27-12-2023 (Important News Clippings)
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Date:27-12-23
Wannabe NRIs
There is too little understanding of what’s driving the surge in Indians opting for illegal immigration
TOI Editorials
A planeload of mostly Indians returned to Mumbai over allegations of, first, human trafficking and then, illegal immigration: Dubai to Nicaragua (legally) and finally and most likely to the US (illegally). Of the 303 passengers on the chartered flight grounded on a refuelling stop at a French airport last Thursday, 276 landed in Mumbai Tuesday. The passengers included many Gujaratis, Punjabis, and some “Tamil speakers” per reports.
Not human trafficking | French authorities will reportedly continue to investigate the case more as “illegal immigration” and not “human trafficking” since the judges concluded passengers were on board of their “own free will”.
Numbers growing | There’s an alarming surge in Indians trying to illegally enter the US. A US Customs report showed a five-fold increase last few years of both with-papers and undocumented Indians – from a little less than 20,000 in 2019-2020 to almost 97,000 in October 2022-September 2023.
Who are they? | Several communities, and districts, in Punjab and Gujarat are long-established immigrant hubs, both legal and illegal. It’s worth noting both are among India’s better-off states; Gujarat’s per capita income was Rs 2.5 lakh (2022), seventh highest among Indian states. Interestingly, of Indians legally going overseas for jobs, Gujarati emigrants make up a mere 1% and Punjabis 3%. Here, the bulk, 32%, are from UP.
Paying, and dying | The Paris episode shines a harsh light on how little investigation has gone into understanding the many factors pushing Gujaratis and Punjabis to leave India by paying good money to human smugglers. In 2023 alone, two families were killed making the journey. Of 9 Gujaratis missing this year after reaching the Caribbean, only one’s family contacted Gujarat police. The deal to send the individual to the US was Rs 70 lakh.
Take it seriously | Persecution is reportedly a reason given by asylum-seekers in Paris, while US customs said those arrested cited “fear” as a reason. Extreme visa backlogs is another reason. GOI must seriously commission an exercise to get behind what is pushing Indians in certain districts to risk both savings and lives.
Date:27-12-23
Bleak For Peaks
Traffic gridlocked hill stations should tell govts they need to change their approach to tourism
TOI Editorials
The New Year holiday season has begun. And photos from popular Himalayan tourist destinations reveal traffic gridlocks. If not for the scenic surroundings, it could be a typical everyday urban Indian experience. It needn’t be this way.
Biodiversity hotspots | India’s two great mountain ranges, Himalayan Region and the Western Ghats, are among two of the country’s four biodiversity hotspots. There are 15 national parks and 59 sanctuaries in the Himalayan Region.
Tourism’s key role | These mountain ranges are unique on the tourist map because they attract both the regular tourists as well as millions of pilgrims as they host some popular religious sites. For example, in J&K, the pilgrim traffic between 2011 and 2020 outnumbered the regular tourist flow to Kashmir Valley.
Unsustainable numbers | Uttarakhand and Sikkim, two popular tourist destinations, have also witnessed serious natural disasters recently. It’s an indicator of their ecological fragility. The growing tourist footfalls, with the concurrent demand for more built-up areas, increases ecological risks here. Uttarakhand’s population in 2011 was a little over 10 million. By the end of the decade the annual tourist inflow was around 7 million. In Sikkim, the residents-to-tourists ratio was far more skewed. The state’s population in 2011 was 6.1 lakh, while the annual tourist inflow by 2019 was 1.5 million.
Economic gains, environmental costs | Tourism represents a significant source of economic activity in the mountain ranges and, therefore, cannot be done away with. The problem lies in the nature of tourism that’s being encouraged.
Ecotourism is an alternative | Ecotourism, which caters to travellers more sensitive to nature, is booming globally. India’s mountain ranges, with their biodiversity, are ideal spots for it. Changing the focus from a contemporary mass market approach to ecotourism will also alter the nature of infrastructural demand.
The mass market approach with unsustainable environmental costs is the common thread running through all kinds of tourism in the mountain ranges. If states want to sustain this growing source of income, they need to adjust their regulatory approach to incentivise a different kind of tourist.
