15-05-2017 (Important News Clippings)
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Yes, India is a democracy but it’s not really a republic
Our constitution opens with the words that India is both a republic and a democracy. We are making an important claim: is it true?
Republic is a Roman word. A republican state is one in which power rests with the citizens. Democracy is a Greek word. It means a state in which leaders are chosen from among the general population, and not the aristocracy. Republic and democracy don’t mean the same thing, and even democracy has many interpretations. Athenian ‘democracy’ was actually a psephocracy. For instance, in Athens all (adult male) citizens were equal and therefore leaders and jurors were chosen by lot, meaning by turn. Socrates had total contempt for this democracy and throughout Plato’s works his refrain is: ‘In a storm, would you choose a ship’s captain by lot?’
After the Middle Ages, Europe was inspired by Greece in art, philosophy and science and culture, but by Rome in government. In the US constitution, the word ‘democracy’ in fact does not appear, though ‘republic’ does. Many of America’s founding fathers were classicists who favoured Rome. The Federalist Papers, which is America’s version of our Constituent Assembly debates, were written by figures like Alexander Hamilton and James Madison under the pseudonym ‘Publius’, referencing a Roman who helped set up the republic. A story, probably apocryphal, tells of Benjamin Franklin exiting the constitutional convention of 1787. A man in the crowd asks him what sort of government America has been given. Franklin replies: “A republic, if you can keep it.”
Republics are not easy to keep because we are naturally attracted to the heroic saviour who will sort out our problems with his genius.The historian Livy tells us that Rome was a republic for some four centuries. It was, like democracy, different from the republic we know. Suffrage was even more restricted than in Athens, and Rome had an aristocracy (the Senate is a Roman institution) and slavery and colonialism, but it did not bow to one man. The heroic saviour Julius Caesar ended the republic.The UK is a democracy but not a republic, because executive power flows from a monarch. The resistance to this structure is referred to as ‘republicanism’. What about India?
It is obvious that we are a democracy, because our leaders are chosen by voters. But are we a republic? Does real power rest with the citizens of India? The outside observer will notice that this is not the case. The interest of the state and its organs is put above the interest of India’s people. There is a background to this: Nehru inherited an aggressively expansionist imperial state with tentative borders. Its relationship with the citizen focused on taxation and law and order. This continued after 1947. Even today, where the state feels threatened by citizens demanding rights, it will not hesitate to put them down with lethal force.
This story was reported on October 1, 2016: “Four people were left dead and as many as 40 were injured after police opened fire on a protest this morning, according to sources in the Chirudih village near Hazaribagh in Jharkhand. Residents have been protesting the acquisition of land by the National Thermal Power Corporation for their coal mines.”This, the murder of citizens by the state, is actually a regular occurrence in India, in the adivasi belt, the northeast and Kashmir. It is not a ‘national’ issue because the killed are not like us. Also, their resistance hinders our development and our version of nationalism. We refer to their questioning of our consensus as anti-national behaviour.We reduce Indian citizens to categories which can be despised: Terrorist, Maoist, Islamist, Separatist, Jihadist and so on. This makes it easier for our armies and paramilitaries to kill them, though as Hazaribagh and thousands of such incidents show, we also have zero regard for the poor. I used the example of the murder of helpless individuals faced with loss of their land, because in India today it is not possible to elicit sympathy for most categories of protestors.In such a place, a media organ that puts the army’s interest above the citizen’s can align itself to the name republic. This is done without irony and perhaps without even understanding of what the word republic means. The army’s interests can be supreme in a martial law state like Pakistan, not in constitutionally republican India.
When can we, wholly and in full measure, claim to be a republic? Only when the rights and liberties of Indian citizens are respected by the state, without exception. Not steamrolled over regularly, to applause from the media.And when the violation happens, as it can happen anywhere, it is addressed meaningfully and ended. Till that happens, it would be fair to say that India is a democracy. But it is not really a republic.
