एक नया लोकतंत्र ?

Afeias
18 Sep 2020
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Date:18-09-20

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अपने आदर्श स्वरूप में लोकतंत्र स्वतंत्र और निष्पक्ष, बहु-पक्षीय, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और निश्चित अवधि के लिए होने वाले चुनावों पर आधारित है। विश्व का एक बड़ा हिस्सा, शासन के इसी तंत्र पर टिका हुआ है। इसमें अधिकांश मतों से जीतने वाली एक राजनीतिक पार्टी, मतदाताओं की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है, और सरकार बनाती है। अन्य दल अगले चुनाव तक विपक्ष में रहते हैं।

इस तंत्र की सरलता, इसके कुछ संरचनात्मक दोषों को छुपाती है। ‘बहुमत के वोट’ अधिकांश समय तक अल्पसंख्यक वोटों की सवारी करते हैं। शायद ही कभी कोई सरकार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में जीते गए केवल बहुमत के वोटों से बनती है। 1984 में राजीव गांधी के बहुमत में केवल 2%  की कमी रह गई थी। ऐसा उदाहरण फिर कभी सामने नहीं आया। अमेरिकी चुनाव भी ऐसे ही जीते जाते हैं।

लोकतंत्र से क्या पाया, क्या खोया ?

यह ऐसा तंत्र है, जो 21वीं शताब्दी में भी सार्वभौमिक बनने से बहुत दूर है। इसका अपना जीवन सौ वर्षों से भी कम का है। अधिकांश विकसित देशों में वयस्क मताधिकार को सौ वर्ष पूरे करने बाकी हैं। अमेरिका में श्वेत महिलाओं को तो इसे पूरा किए सौ वर्ष हो गए हैं, परंतु अश्वेत महिलाओं को नहीं। स्विस महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त किए 50 वर्ष से भी कम समय हुआ है।

लोकतंत्र जब आया, तो अकेले नहीं आया था। इसके साथ ही व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था और सभी के लिए समानता की गारंटी शामिल थी। इसमें जीवन और समृद्धि की स्वतंत्रता जैसे पूंजीवाद के अदृश्य घटक भी थे।

चुनावों ने सरकारों के परिवर्तन का रास्ता खोला था, लेकिन साथ ही शासन को चुनौती के विरूद्ध सुरक्षा की गारंटी भी दी थी। ऐसी चुनौती केवल बाहरी क्रांतियों के माध्यम से आ सकती थी। लेकिन अंततः ये क्रांतियां और इनके वैचारिक सलाहकार भी ‘लोकतंत्र’ के नशे से बच नहीं सके।

लोकतंत्र के ‘मुक्त बाजार’ वाली विशेषता को हटाए जाने की चाह थी। परंतु तब यह क्रांतियों के माध्यम से संभव नही हुआ। आज वही अपने आंतरिक कारणों से खतरे में है।

सिद्धांत और स्वरूप –

दुनिया भर में धन का संक्रेंद्रण 1% लोगों के हाथ में है। इसका प्रभाव राजनीतिक प्रक्रिया पर पड़ रहा है। पूंजीवाद का खोखला होता यह स्वरूप लोकतंत्र के अन्य घटकों को भी प्रभावित कर रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव भी खोखलापन लिए चल रहे हैं। मत की स्वतंत्रता की धारणा, बंद चार दीवारों में असंख्य हेरफेर के साथ विकृत हो जाती है। पूरी चुनावी प्रक्रिया को जिम्मेदार संस्थान पर नियंत्रण के दुरूपयोग के साथ ही विफल कर दिया जाता है। असंतोष या विरोध को सरकार की देशभक्ति या राष्ट्रवाद की प्रतिशोधी मांगों में दबा दिया जाता है। देशभक्ति की भावना का उपयोग करके निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था को घेर लिया जाता है। स्वतंत्र मीडिया पर नियंत्रण रखकर उसे झूठी खबरों का प्रसार-तंत्र बना दिया जाता है। धर्म की राजनीति के द्वारा समुदायों के बीच घृणा फैलाई जाती है। असंतुष्टों को झूठे आरोप लगाकर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता है।

इसमें नया कुछ भी नही है। आज जो भी हम देख रहे हैं, उन सभी को इतिहास में घटते देखा जा चुका है। एडोल्फ हिटलर का उदाहरण हमारे सामने है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि अपनी तानाशाही के लिए हिटलर संविधान को नष्ट करना चाहता था, लेकिन आज के लोकतांत्रिक और प्रगतिवादी संविधानों ने शासकों को इसके दुरुपयोग के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु पर्याप्त स्थान दे रखा है। इसे मतदाताओं के लिए सुहावना और रोचक बना दिया जाता है। यह विडंबना ही है कि इसे समझे बिना मतदाता चुनाव में बढ़-चढ़कर भाग लेते है। वे इस दुरुपयोग का कोई संज्ञान नहीं लेते हैं।

वैश्विक परिदृश्य –

अगर धन और सत्ता के संक्रेंद्रण का यह दुरुपयोग केवल भारत की स्थितियों में जन्मा होता, तो अलग बात थी। परंतु यह तो अमेरिका, चीन, रशिया, ब्राजील, हंगरी, तुर्की और पता नहीं कहां-कहां तक फैला हुआ है। इस पर किसी खास व्यक्तित्व या नेता के जादू का तर्क देना व्यर्थ हैं।

इसका अर्थ है कि हम लोकतंत्र के शासन के भीतर से एक प्रणालीगत परिवर्तन को देख रहे है। यह उदार, समतावादी, सामाजिक और आर्थिक वायदों के विपरीत आर्थित और राजनीतिक शक्तियों के उच्च संक्रेद्रण से प्रेरित सामाजिक जीवन दे रहा है। फिर भी ‘लोकतंत्र’ इसका ट्रेडमार्क है। इसमें न तो एक अल्पकालिक जीवन के साथ विपथन का संकेत है, और न ही यह कोई सहज घटना है। इसका पैमाना बहुत विस्तृत है। क्या यह मानवता के लिए ‘नया’ लोकतंत्र है ?

‘द हिंदू’ में प्रकाशित हरबंस मुखिया के लेख पर आधारित। 2 सितम्बर, 2020