समुद्री सुरक्षा
संपादकीय
स्वदेशी युद्धपोत आईएनएस इंफाल को नौसेना में सम्मिलित करने के अवसर पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने यह जो कहा कि अरब सागर में भारत आ रहे जहाज एमबी केम प्लूटो पर हमला करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा और उन्हें समुद्र तल से भी खोजकर उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी, वह आवश्यक था। ऐसा कोई दो टूक बयान इसलिए और भी जरूरी हो गया था, क्योंकि दक्षिणी लाल सागर में भी एमवी साईं बाबा नाम के जहाज को निशाना बनाया जा चुका है। इस समुद्री जहाज के चालक दल के सदस्य भारतीय थे। इन हमलों को देखते हुए ही भारतीय नौसेना ने अरब सागर के विभिन्न क्षेत्रों में तीन युद्धपोत तैनात कर दिए हैं। इसके अलाव समुद्र की टोह लेने वाले विमानों की भी तैनाती की जा रही है। विभिन्न समुद्री मार्गों पर अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करने के लिए भारत को हर संभव उपाय करने होंगे। ये उपाय न केवल हिंद महासागर में करने होंगे, बल्कि अन्य सागरों में भी। यदि समुद्री जहाजों पर इसी तरह हमले होते रहे तो भारत आने एवं यहां से जाने वाले जहाजों को अपना मार्ग बदलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। स्पष्ट है कि इसके चलते खर्च बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा। यदि भारत में कच्चा तेल लाने वाले समुद्री जहाजों को सुरक्षा कारणों से अधिक दूरी तय करनी पड़ती है तो पेट्रोलियम उत्पाद महंगे हो सकते हैं। भारत को मित्र देशों की सहायता से यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके हितों की पूर्ति करने वाले सभी समुद्री मार्ग सुरक्षित और सुगम बने रहें।
अमेरिका की मानें तो एमबी कैम प्लूटो जहाज पर ईरान से ड्रोन हमला किया गया। ईरान ने अमेरिका के इस दावे को खारिज किया हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि यमन के जो हाउती विद्रोही समुद्री जहाजों को निशाना बना रहे हैं, उन्हें उसका समर्थन प्राप्त है। हाती विद्रोही इजरायल पर बर्बर आतंकी हमला करने वाले हमास के समर्थन में समुद्री जहाजों पर हमले कर रहे हैं। वे इजरायल के साथ हमास की निंदा आलोचना करने वाले देशों के समुद्री जहाजों को भी निशाना बनाने की धमकियां दे रहे हैं। ईरान जिस तरह ती विद्रोहियों को हथियार और पैसा उपलब्ध कराता है, उसी तरह हमास को भी एक समय था, जब सोमालिया के हथियारबंद गिरोह समुद्री जहाजों के लिए खतरा बन गए थे तब भी भारत को समुद्र में सतर्कता बढ़ानी पड़ी थी। अब जब हाउती विद्रोही ईरान जैसे देशों के समर्थन से समुद्र से होने वाले व्यापार के लिए खतरा बन रहे हैं, तब भारत को अपनी समुद्री ताकत बढ़ाने पर और अधिक ध्यान देना होगा। ऐसा इसलिए भी करना होगा, क्योंकि चीन हिंद महासागर में अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है। एक ऐसे समय जब भारत की आर्थिक शक्ति बढ़ रही है, तब उसे अपने आसपास के समुद्री मार्गों की सुरक्षा के लिए और अधिक सतर्क होना होगा।
Date:27-12-23
अमीर देशों में कामगारों की मांग
संपादकीय
विकसित देशों में श्रमिकों की भारी कमी के बीच खेती, निर्माण और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में काम करने के वास्ते भारतीय कामगारों को विदेश भेजने के लिए विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते करने का भारत सरकार का इरादा है। बिज़नेस स्टैंडर्ड में मंगलवार को छपी खबर में भी बताया गया कि यूनान ने भारत से संपर्क किया है कि वह कृषि क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 10,000 कामगारों को उसके यहां भेजे। इटली भी अपने विभिन्न शहरों के नगर निकायों में काम करने के लिए लोगों की तलाश में है। भारत पहले ही 40,000 से अधिक श्रमिकों को इजरायल भेजने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर कर चुका है और इस समझौते को विस्तार दिया जा सकता है। हमास के साथ युद्ध शुरू होने से पहले इजरायल में लगभग 18,000 भारतीय श्रमिक काम कर रहे थे जो मुख्यतौर पर मरीजों की देखभाल के काम से जुड़े थे। हालांकि, वहां युद्ध जारी है, ऐसे में इजरायल पहले से काम करने वाले लगभग 90,000 फिलिस्तीनियों की जगह दूसरी जगहों के कामगारों की भर्ती करना चाहता है।
सरकार की इस पहल का स्वागत कई कारणों से अवश्य किया जाना चाहिए। भारत में कुशल और मेहनती कामगारों की तादाद बहुत ज्यादा है। कई वर्षों से संगठित और अनौपचारिक तरीके से ये कामगार कई देशों में जाते रहे हैं और इसका अंदाजा विदेश से भारत भेजी जाने वाली राशि से मिलता है। भारत भी अपने व्यापारिक साझेदार देशों के साथ किए जाने वाले विभिन्न समझौतों में भी कामगारों की आवाजाही की वकालत करता रहा है। विकसित देशों की समस्या यह है कि इनकी आबादी में बुजुर्गों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में उन्हें काम कराने के लिए बाहर के श्रमिकों की जरूरत बढ़ने लगी है। भारत के लिए यह एक सुनहरा मौका है क्योंकि भारत कामगारों की कमी की भरपाई करने में सक्षम हो सकता है। हालांकि कामगारों को विदेश भेजने पर एक चिंता जरूर हो सकती है कि इससे देश में कहीं श्रमिकों की कमी न हो जाए लेकिन फिलहाल विकसित देशों की मांग अस्थायी ही लग रही है।
