कुछ महत्वपूर्ण धारणाओं की सच्चाई

Afeias
19 Feb 2014
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क्रमशः………..
चूंकि आईएएस देश की सर्वोच्च परीक्षा है, पूरे देश के लोग इसमें बैठते हैं, और सभी विषयों के लोग बैठते हैं, तथा काफी बड़ी संख्या में बैठते हैं, इसलिए इसकी तैयारी के बारे में बहुत सी बातें बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कही जाती हैं। बढ़ा-चढ़ाकर कही जाने वाली ये बातें होती भी कुछ ऐसी हैं कि वे सच मालूम पड़ती हैं, क्योंकि लगता यही है कि इतनी बड़ी परीक्षा के साथ तो यह होना ही चाहिए। तो आइए, जानते हैं इन तथ्यों की सच्चाइयों को, ताकि आप एक सही रणनीति बनाकर इस परीक्षा की तैयारी कर सकें।
(क) सेलेक्षन के चांसेज बहुत कम हैं
यदि आप सीधे-सीधे उपलब्ध आँकड़ों पर जाएंगे, तो आपका यह सोचना सौ फीसदी सही होगा कि आईएएस में चयन होने की संभावना काफी कम है। आमतौर पर औसतन लगभग चार लाख लड़के फार्म भरते हैं, जबकि विज्ञापित पदों की कुल संख्या औसतन 800 से 1000 के बीच होती है। यदि परीक्षा में बैठने वालों और उसमें सफल होने वालों का अनुपात निकालें, तो यह बहुत डरावना होगा। इसलिए बेहतर होगा कि हम यहाँ निकालते ही नहीं हैं।
ये आँकड़ें सच हैं, और सच होने के बावजूद सच्चाई वह नहीं है, जो हमने मान लिया है। आइए, इसकी सच्चाई को जानते हैं, ताकि आपका दिमाग अनावश्यक खौफ से मुक्त हो सके।
मान लीजिए 900 पदों के लिए चार लाख की संख्या प्रारम्भिक परीक्षा की संख्या है। आईएएस का विज्ञापन निकलने के बाद इतने सारे विद्यार्थियों को लगा कि उन्हें इस परीक्षा में बैठना चाहिए, और यह सोचकर उन्होंने फार्म भर दिए। लेकिन सवाल फार्म भर देने का नहीं है, बल्कि भरने के बाद उसमें बैठने का है। हमारा सरोकार तो भरने वालों से नहीं, बैठने वालों से होना चाहिए। आपको यह जानकर सुकून मिलेगा कि फार्म भरने वालों में से हर साल 45 से 50 प्रतिशत विद्यार्थी परीक्षा में बैठते ही नहीं हैं। मैं इन न बैठने वालों को समझदार मानता हूँ, क्योंकि बिना तैयारी के बैठने का आखिर में अर्थ है भी क्या? तो इस प्रकार सवा चार लाख के आँकड़ों की सच्चाई सवा दो-ढाई लाख के आसपास बैठती है। अब इस सवा दो-ढाई लाख की भी सच्चाई को देखते हैं-

  • इनमें से आधे वे विद्यार्थी होते हैं, जिनकी तैयारी तो नहीं होती, लेकिन वे बैठ जाते हैं, क्योंकि बैठना उनके लिए सुविधाजनक होता है। ये मूलतः बार्डर लाइन वाले होते है, जो ‘बैठे या न बैठे’ करते-करते अंत में बैठ ही जाते हैं। इन्हें आपको सच्चे प्रतियोगी नहीं मानना चाहिए।
  • अनुसूचित जाति- जनजाति के लिए अटैम्ट की कोई निश्चित संख्या नहीं है, जबकि पिछड़ा वर्ग के लिए सात है। यह व्यावहारिकता का तकाजा है कि इस वर्ग के विद्यार्थी अटैम्ट खराब होने की चिन्ता किए बिना भी प्रारम्भिक परीक्षा में बैठते रहते हैं।
  • कुछ विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जो तैयारी करते हैं। तैयारी करके परीक्षा देते भी हैं, लेकिन उनकी तैयारी ठीक से होती नहीं है। वे मेहनत करने को ही तैयारी करना मान लेते हैं, और रह जाते हैं।
  • कुछ ऐसे होते हैं, जो केवल अनुभव लेने के लिए बैठते हैं और सबसे चौंकाने वाली बात तो मुझे यह लगती है कि ये लोग तैयारी किए बिना ही अनुभव लेना चाहते हैं।

