26-11-2019 (Important News Clippings)
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Hold floor test
The more the delay in Maharashtra assembly, the greater the opportunities for horse trading
TOI Editorials
With NCP chief Sharad Pawar claiming that most of his MLAs barring a few have returned to his fold, it is incumbent upon the three-day-old government in Maharashtra to prove its majority at the earliest. Given the current murky situation where rumours are constantly swirling about the fluctuating loyalties of opposition MLAs, only a floor test in the legislative assembly can certify the numbers on the side of BJP and Ajit Pawar’s NCP faction. However, chief minister Devendra Fadnavis has shown no urgency to face the house.
This is where Supreme Court needs to step in and quickly order a floor test, to be held within a day or so. Further delay only opens avenues for horse trading. Hung assemblies by their very nature are an invitation for unorthodox political arrangements but a red line is crossed when money power and intimidatory tactics are used. Unfortunately, constitutional authorities like the Governor and Speaker have disappointed in upholding conventions that have evolved since the 1990s, when India moved into the coalition era, thereby landing every dispute at the Supreme Court’s door.
For instance, in the present case governor Koshyari could have taken more time to ascertain Ajit’s claim of NCP support for BJP given how the party was involved at that time in highly publicised negotiations with Shiv Sena and Congress for alliance formation. The best course now is for Supreme Court to adhere to its earlier judgments in similar cases, consistently upholding the sanctity of the floor test. In the last such instance, on May 18 last year SC ordered the Karnataka assembly confidence vote to be conducted the very next day at 4pm, with the proceedings telecast live. That’s an excellent precedent to follow.
A month after electing a new assembly, governance has become the casualty in Maharashtra with political parties obsessing over maximising their gains in Cabinet formation. With opposition MLAs being herded into plush hotels and allegations of crores being offered to them to cross over, Maharashtra politics presents a distressing contrast to the grim economic prospects of ordinary people. This is an unsustainable situation and Supreme Court remains the last hope.
मूल्यों में गिरावट के बीच आज संविधान दिवस है
संपादकीय
ठीक 70 साल पहले 26 नवंबर, 1949 को हमने अपना संविधान अंगीकार किया। संविधान सभा के उद्घाटन भाषण में 9 दिसंबर, 1946 को अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा ने न्यायविदों की दुनिया में सर्वाधिक सम्मानित जस्टिस जोसफ स्टोरी का मशहूर कथन उधृत किया, ‘इसका ढांचा और नींव बेहद होशियार और पूर्ण निष्ठावान, नैतिक और बुद्धिमान महापुरुषों द्वारा खड़ी की गई है, लेकिन जनता की मूर्खताओं, भ्रष्टाचार और गैर-जिम्मेदारी के कारण गणतंत्र की यह इमारत मात्र एक घंटे में ढह सकती है।’
आज महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है और जिसके किरदार केवल राजनीतिक दल और उनके विधायक ही नहीं, संवैधानिक संस्थाओं पर बैठे लोग भी हैं, उसे देखने के बाद लगता है कि कहीं हम इस भव्य इमारत को जाने-अनजाने में गिराने तो नहीं लगे हैं? अभी कुछ हफ्ते पहले ही जिन्हें जनता ने चुनकर जनप्रतिनिधि के रूप में भेजा, उनसे यह डर है कि पैसे या पद के लालच में वे जनता का विश्वास तोड़ते हुए पाला बदल सकते हैं। लिहाज़ा, होटलों और रिसोर्टों में छिपाया जा रहा है। जिसे संविधान के अभिरक्षण, परिरक्षण और संरक्षण की जिम्मेदारी दी गई थी, ऐसे राज्यपाल पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह सत्ता में बैठे ‘आकाओं’ के इशारे पर काम कर रहे हैं और यह पहली घटना नहीं है।
क्या हम 138 करोड़ लोग गणतंत्र की इस इमारत को दरकने न देने वाले कुछ सौ ऐसे लोग भी नहीं ढूंढ पा रहे हैं? शायद गलती हमारी है, जिसका स्पष्ट संकेत जोसफ स्टोरी ने लगभग सौ साल पहले दिया था। दशकों से हमने अपने जनप्रतिनिधि चुनने में जात-पांत, धर्म, भय, शराब व अन्य लालच और दबाव सहित अनेक संकीर्णताओं को तरजीह दी। नतीजतन राजनीति में अच्छे लोगों का आना बंद हो गया और अगर किसी ने हिम्मत भी की तो वह हमारे द्वारा ख़ारिज कर दिया गया। तभी तो चार हफ्ते पहले चुना गया विधायक छिपाकर रखा जाने लगा कि कोई बोली लगाकर उसे ‘उठा’ न ले।
महात्मा बुद्ध के अंतिम शब्द थे ‘अपने शरण (मुक्ति) के लिए किसी और को नहीं अपने अंदर देखो’। अगर हमें इस गणतंत्र को अपनी मुक्ति का साधन बनाना है तो अपनी गलतियों को देखना होगा। अमेरिकी राजपुरुष डेनियल वेबस्टर की उक्ति ध्यान देने लायक है कि ‘देश को कोई बर्बाद नहीं कर सकता अगर लोग इसकी सुरक्षा में खड़े हों और कोई बचा नहीं सकता अगर यह काम दूसरों के भरोसे छोड़ दें।’
Date:26-11-19
भारतीय लोकतंत्र का ‘नैतिक पतन’ या ‘न्यू नॉर्मल’
आनंद पांडेय
राजनैतिक वैज्ञानिक और बौद्धिक विलास में लिप्त रहने वाले… सभी असमंजस में हैं। वो तय नहीं कर पा रहे हैं कि सरकार बनाने के लिए बेमेल गठबंधन और हॉर्स ट्रेडिंग को किस श्रेणी में रखा जाए? नैतिक पतन की या न्यू नॉर्मल की?