कामगारों के विदेश जाने का एक फायदा यह है कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर के तजुर्बे के साथ देश वापस आएंगे। विकसित देशों में मजदूरी की दर ज्यादा है, ऐसे में वे अपने बचत के पैसों से भारत में घर या जमीन जैसी संपत्ति में निवेश कर सकते हैं। यह भी संभव है कि कुछ लोग वहीं बसना चाहेंगे। भारत में कुशल कामगारों की बड़ी तादाद को देखते हुए ऐसे आसार नहीं दिखते हैं कि देश में श्रमिकों की कमी होगी। इस संदर्भ में भी भारत को हर हाल में अलग-अलग क्षेत्रों में लोगों को कौशल परीक्षण देने और इसका बेहतर माहौल बनाने की जरूरत है। विदेश में श्रमिकों को भेजने की पहल अच्छी है लेकिन नीतिगत नजरिये से भी यह समझना जरूरी है कि इससे भारत की बेरोजगारी या कम रोजगार की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। यह एक तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था की अच्छे वेतन वाली पर्याप्त नौकरियां सृजित न कर पाने की कमजोरी का हल भी नहीं है। उदाहरण के तौर पर ताजा वार्षिक आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण के अनुसार, कुल श्रमबल के 57 फीसदी लोग से अधिक स्व-रोजगार से जुड़े हैं। इसे उद्यमशीलता का सूचक नहीं माना जा सकता है क्योंकि ये ऐसे लोग हैं जो अपनी आजीविका के लिए किसी तरह की आर्थिक गतिविधि से जुड़ जाते हैं क्योंकि कोई काम न करने का विकल्प उनके पास नहीं है।
भारत के कामगारों पर नजर डालें तो चौंकाने वाली तस्वीर सामने आती है। कुल कामगारों में से 18 फीसदी से ज्यादा अपने छोटे-मोटे घरेलू कारोबार में ही सहयोगी के तौर पर लगे हुए हैं जबकि 21 फीसदी से ज्यादा खुद को अस्थायी मजदूर मानते हैं। इस तरह से इन लोगों को लगातार बेरोजगारी की समस्या से जूझना पड़ता है। यह बात सभी स्वीकारते हैं कि भारत को अपनी बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के बेहतर मौके बनाने की जरूरत है। अमीर देशों में श्रमिकों को भेजने से भारत की बेरोजगारी और कम रोजगार की समस्या का हल नहीं होगा। फिर भी, अभी जो मौके मिल रहे हैं उनका फायदा उठाना चाहिए क्योंकि दीर्घावधि में इससे देश को फायदा होगा।
सरकार कामगारों को विदेश भेजने की पहल में काफी सक्रिय दिख रही है। कम से कम दो जरूरी बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। पहला, जिन कामगारों की बात की जा रही है वे ज्यादा पढ़े-लिखे या कुशल नहीं हैं, ऐसे में यह जरूरी है कि इन लोगों का चयन पारदर्शी तरीके से हो। अगर जरूरत पड़े तो इस प्रक्रिया में किसी तीसरे भरोसेमंद पक्ष को भी शामिल किया जाए। दूसरी बात, अलग-अलग देशों में जैसे-जैसे भारतीय मजदूरों की संख्या बढ़ेगी, भारत को अपनी राजनयिक मौजूदगी बढ़ाने पर विचार करना चाहिए ताकि वहां काम करने वाले भारतीयों की परेशानियों का जल्दी समाधान हो सके।
Date:27-12-23
सुरक्षा पर सवाल
संपादकीय
हवाई अड्डों पर चौकस सुरक्षा व्यवस्था के दावे किए जाते हैं। खासकर दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर जहां हर वक्त अतिविशिष्ट लोगों की आवाजाही रहती है, सुरक्षा के चाक-चौबंद इंतजाम हैं। फिर भी वहां से कोई आरोपी सुरक्षा बलों को चकमा देकर फरार हो जाए तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठेंगे ही। बलात्कार का एक आरोपी दिल्ली हवाई अड्डे से केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल यानी सीआइएसएफ और आव्रजन विभाग के कर्मचारियों को चकमा देकर चार सुरक्षा घेरों को पार करते हुए निकल भागा। विचित्र है कि इस घटना पर आव्रजन विभाग और सीआइएसएफ एक-दूसरे पर दोष मढ़ने में जुट गए। आव्रजन विभाग का कहना है कि उसने आरोपी को सीआइएसएफ के हवाले कर दिया था, जबकि सीआइएसएफ का तर्क है कि उसे औपचारिक रूप से आरोपी की गिरफ्तारी के बारे में नहीं बताया गया था। दरअसल, आरोपी के खिलाफ पंजाब पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए ‘लुकआउट सर्कुलर’ जारी किया था। उसी के तहत आव्रजन विभाग ने आरोपी को पकड़ा और सीआइएसएफ को सौंप दिया। सीआइएसएफ कर्मी की लापरवाही से आरोपी निकल भागा। मगर यह समझ से बाहर है कि अगर किसी एक सिपाही की चूक के चलते आरोपी भागा, तो उस संवेदनशील क्षेत्र में बने बाकी के सुरक्षा घेरे में तैनात बलों का ध्यान उस पर क्यों नहीं गया। बताते हैं कि आरोपी खिड़की से कूद कर भागा था। फिर भी कैसे किसी सुरक्षाकर्मी की नजर उस पर नहीं गई !
