04-12-2025 (Important News Clippings)

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04 Dec 2025
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Date: 04-12-25

Sting in the tail

Ditwah devastated Sri Lanka, and exposed infrastructure gaps in India

Editorial

During its slow crawl over Sri Lanka in November, Cyclone Ditwah was a rain machine that repeatedly swept over the same areas for days, eventually precipitating a national disaster with widespread flooding. Fourteen lakh people were affected, and at least 474 were killed. After crossing Sri Lanka, the system re-entered the Bay of Bengal and briefly reintensified, bringing heavy rains to north Tamil Nadu and south Andhra Pradesh. By December 1, the storm’s remnant parked itself off Chennai’s coast as a deep depression. The next day, after around 18 cm of rain over 24 hours, the city woke to flooded streets and widespread waterlogging. While that much rain would test any urban drainage system, public frustration has mounted. That Ditwah was tricky to predict made matters worse. Chennai’s storm water network has been rebuilt and extended after the 2015 floods, and again since 2023, but it cannot be flood-proof. Integrated projects in local basins are designed to handle intense bursts rather than hours of heavy rain. The GCC has said that it has spent ₹5,200 crore over four years to add around 1,100 km of new drains, with three-fourths of the work done. A separate endeavour to fix smaller broken links is incomplete, leaving many streets waterlogged.

Chennai’s flat layout, increasing paved area, and the three rivers running through it from catchments in Tiruvallur and Kancheepuram also mean that when a storm system inundates those basins and Chennai together, water levels will rise quickly. Recent floods in north Chennai exposed the encroachment and shoddy desilting of the Kosasthalaiyar. With its ability to tolerate flooding diminished, the GCC had to shut some drains and pump stagnant waters against reverse flow. By lingering near Chennai, the new storm had similar effects.

The Thiruppugazh Committee appointed after the 2021 floods produced a 600-page report with basin-wise recommendations and numerous measures. The State government has cited this report while justifying design changes and drain upgrades, building artificial water bodies, and seeking central funds for an ‘Integrated Urban Flood Management’ project, yet the report remains out of public view. There is also no verifiable consolidated implementation plan with a deadline. Flood maps and elevation models exist for the Chennai basin but they are not a shared reference for enforcement and relief efforts, while proper zoning and limits on construction continue to elude residents. Thus, the rains underline an unresolved story while spotlighting gaps in infrastructure and transparency. As the upgrades take shape, the State must publish the report and ensure hazard maps and basin-wide coordination efforts as well as temporary solutions such as pumps keep pace with the storms that routinely test them.


Date: 04-12-25

रूस से भारत को बेहतरीन हथियार पाने की उम्मीद है

संपादकीय

ट्रम्प नीति ने दुनिया की यथास्थिति को चूल से हिला दिया है। ऐसे में पुतिन की 30 घंटे की भारत यात्रा दुनिया में शांति और स्थायित्व के लिए बेहद अहम होगी। मोदी और पुतिन की शुक्रवार की वार्ता के परोक्ष और अपरोक्ष परिणाम पर अमेरिका और चीन के अलावा पाकिस्तान और यूरोप भी निगाहें लगाए होंगे। भारत पर ट्रम्प ने रूस से तेल खरीद के खिलाफ सजा के तौर पर 25% अतिरिक्त टैरिफ लगाया है। रूस को भी इसका अहसास है। लिहाजा वह भारत को हरसंभव मदद देने का मन बना चुका है। सुखोई- 57 और एस-400 के अलावा अन्य बेहतरीन हथियार न केवल देने का प्रस्ताव है बल्कि उन्हें भारत में बनाने की तकनीकी क्षमता भी सौंपने का वादा रूस कई मंचों पर कर चुका है। भारत से कृषि व अन्य उत्पादों का आयात भी रूसी एजेंडे में है, ताकि यूएस द्वारा माल न लेने के घाटे को भी कुछ हद तक पूरा किया जा सके। जाहिर है पेट्रोल लेने का दबाव न तो रूस डालेगा, ना ही भारत राजी होगा। लेकिन भारत की कोशिश होगी कि हथियार ऐसे हों, जो पाकिस्तान ही नहीं चीनी हथियारों का भी मुकाबला कर सकें। भारत के विदेश मंत्री ने दो दिन पहले अनायास ही नहीं कहा था कि दिक्कत अमेरिका या पाकिस्तान से उतनी नहीं है, जितनी कि चीनी रवैये से है। यह पुतिन को संदेश था । चूंकि आज चीन और रूस के संबंध बदल गए हैं और मॉस्को अब इस संबंध को नियंत्रित करने की हैसियत नहीं रखता, लिहाजा पुतिन के जरिए चीनी रुख में बदलाव की अपेक्षा भी भारत को नहीं है।


Date: 04-12-25

भारत में पुतिन पर दुनिया की होगी नजर

शीला भट्ट

एक मायने में भला ही हो ट्रम्प का, जिन्होंने भारत से अमेरिका भेजे जाने वाले निर्यातों पर 50% का टैरिफ थोप दिया। इस गैर-जिम्मेदाराना डिप्लोमेसी का लाभ हमें यह हुआ कि हम निर्यात क्षेत्र में आए संकट की स्थिति में नए बाजार, नए देश और अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने के नए रास्ते ढूंढने लगे। निर्यात क्षेत्र में आई सुस्ती हटी। अब जब भारत पुरजोर तरीके से नए बाजारों की तलाश कर रहा है, तब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन आज से भारत की दो दिन की यात्रा पर आ रहे हैं।

वैसे अब तक भारत और रूस के बीच 22 सालाना शिखर सम्मेलन हो चुके हैं। दोनों देशों के संबंध 78 साल पुराने हैं और इनमें सर्वोच्च नेताओं के बीच हमेशा बातचीत होती रही है। लेकिन अब भारत और रूस के संबंध रंग बदल रहे हैं। खासतौर पर पुतिन की इस यात्रा की टाइमिंग का तो खासा महत्त्व है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर जिस तरह से इस संबंध को बदलना चाहते हैं, उसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध हो रहा है। अगले दो दिनों में मोदी जो संदेश अमेरिका और यूरोप को देने वाले हैं, उसका अंदाजा भी उन्हें है।

इस भेंटवार्ता का माहौल बिगाड़ने के लिए नई दिल्ली स्थित जर्मनी, ब्रिटेन और फ्रांस के राजदूतों ने एक कॉलम लिखा है, जिसमें यह याद दिलाया है कि रूस किस तरह से शांति की परवाह किए बिना यूक्रेन को तबाह कर रहा है।

हाल के दिनों में पुतिन ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका नहीं जा पाए थे, क्योंकि यूक्रेन में युद्ध छेड़ने के लिए (वॉर क्राइम्स) उनके खिलाफ इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट का वारंट है। लेकिन भारत में तो पुतिन का गर्मजोशी से स्वागत होगा। यह बात अमेरिका और यूरोप को खटक रही है।

मोदी को भी अपने आलोचकों को यह बताने का इससे बढ़िया मौका नहीं मिलेगा कि भारत अपनी विदेश नीति अमेरिका के दबाव में नहीं बदलेगा। पुतिन की इस मुलाकात से ऐसे परिवर्तन भारत और रूस के संबंधों में आने वाले हैं, जो पिछले 30 सालों में नहीं हुए थे। भारत और रूस के बीच सैन्य हथियारों का बहुत बड़ा व्यापार है।