मित्रो, क्या आप मेरी इस बात पर विश्वास करेंगे कि प्रारम्भिक परीक्षा में आपको जो यह भीड़ दिखाई दे रही है, वह जेन्यून भीड़ नहीं है। यह दिखाने की भीड़ है। इसमें तैयारी करने वालों की संख्या कम है, तथा सही एवं अच्छी तैयारी करने वालों की संख्या तो और भी कम है। प्रतियोगिता का सच्चा अनुपात ‘एक-सात’ यानी कि सात विद्यार्थियों में से एक के चयन तक रहता है। कुल जितने पद विज्ञापित होते हैं, उसके लगभग 13 गुना विद्यार्थी प्रारम्भिक परीक्षा में सफल घोषित किए जाते हैं। मैं अब इस संख्या को चार लाख विद्यार्थियों के अनुपात में नहीं, बल्कि अस्सी-नब्बे हजार विद्यार्थियों के अनुपात में देखता हूँ, और यही सच्चाई भी है।
मुख्य परीक्षा की सच्ची तस्वीर भी उससे अलग है, जो हमें दिखाई देती है। इनमें से 25-30 प्रतिशत विद्यार्थी तो वे होते हैं, जो प्रारम्भिक परीक्षा के रिजल्ट के बाद मुख्य परीखा की तैयारी में लगते हैं। इन्हें आप प्रतियोगिता से बाहर कर सकते हैं। दस प्रतिशत वे विद्यार्थी भी इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं, जो किसी कारण से मसलन समय की कभी के कारण अपनी तैयारी पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते, किन्तु मुख्य परीक्षा में बैठना ही चाहिए, सो बैठ जाते हैं। पन्द्रह से बीस प्रतिशत वे छात्र होते है, जो मुख्य परीक्षा में सफल तो हो जाते हैं, लेकिन उनके नम्बर इतने कम होते हैं कि सफल लोगों की सूची में उनके नाम का आ पाना मुमकिन नहीं हो पाता। इस प्रकार मुख्य परीक्षा में भी, जिसे मैं सही मायने में परीक्षा मानता हूँ, लगभग आधे विद्यार्थी उस श्रेणी के होते हैं, जिन्हें सच्चा प्रतियोगी मानने से परहेज किया ही जाना चाहिए। इन्हें मैं ऐसा खिलाड़ी मानता हूँ, जो मैदान में उतरकर वॉकओवर दे देते हैं।
चाहे आप मानें या न मानें, लेकिन मैं यह कहना ही चाहूँगा कि मुख्य परीक्षा के स्तर पर सफलता का सच्चा अनुपात चार और एक के अनुपात से अधिक नहीं होता है। हाँ, यह बात अलग है कि उन चार लोगों के बीच से अलग निकल पाना उतना आसान नहीं होता, क्योंकि इनमें से सभी के सभी धाकड़ होते हैं। यह भारत का केन्या या बंगलादेश के साथ का क्रिकेट मैच न होकर आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रिका के साथ का क्रिकेट मैच होता है, जहाँ सिद्ध खिलाड़ी हुए बिना आप टिक नहीं सकते।
इन्टरव्यू का अनुपात लगभग ढाई में एक विद्यार्थी को होता है। यहाँ तक पहुँचने के बाद आप चालीस प्रतिशत सफलता के हकदार तो हो ही जाते हैं। लेकिन यहाँ दिक्कत यह है कि चालीस प्रतिशत सफलता जैसी कोई बात होती नहीं है। यह यदि होती है, तो सौ प्रतिशत होती है, अथवा होती ही नहीं है।
इस प्रकार पहली गलत धारणा, एक गलत भय, जो आपके दिमाग को घेरे हुए है, मैं उसे बहुत बड़ी भीड़ के आतंक से मुक्त करना चाहूंगा। कोई संदेह नहीं कि भीड़ है, लेकिन यह सच्ची भीड़ नहीं है, बशर्ते कि आप अपनी तैयारी में सच्चे हों।

