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You are here: Home >> Resources >> Articles (Hindi) >> सिविल सेवा परीक्षा में कॉमन सेन्स-1

सिविल सेवा परीक्षा में कॉमन सेन्स-1

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मैं जानता हूँ  कि मेरे इस टॉपिक ने आपको निष्चित रूप से चौंकाया होगा। सिविल सर्विस की परीक्षा में भला ‘कॉमन सेन्स’ का क्या काम! इसके लिए तो सालों साल की खूब मेहनत करनी पड़ती है, न जाने कितने-कितने घण्टे रोजाना और वह भी कई सालों तक। जितनी ज्यादा से ज्यादा और वह भी स्टैण्डर्ड वाली किताबों पढ़ सकते हो, पढ़ो। तब जाकर कहीं बेड़ा पार होने के बारे में सोचा जा सकता है। पक्का फिर भी नहीं है।
दरअसल, सिविल सिर्विस की परीक्षा के बारे में फैले हुए इसी खतरनाक भ्रम के कारण आपको मेरा यह टॉपिक फालतू का मालूम पड़ रहा होगा। मेरी राय है कि इससे पहले कि आप इस लेखको पढ़ें, थोड़ा वक्त लगाकर आपका अपने अंदर फैले भ्रम के इस जाले की सफाई कर लेनी चाहिए। इसके लिए आपको केवल नीचे दिए गये इन प्रष्नों के उत्तर हासिल करने होंगे। आपके ये उत्तर यथार्थपरक होने चाहिए, न कि यूं ही किसी से पूछ लिया, और उसके उत्तर पर विष्वास कर लिया।
कुछ प्रष्न हैं-
– क्या सारे पढ़ाकू इस परीक्षा में सफल हो ही जाते हैं?
– तो फिर वे कुछ लोग कौन होते हैं, जो 22-23 साल की उम्र में पहले अटेम्प्ट में ही क्वालीफाई कर लेते हैं?
– विज्ञान के विद्यार्थी आर्ट्स के विद्यार्थियों से आगे क्यों निकल जाते हैं, जबकि निबंध और जनरल स्टडीज के पेपर्स उनके पक्ष में नहीं होते?
– क्या कारण है कि आज भी सफल उम्मीदवारों की सूची में 50 प्रतिषत के लगभग वे स्टूडेन्टस होते हैं, जिनकी एकेडेमिक पृष्ठभूमि द्वितीय एवं यहाँ तक की तृतीय श्रेणी की होती है? आदि-आदि।
इन प्रष्नों के सही-सही उत्तर आपको इस बात को समझने की सही-सही दृष्टि प्रदान करेंगे कि वस्तुतः सिविल सेवा परीक्षा के लिए जरूरत होती किन-किन चीजों की है। अपने हाथ में सही उपकरण लेकर ही आप मषीन के साथ न्याय कर सकेंगे। हथौड़ा ही सबका इलाज नहीं होता है, जैसा कि सिविल सेवा की परीक्षा के बारे में अक्सर सोच लिया जाता है। तभी तो स्टूडेन्ट् अक्सर मुझसे यह प्रष्न करते हैं कि ‘सर, क्या मैं कर सकता हूँ?’ मेरा उत्तर है कि ‘हाँ, क्यों नहीं, बषर्ते कि आपके दो क्षमताएं हों। एक विष्लेषण करने की क्षमता और दूसरी ‘कॉमन सेन्स’। वे कॉमन सेन्स का नाम सुनकर चौंक जाते हैं- ‘कॉमन सेन्स! इस कॉमन सेन्स का भला इस स्पेषल परीक्षा में क्या काम? और मुझे लगता है कि यही गलती उनकी मंजिल को यदि असंभव नही ंतो कठिन, बहुत कठिन जरूर बना देती है। अब यह आपके ऊपर है कि आप तैयारी का कौन सा रास्ता चुनना चाहते हैं- ज्ञान पर आधारित कठिन मेहनत का रास्ता या फिर विष्लेषण एवं कॉमन सेन्स पर आधारित सरल एवं सुनिष्चित रास्ता।
विष्लेषण की क्षमता के बारे में मैं इससे पहले काफी विस्तार से बता चुका हूँ। मैं यहाँ ‘कॉमन सेन्स’ के बारे में चर्चा करूंगा। लेकिन यह चर्चा इसके सैद्धांतिक एवं शुष्क पक्षों की न होकर केवल उस नजरिये से होगी, जो सिविल सेवा परीक्षा के काम की हो।
