उदार प्रजातंत्र का वैचारिक संकट

Afeias
07 Jun 2019
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Date:07-06-19

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उदार प्रजातंत्र की शुरुआत एक गलत रूपरेखा से हुई थी। सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियों में जिस शालीनता के साथ इसका विकास हुआ, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल लगता है कि उसके अंतर्निहित दोष उसे आज नही तो कल घेर ही लेंगे। वैसे उदार प्रजातंत्र का पूरा विचार ही अपने आप में त्रुटिपूर्ण है।

नकारात्मक स्वतंत्रता

उदार प्रजातंत्र की अवधारणा में ‘लिबरल’ या उदार शब्द का उद्गम ‘लिबर्टी’ से माना जाता है। दार्शनिक ईसाइयाह बर्लिन के अनुसार यह पारिभाषिक पद ही अपने आपमें नकारात्मक है। इस नकारात्मक स्वतंत्रता का मूल विचार निजता के अस्तित्व के आसपास मंडराता है, जिसमें कोई व्यक्ति जो चाहे, वह करने के लिए स्वतंत्र होता है। वह सरकार और सामाजिक दबावों से मुक्त होता है। अतः ऐसी अवधारणा, किसी देश के लोगों पर सरकार और सामाजिक दबाव के लिए सीमाएं पैदा करती है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को निर्धारित करने वाली अति निजी अवधारणा है, जिसमें मानव केवल अपनी इच्छाओं की संतुष्टि से मतलब रखता है। उसे सामाजिक जीवन और अपने राष्ट्र से कोई सरोकार नहीं होता।

जहाँ चर्च तथा जातिगत संस्थाएं आदि व्यक्ति के जीवन को अपने तरीके से नियंत्रित करना चाहती हैं, वहाँ यह नकारात्मक स्वतंत्रता जायज है।

उदार प्रजातंत्र के इतिहास में गोता लगाने और नकारात्मक स्वतंत्रता में रुचि रखने वाले मध्यवर्ग जैसे परंपरावादी उदार लोगों ने जल्दी ही इस बात को मान लिया कि सीमित शक्तियों से लैस सरकार, स्वतंत्रता की कोई गारंटी नहीं लें सकती। स्वतंत्रता का मामला अलग-अलग स्थितियों पर निर्भर करता है। कोई भी सरकार, जो कानून द्वारा बाध्य है, परन्तु तिकड़मी लोगों द्वारा चलाई जा रही है; उसके लिए सत्ता के भूखे-सनकी लोग ऐसी राजनीतिक स्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं, जिसमें निजी स्वतंत्रता पर पहरे लगा दिए जाएं। अगर ऐसा होता है, तो नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुगामी लोगों को सरकार अपने हाथ में ले लेनी चाहिए। प्रजातंत्र को नकारा नहीं जा सकता। अतः निजी स्वतंत्रता के पक्षधरों ने, जो मौलिक रूप से सरकार चलाने की कला में रुचि नहीं रखते, सरकार के एक नए रूप का आविर्भाव किया। इसे ही प्रतिनिधित्व वाला प्रजातंत्र कहा गया। यह हुआ कैसे?

इस प्रकार की सरकार बहुत लगन की मांग करती है। एकजुटता, विवेचना और सार्वजनिक मुद्दों पर निर्णय लेना, समय और प्रतिबद्धता की मांग करता है। फिर अपने निजी सुख के लिए जीवन की आपाधापी में फँसे लोग किसी सरकार को निष्ठावान तरीके से कैसे चला सकते हैं? इसलिए उन्होंने कुछ ऐसे प्रतिनिधियों को चुन लिया, जो राजनीति को ही अपना निजी व्यापार बना लें। रोजमर्रा की सामान्य जिन्दगी में फंसे लोगों के लिए सार्वजनिक जीवन या राजनीतिक निर्णयों में समय लगाना संभव नहीं होता। राजनीति में भागीदारी का उनका विचार बहुत ऊथला हाता है। केवल अपने प्रतिनिधियों को चुनने के समय ही वे राजनीति में थोड़ी बहुत रूचि लेते हैं।

उदार प्रजातंत्र का बुनियादी दोष क्या है ? यह अपर्याप्त रूप से सार्वजनिक गतिविधियों, राजनीतिक स्वतंत्रता और वृहद् सामुदायिक जीवन से जुड़ा हुआ है। जो लोग अपनी निजी जिन्दगियों में ऊलझे हुए हैं, वे ऐसे सार्वजनिक संस्थानों में कोई रूचि नहीं लेते, जिन्हें अमीरों और शक्तिशालियों के हितों के लिए साधा जा सके। उन्हें भय होता है कि इसमें उलझकर कहीं उनकी थोड़ी-सी राजनीतिक स्वतंत्रता छिन न जाए। चूंकि उनके पास अपने आसपास के सार्वजनिक जीवन, परंपरा और विरासत को समझने का समय और प्रयास, दोनों ही नहीं होता, अतः उन्हें लगता है कि जो उन्हें मिला हुआ है, कही वह भी खत्म न हो जाए।