(ख) बहुत कठिन परीक्षा है
जब कठिनता की बात आती है, तब उसके कई कोण हो सकते हैं। जैसे कि बहुत अधिक भीड़ के कारण परीक्षा कठिन है, जिसकी सच्चाई मैं बता ही चुका हूँ। इसका पाठ्क्रम बहुत अधिक है। इस परीक्षा का स्तर बहुत ऊँचा है, आदि-आदि। आइए, इसकी सच्चाई से रूबरू होते हैं।
पहले पाठ्यक्रम की बात। आईएएस बनने की न्यूनतम योग्यता ग्रेजुएट होना है। यानी कि इसका जो ग्रेजुएट तक का पाठ्यक्रम है, उतना तो सामान्य सी बात हो गई। यदि आप इसमें वहीं विषय ले लेते हैं, जो आपके ग्रेजुएट में थे, तो उसका मतलब हुआ कि उतना तो आपका पढ़ा हुआ ही है।
लेकिन सच्चाई यह है कि आईएएस का पाठ्यक्रम स्नातक से अधिक तथा स्नातकोत्तर (पोस्टग्रेजुएट) से थोड़े कम स्तर का होता है। यह ‘आनर्स’ के स्तर का होता हैं। वैसे भी जब आप ग्रेजुएषन करते हैं, तब तक सामान्यतः आपकी उम्र इक्कीस साल की होती नहीं है, जो आईएएस की परीक्षा में बैठने की न्यूनतम आयु है। इसलिए आप पोस्टग्रेजुएशन करने लगते हैं। चलिए, हम यह भी मान लें कि आप पोस्टग्रेजुशन नहीं कर रहे हैं, तो इक्कीस साल होने में जो एक-डेढ़ साल अभी बाकी है, उसकी मेच्योरीटी के हिसाब से पाठ्यक्रम को कुछ ज्यादा होना चाहिए या नहीं? होना ही चाहिए। इसीलिए वह है, जो सही है।
आपको पाठ्यक्रम कब ज्यादा लगता है? जब-

  • आप अपने स्नातक और स्नातकोत्तर के विषयों को छोड़कर एकदम ही नए विषय लेते हैं।
  • आप लेते तो अपने ग्रेजुएशन के विषय ही हैं, लेकिन रट्टा मार-मारकर पास हो गए होते हैं, और अभी सब कुछ भूल चुके होते हैं।
  • आप विषय के प्रति अपनी रुचि विकसित नहीं कर पाते।
  • आप आईएएस के पाठ्यक्रम की तुलना राज्यों की सिविल सेवाओं से करते हैं, तथा
  • आप पाठ्यक्रम को सम्पूर्ण विषय के रूप में न देखकर पेपर प्रथम एवं पेपर द्वितीय के रूप में देखते हैं।

