लिंगायत में ऊलझी राजनीति
Date:09-04-18 To Download Click Here.
हाल ही में कर्नाटक की सिद्धरमैया सरकार ने लिंगायत को हिंदू धर्म से पृथक एक धर्म माने जाने की स्वीकृति दे दी है। यह विषय अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक कारणों से विवादास्पद माना जा रहा है।
- यूँ तो लिंगायत से जुड़ा विवाद एक शताब्दी से चला आ रहा है। इस समय इसे अलग धर्म के रूप में स्वीकृति देने को कर्नाटक में मई में होने वाले विधानसभा चुनावों से जोड़ा जा रहा है। कर्नाटक विधानसभा की 224 सीटों में से लगभग 110 सीटों का निर्णय इस धर्म को अलग दर्जा दिए जाने से जुड़ा है।
- भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को अपने शिक्षण संस्थान बनाने और उनका प्रशासन चलाने का अधिकार दिया गया है। इनमें आरक्षण देने का भी कोई बंधन नहीं है। लिंगायत और वीरशैव संप्रदाय के ढेरों शिक्षण संस्थान हैं। अब तक इन्हें निजी माना जाता है। इन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिलते ही इनके वैधानिक अधिकार बढ़ जाएंगे।
- हमारे देश में किसी धर्म के अनुयायियों के सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा की बात संविधान में कही गई है। इसका पूरा दारोमदार राजनीति पर है।
कर्नाटक विधानसभा ने लिंगायत को एक अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय का दर्जा दिए जाने के विषय पर पहले भी विचार किया था। परंतु वीरशैव एवं लिंगायत में से किसे यह दर्जा दिया जाए, इसके बारे में अस्पष्टता थी। तभी से इस बात का दावा किया जाता रहा है कि हिंदू धर्म में मान्य वेदों, स्मृतियों, शास्त्रों, जाति-प्रथा व कर्म सिद्धाँत आदि को लिंगायत नहीं मानते। जबकि वीरशैव मानते हैं।
कर्नाटक सरकार का निर्णय इन दोनों समुदायों में भेद करने में भी असमर्थ रहा है। उसके निर्णय में लिंगायत और वीरशैव शब्द दोनों ही एक दूसरे के विकल्प के रूप में लिखे गए हैं।
- कर्नाटक सरकार के निर्णय में यदि जाति-प्रथा और मूर्ति-पूजा की अस्वीकृति को एक अलग धर्म का दर्जा दिए जाने का मानक मान लिया गया। तो आशंका है कि हिंदू धर्म के ही अन्य अनेक समुदाय इस प्रकार की मांग उठाने लगेंगे।
इन समुदायों को अपने शिक्षण संस्थानों को अल्पसंख्यक समुदाय के अंतर्गत लाने के लाभ दिखाई देंगे। वे पूर्व में रामकृष्ण मिशन की तरह ही उठाई अपनी मांगों को धार देना शुरू कर देंगे।
- दलित समुदाय तो जाति प्रथा और हिंदू-धर्म का प्रबल विरोधी रहा है। इस समुदाय ने भी पहले अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। इस निर्णय से वे अपनी मांग फिर से उठा सकते हैं।
कुल मिलाकर लिंगायत समुदाय केवल एक पृथक धर्म का दर्जा ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय होने के सभी संवैधानिक अधिकारों की बात कर रहा है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग इस मामले के पीछे है। परंतु किसी समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने के आधार के बारे में स्पष्ट दिशानिर्देश उसके पास भी नहीं हैं।
अब बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी हो गई है। अगर वह अलग धर्म को स्वीकारती है, तो उसके हिंदुत्व के विस्तार के स्वप्न का क्या होगा। और अगर वह इसे अस्वीकार करती है, तो कर्नाटक राज्य के चुनाव-नतीजों पर उनका प्रभाव दिखाई देगा।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स‘ में प्रकाशित अनिर्बन बंदोपाध्याय के लेख पर आधारित।