आंतरिक सुरक्षा का मामला केवल इंदिरा गांधी हवाई अड्डे से जुड़ा नहीं है। कुछ दिनों पहले ही संसद में दो युवाओं ने कूद कर दहशत फैलाने की कोशिश की। उसे लेकर आंतरिक सुरक्षा पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में आए दिन सुरक्षाबलों के काफिले और चौकियों पर हमले हो जाते हैं। इसके बावजूद समझना मुश्किल है कि संवेदनशील प्रतिष्ठानों की सुरक्षा व्यवस्था को पूरी तरह भरोसेमंद बनाने के व्यावहारिक उपाय क्यों नहीं जुटाए जाते अधिकार क्षेत्र और कानूनी औपचारिकताओं का पहलू अलग हो सकता है, मगर यह जानते-समझते हुए कि एक ऐसे आरोपी के पकड़ में आने के बाद, जिसे पुलिस तीन साल से तलाश रही थी, लापरवाही बरती जाए, तो सामान्य सुरक्षा के मामलों में उससे भला किस तत्परता उम्मीद की जा सकती है। दिल्ली देश की राजधानी है और यहां सुरक्षा के मामले में किसी भी तरह की चूक या लापरवाही किसी बड़ी वारदात का मौका दे सकती है। मगर वहां भी आए दिन हत्याएं और बलात्कार की घटनाएं दर्ज होती हैं। यह सुरक्षा इंतजाम में खामी नहीं तो और क्या है।
जब दिल्ली की संवेदनशील जगहों, जम्मू-कश्मीर के आतंकवाद प्रभावित इलाकों, यहां तक कि संसद की सुरक्षा में लापरवाही देखी जा रही है, तो सामान्य नागरिक ठिकानों पर सुरक्षा इंतजामों को लेकर कितना भरोसा किया जा सकता है। लगभग सभी राज्य लचर कानून-व्यवस्था के चलते अपराधों पर नकेल कसने में विफल साबित हैं। स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचार के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे। ऐसे में अगर बलात्कार का एक आरोपी सबसे सख्त पहरे से निकल भागने में कामयाब होता है और जवाबदेह विभाग परस्पर कानूनी दायरे की नुक्ताचीनी में उलझे देखे जाते हैं, तो इससे दूसरे अपराधियों का मनोबल बढ़ता ही है। आमचुनाव नजदीक हैं और उस दौरान सुरक्षा घेरे में चलने वाले लोगों की खुले में आवाजाही बढ़ेगी। अगर आंतरिक सुरक्षा को लेकर इसी तरह की लापरवाहियां बनी रहीं, तो मुश्किलें शायद ही कम हों।
Date:27-12-23
संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता पर प्रश्न
योगेश कुमार गोयल
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विजेता देश नहीं चाहते थे है कि विश्व में फिर कभी महायुद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो इसी सोच के चलते 1945 में ‘संयुक्त राष्ट्र’ अस्तित्व में आया, जिसे अंतरराष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। विश्व शांति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र को इसलिए ज्यादा उपयोगी माना गया था, क्योंकि इसे शक्तियां प्रदान की गई कि वह अपने सदस्य देशों की सेनाओं को विश्व शांति के लिए कहीं भी तैनात कर सकता है। पचास सदस्यों के साथ शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की संख्या अब 193 हो चुकी है और यह विश्व का सबसे बड़ा अंतरसरकारी संगठन है। संयुक्त राष्ट्र की अपनी कोई स्वतंत्र सेना नहीं होती, बल्कि सुरक्षा परिषद को सदस्य देशों की सेनाओं को विश्व शांति के लिए दूसरे देशों में तैनात करने का अधिकार प्राप्त है।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि इस संगठन का मुख्य काम दुनिया में शांति स्थापित करना है और अगर कहीं दो देशों के बीच विवाद है, तो अंतरराष्ट्रीय कानून की सहायता से उसे शांतिपूर्वक हल करने को संयुक्त राष्ट्र प्रतिबद्ध है। हालांकि युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, सभी देशों के बीच मित्रवत संबंध कायम करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक एवं आर्थिक विकास, निर्धन तथा भूखे लोगों की सहायता करना, उनका जीवन स्तर सुधारना तथा बीमारियों से लड़ना आदि ही 1945 में स्थापित किए गए संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य उद्देश्य थे, लेकिन बीते कुछ वर्षों से पूरी दुनिया देख रही है कि संयुक्त राष्ट्र किस प्रकार अपने निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में लगातार विफल हो रहा है।