क्या होता है कॉमन सेन्स- मैं जानता हूँ कि आप इसके बारे जानते हैं, भले ही विस्तार से न सही। आप ही नहीं बल्कि हर कोई इसके बारे में जानता है। हर व्यक्ति एक दिन में न जाने कितनी बार इस शब्द का उल्लेख भी करता है, चाहे वह बदले हुए रूप में ही क्यों न करे, जैसे कि ‘बुद्धु कहीं के, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम।’ यहाँ वह जो आरोप लगा रहा है, वह यही है कि ‘तुममें इतना भी कॉमन सेन्स नहीं है।’ इसी से यह बात साफ हो जाती है कि हर कोई इसकी बात ही नहीं करता है, बल्कि हर कोई इसका उपयोग भी करता है। साथ ही दूसरों से भी उम्मीद करके चलता है कि वे भी इसका इस्तेमाल कर रहे होंगे।
अब आपकी समझ में आ गया होगा कि इसे ‘कॉमन’ क्यों कहा गया है। यह समझ में आने के बाद शायद आप यह भी समझ सकते हैं कि इसे ‘जनरल’ क्यांे नहीं कहा गया। क्या ‘कॉमन’ और ‘जनरल’ में कोई फर्क होता है? यदि आप इस फर्क से परिचित हैं, तो आपको ‘कॉमन सेन्स’ और ‘जनरल स्टडीज’ के फर्क को समझने में दिक्कत नहीं होगी। और इस फर्क को जानना आपके लिए बहुत-बहुत जरूरी है। इसकी चर्चा आगे की जाएगी।
अब मैं आता हूँ ‘सेन्स’ पर। वैसे ‘सेन्स’ का अर्थ होता है, हमारी पाँचों इन्द्रियाँ- त्वचा (स्पर्ष), नाक (सूंघना), कान (सुनना), आँख (देखना) एवं जिह्वा (स्वाद)। हम अपनी इन्हीं पाँचों इन्द्रियों के द्वारा बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। लेकिन फिलहाल यहाँ हम जिस ‘सेन्स’ की बात कर रहे हैं, वह इनसे सीधे-सीधे जुड़ी होने के साथ ही थोड़ी अलग भी है। अलग केवल इस मायने में है कि वह इन पाँचों में से कोई एक नहीं है। बल्कि यदि इन पाँचों को मिलाकर एक कर दिया जाए, तो वह यह है। इसे थोड़ा समझते हैं।
हमारी ये पाँचों इन्द्रियां अपना-अपना काम करती हैं। लज़ीज़ भोजन की सुगंध हमारी भूख को बढ़ा देती है। किसी भव्य दृष्य को देखकर हम अवाक रह जाते हैं, तो पसंदीदा म्यूजिक सुनकर उसके साथ गुनगुनाने और थिरकने लगते हैं। यहाँ आपको एक साथ दो क्रियायें दिखाई दे रही होंगी। पहली क्रिया है सूंघने की। यह काम किया नाक ने। यदि नाक खराब होगी, तो सूंघने का काम भी खराब हो जाएगा, जैसा कि अक्सर सर्दी-जुकाम लगने पर थोड़ा-बहुत हो जाता है। दूसरी क्रिया है- भूख लगने की, अवाक् रह जाने की, गुनगुनाने और थिरकने की। यह काम किसने किया? यह काम न तो नाक का है, न आँख का और न हीं कान का। तो फिर किसका है? यह काम है दिमाग का। वह पहले आपके द्वारा ग्रहण किए गये सुगंध, दृष्य और ध्वनि आदि को समझता है और समझने के बाद शरीर के संबंधित अंग को अपना आदेष भेज देता है कि ‘तुम अब यह करो।’ शरीर का वह अंग एक सच्चे सेवक की तरह उसके आदेष का पालन करता है। इसीलिए हमारी भूख बढ़ जाती है, हम अचम्भित रह जाते हैं, और गुनगुनाने लगते हैं।
यहाँ स्पष्ट है कि इस पूरी प्रक्रिया के लिए दोनों का ठीक-ठाक होना जरूरी है। एक भी गड़बड़ हुआ नहीं कि प्रक्रिया गड़बड़ा जायेगी। सर्दी लगने से यदि सूंघने का काम ठीक से नहीं होगा, तो दिमाग के ठीक न रहने पर भूख लगने की प्रक्रिया भी ठीक नहीं होगी। इसीलिए तो परीक्षा के दिनों में भूख कम हो जाती है, क्यांेकि दिमाग परीक्षा की चिंता और तनाव से भरा रहता है। वह अपना काम ठीक से नहीं कर पाता। जब हम दुखी होते हैं, उदासी और अवसाद में रहते हैं, तो क्या हम अपने पसंदीदा गीत का सुनकर थिरकने लगते हैं? यानी कि इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभवों का हम पूरा-पूरा लाभ ले सकें, इसके लिए जरूरी है कि-
