवल सोशल मीडिया ही वह जगह नहीं है, जहाँ फेस रेकगनीशन की आवश्यकता है। यह सिस्टम कानून स्थापित करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। ए आई को किसी के रंग के अनुसार पहचान देने या न देने की दृष्टि से तैयार करने के खतरों के बारे में सोचिए। हाल ही के समाचार के अनुसार कानून प्रवर्तन के मामलों में सेन फ्रांसिस्को ने फेस रेकगनीशन पर रोक लगा दी है।

अधिकांश भाग के लिए ए आई का नैतिक आधार, एल्गोरिदम (किसी समस्या को हल करने के लिए निर्धारित नियम) के बाहर टिका हुआ है, क्योंकि एल्गोरिदम को प्रशिक्षित करने के डाटा को बनाया ही इस तरह से गया है। यह बेसुधी में हमारे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण का ही नतीजा है। ए आई, एल्गोरिदम जिन समस्याओं को सुलझाता है, हम उन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को कैसे प्रस्तुत करते हैं, ए आई के परिणाम उस पर भी निर्भर करते हैं।

ए आई के प्रसार के साथ ही हम पर या हमारे द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले ए आई के नैतिक आधार के बारे में जानना बहुत जरूरी है। टेलियोलॉजिकल और डी ऑन्टोलॉजिकल आधारों को लेकर चलने वाला तंत्र अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है। कभी-कभी तो इस प्रकार के समावेशी तंत्र की भी जाँच पड़ताल जरूरी हो जाती है। उदाहरण के तौर पर 1960 में आए पोलाराइड आई डी 2 कैमरा को ले लीजिए। इससे काले लोगों की बहुत अच्छी फोटो खींची जा सकती थी। बाद में पता चला कि कंपनी ने इसे ‘डोम्पास’ के लिए ईजाद किया था। डोम्पास एक ऐसा पहचान पत्र था, जिसे रंगभेद के दौरान दक्षिणी अफ्रीकियों को अपने साथ रखना अनिवार्य था।

भारत के लिए भी ए आई के नैतिक आधार को समझना और उस पर चर्चा करना जरूरी है। कुछ रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि नीति आयोग, ए आई से जुड़ी राष्ट्रीय क्षमता और उसके बुनियादी ढांचे पर 7,500 करोड़ रुपए का निवेश करने जा रहा है। भारत में ए आई की परिवर्तनकारी क्षमता के लिए बहुत कुछ करने को है, लेकिन इसे समानाधिकारवादी नैतिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए। ए आई के किसी भी संस्थागत ढांचे का आधार बहु-विषयक और बहुत हितधारक होना चाहिए। सबसे आवश्यक नैतिक आधार है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एन.दयासिंधु के लेख पर आधारित। 13 अगस्त, 2019