प्रकृति से जुड़ा मन सुविधाओं की ओर नहीं भागता
प्रेरणा… गांवके जरिये भीतर से और इंटरनेट के माध्यम से बाहरी दुनिया से जुड़कर मिली खुशी
बचपन सेही किसान और जवान को लेकर केवल परेशान हो जाने वाली बात सुनता आया हूं। अक्सर गांव की छवि एक दुखदायी जगह की होती है, जहां गरीबी है, भुखमरी है, कीचड़ है और सिर्फ असुविधाएं हैं। मुझे हमेशा लगता कि गांव के प्रति जो इस तरह की मानसिकता है, इसे बदलने की जरूरत है। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पांच साल पत्रकारिता की नौकरी की और मैं फिर किसानी करने बिहार स्थित अपने गांव पूर्णिया जिले के चनका लौट आया। यह अचानक नहीं हुआ। नौकरी करते हुए ऐसे लोगों से मुलाकात हुई जिनके भीतर गांव छुपा था। गांव के प्रति आकर्षण देखा। इसी जुड़ाव ने मुझे अपने गांव पहुंचा दिया।
बाबूजी बीमार थे और उन्हें मेरी जरूरत थी। मैं किसान बनना चाहता था और ऐसे में बाबूजी मेरे लिए सबसे बड़े सहायक थे। मैंने पहले अपने गांव की बातें फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर डालने की शुरुआत की। इस दौरान गांव की बातें, गांव की तस्वीरें, लोकगीत आदि को आभासी दुनिया में पहुंचाने लगा। गांव में खुशी भी है, इसे एक फ्रेम में दिखाने की जरूरत है। यह सच है कि जीवन में पैसे का बहुत महत्व है लेकिन, हमें यह तय करना होता है कि जीने के लिए कितना पैसा चाहिए। मैंने एक लकीर खींची कि मुझे इतना ही पैसा चाहिए और जुट गया खेत में। खुशी की तलाश बहुत लोग करते हैं लेकिन, यह सच है कि खुशी तो भीतर ही है। तकनीकी भाषा में जिसे ‘इनबिल्ट’ कहते हैं वही बात खुशी के संग है। हम यह नहीं जानते हुए नेगेटिव हो जाते हैं, जबकि खुशी तो बिखरी हुई है हमारे भीतर।
गांव मुझे अपने आप से जोड़ता है और इंटरनेट बाहर की दुनिया से। इसी से विचार आया कि जो खुशी गांव में मुझे मिल रही है, क्यों उसका अहसास अन्य लोगों को भी करवाया जाए। हमने अपने गांव में कला, संस्कृति, साहित्य में रुचि रखने वालों लिए ‘चनका रेसीडेंसी’ की शुरुआत की। मैं चाहता था कि शहर के लोग गांव को करीब से जाने। विदेशों में जाकर गांव में आकर अपनी छुट्टी मनाए। मैं गांव की तस्वीरें, लोकगीत आदि पोस्ट करता था तो कुछ लोगों को वह सब पसंद रहा था। उसी सिलसिले में जो पहली बार हमारे मेहमान बने वे थे इयान वुलफोर्ड, जो ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित ला ट्रोबे यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर हैं। वे फणीश्वर नाथ रेणु के साहित्य और लोकगीतों पर काम कर रहे हैं। गत दिसंबर में वे हमारे यहां एक हफ्ते के लिए ठहरे थे। शोध के दौरान ठहरने आदि के लिए उनकी यूनिवर्सिटी ने जो पैसा दिया था, उससे हमें भुगतान किया। इससे मुझे आर्थिक मदद मिल गई और अपने लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिल गया। वे रोज महिला-पुरुषों से मिलकर लोकगीतों का ज्ञान प्राप्त करते। ‘मैला आंचल’ में जो लोकगीत मिलते हैं, उनके भी तार जोड़ते कि पूर्णिया जिले के जनमानस में वे लोक-गीत क्या अब भी रचे-बसे हैं। हम भी लोक-गायकों को मय वाद्ययंत्रों के बुलवा लेते और एक सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसा हो जाता। इससे पहले एक अमेरिकी युगल आया था। दोनों साइकिल पर दुनिया घूमने निकले थे। उनका प्रकृति को लेकर, ऑर्गनिक फार्मिंग को लेकर काम था।
