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विश्लेषण करने का व्यावहारिक पक्ष

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मित्रो, पिछले अंक में मैंने आपसे जो वादा किया था, उसी की पूर्ति के रूप में यह लेख इस अंक में प्रस्तुत हैं। दरअसल, यह लेख मूलतः पिछले उन सभी लेखों का प्रेक्टिकल फार्म (व्यावहारिक रूप) है, जो विश्लेषण की क्षमता विकसित करने के बारे में लिखे गये थे। मुझे पूरा विष्वास है कि इस लेख को पढ़ने के बाद आपको दो लाभ तुरंत होने चाहिए। पहला यह कि इस विषय पर लिखे पिछले सभी लेख आपको अब और भी अधिक अच्छे से समझ में आने लगेंगे, क्योंकि इसमें आप उन सभी की व्यवहारिक तस्वीर देख सकेंगे। यदि आप सचमुच इस सत्य का अनुभव करना चाहते हैं, तो मेरी इस राय को थोड़ी प्राथमिकता जरूर दें कि उन सभी लेखों को एक बार फिर से पढ़ जायें।
दूसरा लाभ आपको यह होगा कि आप पहले से भी बेहतर तरीके से सिविल सेवा परीक्षा के प्रष्नों के उत्तर लिखने के बारे में एक दृष्टि प्राप्त कर सकेंगे। इसे कतई न भूलंे कि इस परीक्षा की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि आप कितने सटिक, प्रभावषाली और संक्षिप्त रूप में प्रष्नों के उत्तर लिख पाते हैं। यदि आपके पास इसकी कला नहीं है, तो फिर आप ज्ञान के कितने भी बड़े ‘रिजर्व बैंक’ रहें, उसका कम से कम यहाँ तो कोई मूल्य नहीं रह जाता।
तीर बिल्कुल निषाने पर लगे, यही सोचकर मैंने यहाँ के लिए एक ऐसा प्रष्न चुना है, जो सिविल सेवा की 2014 मुख्य परीक्षा के सामान्य अध्ययन के तीसरे प्रष्न पत्र में पूछा गया था। साथ ही यह प्रष्न ऐसा है, जो हांलाकि है तो अर्थषास्त्र का, लेकिन इसे हम अत्यंत ही सामान्य प्रकृति का एक ऐसा प्रष्न कह सकते हैं, जिसका उत्तर लिखने के लिए विषय की विषेषज्ञता की जरूरत नहीं है, और जो प्रत्येक पढ़े-लिखे ग्रेज्यूएट व्यक्ति को जानना ही चाहिए। यह प्रष्न है-
‘‘पूंजीवाद ने विष्व अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व समृद्धि तक दिषा-निर्देषन किया है। परन्तु फिर भी यह अक्सर अदूरदर्षिता को प्रोत्साहित करता है तथा धनवानों और निर्धनों के बीच विस्तृत असमानताओं को बढ़ावा देता है। इसके प्रकाष में, भारत में समावेषी समृद्धि को लाने के लिए क्या पूंजीवाद में विष्वास करना और उसको अपना लेना सही होगा। चर्चा कीजिए।’’ (200 शब्द, समय अधिकतम 9 मिनट)
अब हम इस प्रष्न को आधार बनाकर अपनी बात को आगे बढ़ायेंगे।
विष्लेषण करने का पहला सबसे जरूरी मूल मंत्र होता है- प्रष्न खड़े करना, और फिर जो उत्तर मिलते हैं, उनके सामने भी प्रष्नों की फौज खड़ी करते चले जाना। तो आइए, हम पहले यही करते हैं।
कुछ मूलभूत प्रष्न-
1. यह किस टॉपिक पर है?
2. उस टॉपिक के किस अंष पर है?
3. उस अंष का सबसे प्रमुख बिन्दु क्या है?