– हमारी सभी इन्द्रिया (सेन्न्सेज़) स्वस्थ हों, और
– हमारा मस्तिष्क भी शांत, संतुलित और सही हो।
अब मैं जिस बात पर आ रहा हूँ, हांलाकि उसका सीधा संबंध कॉमन सेन्स से तो नहीं है, लेकिन चूंकि हम सभी के जीवन से उसका बहुत गहरा संबंध है, इसलिए मुझे लगा कि इस अवसर का लाभ उठा लिया जाना चाहिए। इस छोटे से किन्तु अत्यंत जरूरी भअकाव के लिए मैं क्षमा चाहूंगा।
हम सभी अपने-अपने दिमागों से परेषान रहते हैं। हमें लगता है कि वह अपनी मनमानी करता रहता है। हमारा साथ नहीं देता। हम पढ़ना चाहते हैं, लेकिन वह कहता है कि ‘फिल्म देखो।’ हमारे मन को भटकाता रहता है। लेकिन क्या हमारी यह षिकायत सही है? हमें इसे जानना चाहिए, क्योंकि इसे जानना बेहद जरूरी है।
एक छोटे से उदाहरण के तौर पर अजंली शुद्ध शाकाहारी है। जब भी कहीं नानवेज बनता है, उसे उसकी गंध बिल्कुल पसंद नहीं आती। वह वहाँ से भाग लेती है। यदि कभी उसकी मुलाकात मछली बनने के गंध से हो जाये, तब तो उसे उबकाई आये बिना रहती ही नहीं।
लेकिन क्या इन चीजों के प्रति उसकी छोटी बहन पंकजा की भी वही प्रतिक्रिया होगी, जो नानवेज की बहुत शौकीन है? मछली तो उसे इतनी अधिक पसंद है कि वह इस शर्त पर भी जाकर मछली खाने को तैयार हो जाती है कि ‘आओ, पकाओ और खाओ। वह मछली के खाने का ही नहीं, बल्कि उसके बनाने का, विषेषकर बनने के दौरान उठने वाली गंध का आनंद लेने से भी नहीं चूकती।
ये दोनों बिल्कल सही स्थितियां हैं। ये कहानियां नहीं हैं। ये हमारे इस शरीर (इन्द्रीय) और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली का विज्ञान हैं। आप इन पर थोड़ी गम्भीरता से, धैर्य के साथ, पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से मुक्त होकर विचार कीजिए। सत्य आपके हाथ आ जायेगा। और जो सत्य आपके हाथ आयेगा, वह यह कि ‘दोनों बहनों के मामलों में दोनों के दिमाग दोनों की अपनी-अपनी इन्द्रियों को वैसा ही करने का संदेष दे रहे हैं, जो दोनों चाहते हैं। मित्रों, तो क्या आपको नहीं लगता कि वस्तुतः हमारा दिमाग हमारा सबसे सच्चा सेवक होता है। समस्या जो है, वह दिमाग के साथ नहीं है। समस्या हमारे चाहने के साथ है। हम चाहते तो कुछ और हैं। लेकिन दुनिया को दिखाते यह रहते हैं कि ‘हम यह चाहते है।’ सतर्क रहियेगा कि हमारा दिमाग सुपर-सुपर इंटेलिजेंट है। उसके पास लाखों सालों का अनुभव है। हमारी चालाकियां उसे धोखा नहीं दे सकती है। वह बड़ी आसानी के साथ हमारे चाहने की उस सूक्ष्मता को पकड़ लेता है कि ‘दरअसल, तुम चाहते क्या हो।’ और वह वैसा ही करने लगता है।
इतना सब स्पष्ट करने के बाद अब मैं आता हूँ ‘सेन्स’ के उस अर्थ पर, जिससे यहाँ हम सभी का सरोकार है। यहाँ हम जिस सेन्स की बात कर रहे हैं, वह विषुद्ध रूप से इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान नहीं है। ऐसा तो पशुओं में होता है, हांलकि उनमें भी वह उतना विषुद्ध नहीं होता। ‘कॉमन सेन्स’ के ‘सेन्स’ में निःसंदेह रूप से हमारे दिमाग की बहुत बड़ी भूमिका रहती है। वैसे तो बिना दिमाग के हम किसी भी सेन्स का अनुभव कर ही नहीं सकते। लेकिन यहाँ दिमाग का काम शरीर के अंगों को प्रतिक्रिया करने के लिए मात्र संदेष देने का काम न रहकर उससे थोड़ा अधिक हो जाता है। वह ‘थोड़ा-अधिक’ क्या है?