न्यू नॉर्मल (नया सामान्य) यानी जो चौंकाए नहीं… जिसे समाज ने स्वीकृति दे दी हो, अपना लिया हो और जिस पर बौद्धिक जुगाली न होती हो। जैसे- लव मैरिज। कुछ दशक पहले तक लव मैरिज की मोहल्ले ही नहीं बल्कि पूरे शहर में चर्चा होती थी। पर अब समाज का न्यू नॉर्मल है… कोई जिक्र तक नहीं करता। हालांकि भारतीय राजनीति के शुरुआती दौर में जब धुर वैचारिक विरोधी दलों ने हाथ मिलाए तो उसे हिकारत से देखा और समझा गया। फिर गठबंधन को वक़्त की जरूरत बताया जाने लगा। 2015 में जम्मू कश्मीर में विचारधारा के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी पीडीपी और बीजेपी ने मिल कर सरकार बनाई। कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए जेपी आंदोलन की कोख से जन्मे लालू यादव कांग्रेस की गोद में ही जा बैठे। उत्तरप्रदेश में बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए एक दूसरे के खून की प्यासी सपा-बसपा एक हो गईं। कांग्रेस के विरोध की बुनियाद पर ही अपनी राजनैतिक बुलंदियों पर पहुंचने वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से ही सरकार बना ली। यानी जब-जब जनमत की कोख से विकृत शिशु ने जन्म लिया तब-तब ऐसे बेमेल गठबंधन होते रहे। वर्जनाएं टूटती रहीं, सरकारें बनती रहीं… निष्ठा और शुद्ध अंतःकरण के नाम पर। कभी प्रधानमंत्री बनकर देवगौड़ा तो कभी निर्दलीय मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बन कर जनता को अचंभित करते रहे।
इन सब के बीच बेचारा मतदाता ठगा-सा खड़ा रहा। हालांकि वह जानता है कि केवल वक्तव्य नीयत की जमानत नहीं हो सकता, इसके बावजूद नेताओं के वादों पर भरोसे के सिवा कोई रास्ता होता नहीं है। उसकी यही पुरानी और आत्मघाती बीमारी आखिरकार उसके लिए घातक साबित होती है। लेकिन भद्र चुप्पी साधकर अब मतदाता इस सब को मान्यता देने लगा है। पहले अजीत पवार को भ्रष्टाचारी बताकर जेल की चक्की पिसवाने की बात कहने वाले फडनवीस अगर उनके साथ ही शपथ लेते हैं तो महाराष्ट्र या राष्ट्र का मतदाता कतई चौंकता नहीं है। यदि कट्टर हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने वाली शिवसेना और धर्मनिरपेक्षता की कसमें खा-खाकर गला सुखा डालने वाली कांग्रेस, राजनीति के रंगमंच पर साथ में धमाल मचाती हैं तो भी मतदाता खामोश रहता है। चुनाव के पहले सुविधा के मुताबिक गठजोड़ और चुनाव के बाद जरूरत के मुताबिक रिश्तेदारी… आखिर इसे जनता के साथ विश्वासघात और खुला छल क्यों नहीं मानना चाहिए? क्योंकि उम्मीदवार के अलावा अगर वोटर किसी बात को तरजीह देता है, तो वो पार्टी की विचारधारा ही होती है। ऐसे में सैद्धांतिक निष्ठा को दरकिनार कर जब पीठ मिलाकर खड़ी पार्टियां सत्ता के मोह में गले लगती हैं, तो जनता के पास टुकुर-टुकुर देखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता है।
…क्योंकि जनता मान चुकी है कि भारत में भ्रष्टाचार, ईश्वर के बाद सर्वाधिक सर्वव्यापी है… और राजनेताओं के पास जब तक ये अनमोल पूंजी है, तब तक बहुमत से दूर किसी भी पार्टी को अकेलेपन का अभिशाप नहीं झेलना पड़ेगा। …और जनता के लिए तो ये सब अब राजनीति का न्यू नॉर्मल हो ही चुका है।
संप्रग, राजग और बुरी खबर का दौर
टीसीए श्रीनिवास-राघवन
जरा इस बारे में विचार कीजिए। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को अपने दूसरे कार्यकाल में वैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जैसी कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) को 2009 में दोबारा चुनाव जीतने के बाद करनी पड़ी थीं। कोई सप्ताह ऐसा नहीं बीतता जब कोई बुरी खबर नहीं मिलती हो। अंतर केवल यह है कि मनमोहन सिंह की सरकार के समय व्यापक भ्रष्टाचार ने समस्या पैदा की थी जबकि मोदी सरकार के दौर में अर्थव्यवस्था इसकी वजह है। एक के बाद एक बुरी खबरों के आने का सिलसिला जारी है। उस वक्त डॉ. सिंह असहाय प्रतीत हो रहे थे और लगभग लडख़ड़ा रहे थे। निजी तौर पर वह भ्रष्ट नहीं थे बल्कि वह तो इससे कोसों दूर थे। परंतु उनके साथ काम करने वालों ने उन्हें नीचा दिखाया।
