कानूनों और न्यायिक निर्णयों को सरल बनाएं
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देश में कानूनों की भरमार है। हमारे जीवन के लगभग हर पहलू को आकार देने के लिए ढेरों कानून हैं। विडंबना यह है कि कानूनों के बारे में आम नागरिकों का ज्ञान नगण्य रहता है। इनको लिखने के लिए उपयोग की जाने वाली भाषा इतनी पेचीदा होती है कि इनसे जुड़े निर्णयों के लिए विशेषज्ञों की बार-बार जरूरत पड़ती है।
औपनिवेशिक भारत में कानून अंग्रेजी में लिखे जाते थे। ऐसी भाषा का उपयोग किया जाता था, जिसे भारत में सामान्य अंग्रेजी बोलने-समझने वाले भी आसानी से समझ न सकें। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजादी के 75वें वर्ष में भी हम इस पुराने तरीके से कानूनों का मसौदा तैयार कर रहे हैं। जबकि वर्तमान में ब्रिटैन ने स्वयं इतनी सामान्य अंग्रेजी में कानूनों का मसौदा तैयार करना शुरू कर दिया है, जिसे नागरिक समझ सकते हैं।
भारत को भी अब आसान, अनुवाद में सरल और सारांश में सक्षम, ऐसी भाषा में कानून का मसौदा तैयार करना चाहिए, जिसे देश के विभिन्न क्षेत्र आसानी से अपना सकें। कानून के प्रावधानों को सार्थक बनाने के लिए आवश्यक तत्वों को शामिल किया जाए। सबसे बढ़कर इसे सुलभ, पठनीय और दृष्टिबाधित अनुकूल बनाया जाए, जिससे लोग इन कानूनों पर अनुमान लगाने के बजाय, साक्ष्य और डेटा के आधार पर इन्हे तार्किक रूप से समझ सकें।
भाषा की दुर्गमता केवल कानून बनाने तक ही सीमित नहीं है। कानूनों की व्याख्या करने वाले निर्णय भी ज्यादातर अपठनीय होते हैं। दशकों में, उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि निर्णय कितने लंबे हो गए हैं। किसी भी केस-कानून का असंपादित उदाहरण देना, विदेशी कानूनों की छानबीन करना, वकीलों द्वारा दिए गए तर्कों की कॉपी-पेस्ट करने वाली गलत प्रथाएं, भारतीय न्यायालयों के निर्णयों में घुसी हुई हैं, जो न्याय प्रदान करने में देरी का कारण भी बन रही हैं।
भारतीय न्याय व्यवस्था को सरल, वहनीय व कार्रवाई योग्य बनाने के लिए कानूनों की लेखन पद्धति व भाषा पर नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए। ऐसा करके हम न्याय व्यवस्था पर बढ़ रहे लंबित मामलों के बोझ को भी शायद कुछ कम कर सकेंगे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अर्घ्य सेनगुप्ता के लेख पर आधारित। 7 जनवरी, 2022