दरअसल, संयुक्त राष्ट्र का ढांचा अब पुराना हो चुका है और इसको स्थापना के समय जो परिस्थितियां थीं, ये भी अब पूरी तरह बदल चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र की कार्य-संस्कृति पर प्रश्नचिह लगाते हुए दुनिया के कई देश अब कहने लगे है कि अगर इस वैश्विक संस्था में समयानुकूल सुधार लाने के दृढ़ प्रयास नहीं किए जाते, तो कालांतर में यह संस्था महत्त्वहीन हो जाएगी। पौने दो साल से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध हो या ताजा इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध, संयुक्त राष्ट्र विभिन्न देशों के बीच शांति स्थापित करने में बार-बार ‘दंतविहीन शेर’ साबित हो रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना को अठहत्तर वर्ष बीत चुके हैं। विडंबना है कि इस दौरान दुनिया ने कई भीषण जंगे देखी हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद इन जंगो और इनमें हुए लाखों लोगों के संहार को रोक पाने में सदा विफल रही। इस वैश्विक संगठन के गठन के दस वर्ष बाद ही अमेरिका और विएतनाम के बीच बुद्ध की शुरुआत हुई थी, जो करीब एक दशक तक चला और उसमें विएतनाम के करीब बीस लाख लोग और पचपन हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे गए थे, जबकि तीस लाख से ज्यादा लोग घायल हुए थे मगर संयुक्त राष्ट्र उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सका।
पश्चिमी ईरान की सीमा पर घुसपैठ करते हुए 22 सितंबर, 1980 को इराकी सेना ने उस पर हमला कर दिया था, जिसके बाद इराक और ईरान के बीच करीब आठ वर्षों तक भीषण जंग चली इराक ने उस युद्ध में रासायनिक बम का भी प्रयोग किया और जंग में दोनों देशों के करीब दस लाख लोग मारे गए थे, लेकिन तब भी जंग रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र कुछ नहीं कर सका था। अप्रैल 1994 में अफ्रीकी देश रवांडा में बहुसंख्यक समुदाय हूतू ने अल्पसंख्यक समुदाय तुल्ली के लोगों पर हमला कर दिया था, जिसके बाद वहां शुरू हुआ जातीय संघर्ष सौ दिनों तक चला। अब तक के सबसे भयानक माने जाने वाले रवांडा के उस जनसंहार में देश के करीब दस लाख लोगों की मौत हुई थी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र उसे रोकने में भी नाकाम रहा। 1992 में यूगोस्लाविया के विभाजन के बाद सर्व समुदाय और मुसलिम समुदाय के बीच नए राष्ट्र को लेकर विवाद शुरू हुआ, उस विवाद में मध्यस्थता करने में भी संयुक्त राष्ट्र विफल रहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि 1995 में सर्व सेना ने करीब आठ हजार मुसलिमों को मौत के घाट उतार दिया था। चोरिनया के उस गृहयुद्ध को रोकने और स्थिति नियंत्रित करने के लिए आखिरकार नाटो को अपनी सेना उतारनी पड़ी थी।
रूस – यूक्रेन और इजराइल फिलिस्तीन युद्ध में भी अभी तक हजारों बेगुनाह लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन बुद्ध रोकने और शांति बहाल करने में संयुक्त राष्ट्र की कहीं कोई भूमिका नजर नहीं आ रही। हाल ही में मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने तो इजराइल और फिलिस्तीन संकट के लिए संयुक्त राष्ट्र को ही जिम्मेदार ठहराया है। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर सवाल उठाते हुए यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेस्की तो संयुक्त राष्ट्र को अप्रभावी बताते हुए यह भी कह चुके हैं कि संयुक्त राष्ट्र में झूठे लोग बैठते हैं, जो कुछ देशों के गलत काम को सही ठहराने का काम करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन स्थायी सदस्य हैं, जिन्हें ‘वीटो शक्ति हासिल है और इसके जरिए ये किसी भी मामले को रोक सकते हैं। मगर संयुक्त राष्ट्र अधिकांश अवसरों पर सुरक्षा और शांति स्थापित करने में विफल रहता है, इसीलिए ‘बीटो’ को खत्म करने की मांग उठती रही है। यूएन के महासचिव रहे बुतरस घाली के मुताबिक ‘बीटी’ शक्ति प्राप्त देश संयुक्त राष्ट्र को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं उनका स्पष्ट कहना है कि अगर वीटो’ प्रणाली खत्म नहीं हुई तो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद स्वतंत्र होकर काम नहीं कर सकेगी। भारतीय प्रधानमंत्री तो कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर खुलकर सवाल उठा चुके हैं। 2021 में तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के मंच से कहा था कि वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए अगर चीटो प्रणाली में बदलाव नहीं किया गया, तो इसकी प्रासंगिकता नहीं रह जाएगी।