अन्यथा पाठ्यक्रम अधिक नहीं होता है। वैसे भी यदि आपने देश की सर्वोच्च सेवा में जाने का निर्णय लिया है, तो सर्वोच्चता की गरीमा की रक्षा तो तभी हो सकेगी, जब पाठ्यक्रम भी उसके अनुकूल हो। अथवा भला कैसी सर्वोच्चता!
अब मैं आता हूँ इस बात पर कि इस परीक्षा का स्तर बहुत ऊँचा है। जी हाँ, मैं इससे पूरी तरह सहमत हूँ कि इस परीक्षा में जिस तरह से प्रश्न पूछे जाते हैं, और उन प्रश्नों के जिस तरह के उत्तरों की अपेक्षा की जाती है, वह इसके स्तर को न केवल ऊँचा, बल्कि बहुत अधिक ऊँचा बना देती है। और यही इसकी ब्यूटी है, और चुनौती भी।
परीक्षा का स्तर ऊँचा है, तभी तो नौकरी का स्तर भी ऊँचा है। यदि इसे भी राज्य सेवा परीक्षा के स्तर का बना दिया जाए, तो बैठने वालों की संख्या चार लाख की बजाए चालीस लाख हो जाएगी। लेकिन सबसे बुरी बात यह होगी कि उनमें से ऊँची प्रतिभा के लोगों को छाँटना ही मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि तब ‘सब धान बाइस पसेरी’ वाली कहावत लागू हो जाएगी। फिलहाल सिविल सर्विस में मुझे जितने लोग भी मिले, मैं उनमें से एक के बारे में भी यह नहीं कह सकता कि उसके ज्ञान का स्तर कमजोर था।
स्तर का ऊँचा और नीचा होना एक सापेक्षिक बात भी होती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा अपना स्तर काफी नीचा है, इसलिए मुझे इस परीक्षा का स्तर बहुत ऊँचा लग रहा है? अन्यथा ऐसा कुछ है नहीं। उस विद्यार्थी को यह परीक्षा भी किसी अन्य परीक्षाओं की तरह ही लगेगी, जिसकी आदत अपने विषय को समझने की तथा समझकर अपनी तरफ से लिखने की रहीं है। आप भी ऐसा करने लगिए, आपको भी यह परीक्षा अपनी पकड़ के स्तर की लगने लगेगी।
अब एक सिद्धान्त की बात। प्रतियोगी परीक्षाएं पास और फेल होने के सिद्धान्त पर अपने रिजल्ट नहीं देती हैं। वहाँ चयन का सिद्धान्त काम करता है। उसे जितने लोग चाहिए, वह ऊपर से उतने लोगों को ले लेती है, फिर चाहे उनके प्राप्तांक कितने भी क्यों न हो। इसलिए याद रखिए कि यहाँ पेपर के सरल और कठिन होने का, या परीक्षा के स्तर के ऊँचा और नीचा होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, क्योंकि जो है, वह सबके लिए है, और जो चीज सबके लिए एक सी होती है, चूंकि उसका प्रभाव सभी पर एक सा पड़ता है, इसलिए परिणाम पर भी प्रभाव समान होता है। पेपर कठिन है, तो सेलेक्षन कम प्राप्तांको पर होगा, और यदि सरल है, तो सेलेक्षन अधिक प्राप्तांको पर होगा।