उपर्युक्त मूलभूत प्रष्न के उत्तर
उत्तर (1)- यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर है। यहाँ थोड़ी सतर्कता इस बात की रखनी होगी कि यद्यपि उदारीकरण के केन्द्र में पूंजीवादी विचार ही है, लेकिन दोनों एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं।
उत्तर (2)- यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था द्वारा पैदा की गई आर्थिक विषमता के ऊपर है। अर्थात पूंजीवादी दर्षन के सम्पूर्ण प्रभाव पर नहीं, बल्कि उसके केवल विषमतापूर्ण आर्थिक प्रभाव पर है।
उत्तर (3)- इस आर्थिक विषमता का संबंध केवल भारत से है, न कि सम्पूर्ण विष्व से।
वस्तुतः ये तीनों उत्तर इस विषय पर हमारे सोचने-सचझने की वे सीमा-रेखायें हैं, जिनके दायरे में हमें अपने लिए तथ्यों की तलाष करनी है। यह वह राजपथ है, जिस पर हमारे विचारों को अपनी यात्रा करनी है। इन सीमा रेखाओं के निर्धारण का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि हम बेकार मे इधर-उधर भटकने से बच जाते हैं। चूंकि अब हमारा दिमाग केवल उन्हीं बातों पर केन्द्रीत रहेगा, जिनकी हमें जरूरत है, इसलिए दिमाग के अधिक गहराई तक उतरने की संभावनायें बढ़ जाती हैं। हमारा दिमाग फालतू का बोझ ढ़ोकर सफर करने की तकलीफ से बच जाता है। और गहराई में यात्रा करने के क्रम में ही कुछ ऐसा ढूँढ निकालता है जो मौलिक होता है, या दूसरों से कुछ अलग होता है, या फिर दूसरों से कुछ अधिक मूल्यवान। और यहीं आप बाजी मार ले जाते हैं, अन्यों से आगे निकल जाते हैं।

बेसिक जानकारियां-
निःसंदेह रूप से विष्लेषण अपने आप में एक ऐसी रचनात्मक क्रिया है, जो कुछ नया रचती है। सवाल यह है कि यह नया आता कहाँ से है? क्या यह विषुद्ध रूप से नया होता है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि जो कुछ पहले से ही मौजूद रहता है, उनमें से ही कुछ नया रचा जाता है?
इसका उत्तर पाने के लिए अच्छा होगा कि आप किसी अच्छे राष्ट्रीय अखबार की किसी एक अच्छी सी सम्पादकीय टिप्पणी की गंभीरता से चीरफाड़ करें। जब आप इसे पहली बार पढ़ेंगे, तो निष्चित रूप से यह आपको बिल्कुल एक नया और मौलिक विचार लगेगा। लेकिन जब आप कुछ वक्त लगाकर उसके एक-एक तथ्य पर सोचना शुरु करेंगे, तब पायेंगे कि दरअसल-
 इसमें एक मुख्य विषय तथा उससे संबंधित अन्य सहायक विषयों से जुड़े हुए तथ्यों का संकलन है।
 इन अलग-अलग तथ्यों को इस खूबसूरती के साथ जोड़ा गया है कि वे अलग-अलग होकर भी एक से मालूम पड़ रहे हैं।
 इन अलग-अलग तथ्यों का उपयोग अपनी बातों को प्रामाणिक तौर पर कहने के लिए किया गया है, तथा
 इन सभी तथ्यों का इस्तेमाल करते हुए अपनी एक दृष्टि अथवा विचार की स्थापना की गई है।
सच पूछिए तो यह स्थापित विचार भी अपने पूर्णतः मौलिक होने का दावा नहीं कर सकता। इसी तरह के विचार ऐन-केन-प्रकारेण इससे पहले भी कई-कई बार व्यक्त किये जा चुके होते हैं। फर्क केवल इतना होता है कि अब वर्तमान घटनाओं के संदर्भ में कुछ तथ्य बदल गये हैं, और हाँ, भाषा भी।