परमाणु ऊर्जा टेक्नोलॉजी में भी रूस का सहयोग भारत को मिला है। तमिलनाडु का कुडनकुलम् न्यूक्लियर पावर प्लांट एक रूसी कंपनी की मदद से ही बनाया गया है। ये हमारा सबसे बड़ा परमाणु ऊर्जा स्टेशन है। इस क्षेत्र में भी निवेश बढ़ने वाला है, क्योंकि भारत अपने नियमों में ढील देने वाला है।

स्पेस की दुनिया में भी रूस और भारत ने बढ़िया भागीदारी की है। लेकिन व्यापार के मामले में संबंध हमेशा फीके रहे। 2023-2024 के आंकड़ों के अनुसार भारत से रूस में सिर्फ 4.26 अरब डॉलर का सामान जाता है। भारत सबसे ज्यादा निर्यात अमेरिका को करता है, जो 100 अरब डॉलर के आसपास है। अब भारत रूसी बाजारों तक पहुंचना चाहता है और उनसे अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है।

सबसे महत्वपूर्ण ये कि भारत व रूस के बीच इंडिया रशिया मोबिलिटी एग्रीमेंट पर दस्तखत होने वाले हैं। ट्रम्प ने भारतीय मूल के लोगों पर निशाना साधते हुए अमेरिका की इमिग्रेशन नीति पर बहुत बातें कही हैं। लेकिन भारत उससे विचलित हुए बिना वैध अप्रवासन को बढ़ावा दे रहा है। भारत चाहता है कि शिक्षित युवाओं और मजदूरों के हकों की विदेशी भूमि में रक्षा हो और उनकी कमाई को देश में भेजने की पुख्ता बैंकिंग व्यवस्था हो।

भारत के लाखों मजदूर खाड़ी के देशों की भयानक गर्मी में बसकर रोजी-रोटी कमाते हैं। उनके लिए भी एक नया विकल्प खुल रहा है, क्योंकि रूस भारत के मजदूरों को भी न्योता दे रहा है। इस वक्त साइबेरिया में करीब 3 लाख चीनी मजदूर बसे हुए है। कई ने तो रूसी औरतों से विवाह भी किया है। लेकिन रूस नहीं चाहता है कि किसी एक ही देश के लोग उसके एक प्रदेश में एकत्रित हो जाएं।

आज भारत के 1 लाख से ज्यादा लोग रूस में काम कर रहे हैं। यूक्रेन के साथ युद्ध में फंसे हुए रूस को कहीं ज्यादा कुशल और अर्धकुशल कामगारों की जरूरत है। मोबिलिटी एग्रीमेंट भी उसी प्रयत्न का एक भाग है। भारत और रूस के संबंध हमेशा स्थिर, विश्वासपूर्ण और परिपक्व रहे हैं। दुनिया में बहुत ही कम ऐसे देश हैं, जिन्होंने इतनी निरंतरता के साथ द्विपक्षीय संबंधों को निभाया हो। ना ये संबंध ज्यादा भावुक हैं, ना ही अपेक्षाओं के भार से दबे हैं। आज अमेरिका भारत पर दबाव डाल रहा है कि भारत रूस से सस्ते तेल का आयात न करे।

युद्धविराम का दबाव बनाने के लिए रूस की आर्थिक स्थिति को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। अमेरिका द्वारा लगाए गए 25% अतिरिक्त टैरिफ के कारण भारत रूस से तेल का आयात कम करेगा, लेकिन रूस अमेरिका की ये चाल समझ रहा है। रूस का अर्थतंत्र जापान, जर्मनी या भारत से छोटा होने के बावजूद उसकी रणनीतिक अहमियत इतनी है कि ट्रम्प भी पुतिन के साथ समझौते करना चाहते हैं।

भारत का आम आदमी भी जानता है कि रूस भारत का भरोसेमंद सहयोगी रहा है। जबकि ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका अनिश्चित और गैर-भरोसेमंद देश बन गया है। जब यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ तो रूस ने भारत को सस्ता तेल दिया और भारत की इकोनॉमी उसके कारण काफी स्थिर रही है।

भारतीयों को भी अब अमेरिका का आकर्षण छोड़कर कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस में नई जमीन की तलाश करनी चाहिए। अमेरिका और चीन के दबदबे के बीच जरूरी है कि रूस और भारत साथ आएं। सोचें अगर चेन्नई-व्लादीवोस्तोक ईस्टर्न मैरिटाइम कॉरिडोर बनने की शुरुआत हो जाए- जैसा कि पुतिन और मोदी सोच रहे हैं- तो न केवल इन देशों, बल्कि उनके बीच बसे देशों की आर्थिक हालत में भी कैसी क्रांति आ जाएगी?

अमेरिका के बजाय रूस आज ज्यादा भरोसेमंद साथी है… आमजन भी जानता है कि रूस हमारा भरोसेमंद सहयोगी रहा है। जबकि ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका एक अनिश्चित और गैर-भरोसेमंद देश बन गया है। जब यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ तो ये रूस ही था, जिसने हमें सस्ता तेल देकर हमारी इकोनॉमी को डावांडोल होने से बचाया था।


Date: 04-12-25

संविधान के दायरे के भीतर भी निरंकुशता सम्भव है

अर्घ्य सेनगुप्ता, स्वपन्निल त्रिपाठी, ( विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में पदाधिकारी )

लोकतांत्रिक क्षरण नाटकीय घटनाओं के माध्यम से ही सामने नहीं आता। कई बार कानून की बाहरी संरचना तो बनी रहती है, लेकिन उसका इस्तेमाल इस तरह किया जाता है कि सत्ता का केंद्रीकरण बढ़ जाए। पिछले एक महीने में दक्षिण एशिया ने इस प्रवृत्ति के दो स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए हैं- बांग्लादेश में शेख हसीना को मृत्युदंड देने वाला निर्णय और पाकिस्तान का 27वां संविधान संशोधन, जिसने सेना प्रमुख की शक्तियों को और मजबूत किया है। दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि वैधता का उपयोग शक्ति को सीमित करने के बजाय उसे मजबूत करने के लिए किया जा सकता है।

बांग्लादेश में अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण- जिसे मूल रूप से शेख मुजीबुर रहमान ने बनाया था और जिसे उनकी बेटी शेख हसीना ने 1971 के मुक्ति संग्राम में हुए अत्याचारों की जांच के लिए पुनर्जीवित किया था- को फिर पुनर्गठित किया गया, पर इस बार स्वयं हसीना के मुकदमे के लिए।

यह मुकदमा पिछले वर्ष छात्र प्रदर्शनों के बाद भड़की उस हिंसा से जुड़ा था, जिसमें 1,400 से अधिक नागरिकों की मृत्यु हुई थी और जिसके परिणामस्वरूप हसीना को पद छोड़ना पड़ा था। इन कार्यवाहियों में हसीना और तत्कालीन गृह मंत्री असदुज्जमान खान को फांसी की सजा सुनाई गई।

यदि यह वास्तव में एक निष्पक्ष और गैर-पक्षपातपूर्ण जांच होती, तो लोकतांत्रिक जवाबदेही को मजबूत करती और यह दिखाती कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन इसके विपरीत, इस निर्णय को व्यापक रूप से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को न्यायिक माध्यमों से समाप्त करने का प्रयास माना गया है।

बांग्लादेशी राजनीति के पर्यवेक्षकों तथा कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने मुकदमे की गंभीर प्रक्रियागत कमियों की ओर ध्यान आकर्षित किया- अपनी पसंद का वकील न मिलने देना, साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर न देना और अदालत द्वारा नियुक्त वकील का यह स्वीकारना कि उसने मुकदमे के दौरान हसीना से मिलना तक जरूरी नहीं समझा।