(ग) खूब मेहनत चाहिए इसके लिए
यदि आप मेहनत करने से डरते हैं, तो निश्चित रूप से यह परीक्षा आपके लिए नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं है कि इसमें इतनी ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है कि आँखों पर चश्मा चढ़ जाए और दाढ़ी बनाने तक की फुर्सत न मिले। सफल प्रतियोगियों के इन्टरव्यू में अक्सर आपको आतंक पैदा कर देने वाले इस तरह के वक्तव्य पढ़ने को मिलते होंगे कि “मैंने रोजाना 15-15 घंटे पढ़ाई की और वह भी चार सालों तक।” मुझे एक लड़की का यह कथन पढ़ने को मिला कि “मैं तैयारी के तीन सालों तक फर्स्ट फलोर से नीचे ही नहीं आई।” ये फालतू की बातें हैं, और यदि ये बातें सच भी हैं, तो मुझे उसकी बुद्धि, उसकी क्षमता और तैयारी करने के ढंग पर दया ही आ रही है। सोचता हूँ कि सचमुच में कितनी जड़मति रही होगी वह सफल लड़की। और इससे भी ज्यादा मुझे यह बात चिन्तित करती है कि ऐसे ऑखफोडू पढ़ाकू किस्म के लोग प्रशासन में आकर करेंगे क्या। इन्हें तो यूनिवर्सिटी जैसी किसी जगह में जाना चाहिए था। विश्वास कीजिए कि ये वे लोग हैं, जो दूसरों के दिमाग में अपनी ‘लार्जर दैन लाइफ’ इमेज़ बनाने के लिए, स्वयं को ग्लैमराइज करने के लिए इस तरह के अर्द्ध-सत्य वाले बयान दे देते हैं। पढ़ लिए होंगे दो-चार दिन 15-15 घंटे, और अपने इन दो-चार दिनों को ये लोग अपनी तैयारी के सम्पूर्ण काल पर लागू कर देते हैं। ऐसे लोगों के झाँसे में फँसने से बचिए।
हाँ, यह जरूर है कि इसके लिए रोजाना पाँच-छः घंटे तो निकाले ही जाने चाहिए और इतना वक्त पर्याप्त भी है। आखिर दिमाग की भी ग्रहणशीलता की कोई सीमा होती है कि नहीं। गीले हो गए कपड़ों को पानी की बाल्टी में डूबाये रखने से वह कपड़ा अब और अधिक पानी नहीं सोखेगा। पाँच-छः घंटे रोजाना चाहिए, और वह भी शुरू के एक साल तक, क्योंकि यह आपकी शुरूआत है। एक बार तैयारी पूरी हो जाने के बाद यह संख्या चार-पाँच और यहाँ तक कि तीन-चार तक आ जाती है। अब यदि आप इसे भी ‘खूब कड़ी मेहनत’ कहेंगे, तब तो फिर ईश्वर ही मालिक है।
यहाँ मैं एक बात और कहना चाहूँगा। ‘कड़ी और खूब’ का यह जुमला उन लोगों ने तैयार करके उछाला है, जो एक ही विषय पर कई-कई लेखकों की, लगभग सभी लेखकों की किताबें पढ़ते हैं। ये लोग एक दिन में चार-पाँच अखबार पढ़ते हैं, और उनमें भी सब कुछ। इन्हें लगता है कि ज्यादा से ज्यादा पत्रिकाएं भी पढ़ लेना चाहिए। यदि सोच यही है, जो कि बहुत अवैज्ञानिक है, तो इन सब झमेलों में समय तो लगेगा ही। जबकि इतना अधिक पढ़ने की जरूरत बिल्कुल नहीं होती। ऐसा करना न केवल अनुत्पादक ही है, बल्कि प्रति-उत्पादक (काउंटर प्रोडक्टिव) भी है, क्योंकि इससे अनावश्यक पढ़ने से आपके दिमाग में बेवजह का कचरा जमा होता रहता है। यह कचरा आपको भ्रमित करने में अपनी भूमिका निभाता है। यह आपको विषक के मूल-बिन्दुओं से हटाकर अर्थहीन बिन्दुओं की ओर ले जाता है। आईएएस की तैयारी में जो सिद्धांत काम आता है, वह यह कि ‘कम पढ़ो, लेकिन जो पढ़ो, उसे पूरा पढ़ो, और अच्छी तरह से पढ़ो।’ थोड़ा-थोड़ा सब कुछ जानने की बजाए, थोड़े को अच्छी तरह जानने की नीति अधिक लाभकारी होती हैं। हाँ, यह जरूर है कि आपको मालूम होना चाहिए कि यह थोड़ा क्या हो।