यह बात मैं आपसे इसलिए कह रहा हूँ, ताकि आप बेकार में एकदम मौलिक समीक्षा करने के चक्कर में न पड़ जायें। फिलहाल यह आपके लिए लगभग-लगभग असंभव जैसा है। और इसकी जरूरत भी नहीं है। हाँ, सिविल सर्वेन्ट बनने के बाद जब आपको प्रषासन का ग्रास रूट स्तर का अनुभव हो जाएगा, तब इस मिश्रित एवं पौढ़ अनुभव के रसायन से एक नया विचार जन्म लेगा। इसे फिलहाल बाद के लिए छोड़ दें।
आपसे मेरा एक प्रष्न हैं। आपको क्या लगता है कि इतनी सुन्दर-सुन्दर समीक्षा प्रस्तुत करने वाले लोग बहुत जानकार होते हैं, सर्वज्ञानी होते हैं? ऐसा नहीं है। वस्तुतः ये वे गंभीर एवं गहरे लोग होते हैं, जिनकी अपने विषय की बेसिक्स पर बहुत अच्छी पकड़ होती है। और इसी के दम पर ऐसे लोग किसी भी विषय पर अपनी एनालिसिल पेष कर देते हैं।
अब हम पूंजीवाद वाले प्रष्न को लेते हैं, और जानते हैं कि इस प्रष्न की एनालिसिस के लिए किस बेसिक्स की जरूरत होगी।
(1) आपको पूंजीवाद के बारे में बहुत अच्छी जानकारी होनी चाहिए कि-
– पूंजीवाद क्या होता है।
– पूंजीवाद का विकास।
– पूजीवाद तथा अन्य आर्थिक दर्षन
– कार्ल मार्क्स के विचार
(2) पूंजीवाद के प्रभाव: सभी क्षेत्रों में
– सकारात्मक प्रभाव, एवं
– नकारात्मक प्रभाव
(3) भारतीय अर्थव्यवस्था का वर्तमान परिदृष्य
(4) भारतीय समाज की संरचना
(5) पूंजीवाद एवं भारतीय अर्थव्यवस्था
(6) उदारीकरण के बाद का भारत, आदि-आदि।
वैसे ऊपरी तौर पर देखने से ये सारे विन्दु संख्या में काफी अधिक तथा भारी-भरकम मालूम पड़ते हैं। लेकिन क्या सचमुच में ऐसा ही है? इस प्रष्न पर थोड़ा विचार कीजिए। जहाँ तक मेरे विचार का सवाल है, मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि वैसे तो किसी भी विद्यर्थी के पास लेकिन विषेषकर सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले स्टूडेन्ट को इन बातों की जानकारी होगी ही, क्योंकि ये न केवल मूलभूत ही जानकारियां है, बल्कि बहुत आवष्यक जानकारिया भी हैं।
वैसे यदि आप पूछे गये पूंजीवाद वाले प्रष्न को परीक्षा हॉल में पढ़ेंगे, तो अचानक यह सोचकर नाक पर पसीने की नन्ही-नन्हीं सी थोड़ी बूंदे उभर आयेंगी कि ‘बाप रे बाप इसे तो हमने पढ़ा ही नहीं है।’ लेकिन यदि आप थोड़ा सा धैर्य रख सके, और धैर्ययुक्त मस्तिष्क (परेषान मस्तिष्क नहीं) अर्थात स्थिर चित्त के साथ इस प्रष्न से जुड़े मूलभूत तथ्यों पर अपना ध्यान केन्द्रीत कर सके, तो आपको इसी में अपने उत्तर के लिये ठोस विन्दु झिलमिलाते हुए नजर आ जायेंगे। यह कोई जादू नहीं होगा। कोई चमत्कार भी नहीं होगा। यह सीधा-सीधा एक विज्ञान है- मन का विज्ञान, मस्तिष्क का विज्ञान, विष्लेषण का विज्ञान और अन्ततः ज्ञान का विज्ञान।
विद्यार्थियों के साथ लम्बे समय तक लगातार जीवंत सम्पर्क में रहते हुए और स्वयं ही अब तक विद्यार्थी बने हुए मेरे जीवन के अब तब के इस लम्बे दौर का यह बहुत ही ठोस निष्कर्ष रहा है कि यदि स्टूडेन्ट को किसी भी विषय पर, जिसे वह थोड़ा-बहुत भी जानता है, कुछ बिन्दु उपलब्ध करा दिए जाएं, तो वह उन विन्दुओं को आपस में जोड़-जाड़कर एक तस्वीर तो बना ही लेता है। अब यह बात अलग है कि वह बनी हुई तस्वीर कितनी स्पष्ट है तथा कितनी सुंदर, आकर्षक और प्रभावषाली है। यही इस बात का निर्धारण करता है कि परीक्षक विद्यार्थी को कितने नम्बर दे। निष्चित रूप से तस्वीर के लिए बनाने के लिए की गई प्रेक्टिस इस काम में आपको दक्ष बनाती है कि आप तस्वीर कितनी जल्दी-जल्दी और कितनी अच्छी बना सकते हैं। इसे ही हम सभी बोलचाल की भाषा में ‘हाथ में सफाई’ का होना कहते हैं, और यह सिद्धांत सार्वभौमिक है, तथा सर्वकालिक भी।

