15-10-2016 (Important News Clippings)

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15 Oct 2016
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TheEconomicTimeslogoDate: 15-10-16

End kerosene subsidy, start big fuel reforms

blog-1-2Oil minister Dharmendra Pradhan expects kerosene subsidy to fall this year with increased supply of cooking gas and rural electrification. The drop in the consumption of a sooty, polluting fuel is happy news. But the leaky subsidy regime needs rigorous reform and, eventually, the subsidy tap turned off. Subsidised kerosene sells at a huge discount to the market price. It is largely diverted to adulterate petrol and diesel, which damages engines and intensifies pollution. The dual pricing of kerosene should end. The use of Aadhaar-seeded bank accounts to transfer the subsidy to all poor households, akin to that for cooking gas, makes eminent sense. It will exorcise ghost subscribers and allow the government to scrap product subsidy, with its inherent potential for diversion and other misuse. Actually, with electricity and cooking gas reaching many more households, much more subsidised kerosene will be used to adulterate petrol and diesel.

Subsidised kerosene should be substituted with solar lanterns to cut pollution. It also cuts costs, given that there are no recurring expenses in solar lamps. A Tufts University study last year showed that the Centre’s scheme for subsidising solar products is fettered by the reluctance of companies to go through the complex procedure of getting reimbursements from the government. The answer is to use Aadhaar-seeded bank accounts for subsidy disbursement. Solar power should be funded with resolve to boost local manufacture of solar panels, LEDs and batteries.

Of the Centre’s petroleum subsidy of Rs 26,947 crore for this fiscal year, kerosene accounts for Rs 7,144 crore and cooking gas Rs 19,802 crore. A reduction in kerosene supply, coupled with small increases in retail prices, is expected to lower kerosene subsidy by 25% this year. The Centre needs to phase out the subsidy on cooking gas as well for everyone except the poor. A proactive policy to phase out kerosene subsidies and to rationalise taxes by removing the special excise duty on petrol will bring diesel, petrol and kerosene prices close to one another. The larger point is to end the long era of distorted petroleum pricing.