– हमारा दिमाग इन्द्रियों से प्राप्त अनुभवों को संचित करता है।
– इन संचित अनुभवों को पचाकर इसे ज्ञान में परिवर्तित करता है।
– इस अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालता है।
और इन्हीं ज्ञान एवं निष्कर्षों को हम ‘कॉमन सेन्स’ कहते हैं। इसे ही हम हिन्दी में व्यावहारिक ज्ञान कहते हैं, सामान्य समझ कहते हैं, दुनियादारी कहते हैं…. आदि-आदि। जाहिर है कि इसके लिए न तो हमें किसी औपचारिक षिक्षा की जरूरत होती है, और न ही किताबों को रटने-घोटने की। यह सेन्स वैसे ही डवलप हो जाता है- प्रकृति का अवलोकन करते हुए, समाज में रहते हुए और जिन्दगी से जूझते हुए। इस तरह के ‘कॉमन सेन्स’ को हम अपनी अनपढ़ माँ-दादियों में पाते थे, जीवन के प्रति जिनकी समझ अद्भूत थी। गाँव के किसान को ‘एग्रीकल्चर’ के ‘ए’ का पता नहीं रहता, लेकिन खेती के सारे पुराण उसे मालूम रहते हैं। आप शायद विष्वास न करें, लेकिन मैं झूठ क्यों बोलूंगा। मैं शुरु के उठारह साल गाँव में रहा हूँ। वहाँ आकाष को देखते-देखते और बादलों को निहारते-निहारते उनके बारे में मेरी समझ इतनी सूक्ष्म और ठोस हो गई थी कि मैं उन्हें देखकर बता देता था कि ‘पानी कब बरसेगा, कितना बरसेगा और कितनी देर तक बरसता रहेगा। यह भी कि बरसेगा कि नहीं। फलस्वरूप गाँव के किसान मुझसे इसके बारे में पूछने आते थे। और घर में मेरी दादी, माँ, चाची भी पूछा करती थीं, ताकि मेरी तथाकथित भविष्यवाणी के आधार पर वे प्लान कर सकें कि उन्हें आज कपड़े धोने चाहिए कि नहीं, आटा पीसने के लिए गेहूँ धोना चाहिए या नहीं। क्यांेकि इन दोनों का संबंध ‘सूखने’ से था। वस्तुतः बादलों के अलग-अलग रंगों, छवियों और उनकी अठखेलियों के चरित्र से मैं इतना वाकिफ हो गया था कि मुझे यह बात आसान सी मालूम पड़ने लगी थी। यही ‘कॉमन सेन्स’ है।
इस प्रकार यदि हम चाहें, तो ‘सेन्स’ को हिन्दी में एक अच्छा सा, वजनदार और थोड़ा साहित्यिक नाम दे सकते हैं। क्या इसके लिए ‘बोध’ शब्द का इस्तेमाल करना सही होगा? आप लोग डिसाइड करें। गौतम बुद्ध का सारा ज्ञान, सारी फिलासफी इसी बोध पर आधारित थी। इसीलिए वे ‘बुद्ध’ कहलाये थे, न कि इसलिए कि उनके पास वुद्धि बहुत थी, या कि वे बहुत बुद्धिमान थे। याद रखें कि कोई जवाब नहीं होता है, इस कॉमन सेन्स का, और कोई मुकाबला नहीं कर सकता इस कॉमन सेन्स का।
अब आखिरी में एक बात और, जो मुझे लगती है कि आपको जाननी चाहिए। वह यह कि यह जो ‘कॉमन सेन्स’ होता है, यह होगा तो किसी एक का, जैसे कि आपका कॉमन सेन्स, उसका कॉमन सेन्स, मेरा कॉमन सेन्स। इसके बावजूद यह होती सामूहिक है। यानी कि आप कह सकते हैं कि अपनी-अपनी होने के साथ-साथ यह सबकी होती है। इसका स्वरूप संतरे की तरह होता है। संतरा होता तो एक है, लेकिन उसके अंदर 10-15 फाँकें होती हैं, जो बिल्कुल अलग-अलग होती हैं। यानी कि कॉमन सेन्स ‘सामूहिक समझ’ का नाम है। यही इसके ‘कॉमन’ शब्द का मतलब है।
चर्चा आगे भी जारी रहेगी।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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