बेसिक्स से प्राप्त विन्दु- बेसिक्स की ताकत और इसका चरित्र मुख्यतः पेड़ की जड़ें और जमीन; दोनों की मिली-जुली प्रक्रिया की तरह होता है। यदि आपके पास जमीन है, यानी कि जिज्ञासा है, और जड़े हैं, यानी कि विषय की मूलभूत समझ है, तो आपको मान लेना चाहिए कि ‘मेरे पास वह सब कुछ है, जो होने चाहिएं। अब आपको ‘करना’ है। वह करना है, जो किया जाना चाहिए। और प्रकृति के इस विज्ञान पर पूरा भरोसा रखें कि वह आपसे वैसा करवा लेगी। वह आपसे वैसे उत्तर लिखवा लेगी, जो लिखे जाने चाहिए। यह ठीक उसी तरह काम करता है, जैसा कि बोलचाल के दौरान होता है। जब हम किसी से बातचीत करते हैं या आधे घण्टे तक हमें किसी विषय पर बोलना होता है, तो हम फिल्मी ऐक्टर्स की तरह ऐसा नहीं करते कि बोलने से पहले किसी स्क्रिप्ट को रटंें। हमें केवल कुछ मूलभूत बातें मालूम रहती हैं कि यह-यह कहना है यदि आप इन सभी बातों को विन्दुओं के आधार पर लिखेंगे, तो इसके लिए तीन-चार लाइनें पर्याप्त होंगी। लेकिन जब आप इन्हें आधार बनाकर बोलना शुरु करेंगे, तो बोलते ही चले जायेंगे, और शायद समय कम पड़ जाये।
तो अब हम इस प्रष्न की समीक्षा के लिए अपने पास उपलब्ध ज्ञान के आधार पर कुछ विन्दु निकालते हैं-
(1) अमेरीका, जर्मनी, जापान आदि देषों की आर्थिक प्रगति में पूंजीवादी दर्षन का योगदान।
(2) पूंजीवादी देषों की वर्तमान आर्थिक समस्यायें।
(3) भारत द्वारा इस विचार को अपनाया जाना, उदारीकरण के रूप में।
(4) पिछले लगभग दो दषक में भारत की आर्थिक स्थिति
– तीव्र औद्योगिक विकास
– रोजगार की कमी
– धनी अधिक धनी, गरीब अधिक गरीब
– कृषि क्षेत्र की धीमी वृद्धि दर
– कुछ महत्वपूर्ण आँकड़े।
– कुछ महत्वपूर्ण रिपोर्टस
जहिर है कि आँकडें एवं रिपोटर््स नये होने चाहिए, और ये आपको समाचार एवं अखबारों आदि से ही मिल सकते हैं।
उत्तर का लेखन
इसके लिए आपको चाहिए कि आप एक बार फिर से प्रष्न को पढ़ें। प्रष्न में दिए गये उन सूक्ष्म बिन्दुओं को पकडं़े, जिनकी सामान्य तौर पर हमसे उपेक्षा हो जाती है, क्योंकि हमारा दिमाग मोटे बिन्दुओं पर फोकस रहता है। ऐसा करने के बाद आपके दिमाग में ये दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हो जाएंगी-
 पहला यह कि प्रष्न की पहली दो पंक्तियां वक्तव्य मात्र हैं। उनका आपके उत्तर लिखने से कोई विषेष संबंध नहीं है। वे केवल प्रष्न की पृष्ठभूमि का काम कर रही हैं।
विद्यार्थी अक्सर यहाँ धोखा खा जाते हैं। वे इसे ही मूल प्रष्न समझकर उत्तर लिखने लगते हैं।
 दूसरा यह कि यह प्रष्न मूलतः भारतीय संदर्भ में पूंजीवाद के औचित्य से जुड़ा हुआ है, और आपको इसी का जवाब देना है।