Dainik Bhaskar LogoDate: 15-10-16

गोवा में भारत के सपनों का ब्रिक्स बने

हर सदस्य-देश के नाम का पहला अक्षर जोड़कर ‘ब्रिक्स’ बना है। ब्राजील, रशिया, इंडिया, चाइना और साउथ अफ्रीका। अंग्रेजी में ब्रिक्स का अर्थ हुआ- ईंटें। पश्चिमी जगत की आक्रामक अर्थ-नीतियों के विरुद्ध ईंटों की दीवार खड़ी करना ही ब्रिक्स का मुख्य लक्ष्य है। पांच देशों के इस संगठन का आठवां सम्मेलन अब गोवा में हो रहा है, भारत की अध्यक्षता में। पहले इसमें सिर्फ चार देश थे। साउथ अफ्रीका बाद में जुड़ा।‘ब्रिक’ का पहला सम्मेलन 2009 में रूस में हुआ। दक्षिण अफ्रीका 2011 में इसका पांचवां सदस्य बन गया। यह संगठन काफी मजबूत है, लेकिन आश्चर्य है कि इसमें पश्चिमी खेमे का एक भी देश नहीं है। फिर भी दुनिया में ब्रिक्स की ठसक क्यों बनी हुई है? क्योंकि इसमें दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं। चीन, रूस और भारत।
इन तीन में से दो सुरक्षा-परिषद के सदस्य हैं। ब्राजील लातीनी अमेरिका का प्रमुख देश है और साउथ अफ्रीका, अफ्रीका महाद्वीप का बड़ा देश है। दूसरे शब्दों में ‘ब्रिक्स’ की सीमाएं दुनिया के इस पार से उस पार तक फैली हुई हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं कुल मिलाकर 16 खरब डाॅलर तक पहुंच गई है। दुनिया की 53 प्रतिशत यानी आधी से ज्यादा आबादी इन पांच देशों में रहती है। दुनिया की कुल आय (जीडीपी) का 30 प्रतिशत भाग इन देशों का है। विश्व-व्यापार का 17 प्रतिशत इन देशों के पास है। इस समय भारत की अर्थ-व्यवस्था का विकास सबसे तेजी से हो रहा है और वही इस वर्ष के सम्मेलन का अध्यक्ष है। वह चाहे तो ‘ब्रिक्स’ में नई जान फूंक सकता है। यूं तो ब्रिक्स की घोषणाएं बड़ी-बड़ी हैं, और इसके सम्मेलन भी लगातार हो रहे हैं, दक्षेस (सार्क) की तरह गोते नहीं खा रहे हैं, लेकिन ठोस उपलब्धियों के नाम पर ब्रिक्स के पास सिर्फ एक घोषणाभर है। वह है- नव विकास बैंक (न्यू डेवलपमेंट बैंक) की घोषणा, जो भारत की पहल पर 2014 में हुई थी। भारत के केवी कामथ इसके अध्यक्ष हैं। इसका दफ्तर शंघाई में कायम किया गया है। इसमें सदस्य-राष्ट्र 100 अरब डाॅलर की राशि जमा करेंगे। इस बैंक को बने चार साल हो गए है, लेकिन 100 अरब डाॅलर तो दूर का सपना है, अभी तक उसके पास 4 अरब डाॅलर भी इकट्‌ठे नहीं हो पाए हैं। रूस की अर्थव्यवस्था यूक्रेन-क्रीमिया के कारण लगे पश्चिमी प्रतिबंधों से संकट में है, चीन की अर्थव्यवस्था भी मंद हो गई है। ब्राजील में राजनीतिक उठा-पटक इतनी तेज है कि वह भी कुछ करने की स्थिति में नहीं है।
साउथ अफ्रीका पश्चिम से इतना नत्थी है कि वह भी कोई पहल नहीं कर सकता। उसने पांचों देश के बीच मुक्त-व्यापार का भी विरोध किया है। ब्रिक्स बैंक को वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक की टक्कर में खड़े करना अभी तो ख्याली-पुलाव ही लगता है। ये पांचों देश हर साल मिलते हैं, लेकिन चीन और रूस का लक्ष्य यह है कि अमेरिका की काट कैसे की जाए? कई अंतरराष्ट्रीय मुद्‌दों पर रूस और चीन की राय अमेरिका के विरुद्ध और एक-जैसी होती है, जैसे ‘साउथ चाइना सी’, यूक्रेन, आईएसआईएस आदि के बारे में। रूस और चीन में सामरिक घनिष्ठता भी बढ़ी है। रूस अधुनातन विमान चीन को सप्लाई कर रहा है और उसके साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास भी