कितने आश्चर्य की बात है कि जो संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों से हर साल करोड़ों का चंदा लेता है, जिसका वार्षिक बजट करीब 2321 करोड़ रुपए का है, वह विश्वभर में कहीं भी संघ या युद्धों को रोकने में कुछ नहीं कर पाता। संयुक्त राष्ट्र के ही आंकड़ों के मुताबिक 2023 में उसे दुनिया भर के कुल 137 देशों ने चंदा दिया है और सबसे ज्यादा चंदा उसे अमेरिका से मिला है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र को करीब चौबीस करोड़ रुपए चंदा दिया है, जो यूएन के कुल बजट का एक फीसद से ज्यादा ‘के’ है। ब्रिटेन के विख्यात टिप्पणीकार नील गार्डनर के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र एक ऐसा दिशाहीन संगठन बन चुका है, जो इक्कीसवीं सदी के हिसाब से काम नहीं कर रहा है और इसके हर कदम पर नाकाम होने के पीछे कई कारण हैं, जिसमें सबसे प्रमुख कारण है उसका कमजोर नेतृत्व जो सही समय पर सही फैसला नहीं कर पाता। खराब प्रबंधन के कारण ही संयुक्त राष्ट्र पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं और अगर आने वाले समय में भी इसका काम करने का तरीका नहीं बदलेगा, तो यह वैश्विक संस्था पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएगी।
बहरहाल, आने वाले समय में अगर संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए भारत सहित मानदंडों पर खरा उतरने वाले अन्य देशों को भी इसमें पर्याप्त स्थान मिलता है, तभी इस वैश्विक संस्था की प्रासंगिकता बरकरार रह पाएगी अन्यथा यह धीरे-धीरे अपना महत्त्व पूरी तरह खो देगी।
गलत विदेश गमन
संपादकीय
येन-केन-प्रकारेण विदेश चले जाने का अपराध जितना दुखद है, उतना ही शर्मनाक भी। कुछ-कुछ लोग तो हमेशा से ही विदेश जाते रहे हैं, पर लोग जहाज भर-भरकर जा रहे हैं, यह देखकर अचंभा हुआ है। शायद फ्रांस ने पहली बार एकमुश्त 303 भारतीयों को अपने एक हवाई अड्डे पर रोक लिया। यदि कागजात पूरे सही होते, तो जाहिर है, रोकने की हिमाकत फ्रांस की एजेंसियां नहीं करतीं। एक निजी एयरलाइंस का विमान निकारागुआ जा रहा था और महज ईंधन के लिए वैट्री हवाई अड्डे पर रुका था। फ्रांस की एजेंसियों को शक हो गया कि मामला मानव तस्करी का है। कड़ी पूछताछ हुई, एयरपोर्ट पर ही अदालत लगी और भारतीयों को लौटाने के पक्ष में फैसला किया गया। ध्यान रहे, फ्रांस में मानव तस्करों को कड़ी सजा मिलती है। इस उदार देश ने 303 में से 25 को छोड़ बाकी सभी भारतीयों जाने दिया है। इन 25 लोगों ने फ्रांस में शरण मांगी है और वहीं रुक गए हैं। इस मामले से कई सवाल जुड़े हैं, जो यथोचित विमर्श की मांग करते हैं। \nगौर करने की बात है कि लोग काफी पैसे खर्च करके विदेश जा रहे थे, इसे हम भागना भी कह सकते हैं। अगर यही लोग खास योग्यताएं हासिल कर लेते, तो अपने प्रयास से विदेश जा सकते थे। योग्यता के दम पर जब कोई भारतीय विदेश जाता है, तो इससे देश का सम्मान बढ़ता है, पर जब कोई अवैध रूप से देश छोड़ता है, तो इससे देश को नुकसान होता है और बदनामी भी होती है। क्या यह चिंता की बात नहीं है कि अमेरिका में रहने-बसने का मोह इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। प्रतिदिन औसतन 250 से ज्यादा भारतीय अमेरिका में अवैध रूप से घुसने की कोशिश करते हैं। अमेरिका में घुसने के ऐसे और भी मामले होंगे, जो दर्ज होने से रह गए होंगे। भारतीयों को उनकी योग्यता के लिए अमेरिका में पहचाना जाता है, मगर जिस गति से अवैध रूप से भारतीय अब अमेरिका पहुंचना चाहते हैं, वह बहुत चिंताजनक है। केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन ने अमेरिकी सीमा शुल्क और सीमा सुरक्षा डाटा का हवाला देते हुए संसद को बताया था कि इस साल करीब एक लाख अवैध भारतीय प्रवासियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवेश करने का प्रयास किया। पश्चिमी देशों की नजर में लोगों का ऐसे जाना या पहुंचाया जाना मानव तस्करी जैसा ही मामला है। ऐसी एजेंसियां या कंपनियां हैं, जो अवैध रूप से भागने वालों की मदद करती हैं। ऐसी कंपनियों या एजेंटों पर कड़ाई से लगाम कसने की जरूरत है।