संघवाद की जरूरत किसे है ?

Afeias
30 Dec 2020
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Date:30-12-20

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भारतीय संविधान ने संघवाद को अवसरवादी प्रकृति का बनाया है। जैसा कि बी.आर. अंबेडकर ने कहा था, “भारतीय संविधान, समय और परिस्थितियों के अनुसार एकात्मक और संघीय दोनो हों सकता है।” उन्होंने यह भी कहा था कि, “स्वयं को एकात्मक राज्य में परिवर्तित करने की ऐसी शक्ति किसी महासंघ के पास नहीं है।” इस लचीले संघवाद की वैज्ञानिक बुनियाद आज भी भारतीय राजनीति की सामान्य समझ है।

संघवाद को बनाए रखने के लिए चार बातें आवश्यक हैं। सिंहावलोकन करने पर ये चारों ही संघवाद के लिए राजनीतिक आधार का काम करती हैं। पहली चिंता इस बारे में थी कि क्या एक केंद्रीकृत सरकार भारत की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को समायोजित कर सकती है। राज्य पुनर्गठन अधिनियम और भाषाओं के विवाद पर समझौता, संघवाद की जीत थी। इससे देश की भाषाई विविधता को समायोजित किया जा सका। विडंबना यह रही कि चूंकि यह विषय भारतीय राजनीति में कोई ज्यादा महत्व नहीं रखता था। इसलिए बड़े ही कौशलपूर्ण तरीके से इसे पीछे डाल दिया गया। भाजपा के साथ-साथ संघवाद को धता बताने वाली सभी सरकारों ने कौशलपूर्ण तरीके से दबाए गए विषयों को दबा ही रहने देने में भलाई समझी है। किसी राज्य में जाति, धर्म आदि के आधार पर चलने वाली पहचान आधारित राजनीति ही अब केंद्र के लिए खतरा रह गई है। जब तक क्षेत्रीय भाषाई पहचानों को खतरा नहीं है, तब तक केंद्रीकरण के प्रतिरोध का कोई आधार नहीं है।

संघवाद का दूसरा आधार राजनीतिक शक्तियों के वास्तविक वितरण का है। गठबंधन सरकारों के उदय, आर्थिक उदारवाद, क्षेत्रीय दलों के विस्तार आदि ने राजनीतिक संघवाद के लिए ठोस भूमि तैयार कर दी। आर्थिक और प्रशासनिक केंद्रीकरण के साथ राजनीतिक संघवाद की अनुकूलता अक्सर देखी जाती है। शक्तियों के विखंडन का अर्थ यही है कि प्रत्येक राज्य अपने लिए कुछ विशिष्ट मांगों का मोलभाव कर सकता है। या उसके नेता केंद्र के किसी प्रस्ताव को वीटो कर सके। देखने वाली बात यह है कि विखंडन के उस दौर में भी राज्यों के कुछ शक्तिशाली मुख्यमंत्रियों ने संघवाद जैसी संस्था की शक्ति को बढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं किया। उदाहरण के लिए वे मुख्यमंत्री परिषद् को एक सशक्त फोरम बना सकते थे। लेकिन यह भी नहीं किया गया। कश्मीर के संदर्भ में संघवाद के समर्थक किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह आगे बढ़कर उसका राज्य का दर्जा छिनने से रोक सकता। या यह कह सकता कि राज्य की सहमति के बिना उसे खत्म नहीं किया जा सकता। संघवाद की रक्षा के लिए क्षेत्रीय दलों का गठबंधन कभी देखने में नहीं आता है।

किसानों के आंदोलन में चल रहा कृषि कानून का विरोध, संघवाद का एक वैध तर्क है। परंतु आप केंद्र द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य भी चाहते हो, तो संघवाद की रक्षा का ख्याल वहीं छूट जाता है। ऐसा विरोधाभास ही संघवाद को कमजोर करता है।

संघवाद का तीसरा आधार, राजनीतिक और संस्थागत संस्कृति का होना है। अफसोस है कि भाजपा और काँग्रेस ने इसमें लचीलेपन की प्रतिबद्धता को बनाए रखना श्रेयस्कर समझा है। इसमें विरोधियों को बाहर करने के लिए प्रक्रियात्मक असंगतता भी शामिल थी। राजनीति में जो केवल एक चीज बदली है, वह है- आरोपों की प्रबलता। राष्ट्रीय राजनीति में एकल राजनीतिक दल के बढ़ते प्रभाव के कारण राज्यों के मुख्यमंत्रियों का कद घटा है।

संस्थागत संस्कृति का दूसरा स्रोत उच्चतम न्यायालय हो सकता है। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि संघवाद जैसे मुद्दों पर भी वह बहस चाहेगा या नहीं। सच्चाई इतनी ही है कि अभी तक वित्त आयोग जैसे गंभीर मुद्दों पर दलीय सहमति हुआ करती थी। लेकिन आने वाले समय में यह भी खत्म कर दी जाए, तो कोई बड़ी बात नहीं है।

संघवाद को बनाए रखने का चौथा आधार ‘विषम संघवाद’ है, जिसमें राज्यों को विशेष छूट दी जाती है। परंतु यह हमेशा तीन प्रकार के दबावों से प्रभावित रहा है। कश्मीर के संदर्भ में विषम संघवाद का सहारा लिया गया, परंतु संकल्प के रूप में नहीं, वरन् सुरक्षा के खतरे के रूप में। पूर्वोत्तर राज्यों के स्थानीय संघर्ष के संदर्भ में सुरक्षा उपलब्ध कराने के नाम पर केंद्र को हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। इसके बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के साथ अनुकूलता दिखाने के लिए विषम संघवाद के अंतर्गत कौन सा कानून काम करेगा, का प्रश्न मुँह बाए खड़ा है।

भारतीय संविधान में संघवाद पर सबसे दूरगामी परिवर्तन जीएसटी था। यह प्रणाली में केंद्रीकरण को बढ़ाता है। लेकिन अंततः यह राज्यों के सहयोग से जुड़ा हुआ है। केंद्र के द्वारा भुगतान पर अपनी प्रतिबद्धता से पीछे हटने पर राज्यों ने विरोध दर्ज किया। ऐसा लगता है कि केंद्र में चल रही वित्तीय मंदी का राज्यों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन ज्यादा धक्का-मुक्की नहीं  होगी।

राज्य अपनी स्वायत्तता का चयन चुनिंदा तरीके से करेंगे। अधिकांश राज्य ग्रामीण और शहरी निकायों के भीतर अधिक विकेंद्रीकरण का स्वागत नहीं करना चाहते हैं। हरियाणा और मध्यप्रदेश जैसे राज्य निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण लाने का प्रयास कर रहे हैं। यह न केवल पार्टी के ‘एक राष्ट्र, एक सब कुछ’ के नारे के विरूद्ध है, बल्कि संवैधानिक सिद्धांतों का भी उल्लंघन है। यह सच है कि केंद्र संसाधनों पर प्रतिकूल नियंत्रण रखता है, लेकिन राज्यों ने अपने कर संबंधी अधिकारों के साथ कोई तीर नहीं मार लिया है।

अतः संघवाद का लचीलापन उसे प्रत्येक दिशा में झुका सकता है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह सारा खेल केंद्र बनाम राज्यों का नहीं है। इसके लिए केंद्र और राज्यों की राजनीतिक संस्कृति जिम्मेदार है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रताप भानु मेहता के लेख पर आधारित। 10 दिसम्बर, 2020

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