कर रहा है। चीन 40 अरब डाॅलर लगाकर जो एशियाई महापथ बना रहा है, रूस उसका भी मौन समर्थन कर रहा है। भारत ने पिछले दिनों जब पाकिस्तान के विरुद्ध शल्य-क्रिया की तो रूस ने यद्यपि भारत का समर्थन किया, लेकिन उस समय रूसी सेनाएं पाक सेना के साथ संयुक्त अभ्यास द्रूझबा (दोस्ती) के नाम पर कर रही थीं। पता नहीं, चीन और रूस का आतंकवाद पर क्या रवैया रहेगा? ब्रिक्स देश आतंकवाद की स्पष्ट भर्त्सना करेंगे या कूटनीतिक गोलमाल की भाषा इस्तेमाल करेंगे? ब्रिक्स से ज्यादा ‘बिम्सटेक’ सम्मेलन के नतीजे ठोस और उपयोगी होंगे। इसमें बंगाल की खाड़ी से लगने वाले पड़ोसी देश हैं।
ब्रिक्स का इस्तेमाल भारत चाहे तो अपने हितों की सिद्धि के लिए मजबूती से कर सकता है। जहां तक चीन का सवाल है, व्यापार मंत्रियों की बैठक में चीन ने आश्वासन दिया है कि भारत की वस्तुओं के लिए वह नए-नए बाजार खोलेगा, भारत में अपने 2 अरब डाॅलर के विनियोग को 20 अरब डाॅलर तक बढ़ाएगा, भारत-चीन व्यापार में आए भयंकर असंतुलन को घटाएगा। ब्रह्मपुत्र के बांधों से भारत को नुकसान नहीं होने देगा। किंतु मसूद अजहर के मामले में चीन अभी तक अटका हुआ है। वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा उसे आतंकी घोषित करने का विरोध कर रहा है। उड़ी की शल्य-क्रिया के बारे में उसने यह तो कहा है कि वह आतंकवाद के निर्यात का विरोध करता है, लेकिन वह आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाकर इस्तेमाल करने का भी विरोध करता है यानी भारत-सरकार शल्य-क्रिया का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। चीन ने परमाणु सप्लायर्स ग्रुप में भारत की सदस्यता पर रुख नरम किया है। अब चीनी राष्ट्रपति शी चिन पिंग से अपनी निजी मुलाकात में नरेंद्र मोदी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उन्हें दहशतगर्दी के खिलाफ बयान जारी करने के लिए मना सकेंगे।
जहां तक रूस का प्रश्न है, उसके साथ हथियारों की खरीद का महत्वपूर्ण समझौता होने वाला है। प्रक्षेप्रास्त्र-रोधी ‘ट्रायम्फ’, कमोव टैंक और 226 टी हेलिकाॅप्टर भी भारत खरीदेगा। कुंदनकुलम में दो परमाणु संयंत्रों के निर्माण के समझौते पर भी दस्तखत होंगे। भारत को तरह-तरह के हथियार बनाने में रूस मदद करेगा। भारत में रूस का विनियोग सिर्फ 4 अरब डाॅलर है, जबकि भारत का वहां 8 अरब का है। भारत-रूस व्यापार भी 6-7 अरब डाॅलर तक सीमित है। रूस को यह शिकायत हो सकती है कि भारत अमेरिका के बहुत करीब होता जा रहा है, लेकिन खुद रूस क्या अमेरिका से अपने संबंध घनिष्ठ बनाने की कोशिश नहीं कर रहा था? अब अमेरिका और रूस के बीच कोई बराबरी भी नहीं है। उसे कई मामलों में चीन का पिछलग्गू बनना पड़ता है। रूस यदि पाक को हथियार बेचना चाहता है तो बेचे, लेकिन उसे भारत के विरुद्ध जाने की जरूरत जरा भी नहीं है।चीन और रूस को भारत चाहे तो यह भी बता सकता है कि एशिया और अफ्रीका के विकास का नया माॅडल क्या हो? चीन तो अमेरिका की नकल कर ही रहा है। रूस भी उसी रास्ते पर है, लेकिन भारत चाहे तो अपने विलक्षण सांस्कृतिक और आर्थिक सपने को ब्रिक्स का सपना बना सकता है, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या भारत के पास अपना कोई सपना है?
वेदप्रताप वैदिक (ये लेखक के अपने विचार हैं।)
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष

Date: 15-10-16

चीनी माल का बहिष्कार और वैश्वीकरण से उत्पन्न दुविधा

दीपावली के मौके पर भारतीय बाजार में चीनी माल के बहिष्कार अभियान ने राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण की दुविधा को विडंबनापूर्ण तरीके से उजागर कर दिया है। एक तरफ 15-16 अक्टूबर को गोवा में ब्रिक्स देशों का शिखर सम्मेलन हो रहा है जिसमें दुनिया की दो-तिहाई आबादी वाले ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश आर्थिक और सामरिक क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने का गंभीर प्रयास करेंगे, वहीं पाकिस्तान-भारत संबंधों पर चीन के रवैये से भारतीय नाराजगी माल के बॉयकाट के रूप में प्रकट हो रही है। यह सही है कि चीन ने भारतीय बाजार को अपने सस्ते और घटिया श्रेणी के सामानों से पाट रखा है और इस साल सितंबर महीने में ही चीन की तुलना में भारत का व्यापारिक घाटा बहुत ज्यादा है। इस महीने भारत ने चीन को 92 करोड़ डॉलर का निर्यात किया तो चीन से आयात होने वाले सामानों की कीमत 5.4 अरब डॉलर रही।
2015 में चीन से व्यापार घाटा 52.68 अरब डॉलर का रहा है जो कि उससे पहले के साल के 48 अरब डॉलर के मुकाबले बढ़ा है। इस बीच भारत में चीनी निवेश 2014 के मुकाबले छह गुना बढ़कर 87 करोड़ डॉलर हो गया है। सवाल यह है कि भारतीय बाजार को चीन के पाकिस्तान प्रेम पर बॉयकाट की प्रतिक्रिया करनी चाहिए या नहीं? भारत और चीन के संबंध पूरी तरह से दोस्ती के नहीं हैं, लेकिन वे पाकिस्तान जैसी दुश्मनी की श्रेणी में भी नहीं हैं। उसमें प्रतिद्वंद्विता भी है और सहयोग भी। किंतु मौलाना मसूद अजहर और हाफिज सईद जैसे आतंकियों पर पाबंदी लगाने के भारतीय प्रस्ताव का विरोध करके चीन ने भारत को आहत किया है। उसने न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भी भारत के शामिल किए जाने का विरोध करके झटका दिया है, इसलिए भारत के देशप्रेमी सोशल मीडिया और व्यापारिक व राजनीति संगठनों की तरफ से उड़ी और सर्जिकल ऑपरेशन के बाद चीनी माल के बॉयकाट का असर भी हुआ है और इसका चीनी मीडिया ने विरोध भी किया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन के सस्ते माल ने भारतीय बाजार को नुकसान पहुंचाया है, लेकिन बॉयकाट से उन व्यापारियों को भी नुकसान होगा, जो दीपावली के व्यापार के लिए भारी मात्रा में चीनी माल जमा कर चुके हैं। इनमें ज्यादातर छोटे और मझौले स्तर के व्यापारी हैं, जो यह घाटा बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। इस पर गौर करना भी मुनासिब होगा।

