ऋण माफी कोई हल नहीं
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भारत में किसानों के साथ ऋण की समस्या बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश चुनावों में लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में किसानों के ऋण माफ करने का वायदा किया था। ऋण के भार या कृषि में उत्पादकता की समस्या से जुड़ी किसानों की आत्महत्यायों का कारण बहुत हद तक कृषि संबंधी ऋ़ण समझौतों में राजनीतिक हस्तक्षेप को माना जाता है। सन् 2008 में लगभग एक लाख करोड़ रु. की राशि ऋण माफी के लिए प्रदत्त की गई थी। लेकिन इसके बावजूद न तो किसानों की माली हालत में कोई सुधार हो सका है और न ही उनके ऋणों में कमी आई है। आखिर इसके कारण क्या हैं ?
- ऋण माफी के लगभग चार वर्षों तक इसका लाभ प्राप्त हुए किसानों में से एक को भी बैंक से ऋण नहीं मिल सका।
- सन् 2008 में ऋण माफी के दौरान 2 हेक्टेयर तक की भूमि पर कृषकों को पूर्ण ऋण माफी दी गई जबकि 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि रखने वाले किसानों को बचे हुए ऋण भुगतान की शर्त पर अधिकतम 25% तक ऋण माफी दी गई थी, इस आधार पर किसानों के जीवन की कायापलट हो जानी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
- दरअसल, जिन किसानों के पास99 हेक्टेयर भूमि या इससे थोड़ी बहुत कम भूमि थी, उन्हें भी पूर्ण ऋणमाफी का लाभ मिला। उनकी इस स्थिति को देखते हुए बैंक ने उन्हें ऋण के योग्य नहीं समझा। शायद यही कारण रहा कि ऋण माफी के चार साल बाद तक भी किसानों को ऋण नहीं मिला। बैंकों की इस सोच को धरातल के स्तर पर सही नहीं कहा जा सकता।
- अगर ऋण की बकाया दरों पर नज़र डाली जाए, तो 100% की ऋण माफी के बाद ऋणों की बकाया दर बहुत ऊँची रही। इसके कारण ऋण माफी के बाद भी किसानों की स्थिति में कोई परिर्वतन नहीं आया। इस प्रकार किसानों की ऋण माफी के नाम पर करदाताओं से पूरा कर ले लिया गया, लेकिन किसानों को इसका कोई खास लाभ नहीं मिला।
- खस्ताहाल किसानों की भलाई के लिए अगर सरकार वाकई कुछ करना चाहती है, तो वर्तमान सरकार, कृषि उत्पादों के लिए खुले बाज़ार, फसल बीमा योजना, ग्रामीण सड़कों और बुनियादी सुविधाओं पर ध्यान देकर कर सकती है। चुनावों से पहले घोषित व्यापक ऋण माफी जैसे कदम किसानों का भला करने के बजाय उन्हें नुकसान ही अधिक पहुँचाते हैं। आगे-पीछे मतदाता भी इस बात को समझ जाएंगे और राजनेताओं की इस अवसरवादिता के लिए उन्हें दंड जरुर देंगे।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया‘ में प्रकाशित प्रसन्ना तंत्री के लेख पर आधारित।