संघवाद की राजनीति

Afeias
03 Aug 2021
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Date:03-08-21

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भारत में संघवाद की हमेशा से ही राजनीतिक प्रासंगिकता रही है। लेकिन राज्य पुनर्गठन अधिनियम को छोड़कर, संघवाद शायद ही कभी राजनीतिक समझौतों की धूरी रहा हो। विडंबना यह है कि संघवाद को मजबूत करने के बजाय, चुनावी राजनीति ने वास्तविक संघवाद के लिए राजनीतिक सहमति बनाने की दिशा में कभी प्रयत्न नहीं किया। वर्तमान शासन के सशक्त केंद्रीकरण से यह चुनौती और भी बड़ी हो गई है।

  • वर्तमान सरकार ने प्रगति में तेजी लाने के नाम पर भारत को ‘एक राष्ट्र, एक बाजार’ , ‘एक राष्ट्र , एक राशन कार्ड’ , जैसे कार्यक्रमों से जोड़कर देश की विविधता के स्वरूप और उसकी जरूरतों को नजरअंदाज कर दिया है। इस ढांचे में संघवाद के लिए जरूरी विविध राजनीतिक संदर्भों और पहचान के दावों को किनारे कर दिया गया है। यह विकास-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी है।
  • संघवाद के प्रति प्रतिबद्धता के दिखावे के बावजूद संघवाद की राजनीति आकस्मिक बनी हुई है। समय के साथ इसे लचीला बना लिया गया है।
  • संघवाद के दावेदार भी अब राज्यों को प्रभावित करने वाले एकतरफा निर्णयों का विरोध करते दिखाई नहीं देते।

जम्मू-कश्मीर की केंद्र शासित प्रदेश में डाउनग्रेडिंग और दिल्ली के एन सी टी (संशोधन) अधिनियम, 2021 की अधिसूचना पर उन राजनीतिक दलों ने कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं किया, जिन पर इसका सीधा प्रभाव नहीं पढ़ना था।

  • संघवाद को कायम रखने के लिए राजनीतिक परिपक्वता और संघीय सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। हमारी राजनीति में इसकी कमी है।
  • राज्यों के बीच आर्थिक और प्रशासनिक विचलन (डायवरजेन्स) बढ़ा हुआ है।

सभी प्रमुख संकेतकों में, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों ने उत्तरी और पूर्वी भारतीय राज्यों की तुलना में  बहुत बेहतर प्रदर्शन किया है। इसके परिणामस्वरूप विकास के साथ अपेक्षित अभिसरण (कनवरजेन्स) के बजाय विचलन अधिक हुआ है। 15वें वित्त आयोग में इस संदर्भ पर बहुत वाद-विवाद भी हुआ है। भारत में गरीब क्षेत्र, अर्थव्यवस्था में कम योगदान देते हुए भी अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण अधिक वित्तीय संसाधनों की मांग रखते हैं।

  • राजकोषीय प्रबंधन जिस कमजोर स्थिति में पहुंच गया है, उसे मूक राजकोषीय संकट कहा जा रहा है। इसकी पूर्ति के लिए केंद्र सरकार उपकर लगा रही है, जिससे राज्यों से राजस्व कम कर सके। राज्यों को ऋण के रूप में लंबी देरी के बाद जी एस टी का मुआवजा देने और केंद्रीय योजनाओं में राज्य की हिस्सेदारी बढ़ाने का प्रयत्न किया जा रहा है।

क्या किया जा सकता है ?

  • राष्ट्रवादी भावनाओं और राजकोषीय संघवाद का अगर अच्छी तरह से उपयोग किया जाता है, तो संघवाद के लिए एक उपयुक्त वातावरण बन सकता है।
  • समृद्ध राज्यों को गरीब राज्यों के साथ बोझ साझा करने का तरीका खोजना चाहिए।
  • अगर मौजूदा तनावों पर बातचीत करनी है, और संघ के साथ सामूहिक लड़ाई जीतनी है, तो राज्यों को राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए समझौते करने होंगे।
  • राज्यों को राजकोषीय संघवाद के मामलों पर नियमित वार्ता के लिए एक अंतर-राज्जीय मंच तैयार करना चाहिए।

निष्कर्ष के तौर पर यह कहना गलत नहीं होगा कि संघवाद की एक नई राजनीति भी चुनावी आवश्यकता है। कोई भी गठबंधन बिना किसी आकर्षण के, लंबे समय तक सफल नहीं हुआ है। संघवाद पर राजनीतिक सहमति बनाना वह आकर्षण हो सकता है, लेकिन इसके लिए क्षेत्रीय दलों को अत्यधिक धैर्य और परिपक्वता दिखानी होगी।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित यामिनी अय्यर और राहुल वर्मा के लेख पर आधारित। 7 जुलाई, 2021