मोदी के साथ भी ठीक यही बात है। छह वर्षों से सत्ता में रहने के बावजूद उन्हें अब तक इस बात का अंदाजा नहीं हो सका है कि आखिर कहां क्या गड़बड़ी है। सन 2013 तक यानी मनमोहन सिंह की सरकार के अंतिम पूर्ण वर्ष के दौरान आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबरों के आगमन का सिलसिला शुरू हो गया था। इसका सबसे अधिक राजनीतिक फायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। मतदाताओं ने उनके हर वादे पर यकीन किया। वर्ष 2012 में मुद्रास्फीति की जो भूमिका संप्रग के लिए थी यदि 2022 में भ्रष्टाचार राजग के लिए उसी भूमिका में आ जाता है तो यह देखना काफी दिलचस्प होगा।
संप्रग की छवि साफ-सुथरी करने की कोशिश में डॉ. मनमोहन सिंह ने कई जांच और दंडात्मक कार्रवाइयों की घोषणा की। परंतु इनसे कोई मदद नहीं मिली। मोदी ने भी अर्थव्यवस्था को लेकर जल्दबाजी में ऐसी ही घोषणाएं की हैं और आगे भी करेंगे। यह तो समय ही बताएगा कि इससे कोई मदद मिलती है या नहीं। वर्ष 2012 के आखिर तक संप्रग के गैर कांग्रेसी सदस्यों ने लगभग समर्पण कर दिया। उनमें से कई ने मुझसे कहा कि वे अब आराम करना चाहते हैं और अपने नाती-पोतों के साथ खेलना चाहते हैं। राजग के साझेदारों को भी भाजपा के साथ वही समस्या है। एकता की जगह विविधता ले रही है। स्पष्ट है कि राजनीतिक आवश्यकताएं किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। यह याद करना भी उचित होगा कि सन 2010 में भाजपा पूरी तरह निराश थी और कांग्रेस को साफ बढ़त नजर आ रही थी। परंतु 2014 आते-आते हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।
कांग्रेस की स्थिति इसलिए खराब हो गई क्योंकि उसकी छवि के साथ अक्षमता और कुटिलता जैसी बातें जुड़ गईं। अवधारणाएं इसी प्रकार बनती हैं। उनमें तथ्यों के लिए कोई स्थान नहीं होता। मोदी सरकार फिलहाल इसी समस्या से जूझ रही है। आम धारणा यह है कि सरकार को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था के औद्योगिक उत्पादन में अचानक आ रही भारी गिरावट की समस्या से कैसे निपटा जाए। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 15 फीसदी है। यहां तक कि जब सरकार सही कदम उठाती है तब भी सरकार की आलोचना की जाती है। निश्चित रूप से सच यह है कि सरकार ने वही कदम उठाए हैं जो अर्थशास्त्रियों तथा वृहद, सूक्ष्म, कराधान तथा प्रशासनिक मामलों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों ने सुझाए।
सरकार की कदम उठाने की गति भले ही निराश करने वाली हो, लेकिन उसकी दिशा गलत नहीं है। परंतु जनता का मिजाज ऐसा हो चुका है कि वह क्षमा करने के मूड में नहीं है। एक बार अगर जनता की धारणा बन गई तो सरकार जिन सीमाओं के भीतर काम कर रही है, वे केवल एक बचाव की तरह नजर आएंगी। एक बड़ी पहेली जिसके बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूं, वह है सरकार की राजनीतिक नीतियों और आर्थिक नीतियों के बीच कोई तालमेल न होना। राजनीति में बड़ी चीजों के बारे में बातें और उससे जुड़ी अवधारणाएं चुनाव जीतने में मददगार साबित हो सकती हैं।
यह संप्रग से उलट है। उसके कार्यकाल में अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत सही दिशा में थी। कम से कम तब तक जब तक प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री नहीं बन गए। उनके वित्त मंत्री बनने के बाद उन्होंने क्या कुछ किया यह वही बता सकते हैं। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की तरह मोदी सरकार को भी ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है जहां सारी गड़बडिय़ां एक साथ घटित होती हैं। यह एक ऐसी नाव की तरह हो चुकी है जिसमें सैकड़ों छेद हो चुके हैं। नौका चालक दल को यह पता नहीं है कि नाव से पानी बाहर निकालना है या छेद भरने हैं।