अपने समाज और स्वयं को इस आशंका से मुक्त रखने के लिए वे ऐसी एकजुटता की भावना की जरूरत रखते हैं, जो ऐसी जीवंत राजनीतिक संस्कृति के बना सके; जिसमें पारिवारिक स्नेह का खालीपन या जाति-धर्म से जुड़ी कोई संकीर्ण सामुदायिक भावना न हो। वे एक ऐसी अच्छाई के लिए प्रतिबद्धता चाहते हैं, जिसमें जन उत्साह की सशक्त धारणा हो। संक्षेप में कहें, तो मध्य वर्ग निजी लाभ और सार्वजनिक हित में एक प्रकार का संतुलन चाहता है। उनके लिए सार्वजनिक जीवन से दूर भागने का एक ही कारण होता है। वे आशंकित रहते हैं कि कहीं राजनीतिक कीट उनकी निजी जिन्दगी में घुन न लगा दें। सार्वजनिक हित से सरोकार रखना नकारात्मक स्वतंत्रता का एक आवश्यक तत्व है। अपने आप में तो उदार प्रजातंत्र का विचार अपर्याप्त और न्यून भी है।

छलपूर्ण एकजुटता

अधिकांश समाजों ने इस सत्य को पहचानकर रिपब्लिकन परंपरा से जनजागृति के कुछ मंत्र उधार ले लिए। नागरिक सक्रिय होने लगे, सड़कों पर प्रदर्शन करने लगे, सरकार को चुनौती देने लगे, किसी उद्देश्य को लेकर विरोध प्रदर्शित करने लगे, उदार प्रजातंत्र के प्रति अविश्वास प्रगट करने लगे और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के तरीकों पर प्रश्न उठाने लगे। सार्वजनिक जीवन में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करने लगे। यहाँ तक कि वे राजनीतिक निर्णयों की शक्ति का अधिकार अपने हाथों में लेने को तैयार होने लगे। लेकिन प्रजातंत्र की यह गहराई देश में छेड़ी गयी भ्रष्टाचार विरोधी लहर की तरह एक बार का कार्यक्रम नहीं हो सकती।

इसके अलावा, उदार प्रजातंत्र की समस्याओं से निपटने के लिए प्रजातांत्रिक एकजुटता एकमात्र विकल्प नहीं हो सकती। यह काम राष्ट्रवाद की नैतिक सूचनाओं, समावेशी रूप या फिर संदिग्ध राष्ट्रवाद की विशिष्टता जैसे घृणा के प्रसार, राष्ट्रीय लोकलुभावनवाद के बढ़ते प्रचलन द्वारा किया जा सकता है।

जो भी हो, एकजुटता के साथ आगे बढ़ना, सार्वजनिक संस्थानों का निर्माण, सार्वजनिक निर्णयों की सही सूचना के लिए सरकार पर दबाव बनाकर चलना और ऐतिहासिक साधनों के द्वारा परंपराओं को आकार देने का काम समय और प्रयास की मांग करता है। घृणा का व्यापार, राष्ट्रवाद और लोकलुभावनवाद कुछ ऐसे शार्ट कट रास्ते हैं, जिनसे मुनाफा जल्दी कमाया जा सकता है।

स्थितियां इतनी गिर कैसे सकती हैं ? वैश्वीकरण ने और जो कुछ भी किया हो, लेकिन उसने प्रजातंत्र को मात्र एक चुनावी कार्यक्रम बनाकर लोगों की निजता की भावना को और गहरा दिया है। वैश्वीकरण के दौर के उदारवाद ने लोगों को आत्म-सीमित, सार्वजनिक हित से कम सरोकार रखने वाला, राजनीतिक एकजुटता से परे और ईष्र्या रखने वाला बना दिया है। एक-दूसरे से संवाद करने और एक-दूसरे की समस्याओं के बारे में कुछ करने के बजाय हम सब फेसबुक और व्हाट्सएप पर अपने को अभिव्यक्त करने में लगे हुए हैं। किसी अनजान शत्रु के प्रति हमार क्रोध, पागलपन या घृणा का शोर ही सब जगह सुनाई देता है। एक भयंकर व्यक्तिवादिता और घिनौना राष्ट्रवाद एक-दूसरे को भड़का रहे हैं। इस प्रकार के द्वेषपूर्ण लक्षणों के साथ हम अपनी नकारात्मक स्वतंत्रता को गंवाने की स्थिति में आ गए हैं। कहीं-न-कहीं हमने गलत मोड़ ले लिया है। कार्यप्रणाली में सुधार और उदार प्रजातंत्र पर पसरे संकट को देखते हुए सामूहिक प्रयास और मजबूत राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता है। पारंपरिक रूप से उदार, गोपनीयता से प्यार करने वाले मध्यम वर्ग के लिए यह वह अवसर है, जब वह उठे और जनहित के लिए सोचने की शुरुआत करे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित राजीव भार्गव के लेख पर आधारित। 30 अप्रैल, 2019

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