जहां तक ऑर्गनिक फार्मिंग का सवाल है हम बाजार के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। अपने परिवार और आसपास के किसान वर्ग के लिए कर रहे हैं। पहले साल एक एकड़ में की थी और अब आठ एकड़ तक चले गए हैं। जैसे यह लीची का मौसम हैं तो वह हम शहर भी भेज रहे हैं। लोगों को पेड़ दिखाते हैं कि हम इसे केवल पानी दे रहे हैं। कोई स्प्रे नहीं कर रहे हैं। ऑर्गनिक का हमारा कंसेप्ट यह है कि कृत्रिम रूप से हम कुछ नहीं डाल रहे हैं। यहां तक कि खाद के रूप में गोबर भी नहीं डाल रहे हैं। हमने सोलह बिघा जमीन पर बीस फीट की दूरी पर कदंब के एक हजार पेड़ लगाए हैं ताकि उनके बीच ट्रेक्टर चल सके। अब इनके पत्ते अपने आप नीचे गिरते हैं, जो कम्पोस्ट खाद की तरह काम करते हैं। जितने ज्यादा पौधे लगाते हैं, उतनी तितलियां आती हैं, वे अलग तरह का वातावरण तैयार करती हैं, जिनके कारण कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना पड़ता है। यह जरूर है कि फसल थोड़ी कम होती है लेकिन, उर्वरक कीटनाशकों का पैसा भी तो बच रहा है। प्रति एकड़ चार से पांच हजार रूपए बच जाते हैं।
दिसंबर 2016 से हमने रेवेन्यू मॉडल पर काम शुरू किया। उसके पहले लोग आते थे। कुछ हम खर्च कर देते थे। लोग यूं ही रहकर चले जाते थे। रेवेन्यू मॉडल अपनाने के बाद से 49 लोग यहां रहकर गए हैं। हम एक दिन के सात सौ रुपए लेते हैं। रहना, खाना, आसपास में घूमना, लोक-संगीत सबकुछ है। इसके अलावा जैसे शिकागो यूनिवर्सिटी और ला ट्रोबे से भी कुछ और शोधकर्ताओं ने संपर्क किया है कि वे यूनिवर्सिटी का पूरा पैसा देंगे। ऐसे में दो हजार रुपए प्रतिदिन तक मिल जाता है। वह हम शेयर कर लेते हैं। खेती को ग्लेमराइज करने की जरूरत है ताकि रिवर्स माइग्रेशन हो सके। जैसे मैं शहर चला गया था और लौटकर आया वैसे और भी लौटकर आएं, खेती अपनाएं। खाना बनता है तो बनाने वाला स्थानीय व्यक्ति होता है। उसे पैसा मिलता है। लोकगीत का कार्यक्रम है तो कोई खेतिहर मजदूर होता है। मैं यह बताना चाहता हूं कि मजदूर सिर्फ मजदूरी नहीं करता, वह लोकगीत भी गा सकता है। उसे इसका भुगतान किया जाता है। मुझसे प्रेरणा लेकर आसपास के तीन-चार युवक शहर से गांव लौटे हैं। अब खेत-खलिहान म्यूज़ियम बनाने की योजना है। इस म्यूज़ियम में हम गांव के उन सामानों को इकट्ठा करेंगे, जिसका पहले किसानी काम में प्रयोग हुआ करता था, मसलन- लकड़ी का हल, बैलगाड़ी, मसाला पीसने वाला पत्थर, आदिवासी समाज के उपकरण, संगीत के साज, पेंटिंग आदि। डिसप्ले के लिए हॉल बनाने की योजना है। यदि किसान नेगेटिव नहीं होगा तो यकीन मानिए समाज भी नेगेटिव नहीं होगा। इसके लिए किसानी पेशे से इतर के लोगों को खेत तक पहुंचना होगा। धान की खेती की शुरुआत में ‘धनरोपनी उत्सव’ करता हूं। छोटे स्तर पर हमेशा इवेंट करता रहता हूं, इससे मन को शक्ति मिलती है। विदेश से लोग आते हैं, विदेश में चनका की बातें होती हैं, तो लगता है कि अब गांव के लिए और कुछ नया करना होगा। किसानी करते हुए सुख मिल रहा है। लिखने-पढ़ने का खूब मौका मिलता है। गांव में सुविधा कम है लेकिन, प्रकृति गांव में इतना कुछ देती है कि प्रकृति से जुड़ा मन उन सुविधाओं की तरफ भागता ही नहीं है।
गिरीन्द्रनाथ झा
Date:15-05-17
जब आप डर पर काबू पा लेते हैं तो जिंदगी को खोज लेते हैं
मेरे बचपनमें हम ऑटोरिक्शा भी ले नहीं सकते थे और आमतौर पर पैदल ही चलना पड़ता था। आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मुझे लगता है कि मैं भाग्यवान था कि पैदाइशी धनी नहीं था और बड़े होते समय मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं होते थे। इससे मैं अपने दिमाग का कहीं ज्यादा इस्तेमाल समाधान खोजने में करता था। इसके कारण मैं अत्यधिक रचनाशील और अपनी तरफ से पहल करने वाला व्यक्ति बन गया। चूंकि, मेरे पास खोने के लिए तो कुछ था नहीं तो मुझे बिल्कुल डर नहीं लगता था।