business-standard-hindiDate: 15-10-16

जड़ी-बूटी और सुगंधित पौधों की खेती भर सकती है छोटे किसानों की झोली

देश में औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती छोटे किसानों के लिए क्रांतिकारी कदम हो सकती है। इससे उन किसानों की अतिरिक्त आमदनी हो सकती है जो खासकर असिंचित और खराब गुणवत्ता वाली जमीन पर खेती करते हैं। इनमें से अधिकांश पौधों का इस्तेमाल परंपरागत और निर्धारित औषधि, प्रसाधन सामग्री और इत्र बनाने में होता है। इन्हें उपजाने में ज्यादा नकद राशि की जरूरत नहीं होती है। ये पौधे सूखा, अत्यधिक तापमान और यहां तक कि मिट्टी के खारेपन और क्षारीयता को भी सहने में सक्षम होते हैं। इन पौधों को दूसरी कृषि फसलों और बागवानी फसलों के साथ उगाने की सलाह दी जाती है क्योंकि बंदर और आवारा पशुओं के साथ-साथ जंगली जानवर भी इनसे दूर रहते हैं और इस तरह उनसे फसल को बचाया जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि विकासशील देशों में करीब 80 फीसदी लोग अपनी स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए जड़ी बूटी आधारित दवाओं पर निर्भर हैं। सदियों पुरानी चिकित्सा पद्घतियों  जैसे आयुर्वेद, सिद्घ और यूनानी में जड़ी बूटियों से इलाज किया जाता है। होम्योपैथी दवाओं और करीब 40 फीसदी आधुनिक दवाओं में भी पेड़-पौधों से निकाले गए तत्त्वों का इस्तेमाल होता है। यही वजह है कि दुनिया में औषधीय और सुगंधित पौधों और उनके उत्पादों की वैश्विक मांग सालाना 15 फीसदी की दर से बढ़ रही है। विश्लेषकों का मानना है कि 2050 तक जड़ी बूटियों से बने उत्पादों का बाजार 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। आधुनिक दवाओं के दुष्प्रभावों के कारण इन उत्पादों की मांग बढ़ रही है। भारत के पास जड़ी बूटियों का भंडार है और उसे दुनिया का हर्बेरियम कहा जाता है लेकिन फिर भी इन उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भागीदारी बहुत कम है। भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहां अपार जैव विविधता है। दुनिया में अपार जैव विविधता वाले 18 क्षेत्र हैं जिनमें से दो भारत में हैं। भारत में 960 तरह की जड़ी बूटियों का व्यापार होता है लेकिन उनमें से केवल 35-40 की ही व्यावसायिक खेती होती है। बाकी जड़ी बूटियां जंगलों से एकत्र की जाती हैं जिसके कारण वन्य भंडार तेजी से कम हो रहा है। दु:ख की बात यह है कि इन जड़ी बूटियां का दोहन बेतरतीब ढंग से किया जा रहा है जिससे उनके दोबारा उगने की संभावना कम है।
राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी (एनएएएस) ने इस साल मई में एक नीति दस्तावेज जारी किया जिसमें जंगलों में पाए जाने वाले औषधीय और सुगंधित पौधों की लूट के खिलाफ आगाह किया गया है। संस्थान का मानना है कि इन जड़ी बूटियों को जंगलों से एकत्र करने के बजाय उगाया जाना चाहिए। इनमें से कई प्रजातियों को बहुत कम लागत पर एकल, मिश्रित या दूसरी कृषि फसलों और बागवानी फसलों के साथ अंतर-फसल के रूप में उगाया जा सकता है। इससे किसानों की अतिरिक्त आमदनी होगी।
 दस्तावेज में कहा गया है कि करीब पांच लाख किसान मेंथा या मेंथॉल के लिए पुदीने की खेती कर रहे हैं। इसका सालाना कारोबार 3,500 करोड़ रुपये है। भारत दुनिया में पुदीने का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। साथ ही भारत आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले एक अन्य हर्बल उत्पाद इसबगोल का भी सबसे बड़ा उत्पादक है। इसबगोल के वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी 80 फीसदी है। इसके अलावा देश सनाय और पोस्तदाना की भी भारत में खेती की जाती है।
एनएएएस के दस्तावेज ने औषधीय और सुगंधित पौधों तथा उनके उत्पादों को कच्चे माल के रूप में निर्यात करने के बजाय उनका अंतिम उत्पाद बनाने पर जोर दिया है। इसके लिए उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच आपसी फायदे के लिए संपर्क व्यवस्था बनाने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि हाल में एरोमा ऐंड फाइटो-फार्मास्यूटिकल मिशन की स्थापना की गई है। इसका मकसद बंजर, सीमांत और बेकार पड़ी जमीन पर अहम सुगंधित और औषधीय पौधों की खेती तथा उनके उत्पादों के प्रसंस्करण को बढ़ावा देना है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर में जड़ी बूटी की खेती की अच्छी संभावना है। इनमें से अधिकांश राज्य लेवेंडर, मेंहदी, नीबू घास, अश्वगंधा, सतावर और दूसरी कई जड़ी बूटियों की खेती कर सकते हैं। औषधीय और सुगंधित प्रजाति के पौधों पर शोध और विकास में लगे कई वैज्ञानिक संस्थान भी इस पहल में भागीदारी कर सकते हैं। माना जा रहा है कि अगले दो वर्षो में इन मूल्यवान फसलों की खेती के लिए कम से कम 6,000 हेक्टेयर अतिरिक्त जमीन का इंतजाम किया जा सकता है और प्रति हेक्टेयर 25,000 रुपये से 75,000 रुपये की कमाई हो सकती है। अगर यह पहल सफल हुई तो इससे छोटे किसानों के दिन फिर सकते हैं।