औद्योगिक वस्तुओं की मांग में फिलहाल जो कमी आई है वह काफी हद तक ऐसी ही है। सरकार उपभोक्ताओं की मांग और निवेश पर व्यय बढ़ाने की दिशा में खूब प्रयास कर रही है लेकिन सबकुछ सही नहीं हो पा रहा है। ऐसे में सरकार को क्या करना चाहिए? सरकार के पास केवल एक ऐसा उपाय है जो आर्थिक रूप से समझदारी भरा माना जा सकता है: वह है व्यय में कटौती करना। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार के पास धन की कमी है। परंतु ऐसा करते हुए भी उसे संप्रग सरकार में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम का तरीका नहीं अपनाना चाहिए। चिदंबरम ने व्यय को छिपाने और लंबित करने का तरीका अपनाया था।
निश्चित तौर पर उपभोक्ताओं और निवेशकों के रुझान में आई भारी कमी के लिए सरकार का बहुत अधिक खर्च करना भी उत्तरदायी है। इसके अलावा सरकार कर राजस्व भी चाहती है। सरकार को थोड़ा सहज रहने की आवश्यकता है। अर्थशास्त्री कींस की बातों को याद करें तो इस समय अर्थव्यवस्था में जो कुछ हो रहा है वह उनके द्वारा सोचे गए तौर तरीकों से एकदम उलट है। जब चीजें उस तरह नहीं घटित होतीं जैसे उन्हें होना चाहिए तब वैसी स्थिति बनती है जैसी अभी बनी हुई है। उस स्थिति में गति को धीमा करना होता है।
Date:26-11-19
आरसेप से दूर रहकर गंवा दिया बड़ा मौका
तुलनात्मक बढ़त बनाने की प्रक्रिया में कुछ क्षेत्र पीछे छूट जाएंगे। हालांकि यह एफटीए ही नहीं बल्कि सभी तरह के व्यापार में होता है। आरसेप के बहाने एफटीए पर रोशनी डाल रही हैं
अमिता बत्रा , (लेखिका जवाहरलाल नेहरू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर हैं)
भारत ने 16 देशों वाले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसेप) समझौते का हिस्सा न बनने का फैसला किया है। अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्रों को लेकर जुड़ी चिंताओं, सेवा क्षेत्र के उदारीकरण, पेशेवरों की आवाजाही से संबंधित मोड-4 और चीन एवं आसियान देशों के साथ व्यापार घाटा बढऩे की आशंका ने भारत को इस प्रस्तावित समझौते से दूर रखा है। अब हम दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की समीक्षा के अलावा अन्य देशों के साथ एफटीए पर नए सिरे से विचार करने की भी सोच रहे हैं। मौजूदा समय एफटीए, खासकर आरसेप के कुछ पहलुओं पर रोशनी डालने के लिए मुफीद हो सकता है।
पहली और सबसे खास बात, हमें यह स्वीकार करने की जरूरत है कि एशिया में बहुत बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते होना अपरिहार्य है। समान सोच वाले देश इन समझौतों का इस्तेमाल साझा हितों को साधने और मध्यवर्ती एवं अंतिम उत्पादों की आवाजाही को संभव बनाने के लिए नियम एवं अनुशासन विकसित करने के लिए करते हैं। यह वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) के लिए अनिवार्य है। आरसेप ऐसा ही एक विशाल क्षेत्रीय व्यापार समझौता है और इसका हिस्सा बनने से भारत क्षेत्रीय एवं वैश्विक मूल्य शृंखला का अंग बन सकता था। पूर्व एशिया वैश्विक वित्तीय संकट खत्म होने के बाद जीवीसी गतिविधियों का सबसे गतिशील केंद्र रहा है और इस अवधि में पूर्वी एशिया के साथ यूरोप एवं उत्तर अमेरिका दोनों की ही जीवीसी गतिविधियां बढ़ी हैं।
दूसरी, व्यापार समझौते आपसी लेन-देन के सिद्धांत पर काम करते हैं। जहां यह सच है कि समझौते के सदस्य देशों को स्वाभाविक तौर पर बाजार तक पहुंच मिलती है, वहीं यह बात सभी सदस्यों पर लागू होती है। अगर हम कुछ वरीयता देते हैं तो हमें कुछ वरीयता मिलती भी है। जहां मौजूदा (स्थिर) तुलनात्मक बढ़त तरजीही पहुंच के लिए होने वाली एफटीए चर्चा का आधार है, वहीं हमें गतिशील तुलनात्मक बढ़त के लिए भी तैयार होना चाहिए। जीवीसी में शामिल होने से उत्पादों की तुलना में छोटे मध्यवर्ती कार्यों में तुलनात्मक बढ़त बना पाने की गुंजाइश बढ़ जाती है। इस तरह, इस प्रक्रिया में विनिर्माण एवं संबद्ध सेवा गतिविधियों में नई तुलनात्मक बढ़त विकसित एवं पल्लवित हो सकती है। लिहाजा यह जरूरी है कि एफटीए पर चर्चा महज स्थिर धारणाओं के बजाय गतिशील तुलनात्मक बढ़त अनुमानों पर आधारित होनी चाहिए।