मेरा परिवार सिंगापुर और दुबई जाकर कपड़े और इलेक्ट्रॉनिक्स की चीजें लाकर भारत में बेचता था, क्योंकि तब भारत एक बंद अर्थव्यवस्था का देश था और विश्वस्तरीय चीजों तक भारतीयों की सीमित पहुंच थी। जब मैं पांच साल का था तो मैंने दोस्तों को आयातीत खिलौने बेचने शुरू किए। लेकिन, बेचने के पहले मैं हमेशा रिमोट से चलने वाली कारों और टॉकिंग डॉग्स से खेलता था ताकि पक्का हो जाए कि वे अच्छी हालत में हैं। मैं तो अपने मित्रों से उनके खिलौने आजमाकर देखने का प्रीमियम भी ले लेता था!
स्कूल में मैं कॉमिक्स, जूते, कपड़े, टोपी और कल्पना में जो भी आता उसे बेचता, क्योंकि मुझे अहसास हो गया था कि काम करने का सबसे अच्छा तरीका मेरे लिए यही है कि अपनी रचनात्मकता का उपयोग करके असीमित क्षमताओं के साथ बढ़ता जाऊं। इसके साथ मैं जो भी बेचता उनमें भरोसा करता और उनसे प्यार करता। यह एक ऐसा कौशल था, जिसका मेरे जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और वह था बेचने का कौशल। यह ऐसा हुनर है, जो किसी को भी धनी बनने और सर्वोत्तम ऊंचाई तक पहुंचने में सहायक हो सकता है। यह रंग, लिंग, नस्ल, धर्म या शिक्षा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। यदि आप बेच सकते हैं तो आप पैसा कमा लेंगे। इतिहास में हुए सभी महानतम लोगों में अपने विचार और आइडिया सेल करने की योग्यता थी। आप चाहे महात्मा गांधी की बात करें, जिन्होंने अहिंसा के जरिये आज़ादी हासिल करने के विचार पर लोगों को यकीन दिलाया या भगवान कृष्ण को लें, जिन्होंने अपने विचार लोगों तक पहुंचाकर बदलाव लाकर दिखाया।
जब आप बेचना सीख जाते हैं तो जिंदगी वास्तव में बदल जाती है। लोग मेरे हैप्योनैर सेमिनारों में पूछते हैं, ‘योगेश, आपका सबसे बड़ा सेल्स सीक्रेट क्या है?’ मेरा सरल-सा जवाब होता है कि मैं भगवान कृष्ण और गीता से प्रेरणा लेता हूं। मेरा सबसे बड़ा सेल्स सीक्रेट है डर पर काबू पाना। जब आप भय पर काबू पाते हैं तो आप बेहतर ढंग से सेल कर सकते हैं। आप बेहतर ढंग से जिंदगी जी सकते हैं। अब आप उस बड़े सीईओ अथवा बॉलीवुड स्टार को फोन लगाने या मिलने से नहीं घबराते, जो आपके प्रोडक्ट या सर्विस का बहुत बड़ा कस्टमर बन सकता है। यदि आपने पॉवर ऑफ सेलिंग और अपने भय पर काबू पाने का महत्व वाकई समझ लिया है तो आप उस व्यक्ति को कॉल करेंगे या उससे मिलने जाएंगे, जिसमें आपका भविष्य आज ही बदलने की ताकत है। यदि मैंने जवाब में हां सुना है तो मैं आपको भयहीन और असीमित क्षमताओं की अद्भुत जिंदगी की गारंटी देता हूं।
New Silk Road
China’s Belt and Road Initiative is a marker of its vaulting ambition. India will need to reset and respond
Confucius, the Chinese thinker, philosopher and strategist, lived about 2,500 years ago, but President Xi Jinping, like the rest of his countrymen and women, seems deeply influenced by him. So when representatives of the unrepentant West, like journalists and diplomats, questioned the motives behind Xi’s mega economic project called the Belt and Road Initiative (BRI), China’s official news agency, Xinhua, quoted Confucius: He who wants success should enable others to succeed. The fact that Xinhua is quoting an ancient thinker is emblematic of how far the Chinese Communist Party has come in its pursuit of influence worldwide.
