राजनीति में होने का क्या मतलब है ?

Afeias
11 Sep 2019
A+ A-

Date:11-09-19

To Download Click Here.

2019 से ठीक सौ वर्ष पूर्व, समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने एक ऐसा चिंतन दिया था, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है। यह चिंतन राजनीति ‘एक व्यवसाय के रूप में‘ राजनीति का था। उनकी यह विचारधारा म्यूनिख विश्वविद्यालय में व्याख्यान के रूप में तब सुनी गई, जब प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद वहाँ भयंकर राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी। वेबर का उपरोक्त कथन उनके ‘साइंस एज़ ए वोकेशन’ (एक व्यवसाय के रूप में विज्ञान)’ नामक प्रसिद्ध निबंध की ही एक कड़ी लगती है। दोनों ही निबंधों का धरातल एक रहा है। उनका मानना था कि मोह और तर्कवाद की विशेषता वाले युग में एक व्यवसाय या पेशे में निवेश का क्या अर्थ है? विज्ञान या राजनीति को एक पेशा बनाने या उससे भी अधिक कुछ गहरे रूप में लेने का क्या अर्थ है? आखिर ये दोनों ही किस प्रकार की नैतिक प्रतिबद्धताओं और चरित्र की मांग करते हैं?

वेबर अपने व्याख्यान के प्रारंभ में ही श्रोताओं से कह देते हैं कि उनका व्याख्यान निराश करने वाला हो सकता है। उनके ‘निराशा’ शब्द के अर्थ के कई आयाम हो सकते हैं। जो लोग किसी प्रकार के निर्देश प्राप्त करने की आशा से आए हैं, वे निराश हो सकते हैं। वेबर तो चिंतन प्रदान करते हैं। वे यह सोचने पर बल देते हैं कि एक मानवीय क्रियाकलाप के रूप में राजनीति कैसे काम करती है। औपचारिक भाषा में कहें, तो यह अपनी परिधि में एक स्वायत्त सत्ता रखती है। इसे केवल नैतिकता या फिर आर्थिक हितों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।

इसकी विशेषता इस तथ्य में है कि इसके संदर्भ में शक्ति और हिंसा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। राजनीति की विशिष्ट प्रकृति का वर्णन करते हुए वेबर आधुनिक राजनीतिक समाजशास्त्र की विभिन्न श्रेणियों की बात करते हैं। इसमें वे राज्य की परिभाषा एक ऐसी संस्था के रूप में देते हैं, जो वैध हिंसा के तरीकों को एकाधिकृत करने का प्रयास करता है। तत्पश्चात् वे राजनैतिक सत्ता के परंपरागत, तार्किक, कानूनी और करिश्माई रूपों का भी चित्रण करते हैं। साथ ही दलों और संरक्षण के दौर की राजनीति की अस्पष्टता और सांसदों से जुड़ी निर्बलताओं के बारे में भी कहते हैं। इन स्थितियों में संचालित होने वाली राजनीति की स्थिति राजनीति की गर्मजोशी के स्थान पर समाजशास्त्रीय ठंडे पानी में नहाने जैसी है।

वेबर, इसके अलावा भी कई अन्य गहरे मायनों में निराशा की बात करते हैं। इसके लिए वे कार्ल लोविथ को उद्धृत करते हैं, ‘‘अपनी इच्छित वस्तुओं से सारे पर्दों को नष्ट कर दीजिए।’’ वे क्रांति के विरुद्ध खड़े होते हैं, राजनीति के उस रूप के विरुद्ध हैं, जो साधन की अमरता से अंधा होता है, और राजनीतिक योजना की स्वयं को पराजित करने वाली प्रवृत्ति के विरुद्ध भी खड़े होते हैं। वह युद्ध की संभावना उत्पन्न करने वाले शांतिवाद के भी विरुद्ध हैं। एक क्रांतिकारी और एक शांतिवादी दोनों में ही चरम नैतिकता की भावना समान रूप से रहती है। क्रांतिकारी को नैतिकता के दो आधारों पर दोषी माना जा सकता है। एक तो उसका यह सोचना कि साध्य के लिए कुछ भी करना उचित है। और दूसरे उसका इस भ्रम पर चलना कि दुनिया एक आदर्श को ठीक से आइना दिखा सकती है। एक शांतिवादी की चरम नैतिकता ठीक इसके उलट होती है। उसकी नैतिकता परिणामों पर ध्यान देने के लिए भुगतान करती है।

