वर्तमान परिदृश्य में सहकारी संघवाद

Afeias
18 Dec 2018
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Date:18-12-18

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भारतीय संविधान में सहकारी संघवाद की व्यापक परिकल्पना की गई है। यह केन्द्र द्वारा राज्यों पर अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लगाए जाने तक सीमित नहीं है। इसी अवधारणा को लेकर 1974 में उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी भी की थी। संघवाद एक ऐसा तंत्र है, जिसमें सरकार की शक्ति को केन्द्र सरकार और निर्वाचन ईकाईयों में बांट दिया जाता है। संविधान ने इसी परिकल्पना को लेकर भारत देश को ‘राज्यों का समूह’ घोषित किया था। यही इसका संघीय स्वरूप है।

सहकारी संघवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसमें केन्द्र और राज्य एक संबंध स्थापित करते हुए, एक दूसरे के सहयोग से अपनी समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार के क्षैतिज संबंध यह दर्शाते हैं कि केन्द्र और राज्यों में से कोई किसी से श्रेष्ठ नहीं है। इन संबंधों को सौहार्दपूर्ण बनाए रखने के लिए संविधान ने अंतरराज्यीय परिषद्, क्षेत्रीय परिषद्, सातवीं अनुसूची आदि का प्रावधान रखा है।

केन्द्रीय प्रशासन द्वारा सहकारी संघीय ढांचे की अनदेखी

सन् 1947 और 1977 के बीच 44 बार राज्यों पर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के उदाहरण मिलते हैं। 1977 और 1996 के बीच लगभग 59 बार राष्ट्रपति शासन के अधिकार का उपयोग किया गया। 1991 से लेकर 2016 तक 32 बार इस अधिकार का प्रयोग किया गया। 1994 में एस.आर.बोम्मई बनाम केन्द्र सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार पर लगाम लगाने की मामूली कोशिश की थी, परंतु केन्द्र सरकार ने अपनी विधायी शक्तियों की प्रधानता को जारी रखा। हाल ही में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की दिल्ली सरकार बनाम केन्द्र सरकार के विवाद में उच्चतम न्यायालय ने कुछ कड़ा रूख अपनाते हुए दिल्ली सरकार की कार्यपालिका शक्तियों की तरफ झुकाव रखा।

 करों के विभाजन में सहकारी संघीय ढांचा

करों के विवादास्पद मामले में केन्द्र सरकार ने हमेशा ही जीत दर्ज की है। उसे संविधान में दिए गए प्रावधानों का लाभ मिल जाता है। वस्तु और सेवा करके मामले में राज्यों को चुंगी कर, प्रवेश शुल्क, विलासिता व मनोरंजन कर आदि छोड़ने पड़े हैं। परन्तु उन्हें पंचायत और नगरपालिकाओं के माध्यम से कर उगाहने का अधिकार दिया गया है। इस प्रकार की शक्तियों से वस्तु एवं सेवा कर कानून एवं स्थानीय कर कानून में विवाद होने की स्थिति बन जाती है। संविधान में वस्तु एवं सेवा कर सुधारों के बाद राज्यों को पेट्रोल, डीजल आदि पर कर उगाहने का अधिकार मिल गया है। हालांकि जीएसटी परिषद् को अभी इन वस्तुओं को दायरे में लेना बाकी है।

अनुच्छेद 269(1) के अंतर्गत जीएसटी परिषद् को अंतरराज्यीय व्यापार से संबंधित करों को साझा करने के बारे में सिफारिश करने का अधिकार है। यह अधिकार वित्त परिषद् को नहीं है। यह तथ्य अत्यंत महत्व रखता है, क्योंकि जीएसटी परिषद में राज्यों को भी मत देने का अधिकार है। अनुच्छेद 270(1ए) और 270(2) बताते हैं कि जीएसटी कानून के अंतर्गत आने वाले करों की साझेदारी अनुच्छेद 270(2) के अनुसार की जाएगी। इस प्रकार एक बार फिर से यहाँ वित्त परिषद् की भूमिका प्रमुख हो जाती है।

जीएसटी परिषद् और वित्त परिषद् की शक्तियों को अलग-अलग तौला नहीं गया है। लेकिन संभवतः राजस्व की साझेदारी के अधिकतर मामले वित्त परिषद् एवं संसद के पास चले जाते हैं। जीएसटी परिषद् की यहाँ प्रमुखता नहीं रहती। वित्त परिषद् की सिफारिशों को संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, और इसमें राज्यों के लिए वाद-विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। अगर केन्द्र सरकार जीएसटी परिषद् की सिफारिशों को अमल में लाने से इंकार कर दे, तो राज्यों के पास उच्चतम न्यायालय में अपील का ही एक रास्ता बच जाता है।

हालांकि स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक ऐसी नौबत कभी नहीं आई है। गठबंधन वाली राजनीति में ही सहकारी संघवाद की परीक्षा सही मायनों में हो पाती है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एम.एस.अनंत के लेख पर आधारित। 14 नवम्बर, 2018

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