The BRI may have been launched as a 21st century Chinese iteration of the ancient Silk Road on which Marco Polo travelled, but under Xi’s mentorship, its ambition has grown to rival that of Han or Tang dynasty emperors. With an exclusive $40 billion budget, allocated after $100 billion was already promised by the China-led Asian Infrastructure Investment Bank, 50 Chinese state-owned corporations have been involved in building 1,700 projects — ports, roads, railway lines and industrial parks — along the BRI route.One major artery unfurls across the heart of Central Asia and, cutting through Pakistan, will join up with the Maritime Silk Route on the Indian Ocean and into Africa; another route will traverse the Mediterranean and end up in Europe. Annual trade is expected to cross $2.5 trillion and enrich more than a billion people. The scale of the project is staggering. No wonder the world is taking sides. Truth is, no one can ignore what China is up to.
It would be an understatement to say that Delhi is apprehensive about the challenge — the fact that one element of the BRI, called the China-Pakistan Economic Corridor, passes through Pakistan-Occupied Kashmir, has certainly served to refocus Delhi’s mind not only on the sovereignty question but also on the differential in power with the dragon next door.Certainly, the Chinese economy is five times the size of India, which makes the act of cutting a cheque much easier; especially in the poor economies in India’s neighbourhood, the yuan goes a long way. The question is about how Prime Minister Narendra Modi wants to deal with its “bitter neighbour in the north,” as erstwhile National Security Advisor Brajesh Mishra described China after India’s 1998 nuclear tests. But if Delhi could take a leaf out of Confucius’ book and attempt a reset, some of the mutual antagonism could be contained. After all, he who wants success should enable others to succeed.
Date:14-05-17
Criticism without aadhaar
The unique identification number empowers the people, not the state
Jean Dreze’s article, ‘Dissent and Aadhaar’ (IE, May 8), and other articles recently published in The Indian Express, have argued that with Aadhaar, India is at risk of becoming a surveillance or “Orwellian” state. With due respect to the critics, these apprehensions are unfounded. Aadhaar has emerged as a powerful instrument which enables people to establish their identity, receive their entitlements and exercise their rights without fear of being excluded or having their rights taken away. People use Aadhaar to open bank accounts, avail of doorstep banking, make digital payments and receive benefits under the PDS, MGNREGA, Ujjawala and the LPG subsidy, pensions, and scholarship schemes directly from the government without middlemen usurping them.
Aadhaar has thus brought transparency in governance and cleansed delivery databases of fakes, duplicates and con men/intermediaries, which have yielded savings of about Rs 50,000 crore in the last two years. In an independent study by the World Bank, ‘Digital Dividend 2016’, it has been estimated that Aadhaar can potentially save Rs 72,000 crore every year by plugging leakages. The transformational potential of Aadhaar has been recognised by the Supreme Court which has directed the use of Aadhaar to address the problems of leakages, fakes and duplicates.
No doubt, Aadhaar has also enhanced the government’s ability to directly connect, reach, and serve the people, which unfortunately is being projected as an increase in the state’s power and has led to Aadhaar being perceived as an instrument of state surveillance. The critics tend to forget that Aadhaar empowers the people, not the state. India’s effort to provide unique identification to its people and digitise its citizen databases, public or private, is mistaken as an exercise towards invasion of privacy. They must realise that non-digitisation of databases is not an option in the digital era. Often, the current debate reminds us of Europe’s Luddite movement in the 19th century when mechanisation was opposed due to fears of job loss.
It is pertinent to know how other developed democracies have used unique identification numbers to cleanse their system. The US introduced the Social Security Number (SSN) through an enactment in 1935 for the limited purpose of providing social security benefits during the Great Depression. However, in 1942, President Franklin D. Roosevelt expanded the scope through the historic Executive Order No. 9397 which mandated all federal agencies to use the SSN in their programmes.
