श्रमिकों के अनुकूल शहरी ढांचा

Afeias
05 Jun 2020
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Date:05-06-20

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भारतीय नगरों की रोजमर्रा की जिन्दगी अनेक प्रकार के नगद हस्तांतरण से संपन्न  होती है। इसको अगर हम प्रवासी मजदूरों की गांव वापसी की आतुरता से जोड़कर देखें, तो समझ सकते हैं कि कैसे उन्हें पानी, आवास और आवागमन की निम्नस्तरीय सुविधाओं के लिए कदम-कदम पर पैसा देना पड़ता है। ऐसे भुगतान केवल वेतनभोगी मजदूरों को नहीं, बल्कि दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों को भी करने पड़ते हैं। विव्दानों ने इसे ‘पॉवर्टी प्रीमियम’ का नाम दिया है, क्योंकि ऐसे भुगतान, मजदूरों की कमाई की तुलना में बहुत भारी होते हैं। नगरों में प्रवास करने वाले मूजदूरों की हालत केवल कोरोना के कारण दयनीय नहीं है, बल्कि यह तो हमेशा ही ऐसी रही है।

अर्थव्यवस्था और जन एक-दूसरे के पूरक हैं। अगर हमें दोनों को साथ लेकर चलना है, तो नगरों में सामाजिक सुरक्षा के बुनियादी ढांचे की नींव रखी जानी चाहिए। अगर यह रोजगार देने वाला स्थानीय और परिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील हो, तो सर्वोत्कृष्ट कहा जा सकता है।

इस हेतु नगरों में रोजगार-योजना की शुरूआत की जानी चाहिए, जो उनके वेतन को स्थायित्व दे, और उनके व्दारा समय-समय पर लिए जाने वाले ऋण से उन्हें मुक्त कर दे। मध्यावधि में यह दैनंदिनी खर्चों पर आने वाले बोझ को संभाल सके इससे कोरोना की तरह आने वाले झटकों में संभलने का अवसर रहेगा, और मानव विकास परिणामों में सुधार होगा।

कई राज्यों ने इस तथ्य को जान लिया है कि मजदूरी के स्थायित्व से जन्मी मांग के बिना आपूर्ति जैसा प्रोत्साहन, अर्थव्यवस्था को गति नहीं दे सकता। हिमाचल प्रदेश और ओडि़शा ने शहरी रोजगार गारंटी को पारित भी कर दिया है। इस दिशा में अभी स्प्ष्ट निर्देश देने बाकी हैं।

शहरी रोजगार गारंटी योजना कई प्रकार से मददगार हो सकती है। एक विस्तृ्त खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को श्रमिकों, रिक्शा और ठेलेवालों के माध्यम से अधिक सफल बनाया जा सकता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह स्वाच्छता , अपशिष्ट, सिवेज, पानी आदि की बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाएगा। हमारे नगरों को सामुदायिक क्वारंटाइन, छोटी डिस्पेंसरी मोहल्ला क्लीनिक आदि की व्यवस्था के लिए भी सुविधाएं जुटानी होगी।

इस रोजगार योजना को रहवासियों और मजदूरों के सामंजस्य से डिजाइन, निर्माण और तंत्रों के परिचालन का ढांचा साथ लेकर चलना होगा। इसमें यह भावना अंतर्निहित हो कि प्रवासी मजदूर केवल सुविधाभोगी न बनें, बल्कि इस पूरे निर्माण का हिस्सा बन सकें।

इस कार्यक्रम को स्थानीय आधार पर डिजाइन और निर्मित करने के लिए एक बड़ी पूंजी की भी आवश्यकता नहीं है।

हमारी अर्थव्यवस्था की क्षतिपूर्ति की निर्भरता अब गांव लौट चुके मजदूरों पर नहीं होनी चाहिए। उनका लौटना या न लौटना उन शहरों पर निर्भर करेगा, जो उनके वापस चले जाने के कारणों का निराकरण कर सकेंगे।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित गौतम भान के लेख पर आधारित। 28 मई 2020