वेबर पूर्ण रूप से मूल्य बहुलवादी हैं। फिर भी उन्हें लोगों को यह समझाने की आवश्यकता है कि इस विविधतापूर्ण संसार में कैसे काम करें कि जिससे लगे कि वास्तव में न्याय गलत है। सोशल डेमोक्रेट्स, सांसदों और मध्यमार्गी लोगों के अनिर्णय और संकीर्णता से वेबर निराश हो उठते हैं। वे आरंभिक समय के एक ऐसे राष्ट्रवादी हैं, जो राष्ट्रवाद को एक ऐसी विचारधारा के रूप में देखते हैं, जो मोहभंग करने वाले संसार में एक बेजोड़ अर्थ प्रदान करती है। परन्तु वेबर यह भी जानते हैं कि राष्ट्रवाद कैसे भ्रांतिकारी भी हो सकता है। वे एक उभयभावी उदारवादी हैं, जो जानते हैं कि कुछ विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रवाद इस हद तक भी रक्तहीन हो सकता है कि वह व्यवधान बन जाए। प्रजानायकों के मनोवैज्ञानिक आकर्षण को भी वे समझते हैं, और उसके दुष्परिणामों को भी जानते हैं। वे एक आदर्श राजनीतिज्ञ के लिए जोश, उत्तरदायित्व और न्यायप्रियता को आवश्यक समझते हैं। साथ ही इन तीनों गुणों के बीच चलने वाले अंतद्र्वंद्व को भी वेबर से बेहतर शायद कोई नहीं समझता।

उनकी लेखनी में इससे भी ज्यादा गहरी हताशा देखने को मिलती है। उनके लेख में आज के सामान्य राजनीतिक एजेंट की घुटन की झलक पाई जा सकती है, जिसमें एक तरफ तो संरक्षण की राजनीति की नियमित शक्ति को पकड़ कर दोलन किया जा सकता है, या दूसरी ओर इसके रोमांटिक भ्रम में जिया जा सकता है।

जिस प्रकार के संसार का वर्णन वेबर ने किया है, आज का संसार उससे बहुत भिन्न नहीं है। जब संवैधानिक स्वरूप का नाश हो जाता है, जब पाशविक बल लगाया जाने लगता है। जब राजनीति का उद्देश्य आवधिक मोड़ बन जाता है, तब राजनीतिक गतिविधियों का क्या स्वरूप उपलब्ध रह जाता है? हम किस छोर से अपने को जोड़ें?

इन प्रश्नों का जवाब वेबर के पास नहीं होगा। उनकी त्रासदी किसी के पास ऐसी इच्छा शक्ति का न होना था कि उसे धोखा दिया जा सके। इन प्रश्नों का जवाब शायद उन राजनीतिक कार्यकलापों में मिल सकता है, जो 1919 की शुरूआत में ही प्रारंभ हो गए थे। गांधी ने अनुकरणीय राजनीति की शुरूआत कर दी थी। उनकी राजनीति वेबर के सिद्धाँतों से प्रेरित नहीं थी। उन्होंने एक तथ्य ग्रहण कर लिया था कि संकट के दौर में किैसी विचारधारा, कैसा दल, कैसा सामूहिक प्रयास आदि प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिए। सिर्फ यह पूछा जाना चाहिए कि कौन-सा राजनैतिक कदम दूसरों के सामने उदाहरण बन सकता है, अनुकरणीय बन सकता है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित। 1 अगस्त, 2019

Subscribe Our Newsletter