नतीजा पहले से तय दिखाई देता था। यह वही स्थिति है, जहां वैधता आवरण बन जाती है- कानून का बाहरी रूप बना रहता है, लेकिन उसकी मूल भावनाएं- निष्पक्षता और संस्थागत स्वतंत्रता- धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं।

पाकिस्तान का 27वां संविधान संशोधन इसी प्रवृत्ति की दूसरी छवि प्रस्तुत करता है, भले ही अलग रूप में। इसे संवैधानिक सुधार के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन वास्तव में यह राज्य के भीतर शक्ति-संतुलन को बुनियादी रूप से बदल देता है।

रक्षा बलों के प्रमुख नामक एक नए पद की स्थापना- जो स्थायी रूप से सेना प्रमुख के पास रहेगा और नौसेना तथा वायुसेना के प्रमुखों से ऊपर होगा- से सैन्य नेतृत्व को अभूतपूर्व संवैधानिक अधिकार मिल जाते हैं। इसके साथ ही एक नया संघीय संवैधानिक न्यायालय बनाने का प्रस्ताव है, जो सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक अधिकार क्षेत्र को सीमित कर देगा और सैन्य मामलों की न्यायिक समीक्षा को कमजोर करेगा।

यह सब संवैधानिक और कानूनी प्रक्रिया के भीतर ही हो रहा है। लेकिन इनका संयुक्त प्रभाव यह है कि सैन्य प्रभुत्व को संवैधानिक रूप मिल जाता है, न्यायपालिका की शक्ति घटती है, और नागरिक सरकार की भूमिका और सीमित हो जाती है।

आपातकाल के दौरान भारत में भी इमरजेंसी की घोषणा, प्रेस पर नियंत्रण, अधिकारों का निलंबन और व्यापक संवैधानिक संशोधन- ये सब संवैधानिक प्रक्रिया के भीतर ही किए गए थे। कानून की भाषा का उपयोग संवैधानिकता को कमजोर करने के लिए किया गया था।

प्रेस, नागरिक समाज और राजनीतिक विपक्ष के भीतर मौजूद छोटे-छोटे प्रतिरोध-केंद्रों ने न्यूनतम लोकतांत्रिक स्थान बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इसे स्वाभाविक या स्थायी सुरक्षा समझना गलत होगा। ये अनुभव महत्वपूर्ण सबक देते हैं।

संवैधानिक लोकतंत्र बेहद नाजुक व्यवस्था है। जब संस्थाएं अपनी स्वतंत्रता और लोग संतुलन खो देते हैं, तब कानून दमन का औजार बन जाता है। कोई भी संविधान- चाहे कितना ही विस्तृत क्यों न हो- अपने आप लोकतांत्रिक स्थिरता सुनिश्चित नहीं कर सकता। संवैधानिक सुरक्षा तभी तक बनी रहती है, जब तक सतर्कता बनी रहे।

बांग्लादेश में हसीना को मृत्युदंड और पाकिस्तान का 27वां संविधान संशोधन, जिसने सेना प्रमुख की शक्तियों को और मजबूत किया है- ये दोनों घटनाएं दर्शाती हैं कि वैधता का उपयोग शक्ति को सीमित करने के बजाय उसे मजबूत करने के लिए किया जा सकता है।


Date: 04-12-25

भारत-रूस की दोस्ती

संपादकीय

रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के संभावित नतीजों का आकलन करना भले ही कठिन हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी इस यात्रा पर सारी दुनिया की निगाह होगी। सबसे अधिक निगाह अमेरिका और यूरोपीय देशों की होगी। निःसंदेह रूसी राष्ट्रपति की भारत यात्रा पर चीन भी नजर रखेगा, क्योंकि यूक्रेन युद्ध के चलते रूस की उस पर निर्भरता बढ़ गई है। रूसी राष्ट्रपति एक ऐसे समय भारत आ रहे हैं, जब अमेरिका यूक्रेन युद्ध खत्म कराने के लिए हाथ-पैर मार रहा है। इसके लिए वह रूस के साथ-साथ भारत पर भी दबाव बना रहा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारतीय आयात पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ इसीलिए थोप रखा है कि भारत रूस से तेल खरीद रहा है। जैसे अमेरिका की यह चाहत है कि भारत रूस से तेल खरीद बंद कर दे, वैसे ही यूरोपीय देश भी यह चाहते हैं कि भारत रूस से दूरी बनाकर रखे। कुछ यूरोपीय देशों ने तो भारत को रूस की निकटता से आगाह भी किया है। यह बात और है कि वे स्वयं रूस से ऊर्जा की आपूर्ति कर रहे हैं।

यह तो तय है कि भारत रूस से अपने संबंधों को आगे बढ़ाने के क्रम में अमेरिका और यूरोपीय देशों की चिंताओं की अधिक परवाह नहीं करने वाला, लेकिन इस तथ्य की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि उसे अमेरिका के दबाव में रूस से तेल खरीद में कटौती करनी पड़ी है। स्पष्ट है कि भारत और रूस, दोनों के ही सामने यह चुनौती है कि तेल खरीद के मामले में अमेरिका के अनुचित दबाव का प्रतिकार कैसे किया जाए। भारत को यह प्रतिकार करते समय इसका ध्यान रखना होगा कि इससे अमेरिका के साथ होने वाले व्यापार समझौते में कोई बाधा न खड़ी होने पाए।

चूंकि रूसी राष्ट्रपति अपने कई मंत्रियों के साथ भारत आ रहे हैं और वे दो दिन प्रवास करेंगे, इसलिए यह तो स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में बड़े समझौते होने वाले हैं। ये समझौते दोनों देशों को और निकट लाने का काम करेंगे, लेकिन भारत को एक ओर जहां यह ध्यान रखना होगा कि वह अपनी रक्षा जरूरतों पर एक सीमा से अधिक रूस पर निर्भर न होने पाए, वहीं दूसरी ओर उसे उसके साथ अपने व्यापार घाटे में कमी लाने के उपाय भी करने होंगे।

यह ठीक है कि दोनों देश आपसी व्यापार को सौ अरब डालर तक ले जाना चाहते हैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि भारत का रूस से आयात लगभग 65 अरब डालर का है, जबकि उसे निर्यात पांच अरब डालर ही है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारत ऐसी वस्तुओं का निर्माण करने में सक्षम नहीं, जिनकी रूस को जरूरत है। वास्तव में यह भारत की एक बड़ी कमजोरी है कि उसके पास ऐसे उत्पाद नहीं, जिनके बगैर दूसरे देशों का काम न चल सके। भारत को अपनी इस कमजोरी को प्राथमिकता के आधार पर दूर करना होगा।


Date: 04-12-25

सदाबहार मित्र के साथ शिखर वार्ता

हर्ष वी. पंत, ( लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं )

आज से दो दिवसीय भारत-रूस शिखर सम्मेलन आरंभ होने जा रहा है। इसमें अन्य अनेक मुद्दों के साथ ही रक्षा सहयोग पर गहन चर्चा की उम्मीद है। इस दौरान दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच भी बैठक होगी। दोनों रक्षा मंत्रियों के बीच यह इस साल की दूसरी बैठक है। इस दौरान कई समझौतों पर मंथन होगा। समझौतों के लिए वार्ता के इस क्रम में सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली एस-400, पांचवीं पीढ़ी के सुखोई विमानों की खरीद और विभिन्न रक्षा उपकरणों के साझा उत्पादन जैसे प्रमुख पहलू शामिल होंगे। शीत युद्ध के दौर से ही रूस भारत का सबसे प्रमुख रक्षा साझेदार बनकर उभरा है, जिसने समय-समय पर भारत को प्रमुख हथियारों की आपूर्ति अनवरत बनाए रखी। प्रगाढ़ होते द्विपक्षीय रक्षा सहयोग को कई पहलुओं ने प्रेरित किया है।

मास्को ने नई दिल्ली के साथ सैन्य तकनीक साझा करने और भारत में निर्माण की मंशा से 1962 में मिग-21 के उत्पादन की दिशा में पहल की थी। उसी दौर में अमेरिका सैन्य साजोसामान की आपूर्ति पर प्रतिबंध लगाने में लगा हुआ था। अमेरिका द्वारा 1965 में लगाए गए ऐसे प्रतिबंधों के उलट पूर्ववर्ती सोवियत संघ ने 1967 में भारतीय वायु सेना को सुखोई-7 बमवर्षक विमानों की आपूर्ति करके उसे सशक्त बनाया। ये विमान प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के पास उस समय उपलब्ध विमानों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत थे।

उसके अगले दशक में सोवियत संघ ने रक्षा विविधीकरण से जुड़ी भारत की संवेदनशीलता एवं आवश्यकताओं को समझते हुए उसे उन्नत हथियारों एवं तकनीक से लैस करने के प्रयास तेज किए। इनमें टैंक, लड़ाकू विमानों, मिसाइल की आपूर्ति के साथ ही युद्धपोतों को उन्नत बनाया गया। दोनों देशों के बीच विश्वास का ऐसा भाव बढ़ा कि सोवियत संघ ने 1987 में भारत को परमाणु संचालित पनडुब्बी भी लीज पर दी। इसके बाद एक ऐसा समय आया कि सोवियत संघ स्वयं आंतरिक उथल-पुथल से ग्रस्त हुआ और उसका स्वाभाविक असर भारत के साथ रक्षा सहयोग पर भी पड़ा। हालांकि इस सदी के पहले दशक में नवीन स्वरूप में रूस ने इस साझेदारी को नए सिरे से आगे बढ़ाना शुरू किया। इस अवधि में रूस द्वारा उपलब्ध कराए गए हथियारों और उपकरणों में विमान, हेलीकाप्टर, युद्धक टैंक, मिसाइलें, फ्रिगेट और पनडुब्बियां शामिल थीं।

रूस ने एक नई परमाणु संचालित पनडुब्बी लीज पर देने के अलावा विमान वाहक पोत के स्तर पर भी सहयोग किया। दोनों देशों के बीच रक्षा संबंधों की मजबूती का आकलन इसी से किया जा सकता है कि तमाम आवश्यकताओं के लिए भारत आज भी रूसी प्लेटफार्म की ओर देखता है। टी-72 और टी-90 जैसे युद्धक टैंक भारतीय सेना के टैंक बेड़े की बुनियाद बने हुए हुए हैं। इसी तरह सुखोई एसयू-30 विमान को भारतीय वायु सेना की रीढ़ माना जाता है। ब्रह्मोस मिसाइल को अगर दोनों देशों के सामरिक सहयोग एवं संयुक्त उत्पादन क्षमताओं का शिखर कह दिया जाए तो कहीं गलत नहीं होगा। इस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ने आपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान पर ऐसा कहर बरपाया कि दुनिया के तमाम देश इसे खरीदने की कतार लगाए हुए हैं। ब्रह्मोस को और उन्नत एवं मारक बनाने की प्रक्रिया भी प्रगति पर है।

भारत-रूस रक्षा साझेदारी की निरंतरता एवं स्थायित्व में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह साझेदारी हर कसौटी पर खरी उतरी है। इसमें कभी गतिरोध या अविश्वास का भाव नहीं रहा। यही कारण है कि दूसरे देशों से रक्षा खरीद के साथ ही आज भी भारत के लिए रूसी सैन्य उपकरणों के लिए रखरखाव और पुर्जों की आवश्यकता बनी हुई है। अच्छी बात है कि भारत अब टैंकों और लड़ाकू विमानों के लिए नए इंजनों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। रूस द्वारा नए इंजनों के विकास से भारत को भी अपना बेड़ा उन्नत बनाने का अवसर मिल रहा है। मास्को द्वारा सुखोई एसयू-30एमकेआइ बेड़े के लिए उन्नत एएल-41 इंजनों की आपूर्ति का प्रस्ताव इसी पहल से जुड़ा है।

कोई भी साझेदारी परस्पर हितों को सम्मान देने पर ही समृद्ध होती है और इस मामले में मास्को ने कभी निराश नहीं किया। तकनीकी हस्तांतरण और स्थानीय उत्पादन के भारत के आग्रह को समझते हुए रूस की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक रही है। सुखोई एसयू-57 विमानों के हालिया सौदे में इसके संकेत भी मिले हैं। सामुद्रिक मोर्चे पर भारत की सामरिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक पोत बनाने के लिए गैस टरबाइन जैसे प्रमुख घटक की आपूर्ति को लेकर भी रूस ने प्रभावी समाधान निकालने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं।

आपरेशन सिंदूर के दौरान एस-400 प्रणाली कितनी उपयोगी साबित हुई, उसे फिर से बताने की आवश्यकता नहीं। रूस की इस कारगर हथियार प्रणाली की महत्ता को समझते हुए ही भारत ने इसका बेड़ा बढ़ाने का फैसला किया है। करीब 120, 200, 250 और 380 किलोमीटर मारक क्षमताओं वाली एस-400 खरीदने से जुड़े अनुबंध पर चर्चा जारी है। चूंकि यह वार्ता अभी आरंभिक चरण में है, इसलिए उसमें कुछ समय लग सकता है। इसके अलावा यूक्रेन युद्ध में रूस की सक्रियता भी इसमें कुछ देरी का कारण बन सकती है।

यह बहुत स्वाभाविक है कि यूक्रेन युद्ध के कारण रूस की पहली प्राथमिकता अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की होगी। इसके बावजूद भारत की आवश्यकताओं को लेकर रूस की कोई उदासीनता नहीं दिखी। यह शिखर सम्मेलन उसकी प्रतिबद्धताओं पर नए सिरे से प्रकाश डालने का ही काम करेगा। यह सही है कि बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों और सामरिक खरीदारी में विविधीकरण के भारतीय प्रयासों के बीच रूस की भारतीय हथियार बाजार में हिस्सेदारी कम हो रही है, लेकिन वह एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता तो बना ही रहेगा।


Date: 04-12-25

कमजोर रुपया निर्यात में मददगार

संपादकीय

रुपये ने बुधवार के कारोबार में 90 प्रति डॉलर का मनोवैज्ञानिक स्तर लांघ दिया है। वर्ष की शुरुआत से अब तक वह 5 फीसदी से अधिक गिर चुका है। बहरहाल जरूरी है कि रुपये के अवमूल्यन को व्यापक वृहद आर्थिक घटनाओं के साथ जोड़कर देखा जाए और नीति निर्माता तथा दूसरे भागीदार रुपये के किसी खास स्तर के बारे में फिक्र नहीं करें।