तुलनात्मक लाभ की स्थिति पैदा करने के क्रम में कुछ क्षेत्रों को नुकसान उठाना होगा। वैसे यह बात केवल एफटीए पर ही नहीं लागू होती है, सभी तरह के व्यापार में ऐसा होता है। एफटीए समझौतों में व्यापार उदारीकरण और खासकर तरजीही उदारीकरण के साथ श्रम क्षेत्र के लिए मददगार नीतियों एवं कार्यक्रमों की भी जरूरत होती है ताकि नुकसान उठाने वाले क्षेत्रों में व्यापार-जनित विस्थापन को समायोजित किया जा सके। जापान, दक्षिण कोरिया एवं वियतनाम जैसे देशों ने व्यापार सहयोग के लिए विशिष्ट कार्यक्रम चलाए हुए हैं। पुनप्र्रशिक्षण, स्थानांतरण भत्ता, शिक्षा और वित्तीय सहायता के साथ छोटी एवं मझोली इकाइयों और उनके कामगारों को समर्थन देकर मुक्त व्यापार समझौतों और आर्थिक सुधार के दुष्प्रभावों से निपटने की कोशिश की गई है।
तीसरी बात, व्यापार घाटे के संदर्भ में यह लाभप्रद हो सकता है कि जीवीसी के दौर में वस्तुओं के उत्पादन में तीसरे देश की सहभागिता को नहीं जोडऩे वाली आयात-निर्यात की साधारण गणना द्विपक्षीय व्यापार घाटों का सबसे सटीक अनुमान नहीं हो सकती है। यह देखते हुए कि चीन कई देशों के लिए असेंबलिंग एवं पुनर्निर्यात का एक केंद्र है, लिहाजा मूल्य वद्र्धन के आधार पर एक व्यापार संतुलन अनुमान एक उपयोगी कवायद हो सकती है। इससे हम चीन के साथ अपने व्यापार असंतुलन की अधिक सटीक तस्वीर तैयार कर सकते हैं। इसके अलावा निर्यात एवं व्यापार पुनर्संतुलन में वृद्धि वांछनीय उद्देश्य होते हुए भी प्रत्याशित सुनिश्चित परिणाम नहीं है। एफटीए का फायदा उठाने के लिए भारत को घरेलू उद्योग की प्रतिस्पद्र्धात्मकता बढ़ाना, बड़े बाजार सुधार करना और एक अनुकूल व्यापार एवं निवेश परिवेश बनाना जरूरी है। वियतनाम जैसे छोटे देशों ने ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी समझौते में सदस्य बनने की मंशा जताई है ताकि उसे आरसेप की तुलना में कहीं अधिक एकीकरण का लाभ मिल सके और घरेलू आर्थिक सुधारों को अमलीजामा पहनाया जा सके।
चौथी बात, भारत के लिए सेवा क्षेत्र वार्ताओं में उदारीकरण के साधनों से परे जाकर सोचना उपयोगी हो सकता है। आसियान का सीमित आंतरिक सेवा क्षेत्र उदारीकरण और सेवाओं में भारत-आसियान एफटीए का लागू नहीं होना आसियान को राजी करने की राह में आने वाली मुश्किलों का संकेत होना चाहिए। व्यवसाय, वित्तीय, परिवहन एवं लॉजिस्टिक जैसे मूल्य-शृंखला उत्पादन के लिए जरूरी या उनके साथ-साथ चलने वाली सेवाएं या शोध एवं डिजाइन जैसी उच्च सेवाएं भी आरसेप में शामिल होने के बाद नए अवसर पैदा कर सकती हैं। इन क्षेत्रों में अपने संभावित तुलनात्मक लाभ को चिह्निïत करने से बातचीत की प्रक्रिया में कुछ लचीलापन आ सकेगा।
पांचवीं बात, आसियान के साथ भारत के एफटीए के मामले में एक निम्न उपयोगी दर एफटीए प्रभावहीनता या व्यापार पर असर डालने की सीमित क्षमता का अनिवार्य रूप से संकेतात्मक नहीं है। यह कारोबारी लोगों की एफटीए के बारे में सीमित समझ के आधार पर भी हो सकता था। तरजीही मार्जिन एवं स्रोत के नियम के साथ सरकारी प्रयासों एवं उद्योग खासकर एसएमई को सलाह देने से दक्षिण कोरिया जैसे देशों में एफटीए उपयोगी दरें बढ़ाने में मदद मिली है। भारत की ही तरह कोरिया भी एफटीए प्रक्रिया का हिस्सा बाद में ही बना है। एफटीए से व्यापार बढऩे एवं लाभ बढऩे को लेकर बने संदेहों को सरकारी कदमों ने गलत ठहराया है। कंपनियों के लिए शैक्षणिक पाठ्यक्रम चलाना, एफटीए पोर्टलों के जरिये सूचना का प्रसार, कार्यशालाओं का आयोजन एवं रोजमर्रा की सलाह के लिए व्यवस्था बनाना जैसे कदम सरकार उठाती है।