(घ) अंग्रेजी का ज्ञान
अंग्रेजी के साथ-साथ सभी भारतीय भाषाओं के माध्यम को लागू हुए तीस से भी आधिक साल हो गए हैं, लेकिन अभी तक विद्यार्थियों के दिमाग में यह भय बना हुआ है कि ‘अंग्रेजी के बिना कैसे होगा।’ उन्हें अंग्रेजी की जानकारी का होना जरूरी जान पड़ता है।
मैं आपके इस मनोवैज्ञानिक संकट को समझ सकता हूँ, क्योंकि मैं भी इस संकट से गुजर चुका हूँ, और मैं तो उस समय गुजरा हूँ, जब भारत सरकार ने यह जबरदस्त क्रांतिकारी कदम उठाया ही उठाया था। सन् 1983 में मैंने इस परीक्षा में सफलता पाई और मैं शपथपूर्वक सौ प्रतिशत ईमानदारी के साथ आपसे कहना चाहूँगा कि अंग्रेजी के ज्ञान का अभाव मेरी सफलता में तनिक भी बाधक नहीं बना। आज तो हिन्दी की अनेक पत्रिकाएं हैं। अंग्रेजी की अच्छी पुस्तकों के हिन्दी में अनुवाद उपलब्ध हैं। उस समय ऐसा नहीं था। अंग्रेजी के ज्ञान के आभाव के कारण मैं अंग्रेजी की इन अच्छी पुस्तकों को पढ़ने से रह गया था। फिर भी, काम तो चल ही गया।
हाथ कंगन को भला आरसी क्या। आपको पास यूपीसएसी के आँकड़ें हैं। ये आँकड़े हमें पूरी तरह आश्वस्त करते हैं, कि ‘चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।’ हर साल लगभग 50 प्रतिशत विद्यार्थी वे होते हैं जो हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देते है। इन गैर अंग्रेजीभाषी विद्यार्थियों में से आधे का माध्यम हिन्दी होता है। हाँ, यह जरूर है कि अभी भी पचास प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम वाले ही होते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि अन्य भाषाओं से चयन हो ही नहीं रहा है। इन प्रतिशतों की सच्चाई यह है कि जब परीक्षा में बैठने वाले अधिकांश लोग अपना माध्यम अंग्रेजी भाषा को चुनेंगे, तो जाहिर है कि अधिक सेलेक्षन भी इन्हीं भाषा वालों का होगा।
उदाहरण के लिए दक्षिण भारत तथा उत्तर-पूर्व भारत के लगभग सभी विद्यार्थी अंग्रेजी को ही चुनते हैं, क्योंकि उनकी पढ़ाई इसी माध्यम से हुई होती है। तमिल, तेलुगू, कन्नड़ जैसी दक्षिणी भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में लेने वालों की संख्या बहुत कम रहती है। और जो लोग लेते हैं, वे सफल भी होते हैं। उत्तर एवं पश्चिमी भारत के महानगर एवं नगरों में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थियों की पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण वे भी ऐसा ही करते हैं। इस प्रकार हिन्दी मूलतः छोटे शहरों, गाँव तथा सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की भाषा बनकर रह गई है। लेकिन जहाँ तक यूपीएससी में चयन का सवाल है, इसे लेकर कभी किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है, इसमें तिनक भी संन्देह मत कीजिए।
हाँ, अब सीसेट के पेपर में अंग्रेजी के जो आठ प्रश्न दिए जाते हैं, इतनी अंग्रेजी तो आनी ही चाहिए। वैसे पहले भी जनरल इंग्लिश का पेपर तो क्वालीफाई करना ही पड़ता था।

(ड़) फर्स्ट क्लास कैरियर नहीं है
मुझसे यह प्रश्न लगभग हर वह विद्यार्थी पूछता है, जो सेकेंड और थर्ड डिविजनर रहा है और अब आईएएस की तैयारी करने जा रहा है। उन्हें लगता है कि चूंकि इन्टरव्यू के समय उम्मीदवार का पूरा बायोडाटा बोर्ड के सदस्यों के सामने होता है, इसलिए सेकेंड डिविजन-थर्ड डिविजन होने का उनके ऊपर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, और उन्हें कम नम्बर देकर सूची से बाहर कर दिया जाएगा।
इसे आप तार्किक रूप से समझने की कोशिश कीजिए। तर्क यह है कि यदि यूपीएससी के लिए फर्स्ट डिविजन की इतनी बड़ी अहमियत होती, तो वह इसके लिए निर्धारित योग्यता में ही इस तथ्य को डाल देता, जैसा कि कुछ नौकरियों के लिए, खासकर कॉलेज के प्रोफेसर्स के लिए होता है। यदि उसने ऐसा नहीं किया है, तो यह बहुत सोच-समझकर लिया गया निर्णय है। वह जानता है कि उसका काम फिलहाल ऐसे युवाओं को सेलेक्ट करना है, जो प्रशासक बनने के लायक हों। बस इतना ही। और वह यह भी जानता है कि प्रशासक बनने के लिए परीक्षा में फर्स्ट डिविजन का रिकार्ड होना कतई जरूरी नहीं है। अकबर भारतीय इतिहास के सर्वोच्च प्रशासकों में था, जिसे अक्षरज्ञान तक नहीं था।
जब आप इन्टरव्यू में बोर्ड के मेम्बर के सामने बैठे हुए होते हैं, तो वे सारे मेम्बर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि आप प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा को क्वालीफाई करके यहाँ तक पहुँचे हैं। यहां तक आने की कोई डायरेक्ट एन्ट्री नहीं है। आपने स्वयं को पू्रफ किया है। इसलिए आपका अतीत क्या रहा है, यह उन लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता। उनके लिए तो जो कुछ भी है, वह आपका वर्तमान है, और वह वर्तमान ही सम्पूर्ण है।
ठीक इसी प्रकार यदि आप फर्स्ट डिविजनर हैं, टॉपर हैं, डाक्टरेट हैं, तो भी इस मुगालते में बिल्कुल न रहें कि इसके कारण आपको कुछ फायदा मिल जाएगा। नॉट एट ऑल। वहाँ आपका प्रदर्शन ही सब कुछ होगा। इसलिए अपने अतीत को पूरी तरह भूलकर वर्तमान पर केन्द्रीत होकर अपना काम करें। यूपीएससी इस मामले में बहुत उदार है।