आंकड़े बताते हैं कि चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में भुगतान संतुलन 10.90 अरब डॉलर नकारात्मक हो गया जबकि वह पिछले वर्ष की समान तिमाही में 18.6 अरब डॉलर सकारात्मक था। व्यापार घाटा भी बढ़ा है और अर्थशास्त्रियों को अंदेशा है कि चालू खाते का घाटा भी इस वित्त वर्ष में बढ़ेगा। यह जानकारी भी है कि भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा बाजार में आक्रामक हस्तक्षेप नहीं कर रहा है जो समझदारी भरा नीतिगत कदम है।

जब भुगतान संतुलन नकारात्मक हो गया हो तो मुद्रा के अवमूल्यन की अपेक्षा रहती है, जिससे ठहराव आता है। मुद्रा बाजार की गतिविधियां भी भारत-अमेरिका व्यापार के हालात से प्रभावित नजर आ रही हैं। भारत को अमेरिका के 50 फीसदी शुल्क का सामना करना पड़ रहा है, जिसका असर भारत के निर्यात पर पड़ने लगा है।

कुछ क्षेत्रों को वैकल्पिक बाजार मिल गए हैं मगर उनके आंकड़ों को सतर्कता के साथ समझने की जरूरत है। उच्च मूल्य वाली वस्तुएं मसलन रत्न एवं आभूषण शायद दूसरे बाजारों के रास्ते अमेरिका भेजी जा रही हों मगर यह सिलसिला हमेशा नहीं चलता रहेगा। इसलिए जरूरी है कि भारत और अमेरिका जल्द से जल्द पारस्परिक लाभकारी व्यापार समझौता कर लें। भारत के वार्ताकारों ने उम्मीद जताई है कि वर्ष के अंत तक समझौता हो जाएगा।

लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह समझौता मध्यम अवधि में भारत-अमेरिका व्यापार को कैसे प्रभावित करेगा। वैश्विक व्यापार के लिहाज से देखें तो कमजोर रुपया भारतीय निर्यातकों की मदद करेगा। हालांकि अमेरिकी शुल्क से जो नुकसान हो रहा है उसकी पूरी तरह भरपाई रुपये के अवमूल्यन से शायद नहीं हो पाएगी मगर इससे भारतीय निर्यातकों को नए बाजार तलाशने में कुछ मदद मिल जाएगी।

रिजर्व बैंक के हाल के आंकड़े दिखाते हैं कि रुपया वास्तव में गिरा है, जो वास्तविक प्रभावी विनिमय दर से साफ पता चलता है। मौजूदा हालात में मुद्रा की कमजोरी निर्यातकों के लिए उपयोगी होगी। इसी समाचार पत्र में पिछले दिनों एक विश्लेषण में बताया गया है कि रुपया दूसरी मुद्राओं की तुलना में गिरा है मगर वास्तव में महामारी के बाद से यह चीन की मुद्रा युआन के मुकाबले काफी मजबूत हुआ है। इसके कारण चीनी आयात बहुत सस्ता हो जाता है और चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा और भी बिगड़ सकता है।

इस लिहाज से मौजूदा अवमूल्यन भारत के हित में है और अर्थव्यवस्था के व्यापारिक क्षेत्रों को इससे कुछ हद तक सुरक्षा मिलेगी। रिजर्व बैंक के पास करीब 688 अरब डॉलर मूल्य का विदेशी मुद्रा भंडार है, जिससे मुद्रा बाजार के हालात सही रखने में मदद मिलेगी। हाल फिलहाल में रुपये का मूल्य भारत-अमेरिका व्यापार वार्ता के नतीजों से प्रभावित होगा। इन नतीजों का असर चालू खाते पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि पूंजी खाते को भी ये प्रभावित करेंगे।

समझौता हमारे अनुकूल होता है तो विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को भारतीय संपत्तियों की खरीद शुरू करने का हौसला मिलेगा। इन निवेशकों ने 2025 में अभी तक 15 अरब डॉलर से अधिक की भारतीय परिसंपत्तियां बेच दी हैं। मौद्रिक नीति समिति की इस समय जारी बैठक भी संभवतः मुद्रा बाजार की घटनाओं के निहितार्थों पर विचार करेगी, लेकिन उसके निर्णय पर इनका असर शायद ही पड़ेगा। कम मुद्रास्फीति वाले वातावरण को देखते हुए कमजोर रुपये से किसी तरह का जोखिम नहीं होता।


Date: 04-12-25

समय पर समझ

संपादकीय

सरकार ने हाल में आदेश दिया कि स्मार्टफोन में साइबर सुरक्षा एप ‘संचार साथी’ को पहले से ही अनिवार्य रूप से ‘इंस्टाल करना होगा। साथ ही मौजूदा मोबाइल फोन पर अद्यतन के माध्यम से इसे लगाने का निर्देश दिया गया। इससे एक नया विवाद पैदा हो गया। विपक्षी दलों समेत सामाजिक कार्यकर्ताओं ने यह तर्क देकर इसका विरोध किया कि यह आदेश मोबाइल उपयोगकर्ताओं की निजता के अधिकार का उल्लंघन है। आशंका जताई गई कि इस एप के इस्तेमाल से लोगों की गतिविधियों की निगरानी की जा सकती है। सड़क से लेकर संसद तक इस विरोध की गूंज सुनाई देने पर सरकार ने बुधवार को अपना आदेश वापस ले लिया। ने सवाल है कि सरकार को ‘संचार साथी’ एप की सुविधा स्मार्टफोन में पहले से देने की अनिवार्यता क्यों महसूस हुई ? अगर इसका उद्देश्य लोगों को साइबर धोखाधड़ी से बचाना है, तो क्या इस सुविधा को ऐच्छिक तौर पर लागू नहीं किया जा सकता था? लोगों को अपने मोबाइल में कौन सा एप रखना है और कौन सा नहीं, इसका निर्णय अगर सरकार करने लगे, तो आशंकाएं पैदा होना स्वाभाविक है।

इसमें दोराय नहीं है कि तेजी से डिजिटल होती दुनिया में साइबर धोखाधड़ी और इससे जुड़े अन्य अपराधों का दायरा बढ़ता जा रहा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले वर्ष 22.68 लाख नागरिक साइबर अपराध का शिकार हुए, जिन्होंने करोड़ों रुपए की अपनी खून-पसीने की कमाई गंवा दी। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी साइबर फर्जीवाड़े से जुड़ी ‘डिजिटल अरेस्ट’ की बढ़ती वारदातों पर चिंता जताते हुए कहा था कि सरकार को इस तरह के अपराध से निपटने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। ऐसे में सरकार अगर इस दिशा में कोई ठोस उपाय करती है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। मगर, इसमें लोगों की निजता का पहलू भी महत्त्वपूर्ण है क्या अपराध या जोखिम से बचाव के लिए किसी ऐसे औजार का इस्तेमाल अनिवार्य किया जा सकता है, जो लोगों में नई तरह की असुरक्षा को लेकर आशंकाएं पैदा कर दें? वैसे भी ‘संचार साथी’ पहले से ही इंटरनेट पर ‘सर्च इंजन’ पर मौजूद है और सरकार इसे अनिवार्य रूप से इस्तेमाल में लाने के बजाय लोगों को इसे अपने स्मार्ट फोन में लगाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है।