छठी बात, अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ एफटीए करना आरसेप का स्थानापन्न नहीं हैं क्योंकि फिलहाल ये दोनों क्षेत्र वृद्धि या जीवीसी गतिविधियों के मामले में दुनिया के सबसे गतिशील इलाके नहीं हैं। ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अमेरिका की दूसरे देशों के साथ व्यापार वार्ताएं बेहद अप्रत्याशित राह पर रही हैं। भारत के साथ एफटीए को लेकर तो अभी बातचीत शुरू भी नहीं हुई है। वहीं यूरोपीय संघ के साथ एफटीए पर वार्ता 2007 में शुरू हो गई थी लेकिन 12 साल और कई दौर की बैठकों के बाद भी इस समझौते को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। यूरोपीय संघ से वार्ता में सबसे जटिल मुद्दे आरसेप की ही तरह कृषि, सेवाओं का मोड-4, डेयरी क्षेत्र और बौद्धिक संपदा अधिकार के उदारीकरण के हैं। आखिरी और शायद सबसे अहम बात, आसियान-केंद्रित आरसेप समझौते में भागीदारी का मौका गंवा देना हिंद-प्रशांत की आसियान-केंद्रित संरचना में हमारी प्रासंगिकता को काफी मुश्किल बना सकता है। ऐसे में, आरसेप के बारे में थोड़े पुनर्विचार और अगले दो महीनों में व्यापार विशेषज्ञों की मदद से बहुपक्षीय रणनीति तैयार करने और आर्थिक सुधारों को लागू करना वक्त का तकाजा है।
बदहाल झीलें
संपादकीय
उचित देखरेख न हो पाने, अनधिकृत व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ने आदि के चलते प्राकृतिक जलस्रोतों के खत्म होते जाने, उनमें पलने वाले जलजीवों या वहां आश्रय पाए पंछियों, वन्यजीवों आदि का जीवन संकट में पड़ने को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। मगर प्रशासन के स्तर पर इस दिशा में कभी संजीदगी नहीं दिखाई गई। इसी का ताजा उदाहरण है राजस्थान की सांभर झील में बड़े पैमाने पर पंछियों का मरना। इस झील के किनारे बसेरा डाले करीब साढ़े अठारह हजार पक्षी अब तक दूषित जल पीने की वजह से दम तोड़ चुके हैं। साढ़े सात हजार से ऊपर पक्षियों को उपचार के लिए भेजा जा चुका है। इस घटना को लेकर स्थानीय लोगों ने संबंधित विभागों के अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया, पर हैरानी की बात है कि वहां का वन विभाग और पशुपालन विभाग इसकी जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालते रहे। जब यह मामला राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष पहुंचा तो न्यायमित्र ने इस मामले में हुई लापरवाही की परतें खोलीं। झील के पानी में ई-कोलाई, भारी धातुएं और बैक्टीरिया का संक्रमण पाया गया। प्राथमिक जांच से यह भी पता चला कि झील से नमक उत्पादन करने वाली कंपनी और सैलानियों को आकर्षित करने की मंशा से वहां शुरू की गई व्यावसायिक गतिविधियों के चलते झील का पानी प्रदूषित हुआ। इसे लेकर राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमित्र ने अदालत को कुछ सुझाव दिए हैं, जिन पर अगर अमल किया गया तो सांभर झील की दशा कुछ सुधरने की उम्मीद की जा सकती है।
सांभर अकेली ऐसी झील नहीं है, जहां सैलानियों को आकर्षित करने के लिए उसके किनारे रेस्तरां, मोटेल, खेल-कूद, मनोरंजन आदि की गतिविधियां शुरू की गई हैं। सांभर राजस्थान की बहुत पुरानी झील है, जिसमें नमक भी पाया जाता है। वहां नमक बनाने का कारोबार पुराना है। मगर जिस तरह राज्य सरकारें पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का जम कर दोहन करती हैं, राजस्थान सरकार ने भी सांभर के आकर्षण को भुनाने के लिए उसके किनारों पर व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देना शुरू किया। प्राकृतिक स्थलों को पर्यटन के लिए खोलना बुरी बात नहीं है, पर उनके संरक्षण पर उचित ध्यान न दिए जाने के कारण जो समस्याएं पैदा होती हैं, उसके लिए आखिरकार सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा। ओड़ीशा में चिल्का और चंडीगढ़ में सुखना दो ऐसी झीलें हैं, जो सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं, वहां व्यावसायिक गतिविधियां भी चलती हैं, पर उनके संरक्षण का उचित प्रबंध है। सांभर को लेकर ऐसी चिंता शायद कभी नही की गई। इसीलिए वहां नमक बनाने वाली निजी कंपनियों की पैठ बढ़ती गई।