(च) पारिवारिक पृष्ठभूमि
जिस प्रकार अंग्रेजी की जानकारी का अभाव, फर्स्ट डिविजनर न होने की कुंठा विद्यार्थियों के मन में संदेह पैदा करके उनके जोश को कमजोर कर देती है, लगभग वही स्थिति पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर भी है। युवाओं को लगता है कि ‘मैं गाँव का रहने वाला हूँ। मेरे पिता मजदूर हैं, किसान हैं। मेरा परिवार अनपढ़ है। मैं स्मार्ट नहीं हूँ। मेरे परिवार की आमदनी बहुत कम हैं, आदि मेरी पारिवारिक स्थिति मेरे लिए रोड़े का काम कर सकती है।’’
इनके लिए भी मेरा वही कहना है, जो मैने इससे पहले के दो के लिए कहा है। यूपीएससी का काम केवल ऐसे युवाओं का चयन करके उन्हें सरकार को सौंप देना है, जिन्हें प्रशासक बनाया जा सकता है। सरकार के सभी मंत्रालय और विभागों के पास अपने-अपने प्रशिक्षण संस्थान हैं, जहाँ वे डेढ़-दो साल तक इन चयनित युवाओं को अपने हिसाब से ट्रैन करते हैं, उन्हें प्रशिक्षण देते हैं। जाहिर है कि यह प्रशिक्षण आपकी उन सारी कमियों को दूर करने के लिए ही होता है, जो एक प्रशासक में नहीं होनी चाहिए, और उन गुणों को भरने के लिए होता है, जो एक प्रशासक में होने चाहिए।
हाँ, यदि आपने अपना यही सन्देह सन् 1980 से पहले व्यक्त किया होता, तो मैं उतने दमखम के साथ इनका खण्डन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, जितना कि आज कर पा रहा हूँ। आज तो हिम्मत जुटाने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि यही सच्चाई है। अंग्रेजी भाषा के जमाने में इसकी काफी कुछ भूमिका भी। लेकिन आज देश में जिस प्रकार का राजनैतिक स्वरूप है, जो कहीं न कहीं सामंत विरोधी बन चुका है, उसमें पारिवारिक पृष्ठभूमि के महत्व की बात बीते दिनों की घटना समझी जानी चाहिए।
आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि पिछले 20-25 सालों में आईएएस की परीक्षा में सफल होने वाले विद्यार्थियों में ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवाओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यदि आपको मेरी बात पर यकीन न हो, तो आप मेरे इस कथन को यूपीएससी की वेबसाइट पर जाकर वैरीफाई कर सकते है।

-को जारी रखा जाएगा………

नोट:- यह लेख सबसे पहले ‘सिविल सर्विसेज़ क्रॉनिकल’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। 

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