In 1962, the SSN was adopted as the official Tax Identification Number (TIN) for income tax purposes (just as India’s Parliament recently introduced Section 139 AA in the Income Tax Act to mandatorily require Aadhaar for PAN and Income Tax returns). In 1976, the Social Security Act was further amended to say that any state may, in the administration of any tax, general public assistance, driver’s licence, or motor vehicle registration law, utilise the social security account numbers for the purpose of establishing the identification of individuals and may require any individual to furnish the SSN. Section 7 of the Aadhaar Act seeks to do the same in India.
The mandatory use of the SSN by the state did not go unchallenged in US courts which eventually held it to be constitutional. In Doyle vs Wilson, it was held that “mandatory disclosure of one’s social security number does not so threaten the sanctity of individual privacy as to require constitutional protection.” In the UK, too, almost every important service requires the National Insurance Number (NIN).
Critics will say that neither the SSN nor NIN is based on biometrics. But critics need to specify what they are objecting to — collection of biometrics or the system of a central number which can potentially link all the databases or both? Collection of biometrics for a legitimate purpose is an established practice sanctioned by law in India. If you want a driver’s licence, sell or buy properties, or want a passport, you are statutorily required to give your biometrics.
As regards objections to the state creating a central number in a central database, critics of Aadhaar need to ask themselves whether widespread mandatory usage of the SSN in the US or the NIN in the UK and the presence of these numbers in most citizen databases which potentially empowers the state to track every person from cradle to grave has made these countries surveillance states. They would say there are safeguards which prevent such things happening there.So, now let us examine what the safeguards are in Aadhaar which will prevent it from being used as an “electronic leash” or an “instrument of state surveillance”. Aadhaar accords the highest importance to privacy. Since its inception, it has adopted the principle of privacy by design which is achieved through minimal data, federated databases and optimal ignorance which in turn ensures that no agency is able to track and profile any individual. The UIDAI during Aadhaar enrolment collects minimal data — that is, name, address, date of birth, gender and biometrics. When people use Aadhaar for accessing services, their information remains in silos of federated databases of those agencies. No one agency can have a 360 degree view of a person. Each agency remains optimally ignorant.
But critics have apprehensions that an agency, particularly the state, may not choose to remain optimally ignorant forever and start connecting the silos of databases through Aadhaar. It will serve them better if they read the Aadhaar Act 2016 and the Regulations. The Act covers the basic tenets of privacy protection measures relating to informed consent, collection limitation, use and purpose limitation and sharing restrictions. I am yet to see another law in India which accords such importance to privacy and data protection.The restrictions on use and sharing imposed under the Act are equally applicable to the state or a private entity. Any violation is a criminal offence punishable with three years imprisonment. The UIDAI will welcome any constructive debate or suggestions to further strengthen the legal provisions, but to say that there is no privacy law and therefore Aadhaar cannot be allowed to go ahead is not correct.
Aadhaar is also criticised for failures and issues relating to implementation. Here, too, the UIDAI remains open to constructive suggestions and will continuously review and strengthen its system. Finally, Aadhaar is India‘s technological marvel which, while empowering people, will enable India to leapfrog towards the status of a developed nation.