अब सांभर में पैदा संकट से निपटने के लिए सभी एजेंसियां सक्रिय कर दी गई हैं, देश भर से विशेषज्ञ बुलाए गए हैं, पशु चिकित्सक, स्वयंसेवी संगठन आदि तैनात कर दिए गए हैं। मगर अदालत के समक्ष जो सुझाव पेश किए गए हैं, जब तक उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया जाएगा, इस समस्या का स्थायी समाधान शायद ही निकल पाए। सांभर के संरक्षण के लिए चिल्का की तरह का तंत्र विकसित करने, वहां चल रहे नमक बनाने के निजी ठेकों को समाप्त करने, उच्च क्षमता वाले ड्रोन कैमरों से निगरानी रखने के सुझाव हैं। ऐसी कई झीलें अब तक या तो सूख चुकी हैं या उन पर अवैध कब्जा हो चुका है। अगर सांभर की अनदेखी की गई, तो उसका हश्र भी वैसा ही न हो जाए।
Date:25-11-19
चिली में अशांति
संपादकीय
देश में आसमान छूती महंगाई, अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई और सत्ता पर अमीरों के खास वर्ग के कब्जे से आक्रांत लोगों का गुस्सा जब फूटता है तो हालात बेकाबू होने से कोई नहीं रोक सकता और इसका नतीजा देशव्यापी हिंसा और प्रदर्शनों के रूप में सामने आता है। पिछले एक महीने से दक्षिण अमेरिकी देशों चिली, कोलंबिया, बोलीविया और इक्वाडोर ऐसे ही अशांत हालात से जूझ रहे हैं। चिली के हालात ज्यादा गंभीर हैं और इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि अगर राष्ट्रपति और विपक्षी दलों के बीच वार्ता जल्द ही किसी तार्किक समझौते तक नहीं पहुंची तो दक्षिण अमेरिका का अमीर माने जाने वाला यह देश गंभीर राजनीतिक और आर्थिक दुष्चक्र में फंस जाएगा। चिली में अशांति की यह चिंगारी पिछले महीने मेट्रो रेल का किराया बढ़ाए जाने के बाद भड़की। इसके बाद तो देश भर में छात्र सड़कों पर उतर आए और फिर जनता भी इनके साथ आ गई। महीने से देश भर में लाखों लोग सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, इन्हें काबू करने के लिए सेना और पुलिस लाठी-गोली का इस्तेमाल कर रही है, अब तक तेईस से ज्यादा लोग पुलिस की गोली से मारे जा चुके हैं और घायलों की तादाद सैकड़ों में है, सुरक्षा बलों की पैलेट गन से तीन सौ लोगों की आंखों की रोशनी चली गई है। हालांकि देश के राष्ट्रपति ने अगले साल अप्रैल में जनमत संग्रह कराने और नए संविधान का मसौदा तय करने की मांग मान ली है और पूरी कैबिनेट को बर्खास्त कर देने जैसे कदम उठाए हैं, लेकिन प्रदर्शनकारी घरों को कब लौटेंगे, कह पाना मुश्किल है।
चिली के मौजूदा हालात बता रहे हैं कि लोगों में आज जो गुस्सा फूटा है, वह कोई एक दिन की देन नहीं है, बल्कि इसकी जडे सरकार की आर्थिक नीतियों में मौजूद हैं। दरअसल चिली में आर्थिक असामनता जिस तेजी से बढ़ती चली गई, उससे लोगों का सरकार पर से भरोसा उठ गया है। चिली की सत्ता देश के कुछ ही अमीर परिवारों की मुट्ठी में है। अमीर परिवारों का यह गठजोड़ ही सत्ता तंत्र की मिलीभगत से सरकार चला रहा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि लोगों के पास रोजगार नहीं है, महंगाई सर्वोच्च स्तर पर है, देश की मुद्रा गिर रही है, अधिकांश आबादी के लिए रोजाना की न्यूनतम जरूरतें पूरी करने के लिए भी पैसे नहीं हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा को लेकर सरकार ने आंखें मूंद रखी हैं। जाहिर है, ऐसे विषम हालात में लोगों का आक्रोश फूटेगा और देश हिंसा की आग में जलेगा।
कहने को चिली लोकतांत्रिक देश है, लेकिन वहां आज भी संविधान वही चल रहा है जो 1980 में सैन्य शासक अगस्टो पिनोशे ने लागू किया था। हालांकि इसमें समय-समय पर बदलाव किए गए, लेकिन एक तानाशाही सरकार का संविधान आज के वक्त में आम जनता के हितों के लिए कितना कारगर साबित हो रहा होगा, यह बड़ा सवाल है। सैन्य शासक के इस संविधान में शिक्षा और स्वास्थ्य को राज्य का विषय नहीं माना गया था। ऐसे में लोग इन दोनों बुनियादी अधिकारों से एक तरह से वंचित ही हैं। इसीलिए इस बार प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांगों में संविधान बदलने की मांग भी है और सरकार को इस बार इस पर झुकने को मजबूर होना पड़ा है। चिली के हालात उन देशों की सरकारों के लिए भी बड़ा सबक होने चाहिए, जिनके यहां बेरोजगारी चरम पर है, जिनके अर्थतंत्र की लुटिया डूब रही है, लेकिन सरकारें बेपरवाह हैं।
