देशद्रोह कानून का क्या औचित्य है ?

Afeias
27 Feb 2019
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Date:27-02-19

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गत माह असम राज्य के 80 वर्षीय लेखक हिरेन गोगोई, सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई और पत्रकार मंजीत महंत को राजद्रोह या देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार किया गया था। उनकी गिरफ्तारी का कारण नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करना बताया गया। इसी अपराध के अंतर्गत जेएनयू की विद्यार्थी परिषद् के अध्यक्ष कन्हैया कुमार एवं अन्य नौ को भी गिरफ्तार किया गया है। आम चुनावों से मात्र चार माह पूर्व इस प्रकार की गिरफ्तारियों का किया जाना, अपनी आलोचना के प्रति सरकार की झल्लाहट को स्पष्ट करता है।

गांधीजी ने देशद्रोह को भारतीय दंड संहिता के राजकुमार की तरह माना था। लेकिन दुर्भाग्यवश आज इसे दंड संहिता का राजा बना दिया गया है।

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए में अधिनियमित देशद्रोह आखिर क्या है ?

प्रिवी काउंसिल के अनुसार ऐसा कोई भी प्रयास; जो सरकार के प्रति असंतोष के चलते लोगों में बुरी भावना को उत्तेजित करता हो, राजद्रोह के अंतर्गत आता है।

संविधान के मसौदे में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने वाले नियमों में राजद्रोह को सर्वोपरि रखा गया था। चूंकि ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान इसका प्रयोग स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए समय-समय पर किया जाता रहा था, अतः के.एम.मुंशी ने राजद्रोह के प्रावधान को सर्वोपरि रखे जाने का विरोध किया, और उसे हटाने की मांग की। मुंशी का कहना था कि ‘‘चूंकि अब हमारी सरकार प्रजातांत्रिक है, अतः सरकार की आलोचना और ऐसी भड़काऊ गतिविधियों के बीच एक रेखा खींची जाना चाहिए, जो लोगों की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। वास्तव में तो सरकार की आलोचना का अधिकार प्रजातंत्र की आत्मा है।’’

मुंशी के इस तर्क का समर्थन करते हुए संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत राजद्रोह को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के अनुज्ञेय कारणों में से हटा दिया। इसके बाद राजद्रोह को भारतीय दंड संहिता में मात्र एक अपराध की श्रेणी में रखा गया, और दोषसिद्धि होने पर आजीवन कारावास एवं जुर्माने का प्रावधान रखा गया।

  • भारतीय न्यायालय ‘देशद्रोह’ का क्या अर्थ लगाते हैं ?

सर्वोच्च न्यायाधीश मॉरिस ग्वायर की अध्यक्षता वाले फेडरल कोर्ट ने आदेश दिया था कि राजद्रोह-कानून को सरकार की छवि सुधारने के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता। ऐसी कोई गतिविधि या शब्द जिनसे समाज में अशांति फैलने का खतरा हो या उनका ऐसा मंतव्य सिद्ध हो, तो उसे राजद्रोह माना जा सकता है।

1962 में केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मुकदमे में भी न्यायालय ने प्रिवी कांउसिल और फेडरल कोर्ट के ही दृष्टिकोण को माना था।

इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने धारा 124(ए) को हिंसा फैलाने की आशंका वाली भड़काऊ गतिविधियों तक सीमित करके, इसके अंतर्गत आने वाले आवेदनों को भी सीमित कर दिया। सन् 1995 में उच्चतम न्यायालय ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में अपने पूर्व दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए राजद्रोह को लागू करने से इंकार कर दिया था।

2003 में उच्चतम न्यायालय ने नजीर खान बनाम दिल्ली सरकार के मामले में स्पष्ट किया था कि राजनैतिक विचारधाराएं और सिद्धांत रखना एवं उनका प्रचार करना नागरिक का मौलिक अधिकार है। उनके शपथ ग्रहण में युद्ध और लड़ाई जैसे शब्द मात्र से इसे समाज को भड़काने वाली घटना से नहीं जोड़ा जा सकता।

न्यायालय के इस दृष्टिकोण को देखते हुए वर्तमान सरकार की प्रतिक्रिया पर ऊंगली उठायी जानी स्वाभाविक है कि आखिर देश विरोधी नारों से उसका क्या अर्थ है? अगर नारेबाजी में सीधे-सीधे राष्ट्र को ही संबोधित किया गया हो, तो इसे धारा 124-ए के अंतर्गत देशद्रोह माना जा सकता है। लेकिन सरकार तो समय-समय पर इसका दुरूपयोग कर रही है।

धारा 124-ए के बारे में कानून प्रवर्तन एजेंसियों को सही ज्ञान दिया जाना चाहिए। हमारे देश की जड़े मजबूत हैं, और इसे किसी विकृत दिमाग के कटु नारों से नहीं हिलाया जा सकता।

भविष्य में इस धारा का दुरूपयोग करने वाली एजेंसियों को अर्थदंड देने का प्रावधान किया जाना चाहिए।

स्वतंत्र भारत को चाहिए कि वह 1947 के पूर्व काल में चलाए जा रहे इस कानून को समाप्त करने का साहस दिखाए, और देश के नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को फलने-फूलने दे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सोली जे.सोराबजी के लेख पर आधारित। 17 जनवरी, 2019

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