सोशल मीडिया की भूमिका में आती जटिलताएं

Afeias
23 Jun 2020
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Date:23-06-20

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हमारे समाज और सरकार में सोशल मीडिया का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही तरह के प्रभाव देखे जाने लगे हैं। चाहे वह गो-रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याएं हों , या पूर्वी दिल्ली में भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगे हों , इन सबकी जड़ सोशल मीडिया पर प्रसारित छद्म या सच्ची घटनाएं , और उनसे संबंधित वीडियो ही रहे हैं। हाल ही में अमेरिका भी इसी से जुड़े संकट से गुजर रहा है। एक अफ्रीकन-अमेरिकन की पुलिस द्वारा की गई हत्या के वीडियो के वायरल होने के बाद ने ट्विटर राष्ट्रपति ट्रंप की अनेक ऐसे ट्वीट उजागर कर दिये , जिनसे ट्रंप के झूठ का खुलासा होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म महज अपने व्यवसाय के नियमों का पालन करते हैं या सच के पैरोकार हैं।

भारत में सूचना तकनीक अधिनियम का अनुच्छेद 79 या इसका समरूप अमेरिका का कम्यूनिकेशन्स डीसेन्सी एक्ट हो , दोनों ही ऐसी सूचना पर मध्यस्थ को निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करते हैं , जिसमें सरकारी हस्तक्षेप को किनारे रखा जाता है। दूसरे , सोशल मीडिया चलाने वाले निकाय निजी मंच हैं , जिन्हें सामग्री को चुनने का अधिकार है। तीसरे ,  इन मंचों के अनुबंध में उन्हें सामग्री के प्रसारण की अनुमति का अधिकार  दे दिया जाता है। चौथे , कभी-कभी समय की मांग को देखते हुए व्यावहारिकता के आधार पर निर्णय लिया जाता है।

भारत में अनुच्छेद 79 के आने के साथ ही यह कहा गया था कि किसी भी गैरकानूनी सूचना के आदान-प्रदान को रोकने में मध्यस्थ की जिम्मेदारी होगी। इसके अंतर्गत गिरफ्तारियां भी की गईं। 2008 में इस प्रावधान को बदल दिया गया। अब सरकारी दिशानिर्देशों के अंतर्गत किसी असामाजिक सूचना को रोकने के लिए प्रयत्न् करना ही मध्योस्थों की जिम्मेरदारी मान ली गई। कंपनियों को अपने नियमन ढांचे बनाने की छूट दे दी गई। इसके चलते सामग्री को सेंसर करने के निर्णय का पूरा अधिकार सोशल मीडिया कंपनियों के हाथ में आ गया।

नियम-कानून के अनुसार तो इन कंपनियों का उद्भव तकनीकी जगत में नवाचार की दृष्टि से हुआ था। यही कारण है कि इनके आधार-स्थल अमेरिका में इन्हें कई अधिकार दिए गए थे। विश्व  के बहुत से देशों में इनकी उपयोगिता को देखते हुए इन्हें  अधिकार प्रदान किए गए।

वास्तव में इन कंपनियों का उद्देश्य लोगों को व्यस्त रखना है। इसके लिए वे लोगों को अपने में उलझाकर रखना चाहते हैं। इनका एकमात्र यही लक्ष्य‍ होता है। सच-झूठ से उनका कोई वास्त नहीं है। मार्क जकरबर्ग का तो यह भी कहना है कि अगर उन्हें किसी सूचना का उत्तरदायित्व लेने के लिए बाध्य किया गया , तो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे , क्योंकि इन निजी कंपनियों के अपने नियम-कानून और सामुदायिक दिशानिर्देश हैं। अत: वे इसे पूर्ण रूप से समाज पर छोड़ देते हैं कि लोग इन मंचों का कैसा उपयोग करना चाहते हैं। इसे मिथ्या खबर उड़ाकर मजा लेने वालों को सौंप देना चाहते हैं या सच को प्राथमिकता देने वालों का सम्मान करते हैं।

बड़ी-बड़ी तकनीकी कंपनियों के पास की शक्ति समस्या बन सकती है। अत: इनका नियमन आवश्यक है। परन्तु यह ऐसा हो , जो इंटरनेट के लाभों को प्रभावित न करे। यह सच है कि इन मंचों व्दारा सूचना सामग्री को जिस प्रकार से प्रसारित होने दिया जा रहा है , वह समस्याजनक है। लेकिन अगर इनके आत्म-नियमन कानूनों में सरकारी हस्तक्षेप का रास्ता , खोल दिया जाए, तो यह नागरिक स्वतंत्रता पर शिकंजा कसने जैसा हो जाएगा। भारतीय न्यायालयों ने इन कंपनियों को दोषी ठहराए जाने वाले मामलों में इन्हें बरी कर दिया है। आदर्शतम स्थिति होगी कि ये कंपनियां स्वयं ही उस दायरे में रहें जिनके लिए ( नवाचार) इनका जन्म हुआ है। इनके द्वारा किसी सच का उजागर होना , केवल एक संयोग है।

समाचार पत्रों पर आधारित।