भारतीय कूटनीति में बोधिसत्व
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घरेलू मोर्चे पर हिंदुत्ववादी राजनीति का सहारा लेने के बाद अब विदेश नीति में भी धार्मिक और सांस्कृतिक तत्वों को शामिल करने की पहल की है। कूटनीति में अपने तरह का यह नया प्रयोग है। भारत अब तक विदेश मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली भारतीय सांस्कृतिक सहयोग परिषद के जरिये विभिन्न देशों के साथ सांस्कृतिक संबंध कायम रखता था, जिसमें मुख्यत: संगीत, कला, साहित्य और नृत्य पर ही जोर दिया जाता था। धार्मिक मुद्दे कूटनीतिक परिधि में नहीं आते थे। मूलत: बौद्ध बहुसंख्यक श्रीलंका ने बौद्ध धर्म के सबसे पवित्र पर्व वैसाख पूर्णिमा के अवसर पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया था। इसमें प्रधानमंत्री मोदी मुख्य अतिथि थे। अपने वक्तव्य में उन्होंने हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के बीच एकता के सूत्रों की र्चचा की तथा भगवान बुद्ध के उपदेशों की प्रासंगिकता पर भी जोर दिया। प्रधानमंत्री के इन प्रयासों से स्पष्ट है कि वह श्रीलंका ही नहीं, बल्कि एशिया के बौद्ध मतावलंबी देशों के साथ धर्म आधारित कूटनीति शुरू करना चाहते हैं। पूर्व एशिया और दक्षिण पूर्ण एशिया के अधिकतर देश बौद्ध अनुयायी हैं, जिनके साथ चीन भी आर्थिक आधार पर निकट सहयोग कायम करने की कोशिश कर रहा है। भारत आर्थिक दृष्टि से चीन का मुकाबला नहीं कर सकता, लेकिन अपनी सांस्कृतिक और दार्शनिक विरासत के आधार पर वह बौद्ध देशों को बहुत कुछदे सकता है। भारत से इन देशों में पहुंचा बौद्ध धर्म अब अपने इतिहास को दोहरा सकता है, और फिर इन देशों का धर्मगुरु बन सकता है। इस सम्मेलन का एक आर्थिक पहलू यह भी है कि सभी प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल भारत में हैं और बहुआयामी संपर्क सुविधाओं के जरिये धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है जिससे भारत को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी हासिल होगी।यह विडंबना है कि श्रीलंका में बौद्ध, सिंहलियों और हिंदू तमिलों के बीच दशकों तक खूनी संघर्ष चला है। इसका एक बड़ा कारण वहां का धार्मिंक कट्टरवादी बौद्ध संघ भी था। बौद्ध धर्मगुरुओं के इस संघ के दबाव में श्रीलंका की सिंहली सरकार तमिलों को किसी प्रकार की राजनीतिक रियायत नहीं देती थी। इसी भेदभाव और अन्याय के खिलाफतमिलों का रोष लिट्टे के अभ्युदय के रूप में सामने आया। सौभाग्य से अब श्रीलंका गृह-युद्ध के दौर से उबर चुका है और वहां तमिलों और सिंहलियों के मेल-मिलाप से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के नये युग की शुरुआत हुईहै। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा में तमिलों और सिंहलियों, को आपसी कटुता और अविास को भुलाकर देश के पुनर्निर्माण में जुटने के लिए प्रेरित किया तथा इस काम में भारत के सहयोग का आश्वासन दिया। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा का एक उद्देश्य श्रीलंका को चीन के प्रभाव क्षेत्र में जाने से रोकना भी था। भारत इस बात को लेकर आशंकित रहा है कि श्रीलंका चीन के युद्ध जलपोतों और पनडुब्बियों को अपने बंदरगाहों पर रुकने की सुविधाएं दे सकता है। पूर्व में ऐसा हो भी चुका है।लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के दौरान श्रीलंका ने भारत को भरोसा दिलाया कि उसके हम्बनटोटा बंदरगाह पर भविष्य में चीन की पनडुब्बियों को ठहरने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
निजी स्कूलों पर लगाम लगाने की जरूरत