\nउल्लेखनीय है कि अमेरिका की 2023 मानव तस्करी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत तस्करी के उन्मूलन के लिए न्यूनतम मानकों को पूरा नहीं करता है। यही रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत जरूरी मानकों को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास कर रहा है। सरकार के प्रयासों के बावजूद थोक में लोगों का अवैध रूप से विदेश जाना जारी है। बाकी देश भी अगर फ्रांस जैसी सजगता दिखाएं, तो दुनिया में अवैध आव्रजन को रोकने में सहूलियत हो सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि अवैध रूप से लोगों को विदेश भेजने वालों के खिलाफ कड़ाई बहुत जरूरी है। पुलिस और प्रशासन को इस मोर्चे पर चाक-चौबंद रहना होगा। समाज को भी सजग रहना चाहिए। आखिर लोग अवैध रूप से विदेश जाने में कैसे कामयाब हो रहे हैं? हम कहां-कहां उदासीनता और लापरवाही बरत रहे हैं? हमें अयोग्यता का मार्ग रोकना ही होगा, जबकि योग्यता अपना रास्ता खुद तय कर लेगी।
Date:27-12-23
संतुलित कूटनीति से मजबूत हुए हम
विवेक काटजू, (पूर्व राजनयिक)
विदेश नीति की दृष्टि से साल 2023 में भारत के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि जी-20 संगठन और उसके शिखर सम्मेलन की सफल मेजबानी रही। भारत ने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’ द्वारा दुनिया को यह संदेश दिया कि वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए पूरी मानव जाति के हितों का ध्यान रखना आवश्यक है। अगर ताकतवर देश अपने संकीर्ण राष्ट्रवाद पर ध्यान देंगे, तो मानव-जाति को चुनौती देने वाली जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का समाधान नामुमकिन है। इतना ही नहीं, भारतीय कूटनीतिज्ञों ने शिखर सम्मेलन के दौरान बड़ी खूबसूरती से यूक्रेन-युद्ध जैसे ज्वलंत मसले पर भी सहमति बनाने में सफलता हासिल की। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर को मुबारकबाद देना चाहिए, जिनके निर्देशन में यह सब संभव हुआ होगा।
जी-20 की मेजबानी तो चुनौतीपूर्ण थी ही, इस साल कई अन्य मुद्दे भी हमारे सामने चुनौती पेश करते रहे। सबसे अधिक परेशानी चीन के रवैये से पैदा हुई, जो सामरिक और आर्थिक, दोनों है। साल 2020 में चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर जो कदम उठाए थे, उसका पूर्ण समाधान इस वर्ष भी नहीं हो सका। हां, भारतीय सेनाओं ने हर मुमकिन प्रयास किया है, जिसके कारण चीन को यह एहसास हो गया कि यदि उसने अब भारतीय जमीन को हड़पने की कोशिश की, तो भारत के पास उसे विफल करने की पर्याप्त क्षमता है। हालांकि, हमारी पूरी कोशिशों के बावजूद चीन के साथ हमारा आयात बढ़ रहा है। जाहिर है, सरकार ने आत्मनिर्भरता का जो आह्वान किया है, उस पर भारतीय उद्योगपतियों, व्यापारियों को ध्यान देना होगा।
मतलब साफ है,1990 के दशक में चीन के साथ जो समझौते हुए थे, वे अब निरर्थक हो गए हैं और एक मजबूत नीति की हमें सख्त दरकार है। चीन की चुनौती का सामना भारत को खुद करना होगा, लेकिन इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भी भूमिका हो सकती है, जैसे, ‘क्वाड’ (ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका का गुट) को मजबूत बनाने का प्रयास करना। इससे भारत की साख हिंद-प्रशांत क्षेत्र में और बढ़ेगी, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि इन देशों के साथ जो स्वतंत्र नीतियां हमने अब तक अपनाई हैं, उन पर हम कायम रहें और बहुपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाएं। इस क्षेत्र के देश भी यही चाहते हैं।