हालांकि, सरकार की ओर से स्पष्ट किया गया कि मोबाइल उपयोगकर्ता के पास ‘संचार साथी’ एप को हटाने का विकल्प मौजूद रहेगा। मगर, विपक्षी दलों का तर्क था कि सरकार के आदेश में कहा गया है कि इस एप को इस तरह लगाया जाए कि इसे न तो हटाया और न ही प्रतिबंधित या अक्षम किया जा सके। बहरहाल, सरकार ने तमाम आशंकाओं और विरोध के बीच अनिवार्यता के अपने आदेश को वापस ले लिया है और साथ ही इस बात को दोहराया है कि इसका उद्देश्य केवल लोगों को साइबर धोखाधड़ी और मोबाइल चोरी जैसी घटनाओं से बचाना था। चूंकि, इस तरह की वारदातें लगातार बढ़ रही हैं, इसलिए यह भी जरूरी है कि कम जागरूक नागरिकों के पास सुरक्षा के विकल्प होने चाहिए, लेकिन इनकी विश्वसनीयता तभी होती है, जब ये ऐच्छिक हों। इस बीच यह खबर भी आई कि मंगलवार को छह लाख नागरिकों ने ‘संचार साथी’ एप डाउनलोड करने के लिए पंजीकरण कराया है। इससे साफ है कि किसी तरह की अनिवार्यता लागू करने की बजाय लोगों को इस संबंध में व्यापक रूप से जागरूक करने की जरूरत है।


Date: 04-12-25

रुपए में गिरावट

संपादकीय

पिछले कई दिनों से घरेलू शेयर बाजार में अनिश्चितता, कच्चे तेल की ऊंची कीमतों और भारत-अमेरिका व्यापार समझौते पर असमंजस के बीच भारतीय मुद्रा भी कमजोर हो रही है। रुपया बुधवार को पच्चीस पैसे टूट कर 90.21 प्रति डालर के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गया। पिछले पांच दिनों से यह गिरावट देखी जा रही है। सवाल है कि डालर के मुकाबले भारतीय मुद्रा का मूल्य क्यों गिरता जा रहा है? यह निराशाजनक है कि दुनिया के प्रमुख देशों की मुद्रा की तुलना में रुपया कमजोर होता चला गया है। इसकी बड़ी वजह डालर की बढ़ती मांग के साथ विदेशी निवेशकों की शेयर बाजार से मुनाफावसूली भी मानी जा रही है। इसके अलावा इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत पर अमेरिकी शुल्क लगाने का भी रुपए पर प्रतिकूल असर पड़ा है। मगर सवाल है कि भारतीय रिजर्व बैंक रुपए को संभालने के लिए ठोस एवं प्रभावी कदम क्यों नहीं उठा पा रहा है ?

इसमें कोई दोराय नहीं है कि अमेरिकी शुल्क की घोषणा के बाद से विदेशी निवेश का प्रवाह कम हुआ है। और इसका असर घरेलू शेयर बाजार भी पड़ा है। मगर ऐसा लगता है कि सरकार इस स्थिति को शायद गंभीरता से नहीं ले रही है। मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन का मानना है कि भारतीय मुद्रा में गिरावट चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि इसका महंगाई या निर्यात पर कोई असर नहीं पड़ने जा रहा। उन्होंने अगले वर्ष की शुरुआत में डालर के मुकाबले रुपए में सुधार की उम्मीद जताई है। मगर अभी जिस हिसाब से भारतीय मुद्रा में गिरावट का सिलसिला जारी है, उसमें कितना और कैसे सुधार होगा, फिलहाल इसकी कोई साफ तस्वीर नजर नहीं आ रही है। बाजार में नरमी के बीच निवेशकों की जो आशंकाएं है, उन्हें कौन दूर करेगा ? जाहिर है कि इस सूरत में रिजर्व बैंक को रुपए के समर्थन में मजबूती से हस्तक्षेप करना होगा। भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता होने के बाद भी रुपए में गिरावट थमेगी या नहीं, यह कहना अभी मुश्किल है। रुपया और कमजोर न हो, इसके लिए अब सभी स्तरों पर कदम उठाने की जरूरत है।


Date: 04-12-25

रुपये की चिंता

संपादकीय

भारतीय रुपये का अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड स्तर तक नीचे गिरना एक ऐसी गंभीर बात है, जिस पर सावधानी से विमर्श होना चाहिए। वैसे तो रुपये का कमजोर होना कोई ऐसी बात नहीं है, जिससे तत्काल सामान्य लोगों पर असर पड़े, लेकिन इससे वैश्विक व्यापार के गणित पर असर पड़ता है। मोटे तौर पर अगर समझें, तो बुधवार को अमेरिकी मुद्रा ‘डॉलर’ की कीमत भारतीय मुद्रा ‘रुपये’ में 90.13 के निचले स्तर पर पहुंच गई। इससे होगा यह कि भारत से होने वाला निर्यात भारतीय मुद्रा में सस्ता हो जाएगा, जबकि आयात महंगा हो जाएगा। इससे भारतीय उद्यमियों को घाटा है और अमेरिकी उद्यमियों को फायदा यह भी गौर करने की बात है कि भारतीय रुपये को साल 2025 के लिए सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्राओं में शुमार किया जा रहा है। आर्थिक हालात यहां तक कैसे पहुंचे हैं? आखिर डॉलर इतना महंगा क्यों हुआ है ? तथ्य है कि इस साल की शुरुआत में डॉलर की कीमत 84 रुपये भी नहीं थी, पर अब 90 रुपये के करीब है, यह छह रुपये की वृद्धि व्यापकता में विशाल राशि का रूप ले लेती है। ध्यान रहे, साल 2024 में डॉलर की कीमत औसतन 83.68 रुपये और साल 2023 में औसतन 82.57 रुपये थी। अक्सर एनडीए सरकार की इस बात के लिए आलोचना भी होती है कि साल 2015 में डॉलर की औसत कीमत 64.15 रुपये हुआ करती थी, तो इसके जवाब में तत्काल यह बता दिया जाता है कि साल 2005 में यूपीए सरकार के सत्ता संभालते समय यह कीमत 44.1 रुपये थी। आंकड़ों को देखें, तो प्रति दस वर्ष में डॉलर की कीमत में बीस रुपये की बढ़त होती है। अगर बीते दस वर्षों में यह कीमत 26 रुपये बढ़ी है, तो ऐसा क्यों हुआ है ? विश्लेषक बार-बार याद दिला रहे हैं कि यह गिरावट भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते के अधर में लटकने की वजह से हो रही है। यह बहुत विशेष परिस्थिति है, जिसमें भारत के पास अपने बचाव के लिए ज्यादा विकल्प नहीं हैं। लेन-देन के मामले में डॉलर की मांग ज्यादा है, जबकि आपूर्ति कम इससे जो असंतुलन बन रहा है, उससे रुपया गिर रहा है। इसके अलावा, विदेशी पूंजी का एक पुराना हिस्सा भारत से लौट रहा है, जबकि नया हिस्सा इधर कम आ रहा है। अनेक वैश्विक निवेशक उद्यमी अनिश्चितता से घिर गए हैं और सोचने लगे हैं कि भारत में निवेश कितने पर सीमित रखा जाए। बहरहाल, अगर हम उपाय खोजें, तो पहला आसान उपाय तो यही होगा कि इस दिशा में भारतीय रिजर्व बैंक पहल करे। आजकल खराब माहौल देखकर भारत और भारतीय रिजर्व बैंक के खिलाफ दुष्प्रचार भी खूब हो रहे हैं। पिछले दिनों यह अफवाह फैल गई थी कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए 35 टन सोना बेच दिया है। ऐसी फर्जी सूचनाओं से भी भारतीय व्यापार को नुकसान हो रहा है। हालांकि, भारतीय अर्थव्यवस्था के निर्णायक कर्णधारों को ज्यादा चिंता नहीं है। मिसाल के लिए, भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने साफ कहा है कि रुपये में गिरावट कोई बड़ी चिंता का विषय नहीं है। इससे न महंगाई बढ़ेगी और न निर्यात घटेगा। बेशक, आम भारतीयों के व्यापक हित में अमेरिका के सामने भारत की दृढ़ता और आत्मबल बना रहे, लेकिन हमारे निर्णायकों को प्राथमिकता से प्रयास करना चाहिए कि कम से कम भारत पर लगा दंडात्मक टैरिफ जल्द से जल्द हट जाए। टैरिफ में अगर 25 प्रतिशत भी कमी आई, तो रुपये की गिरावट पर कमोबेश लगाम लग जाएगी।