लेकिन यहाँ भी जो एक छवि है, सेड् है, आपको इस पर ध्यान देना चाहिए। यह सूक्ष्म रंग (सेड्) ‘समावेषी संवृद्धि’ शब्द में निहित है। यदि देष के आर्थिक विकास की बात की जाये, जिसका आधार वार्षिक वृद्धि दर तथा प्रति व्यक्ति आय जैसे कुछ शुष्क आर्थिक आँकड़े होते हैं, तो निष्चित रूप से पूंजीवादी दर्षन उसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त होगा। किन्तु यहाँ ‘समावेषी संवृद्धि’ यानी कि ‘सभी का विकास’ की बात कही गई है। आप जानते ही हैं कि आज भी देष की लगभग एक चौथाई आबादी गरीबी रेखा से नीचे है, और किसानों की हालत खराब है। भारत बेरोजगारी से जूझ रहा है। हमारे पास युवाओं की एक बड़ी फौज है। इन सबका कुल प्रतिषत आबादी का लगभग दो तिहाई होगा। इस प्रकार हमारा जो भी उत्तर होगा, उसमें आबादी के इस भाग की वृद्धि भी शामिल होनी चाहिए।
अब यहाँ फिर से कुछ सवाल खड़े कीजिए। उदाहरण के लिए-
1. तो क्या पूंजीवाद, वह पूंजीवाद, जो टेक्नोलॉजी को महत्व देती है, से ऐसा संभव है?
2. पूंजीवाद मूलतः औद्योगिक युग की देन है। तो क्या औद्योगिक विकास देष को समावेषी संवृद्धि की ओर ले जा सकता है?
3. यदि उद्योग रोजगार उपलब्ध करा सकते हैं, तो क्या वे उद्योग (मध्यम, लघु, कुटीर आदि) पूंजीवादी ढॉचे में बचे रह सकते हैं?
4. क्या स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा, जो पूंजीवाद का ‘आदर्ष-वाक्य’ होता है, भारत जैसे विकासषील देष के लिए उपयोगी हो सकता है?
5. धन के वितरण की असमानता का प्रभाव अंततः हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या होगा?
आपको इन प्रष्नों के एक-एक, दो-दो बिन्दु, जो सबसे महत्वपूर्ण हांे, मालूम होंगे ही। अब आपको करना केवल यह होगा कि-
 भूमिका के रूप में प्रष्न के वक्तव्य की थोड़ी सी, बिल्कुल थोड़ी सी चर्चा करके अपने उत्तर की शुरुआत करें। सतर्क रहें कि कहीं इसी की चर्चा में भटक न जायें। यदि आप लगातार करेन्ट अफेयर्स से जुड़े हुए हैं, तो आपके पास इस वक्तव्य को सिद्ध करने के लिए एकाध महत्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय संस्थान के रिपोर्ट की जनकारी जरूर होगी। इसे भी कोट कर दें, किन्तु उल्लेख मात्र।
 फिर पैरा बदलकर आप अपने उत्तर को आगे बढ़ा सकते हैं। चूंकि प्रष्न में ‘चर्चा कीजिए’ का निर्देष दिया हुआ है, इसलिए बेहतर होगा कि आप अपनी बात बिन्दुवार लिखें। इससे परीक्षक को आपका मूल्यांकन करने में आसानी होगी। साथ ही प्रत्येक बिन्दु अलग-अलग अच्छी तरह उभरकर सामने भी आते हैं।
इस प्रकार आपका उत्तर तैयार हो जाएगा। जहाँ तक हैं समझता हूँ कि अब आपको नहीं लग रहा होगा कि इस प्रष्न के उत्तर के लिए-
– मुझे बहुत अच्छी तैयारी करनी चाहिए थी।
– यह प्रष्न बहुत कठिन है, और जटिल भी।
यदि अब आपको ऐसा लग रहा है, तो मैं आपको इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहूंगा कि आपने मुझे आत्मसंतोष अनुभव करने का एक सुन्दर अवसर प्रदान किया है।
अंत में मैं एक बात और कहना चाहूंगा। वह यह कि ‘यही एकमात्र ढांचा नहीं है।’ आप कोई अन्य स्वरूप भी तैयार कर सकते हैं। तथ्य भी अन्य ला सकते हैं। लेकिन केन्द्र से भटकाव नहीं होना चाहिए।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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