इस साल चीन का प्रभाव भारत के पश्चिमी पड़ोस के देशों में खासा बढ़ा है। पाकिस्तान के साथ उसके अच्छे रिश्ते तो हैं ही, ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों में भी उसकी नीतियां आगे बढ़ती रहीं। हमारे करीबी पड़ोस में भी उसने दबाव बनाए रखा। चूंकि उसकी तिजोरी भरी हुई है, इसलिए वह अपनी धनराशि से हमारे पड़ोसी देशों को लुभाने की कोशिश करता रहता है। हालांकि, भारत ने भी कूटनीतिक कदम उठाए और अपने करीबी देशों में आर्थिक मदद जारी रखी, खासतौर से श्रीलंका में हम अपने हितों की रक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में आगे बढ़े।इस वर्ष मालदीव में जो सत्ता-परिवर्तन हुआ है, उस पर भारत को कड़ी नजर रखनी पड़ेगी। माले की नई सरकार रक्षा के क्षेत्र में नई दिल्ली से दूरी बनाना चाहती है। ऐसे में, भारत को सबल दिखने की जरूरत है, क्योंकि मालदीव की सरकार को यह भान होना चाहिए कि भौगोलिक वास्तविकताओं से लड़ा नहीं जा सकता।
पश्चिम एशिया में भारतीय हितों के सामने नई चुनौतियां इजरायल पर हमास के हमले (7 अक्तूबर) से भी पैदा हुईं। एक तरफ, तो भारत के संबंध इजरायल से घनिष्ठ हैं और खासतौर से सामरिक दृष्टि से भारत की विदेश नीति में इजरायल का विशेष स्थान है, दूसरी तरफ, भारत के अरब दुनिया में, विशेषकर खाड़ी देशों में व्यापक हित हैं। वहां लाखों भारतीय काम करते हैं और ऊर्जा, सुरक्षा व व्यापार एवं अर्थव्यवस्था के नजरिये से यह क्षेत्र हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। नई दिल्ली ने हमास के बर्बर हमले की ठीक निंदा की है। पहले ऐसा लगा था कि भारतीय नीति इजरायल के पक्ष में ज्यादा झुकी हुई है, लेकिन गाजा में इजरायली कार्रवाई से जैसे-जैसे नागरिकों की मौत बढ़ती गई, जो बढ़कर अब 20 हजार तक पहुंच गई है, भारत ने दूसरे देशों की तरह इजरायल को यह साफ संदेश दिया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई बेशक उचित है, मगर इसमें बेगुनाहों पर वार नहीं होना चाहिए। भारत उचित ही इजरायल-फलस्तीन समस्या का समाधान ‘दो राष्ट्रों के सुरक्षित अस्तित्व’ में देख रहा है, पर लगता नहीं कि इजरायल अपना हाथ रोकेगा। उसने तो हमास को खत्म करने की मानो शपथ ले रखी है। भारत के रिश्ते यूरोपीय संघ और अमेरिका से पूरे साल बढ़े, जो भारत के हितों के अनुकूल ही हैं। इस सिलसिले का आगे बढ़ना जरूरी भी था। यहां यह ध्यान भी रखना होगा कि भारतीय विदेश नीति के बुनियादी सिद्धांतों से कतई समझौता नहीं किया जाएगा। हमारा सबसे बड़ा सिद्धांत यही है कि भारत की विदेश नीति हमेशा स्वतंत्र रूप से काम करती रहेगी।
रूस-यूक्रेन युद्ध बदस्तूर जारी रहा। भारत ने इस पर संतुलित रुख रखा है। नई दिल्ली इसी पर जोर दे रही है कि हर देश संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों को माने। हमने यह भी कोशिश की कि यूक्रेन युद्ध से विकासशील देशों में ऊर्जा, खाद व खाद्यान्न की जो समस्याएं पैदा हो रही हैं, उनको कम किया जाए। मोदी सरकार ने रूस से ऊर्जा संबंध कायम रखने का भी उचित कदम उठाया, क्योंकि यह भारत की ऊर्जा-सुरक्षा के लिए लाभदायक है। इसमें हमारी सरकार को पश्चिम के देशों का दबाव भी झेलना पड़ा, लेकिन हमने उसे नजरंदाज किया। रूस से भारत के संबंध रक्षा के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण हैं।यह स्वाभाविक था कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद-370 पर किए गए फैसले का पाकिस्तान खंडन करे, लेकिन भारत ने उचित ही उसकी अनदेखी की। पूरे वर्ष पाकिस्तान अपनी मुश्किलों में फंसा रहा। हमारी विदेश नीति में अब पाकिस्तान को कम प्राथमिकता मिलनी चाहिए, क्योंकि भारत के सामने उसकी कोई साख नहीं है। हमने उसे साफ संदेश दे रखा है कि यदि उसकी तरफ से आतंकवाद को बढ़ावा दिया जाएगा, तो भारत मुंहतोड़ जवाब देगा, यह सही नीति है।जाहिर है, निरंतरता और बदलाव के मिश्रण से ही विदेश नीति तैयार होती है। 2023 में जिस तरह से भारत के सामने कूटनीतिक चुनौतियां आईं, उससे यह तथ्य फिर से स्थापित होता है।