Date: 15-10-16

बिम्सटेक मुक्त व्यापर समझौते पर बने आम सहमति

भारत ने बंगाल की खाड़ी के आसपास के देशों के मंच बिम्सटेक के सदस्य देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) में देरी पर चिंता जताते हुए सदस्यों से इस पर आम सहमति कायम करने के लिए सक्रियता से प्रयास करने की अपील की है।बिम्सटेक सात देशों का एक समूह है जिसमें बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, भूटान और नेपाल शामिल हैं। बिम्सटेक ने फरवरी 2004 में इस क्षेत्र में वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह को बढ़ाने के लिए एक मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के लिए करार की रूपरेखा पर हस्ताक्षर किए हैं। वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, “ इस बारे में बहुत बातें हो चुकी हैं लेकिन हम अब तक एफटीए पर हस्ताक्षर नहीं कर पाए हैं। हां यह चिंता की बात है और बिम्सटेक के सदस्यों को इस पर आम सहमति बनाने के लिए सक्रिय तौर पर कार्य करना चाहिए।” निर्मला ने यहां उद्योग मंडल सीआईआई द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कहा कि बिम्सटेक सदस्य देशों के बीच परस्पर सहयोग की संभावनाओं को समझने और क्षेत्रीय मूल्यवर्धन (विनिर्माण) श्रृखलाओं को मजबूत करने से इनकी अर्थव्यवस्थाओं को बल मिलेगा।  उन्होंने कहा कि यह, ` शर्म की बात है कि बिम्सटेक क्षेत्र में अब भी एक देश से दूसरे देश में जाना कष्टसाध्य है जबकि यह इलाका अच्छी तरह संपर्क सुवधाआंs से जुड़ा है, बंगाल की खाड़ी हमें जोड़ती है, स्थलीय मार्ग भी हमें जोड़ते है। ‘ उन्होंने क्षेत्र में समुदीय और बंदरगाह सुविधाओं को मजबूत करने पर भी बल दिया तकि सामान की आवाजाही तेज और कम खर्चीली हो सके। सीतारमण ने बिम्सटेक के बीच बांग्लादेश के रास्ते डिजिटल सम्पर्क बढाने  तथा समुदीय आप्टिकल फाइबर संपर्क मजबूत किए जाने पर जोर दिया। बिम्सटेक देशों की कुल आबादी 1.5 अरब है जो दुनिया की आबादी का 22 प्रतिशत है।

इन देशों का सकल घरेलू उत्पाद सालाना 2,700 अरब डालर के बराबर है।  बै”क में नेपाल के वाणिज्य मंत्री रोमी गउढचंद थकाली ने कहा कि उनका देश बिम्सटेक को काफी महत्व देता है और पारंभिक सहमति को जल्द से जल्द एक ठोस व्यवस्था का रूप देने को प्रतिबद्ध है।


hindu1Date: 14-10-16

Of politics and administration

Do smaller units make for better administration? It is no surprise that Telangana Chief Minister K. Chandrasekhar Rao thinks so. After all, that was an important reason for the movement demanding the bifurcation of Andhra Pradesh and statehood for Telangana. But it is a telling commentary on the development so far, that people geographically removed from the district headquarters feel a sense of alienation from centres of power. Actually, Chief Minister Chandrasekhar Rao originally intended to create just 14 new districts; this was one of the election promises for the 2014 polls. Later, on the basis of the report of a Cabinet subcommittee, a draft notification was issued for 17 new districts. But after fresh demands from sections of the people, the Chief Minister finally settled on 21 new districts for a total of 31. Also, 25 additional revenue divisions, 125 new mandals, four new police commissionerates, 23 new police subdivisions, 28 new circles and 91 more police stations have been carved out. The new units could facilitate better monitoring of government schemes, and provide a more even distribution of resources. Indeed, one of the few intended benefits of the Members of Parliament Local Area Development Scheme (MPLADS) is just this: an even spread of resources, and local inputs into framing of development work. A bottom-up approach to development that allows local stakeholders greater say in decision-making on issues directly affecting their lives is certainly welcome, if undertaken after studying the cost to benefit ratio.

 But the government’s reasons for creating new districts morphed from administrative to political. The decision to increase the number of districts was taken following the spiralling of an agitation in Jangaon, Sircilla and Gadwal. Undivided Andhra Pradesh had fewer districts. Alongside the benefits in terms of ease of governance of smaller districts, there are costs to be borne: creation of additional administrative infrastructure, transfer of personnel, and replication of paperwork. The Rs. 1 crore sanctioned for each district for initial arrangements will hardly suffice. At present, the existing staff are being redeployed, and existing buildings are being utilised for administrative purposes. But in the longer term the State will have to incur huge expenditure to create administrative infrastructure in each new district headquarters town. Increasing bureaucratic work at the village level will not automatically lead to better governance outcomes. The Chief Minister must use this opportunity to involve local communities in all decision-making on the development road map in their areas.

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