दूर होता न्याय

Afeias
23 Apr 2019
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Date:23-04-19

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प्रजातंत्र में न्याय व्यवस्था की नींव, बिना किसी पक्षपात के जनता की सेवा करने के उद्देश्य से रखी जाती है। भारत के संदर्भ में यह उद्देश्य धुंधला पड़ता दिखाई दे रहा है। इसका कारण भारत की न्याय व्यवस्था के परिचालन में विसंगतियों का आना है। इसके लिए वे सभी न्यायाधीश और वकील जिम्मेदार हैं, जो अदूरदर्शी और बेईमान हैं।

वकीलों की अनैतिकता –

  • न्याय-व्यवस्था में वकीलों की भूमिका बहुत ही अहम् होती है। वे न्यायाधीश और याचिकाकर्ता के बीच एक कड़ी या मध्यस्थ का काम करते हैं। इसका फायदा उठाते हुए अब वे भ्रष्ट दलालों की भूमिका तक गिर चुके हैं।

क्षतिपूर्ति वाले मामलों में तो अक्सर देखने को मिलता है कि वकील सीधे-सीधे हिस्सा मांगते हैं। मोटर वाहन क्षतिपूर्ति के अनेक मामलों में ऐसा होता आया है। न्यायिक सेवा प्राधिकरण द्वारा किसी पीड़ित को निःशुल्क न्यायिक सेवा और क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार दिए जाने के बाद भी कई वकील उनसे रिट याचिका दायर करवाते हैं, और क्षतिपूर्ति प्राप्ति का पूरा श्रेय लेकर याचिकाकर्ता से उसमें हिस्सा मांग लेते हैं। न्यायिक गतिविधियों की समीक्षा करने हेतु बनी संस्था विधि के अनुसार दिल्ली उच्च न्यायालय से न्याय मिलने में देरी का बहुत बड़ा कारण ऐसी ही अवांछित रिट याचिकाओं को माना गया है।

न्यायिक व्यवस्था में चल रहे भ्रष्टाचार से पीड़ित अनेक याचिकाकर्ता और स्वयं वकील भी सर्वोच्च न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अनेक पत्र लिखते रहते हैं। इसमें प्रशासनिक एवं वैधानिक विसंगतियों की चर्चा एवं उनसे छुटकारा दिलाने की गुहार की गई होती है। दुर्भाग्यवश, न्यायाधीशों के ऊपर काम के बोझ के चलते इन पत्रों पर उचित कार्यवाही कर पाना मुश्किल होता है। साथ ही, दिल्ली व अन्य राज्यों में स्थापित बार कांउसिल भी इन मामलों में अप्रभावी सिद्ध हुई हैं। इनमें से कुछ पर तो राजनीतिक प्रभुत्व है, और कुछ राज्यों में अनुशासन ही नहीं है।

एडवोकेट अधिनियम, 1961 से पहले वकीलों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का अधिकार न्यायालयों के पास होता था। अब समय आ गया है, जब न्यायालयों को यह अधिकार वापस दे दिया जाए।

न्यायालयों की दूरी –

  • आम जनता की न्याय से दूरी बनने का बहुत बड़ा कारण न्यायालयों तक उनकी पहुँच न हो पाना भी है। यूँ तो उच्च न्यायालय की अनेक पीठें समय-समय पर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में काम करती हैं, लेकिन मामलों की संख्या को देखते हुए ये पर्याप्त नहीं होतीं।

इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के दिल्ली स्थित होने के कारण उच्च न्यायालय के अनेक मामलों को लेकर उनके योग्य वकील दिल्ली में पेश नहीं हो पाते हैं, क्योंकि उनके मुवक्किल के पास धन की कमी होती है।

दिल्ली में रहने वाले प्रायः सभी वकील उच्चतम न्यायालय में ही वकालत करना चाहते हैं। उच्च न्यायालय के अच्छे वकीलों के दिल्ली आने और उच्चतम न्यायालय में वकालत करने से एक प्रकार से उनका एकाधिकार स्थापित हो गया है, और अब वे अपने मुवक्किल से मनमानी फीस वसूल करते हैं।

संविधान के अनुच्छेद 130 के अनुसार उच्चतम न्यायालय को देश के अन्य भागों में भी विशेष न्यायालय आयोजित करने की सलाह दी गई है। परंतु काम की अधिकता के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाता। हर छोटे-मोटे मामले उच्चतम न्यायालय तक पहुँचने लगे हैं। अब उसकी भूमिका अंतिम अपील वाले न्यायालय की न होकर, मात्र एक जिला न्यायालय जैसी हो गई है।

समाधान –

  • न्याय आयोग की 125वीं और 229वीं रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए उच्चतम न्यायालय को चाहिए कि वह अलग-अलग राज्यों में पीठ की स्थापना पर पुनर्विचार करे।
  • एडवोकेट अधिनियम, 1961 के अनुसार बार कांउसिल सक्रिय भूमिका निभाए। अगर वह ऐसा करने में सक्षम नहीं है, तो यह अधिकार वापस न्यायालय को दे दिया जाए।
  • अपीलीय न्यायालयों की स्थापना की जाए।
  • अयोध्या मामले की तरह ही अन्य मामलों में भी विशेषज्ञों को मध्यस्थ बनाकर वकीलों के प्रभुत्व को कम किया जाए।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित रूमा पाल के लेख पर आधारित। 2 अप्रैल, 2019

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