In darkness
Given the stealth in the swearing-in, a prompt floor test in Maharashtra is the only way to bring the light in.
Editorial
There is hardly any moral high ground left in Maharashtra’s political arena. But the question raised by the events of Friday night-Saturday morning is this: Is the constitutional ground also slipping rapidly? That question is, now, before the Supreme Court. On Sunday, the Court gave a notice to the respondents, after the Shiv Sena-NCP-Congress knocked on its door, and directed that two letters be produced before it on Monday morning – the letter of support presented by Devendra Fadnavis in support of his claim and the Governor’s letter inviting him to form the government. Those two letters feature in the bizarre sequence of events that led to the swearing in of Fadnavis as Chief Minister of Maharashtra in the early morning hours on Saturday, after President Ram Nath Kovind revoked President’s Rule at 5.47 am, in the wake of the Narendra Modi government invoking a special provision of The Government of India (Transaction of Business) Rules which gives the Prime Minister special powers to permit a departure from rules – to circumvent the need for a meeting of the Union cabinet. The court will be watched for the urgency with which it orders a floor test, the only way in which the legitimacy of a government can be tested, a principle established by its own Bommai ruling. The court, it is hoped, will not only show the way forward, but also restore a semblance of constitutional propriety, offer a restatement of constitutional presence, after a night in which the darkness drew into its fold high constitutional offices like that of president, prime minister and governor.
In Maharashtra, the political tug and pull has now been overtaken by serious questions of adherence to, rather betrayal of, constitutionalism, in letter and in spirit. But let there be no doubt that when it comes to playing with the mandate, all parties are in the dock, no side conducted itself honourably. After the break-up of the long-standing Shiv Sena-BJP pre-poll alliance, which won a majority of the votes, the jarring unlikeliness of the Congress-Sena partnership has been followed by the swearing-in of Ajit Pawar as Fadnavis’s deputy. The Congress has for long decades fought the Sena and its brand of politics in Maharashtra and used that stated antagonism to bolster its own “secular” credentials. Fadnavis and the BJP have loudly and insistently targeted Ajit Pawar, for the alleged irrigation scam and the multi-crore scam in the Maharashtra State Cooperative Board – the high court is scheduled to hear the irrigation case this week.
But the question before the court goes beyond the tawdriness in the air, the secretive parleys between parties, the meetings of MLAs holed up in three Mumbai hotels, the twists and turns in the Pawar family drama, playing out in real time on Twitter. Can a government be sworn in while a nation sleeps, can it be a result of pre-dawn moves and stealth in the night? The court must bear in mind that whatever it says will be read closely by a nation looking for answers.