Date: 04-12-25

प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ता भारत

नरेंद्र मोदी, ( प्रधानमंत्री, भारत )

इसी साल अगस्त में तमिलनाडु के किसानों का एक समूह मुझसे मिलने आया। बातचीत के दौरान उन किसानों ने खेती में उत्पादकता व निरंतरता बढ़ाने के लिए वे कैसे नई-नई तकनीक अपना रहे हैं, इसके बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कोयंबटूर में प्राकृतिक खेती पर आयोजित एक सम्मेलन का मुझे न्योता दिया न्योता स्वीकार करते हुए मैंने उनसे वादा किया कि मैं अवश्य आपके बीच आऊंगा। इसलिए, 19 नवंबर को मैं ‘साउथ इंडिया नेचुरल फार्मिंग समिट 2025’ में शामिल होने के लिए मनोरम शहर कोयंबटूर में था। एक ऐसा शहर, जिसे एमएसएमई की रीढ़ माना जाता है, प्राकृतिक खेती पर एक बड़े सम्मेलन की मेजबानी कर रहा था।

जैसा कि हम सब जानते हैं, प्राकृतिक खेती भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली और आधुनिक पारिस्थितिकीय सिद्धांतों से प्रेरित है, ताकि कृत्रिम रसायनों के इस्तेमाल के बिना फसलें उगाई जा सकें। यह प्रणाली अलग तरह के खेतों को बढ़ावा देती है, जिनमें पेड़-पौधे और जानवर एक साथ रहते हैं, ताकि प्राकृतिक जैव-विविधता को मदद मिल सके। यह तरीका कृषि अपशिष्ट को रीसाइकिल करने और मल्चिंग व एरेशन (खर-पतवार की परत से खुली मिट्टी को ढकने व छोटे-छोटे छेदों के जरिये जड़ों तक हवा- पानी पहुंचाने की विधि) के जरिये मिट्टी की सेहत को बेहतर बनाने पर आधारित है ।

कोयंबटूर का वह सम्मेलन हमेशा मेरी यादों का हिस्सा रहेगा ! इसने मुझे बताया कि हमारे किसानों की सोच में, उनकी कल्पनाओं में और उनके आत्मविश्वासमें जबर्दस्त बदलाव आया है और इनकी सहायता से हमारे किसान और कृषि उद्यमी खेती- किसानी का भविष्य संवार रहे हैं। इस सम्मेलन में तमिलनाडु के किसानों के साथ बातचीत करने का मौका भी मिला । प्राकृतिक खेती के लिए वे जैसी कोशिशें कर रहे हैं, उनको सुनकर मैं हैरान रह गया ! इसमें अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग, जिनमें कृषि विज्ञानी, कृषि उत्पादक संगठन के नेता, पहली पीढ़ी के ग्रेजुएट, पारंपरिक किसान और कई ऐसे खास लोग शामिल थे, जिन्होंने कॉरपोरेट जगत के ऊंचे वेतन वाली नौकरियां छोड़कर अपनी जड़ों की ओर लौटने व प्राकृतिक खेती करने का फैसला किया है। इस सम्मेलन मैं मैं ऐसे-ऐसे लोगों से मिला, जिनकी जिंदगी का सफर और कुछ नया करने का जज्बा देखने लायक था।

वहां मुझे एक ऐसा किसान मिला, जो लगभग 10 एकड़ के भूखंड में केले, नारियल, पपीता, मिर्च और हल्दी उगाता है। इसके साथ ही वह 60 देसी गाय, 400 बकरियां और देसी मुर्गियां भी पालता है । एक किसान ने तो मपिल्लई सांबा और करुप्पु कवुनी जैसी चावल की देसी किस्में बचाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया है। उसका पूरा फोकस हेल्थ मिक्स, मुरमुरे, चॉकलेट और प्रोटीन बार जैसे गुणवत्तापूर्ण उत्पादों पर है। अपने परिवार का पहला स्नातक एक नौजवान 15 एकड़ में पसरे अपने खेतों में प्राकृतिक खेती कर रहा है वह हर महीने लगभग 30 टन सब्जियां आपूर्ति कर रहा है और उसने अब तक 3,000 किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए प्रशिक्षित किया है। कुछ लोगों ने, जिनका अपना कृषि उत्पादन संगठन है, साबूदाने का उत्पादन करने वाले किसानों की मदद की है और कसावा आधारित उत्पादों को बायो-इथेनॉल व कम्प्रेस्ड बायोगैस के टिकाऊ कच्चे माल के तौर पर बढ़ावा दिया है।

जिन कृषि उद्यमियों से मैं मिला, उनमें एक बायो- टेक्नोलॉजी पेशेवर भी थे। उन्होंने समुद्री शैवाल पर आधारित बायो फर्टिलाइजर कंपनी शुरू की है, जिसमें तटीय जिलों के 600 मछुआरों को काम मिला है; दूसरे उद्यमी ने पोषक तत्वों से भरपूर बायोएक्टिव बायोचर बनाया है, जो मिट्टी की सेहत को बेहतर बनाता है। इन दोनों ने दिखाया कि ‘साइंस’ और ‘सस्टेनेबिलिटी’ कैसे आसानी से मिल सकते हैं।

कोयंबटूर के इस सम्मेलन में मैं जिन लोगों से मिला, वे सभी अलग-अलग पृष्ठभूमि के थे, लेकिन उन सबमें एक बात समान थी और वह थी, मिट्टी की सेहत, निरंतरता, सामुदायिक कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और काम करने की गहरी भावना ।

व्यापक रूप से देखें, तो भारत ने प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में काफी तरक्की की है। पिछले साल, भारत सरकार ने ‘नेशनल मिशन ऑन नेचुरल फार्मिंग’ की शुरुआत की, जिससे लाखों किसान पहले ही जुड़ चुके हैं। पूरे देश में हजारों हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक खेती हो रही है। सरकार की कोशिशों ने भी, जैसे निर्यात को प्रोत्साहन, किसान क्रेडिट कार्ड (पशुधन और मछली पालन के लिए भी) और पीएम किसान योजना के जरिये संस्थागत ऋण के विस्तार ने किसानों को प्राकृतिक खेती करने में मदद की है।

श्री अन्न या मिलेट्स को बढ़ावा देने की हमारी कोशिशों से भी प्राकृतिक खेती करीब से जुड़ी हुई है। मेरे लिए यह बहुत खुशी की बात है कि महिला किसान बड़े पैमाने पर प्राकृतिक खेती को अपना रही हैं।