वह बच्चा नौवीं पास करके अपने ही स्कूल में दसवीं में दाखिला लेने जा रहा था। बच्चे के पिता को स्कूल के लेटरहेड पर हाथ से लिखी फीस-डिटेल दी गई थी, जो दसवीं कक्षा शुरू होने से पहले उन्हें चुकानी थी। ब्योरा कुछ यूं था- एडमिशन मद में 8,000 रुपये, यूनिफॉर्म के लिए 7,500, किताबें 3,200 रुपये की, सालाना फीस 16,000 रुपये, योग और खेल-कूद के मद में 4,000, बिल्डिंग फीस 5,500 रुपये, स्कूल पत्रिका फीस 2,000 रुपये और कंप्यूटर-इंटरनेट के लिए 3,000 रुपये, यानी इस पिता को कुल 49,200 रुपये जमा करने थे। जाहिर है, उन्हें मदद की दरकार थी। वह हर माह 12,000 रुपये कमाते हैं और उनकी पत्नी 9,000 रुपये।
पिछले तीन वर्षों में हर बार मेरी उनसे एक ही तरह की बात होती रही है, और इस दौरान स्कूल की फीस 27,000 से बढ़कर 49,200 तक पहुंच चुकी है। बात यह कि वह अपने बच्चे का दाखिला सरकारी स्कूल में करवाएं। पहली बार उन्होंने जब अपनी समस्या बताई, तो मैं उस स्कूल में गया। वह हमारे शहरों के उन हजारों स्कूलों की तरह ही है, जिनका मुख्य द्वार सस्ते कांच से बना होता है, पर शिक्षा नदारद रहती है। लिहाजा मैंने उस पिता को अपने बच्चे का दाखिला पास के सरकारी स्कूल में करवाने की सलाह दी, जिसे मैं देख चुका था। वह इससे सहमत नहीं हुए और किसी भी तरह उस साल फीस का इंतजाम कर लिया। अगले वर्ष इस मसले का दूसरा पक्ष दिखा। इस बार वह खुद उस सरकारी स्कूल को देख आए और मुझसे सहमत दिखे,पर तब उनकी पत्नी व बेटा तैयार नहीं थे। उनका मानना था कि ऐसा कोई कदम उनकी सामाजिकता को चोट पहुंचा सकता है। लिहाजा पिता ने फिर जैसे-तैसे फीस का जुगाड़ किया। जाहिर है, उन पर कर्ज का बोझ भी उसी अनुपात में बढ़ा। अब इस साल भी यही कहानी दोहराई जाने वाली है। यह पिता जानता है कि स्कूल सिर्फ पैसे बना रहा है, मगर वह लाचार है। वह न तो स्कूल से लड़ सकता है, और न अपने बच्चे का कहीं और दाखिला करवा सकता है। वह सामाजिक दबाव व उम्मीदों के बोझ तले दबा हुआ है।
यह किसी एक परिवार की कहानी नहीं है। अब निजी स्कूलों की फीस एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है, जिसका निदान होना ही चाहिए। शिक्षा अर्द्ध-सरकारी विषय है, जिसे सिर्फ बाजार-तंत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह से हम प्रभावी शिक्षा नहीं दे सकते। आदर्श स्थिति तो यह होती कि देश में उच्च गुणवत्ता वाला सरकारी स्कूलों का प्रभावी तंत्र विकसित होता। लेकिन हम जिस तरह इस समस्या से घिर चुके हैं, उसका एक महत्वपूर्ण समाधान निजी स्कूलों के प्रभावी नियमन में भी छिपा है। ऐसी प्रभावशाली व्यवस्था किस तरह आकार ले, इसके लिए मेरे पास कुछ सुझाव हैं।पहला तो यह कि स्कूलों का नियमन राज्य सरकारों के हाथों में होना चाहिए। दूसरा यह कि इस नियमन के दो प्रमुख आधार हों- एक, सभी निजी व सरकारी स्कूल शैक्षणिक व संचालन संबंधी बुनियादी मानकों पर खरे उतरें, और दूसरा, आम जनता को निजी स्कूलों की शोषणकारी नीतियों से बचाया जाए। तीसरा सुझाव यह है कि राज्य एक स्वतंत्र, अर्द्ध-न्यायिक स्कूल निगरानी इकाई का गठन करें। सियासी व नौकरीशाही दखलंदाजी से मुक्त यह इकाई स्कूलों की दक्षता बढ़ाने में मददगार तो होगी ही, पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ-साथ जवाबदेही भी बढ़ाएगी।मेरा चौथा सुझाव यह है कि स्कूल नियामक ऐसे हों, जो हमारे कानून की शर्तों के अनुरूप स्कूलों को गैर-लाभकारी बनाने की सिफारिश करें।यह तभी सुनिश्चित हो सकता है, जब सालाना स्कूलों की ऑडिट की व्यवस्था हो। पांचवां, स्कूलों को हर साल तीन वर्ष के लिए अपनी फीस सार्वजनिक करने की बाध्यता हो और फिर उसमें कोई बदलाव न किया जाए। छठा, अभिभावकों से मिलने वाली शिकायतों की सूरत में एक शिकायत निवारण तंत्र बने, जो वित्तीय मामलों से जुड़ी शिकायतों पर भी गौर करे। एक मजबूत सार्वजनिक तंत्र ही अच्छी व न्यायसंगत शिक्षा की गारंटी दे सकता है। मगर जब तक हमारी यह कल्पना साकार नहीं होती, तब तक प्रभावी निगरानी तंत्र आम लोगों की परेशानी एक सीमा तक कम कर ही सकता है।