सोशल मीडिया संकट

Afeias
17 Sep 2020
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Date:17-09-20

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हाल ही में फेसबुक को लेकर चल रहे विवाद ने, बड़े और महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर, राजनीतिज्ञों का ध्यान व्यक्तित्वों तक सीमित कर दिया है। अपने उपभोक्ताओं के विचारों और भावनाओं को सीधे प्रकाशित और सार्वजनिक करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफार्म, आज सबसे बड़े और प्रभावशाली मीडिया बन गए हैं। इन मंचों ने गोपनीयता पर एक तरह के आक्रमण के माध्यम से डिजिटल विज्ञापन बाजार पर एकाधिकार सा स्थापित कर लिया है। ये उन उपयोगकर्ताओं के खिलाफ ही काम करते है, जो अपनी सामग्री बनाते और उपभोग करते हैं। उनकी हर ऑनलाइन सूचना और गतिविधि पर जासूसी की जाती है।

ये कंपनियां सभी उपयोगकर्ताओं पर नजर रखती हैं। अपने मंचों पर प्रकाशित सभी कुछ पढ़ती हैं। उन्होंने विचारों की मूलभूत स्वतंत्रता के लिए जरूरी गोपनीयता को नष्ट कर दिया है। पिछले 500 वर्षों में यदि हर पुस्तक, अखबार आदि अपने प्रत्येक पाठक की जानकारी मुख्यालय को देते रहते, तो लोकतंत्र और मानवाधिकारों की नींव कभी अस्तित्व में ही नहीं आती।

ये कंपनियां इसलिए मौजूद हैं, क्योंकि कानून उनकी गतिविधियों के बुरे परिणामों की अनदेखी कर रहा है। जबकि अन्य प्रकाशकों के साथ ऐसी नरमी नहीं बरती गई है। नागरिकों को अपने प्रति गलत प्रकाशित होने पर कानूनी अधिकार दिए गए है। सोशल मीडिया से जुड़ी कंपनियों ने आपसी सामाजिक जिम्मेदारी के दायरे से खुद को बाहर रखने में सफलता प्राप्त कर ली है। अपने उपयोगकर्ताओं के पीछे छुपकर वे ऐसा कर रही हैं।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79 के अंतर्गत न्यायालय के आदेश की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने या उपयुक्त सरकारी एजेंसी द्वारा अधिसूचना प्राप्त करने पर मध्यस्थ कंपनियां, सामग्री को शीघ्र हटा सकती है। इससे उन्हें प्रतिरक्षा का लाभ मिल जाता है। वर्तमान संकट की विडंबना यह है कि कोई भी सरकार नहीं चाहती कि स्थानीय या बहुराष्ट्रीय मंच केवल पाइपलाइन की तरह काम करे, क्योंकि सभी को अपनी सामग्री को विनियमित और संपादित करने के लिए प्लेटफार्मों की आवश्यकता होती है, जिससे कॉपीराइट के उल्लंघन को रोका जा सके, अभद्र भाषा को अवरूद्ध किया जा सके या राजनीतिक नेतृत्व के भ्रष्ट उद्देश्यों को आगे बढ़ाया जा सके।

किसी कानूनी दायित्व के बिना नागरिकों को हानि पहुंचाने वाली इन कंपनियों को राजनीतिक दलों से लगातार सौदेबाजी करनी पड़ती है। इन सबका परिणाम समाज और राजनीति में आई गंदगी के रूप में सामने आ रहा है। ये कानून से ऊपर उठ गई हैं। ये मानने लगी हैं कि उन्हें वह कभी नहीं करना चाहिए, जो सरकार लगातार उन्हें करने के लिए मजबूर करती है। वे अपने मंच से गुजरने वाली सभी सामग्री को संयत करती है। ऐसा वे सामाजिक दण्ड मुक्ति की मिली सुविधा को बनाए रखने के लिए करती हैं।

इस अंतनिर्हित विरोधाभास के कारण भविष्य में प्लेटफार्म कंपनियों के सरकारी विनियामन के बारे में सोचना बेकार है। देश में अतिरिक्त प्रतिबंधों या दायित्वों को लागू करने से सरकार द्वारा लगाई गई सेंसरशिप के साथ ही निजी क्षेत्र में मंचों की दादागिरी बनी रह सकती है। अतः 2018 के इंटरमीडिएरीज गाइडलाइन्स में संशोधन करना, समाधान के बजाय समस्या को बढ़ा सकता है।

यही कारण है कि अमेरिका में भी इन मंचों पर अन्य प्रकाशकों की तरह ही सामाजिक दायित्व बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है। इन दबावों का विरोध करने के लिए ये कंपनियां ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के विचार का जोर-शोर से सहारा लेते हुए यह दिखाना चाहेंगी कि ये वास्तव में अपने उपभोक्ताओं का नैतिक प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार के एकाधिकार की शुरूआत करने के पीछे ट्विटर की मुख्य भूमिका रही है।

इस दलदल से बाहर का रास्ता, एक बेहतर सामाजिक नीति द्वारा बनाया जा सकता है। इंटरनेट की शुरूआत संघीय स्वरूप को लेकर की गई थी। इसे केंद्रीकृत करना लक्ष्य नहीं था। नेट के डिजाइन में कोई भी किसी और को सामाजिक रूप से शेयर करने की सुविधा प्रदान कर सकता है।

निःशुल्क साफ्टवेयर पारिस्थितिकी तंत्र का विकास करके सरकार, इंटरनेट के संघीय स्वरूप को बनाए रख सकती है। इसके डिजाइन में पहले से ही ‘शेयरिंग’ का स्वरूप विद्यमान है। इसके वास्तविक रूवरूप को वापस लाकर हम इंटरनेट तकनीक और संस्कृति को बचाए रख सकते हैं। हमें सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की आवश्यकता नहीं है। इनकी तुलना में हम बेहतर और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं। प्राचीनकाल से विज्ञान को लोगों के नियंत्रण में छोड देना हमारी नीति रही है। हमारा भविष्य भी इसी पर केंद्रित होना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित मिशी चौधरी और ईबन मॉग्लन के लेख पर आधारित। 27 अगस्त, 2020

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