पिछले कुछ दशकों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर बढ़ती निर्भरता ने मिट्टी की उपजाऊ शक्ति, नमी और लंबे समय तक कायम रहने वाली उसकी निरंतरता पर असर डाला है। साथ ही, खेती की लागत भी लगातार बढ़ी है। प्राकृतिक खेती इन सभी चुनौतियों का समाधान करती है। पंचगव्य, जीवामृत, बीजामृत और मल्चिंग का इस्तेमाल मिट्टी की सेहत की रक्षा करता है, रसायनों के असर को कम करता है और लागत को कम करता है, साथ ही जलवायु परिवर्तन व बदलते मौसम के पैटर्न के विरुद्ध यह ताकत भी बनता है। मैंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे ‘एक एकड़, एक सीजन’ से शुरुआत करें। खेत के एक छोटे से हिस्से से भी मिलने वाले नतीजे आपका आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं और इसे बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए आपको प्रेरित कर सकते हैं। जब पारंपरिक ज्ञान, वैज्ञानिक मान्यता व संस्थागत मदद साथ आ रहे हैं, तो प्राकृतिक खेती मुमकिन और परिवर्तनकारी बन सकती है।

मैं आप सबसे अपील करता हूं कि आप प्राकृतिक खेती के बारे में सोचें। आप इस क्षेत्र से संबंधित स्टार्टअप के बारे में भी पता लगा सकते हैं। कोयंबटूर में किसानों, विज्ञान, उद्यमिता और सामूहिक कार्रवाई में जो तालमेल दिखा, वह वाकई प्रेरणा देने वाला था। मुझे यकीन है कि हम सब मिलकर अपनी खेती और उससे जुड़े क्षेत्रों को उत्पादक और टिकाऊ बनाते रहेंगे। अगर आप प्राकृतिक खेती पर काम करने वाली किसी टीम को जानते हैं, तो मुझे भी जरूर बताएं !


Date: 04-12-25

लोकतांत्रिक दायरे में ही हो नागरिकों की निगरानी

राहुल मथान, ( साइबर विशेषज्ञ )

साल 2011 में अमेरिका के संघीय जांच ब्यूरो ने टिमोथी कारपेंटर को मिशिगन व ओहायो में हुई कई हथियारबंद डकैतियों का सरगना बताया। सुबूत इकट्ठा करने के लिए किसी सर्च वारंट के बजाय ब्यूरो ने अदालत से एक ऐसा ऑर्डर लिया, जिससे कारपेंटर के मोबाइल ऑपरेटर को सेल-साइट लोकेशन डाटा देने को बाध्य किया जा सके। इस डाटा को पाने के बाद ब्यूरो ने कारपेंटर के डिजिटल इतिहास को खंगाला, जिससे करीब 12,898 अलग- अलग लोकेशन प्वॉइंट का पता चला और इस तरह गुजरे चार महीने की उसकी हरकतों के तमाम तार जुड़ गए।

जाहिर है, हमारे द्वारा छोड़े गए डिजिटल निशान ने कानूनी जांच एजेंसियों को अपराधों की जांच के नए तरीके मुहैया कराए हैं। स्थान की जानकारी (जैसा कारपेंटर मामले में दिखा) के अलावा, जांच-पड़ताल करने वाली एजेंसियां मोबाइल संदेशों और डिजिटल भुगतान जैसे अन्य डाटा स्रोतों तक भी पहुंच सकती हैं, जिससे उन आपराधिक गतिविधियों का भी पता लगाया जा सकता है, जो अन्यथा पकड़ में नहीं आ सकतीं। ब्रिटेन के गृह मंत्रालय ने ‘इन्वेस्टिगेटरी पावर्स ऐक्ट’ के तहत हाल ही में मोबाइल फोन कंपनियों को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य किया है कि अनुरोध करने पर वे उपयोगकर्ता के डाटा को ‘डिक्रिप्ट’ करेंगी। इसके कारण निर्माताओं को ब्रिटेन में बेचे जाने वाले फोन में एंड-टु-एंड एन्क्रिप्शन को कमजोर करना पड़ा।

फ्रांस की सीनेट ने भी अपने जस्टिल बिल में संशोधन किया है, जिसके तहत मैसेज सुविधा देने वाले मंचों को तकनीकी रूप से ऐसा एक दरवाजा बनाना होगा, ताकि जांच प्रक्रिया के दौरान पुलिस एन्क्रिप्टेड मैसेज पढ़ सके । हालांकि, तकनीक का हर मुमकिन लाभ उठाने के इन प्रयासों को अदालतों में कड़े विरोध का सामना करना पड़ सकता है। जब कारपेंटर का मामला अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा, तो प्रधान न्यायाधीश रॉबर्ट्स ने बिना वारंट जब्ती को असांविधानिक बताया। ब्रिटेन और फ्रांस की हालिया पहल पर अदालतों का फैसला आना अभी बाकी है। वैसे, यूरोपीय न्यायालय ने पहले ही उन कानूनों को अमान्य करार दे दिया है, जिनमें दूरसंचार कंपनियों के लिए अपने सभी उपयोगकर्ताओं का मेटाडाटा रखना जरूरी बनाया गया था।

भारत भी अपवाद नहीं है। पश्चिम जैसी सांविधानिक चिंताएं यहां भी उभरकर सामने आ रही हैं। सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) के नियमों में संशोधन को अदालत में इस आधार पर चुनौती दी गई है कि इसका पालन करने के लिए मैसेजिंग कंपनियों को एंड-टु-एंड एन्क्रिप्शन खत्म करना होगा। इस संशोधन में अनुरोध किए जाने पर सोशल मीडिया के मंचों द्वारा ‘सूचना के प्रथम स्रोत की पहचान जाहिर करने को कहा गया है। इसी तरह, भारतीय कर अधिकारियों ने भुगतान एग्रीगेटर्स को नोटिस जारी करके उनको गैर पंजीकृत व्यापारियों और संभावित कर चूककर्ताओं की पहचान करने के लिए यूपीआई लेन- देन का डाटा बताने का निर्देश दिया है। इन दोनों प्रयासों को पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले में आए फैसले के संदर्भ में देखा जाएगा। इसमें निजता को गरिमा, स्वतंत्रता और समानता से जुड़ा एक मौलिक अधिकार माना गया था। बेशक, कानून लागू करने वाली एजेंसियों के लिए फोरेंसिक जांच के नए तरीके अपनाना संभव हो गया है, लेकिन इसे पूरी आबादी पर एक साथ लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि ज्यादातर लोकतंत्र अपने नागरिकों को निजता का अधिकार देते हैं। इसीलिए, अपराधी भले नई तकनीकी का फायदा उठाकर अपराध कर रहे हों, मगर कानूनी एजेंसियां ऐसे उपाय नहीं कर सकतीं, जो सांविधानिक गारंटियों को कमजोर करते हों ।

इसके बजाय, उन्हें डिजिटल जमाने के हिसाब से फोरेंसिक उपकरण तैयार करने चाहिए। डिफरेंशियल प्राइवेसी, सिक्योर मल्टी- पार्टी कंप्यूटेशन व एनोमली- डिटेक्शन एल्गोरिदम जैसी तकनीक लोगों की पहचान उजागर किए बिना एकत्रित डाटा में पैटर्न का खुलासाकर सकती है। अगर इसमें किसी गड़बड़ी का शक हो, तभी एजेंसियों को निजी जानकारी मांगने की इजाजत मिलनी चाहिए। ये तरीके निस्संदेह पारंपरिक व्यवस्था से अलग हैं, पर ये सांविधानिक गारंटियों के अधिक करीब हैं।