20-11-2025 (Important News Clippings)

Afeias
20 Nov 2025
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Date: 20-11-25

Exam System Needs To be Put to the Test

ET Editorial

A recent review of National Eligibility-cum-Entrance Test-Undergraduate (NEET-UG) 2025 reveals a troubling pattern: even in a relatively cheating scandal-free year, the exam system is still tripping over basic failures. Across multiple states, an internal government assessment found non-functional CCTVs, poor coverage of strong rooms, and invigilation lapses in exam centres. Some had cameras positioned so poorly, they might as well not have existed. Others had more than half their systems down. In several locations, monitoring teams couldn’t even log into portals to view real-time footage. These are not sophisticated breaches, but routine, fixable operational gaps. And that’s what makes them so worrying.

For an exam that determines the future of lakhs of students, these are bare-minimum safeguards. If India genuinely wants to dismantle the education factory racket — coaching dependency, retesting spiral, question paper leakage ecosystem — then the basics must work. Every glitch erodes trust among those students who do things the right way without resorting to ‘shortcuts’, who slog for years, and who can’t afford to drop a year because it’s too expensive for their families to reinvest. For them, a compromised exam isn’t just heartbreaking, it’s downright exclusionary. It quietly pushes out deserving candidates who depend on a fair, predictable system to rise.

The education ministry has now told the National Testing Agency (NTA) to rebuild CCTV systems, fix camera placement, ensure uninterrupted live feeds and enforce tougher oversight for 2026. Unless India gets these basics right, degrees awarded in an already hyperactive, overcrowded job market will be worthless. An exam needs to test candidates. Not bypass it by merely passing them.


Date: 20-11-25

Reset with Riyadh

The United States seems to have de-hyphenated Saudi Arabia and Israel in its West Asia plans

Editorial

Saudi Crown Prince Mohammed Bin Salman’s visit to the White House marked the official end of a brief chill in relations between the most powerful country and the most influential Arab state. Ties had hit a low after Jamal Khashoggi, a Saudi dissident journalist in the U.S., was murdered inside the kingdom’s consulate in Istanbul in October 2018. U.S. intelligence agencies later concluded that MBS had ordered the killing. During his election campaign, Joe Biden had vowed to hold MBS accountable. Yet, it was Mr. Biden who took steps to rehabilitate the prince. He travelled to Jeddah in July 2022 where he greeted the heir to the Saudi throne with a fist bump. Donald Trump, who brokered the 2020 Abraham Accords, has been keen to deepen America’s traditional ties with its Arab partners. On Tuesday, he defended MBS’s human rights record, claiming that the prince “knew nothing” about Khashoggi’s murder. He also promised to sell tanks and F-35 fighters to Saudi Arabia, despite Israel’s objections. It will also get access to America’s most advanced computer chips. MBS is seeking to build vast data centres to transform Saudi Arabia into a technological power house.

Historically, Saudi Arabia’s abysmal human rights record has played little role in shaping its relationship with Washington, long anchored in geopolitical and energy interests. There have been moments of strain, such as the 1973 oil shock, the post-9/11 distrust or the chill after the Khashoggi murder, but both sides have consistently prioritised strategic alignment over values. One persistent complication, however, has been Israel, America’s closest regional ally, which does not have formal diplomatic ties with Riyadh. After the Abraham Accords were signed, the Biden administration pushed Saudi Arabia to join the framework by normalising ties with Israel. MBS had said in September 2023 that Saudi Arabia and Israel were in an advanced stage of negotiations. But the October 7 Hamas attack and Israel’s genocidal Gaza war halted the momentum. Today, Saudi Arabia says it remains open to joining the Accords, but only if there is a credible, time-bound path towards a two-state solution to the Palestine question — a position Israel opposes. Mr. Trump appears to have realised both the regional complexities and Israel’s intransigence. He now seems prepared to deepen ties with Saudi Arabia without demanding an immediate commitment to recognise Israel. In effect, he has de-hyphenated Saudi Arabia from the Abraham Accords, for now, choosing instead to cultivate direct, stronger ties with the kingdom, which he views as central to his broader West Asia plans.


Date: 20-11-25

इलेक्ट्रिसिटी-क्रांति को हम और बेहतर बना सकते हैं

नंदन नीलेकणी पूर्व चेयरमैन, ( भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (आधार) )

आज पूरी दुनिया के ऊर्जा तंत्रों में तेज और बड़े बदलाव हो रहे हैं। एक दशक बाद ये पूरी तरह से अलग दिखेंगे। इकोनॉमी में बढ़ता विद्युतीकरण इसका कारण है। ज्यादा से ज्यादा लोग न सिर्फ इलेक्ट्रिक वाहन, हीट पंप और स्मार्ट (डिजिटली कनेक्टेड) उपकरण अपना रहे हैं, बल्कि बिजली की भारी खपत करने वाले डेटा सेंटरों में भी बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जा रही है। इनमें से बहुत-से एआई से जुड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2035 तक ऊर्जा की कुल मांग की तुलना में अकेली बिजली की मांग छह गुना तेजी से बढ़ेगी।

ऊर्जा क्षेत्र का आपूर्ति सेक्टर भी तेजी से सुधर रहा है। खासकर, सौर ऊर्जा जैसे रिन्यूएबल स्रोत दुनिया भर की बिजली प्रणालियों में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। सही नीति और बुनियादी ढांचा मिले तो ये ट्रेंड और तकनीकें अधिक ऊर्जा स्वतंत्रता दे सकती हैं। लेकिन इससे ग्रिड प्रबंधन में एक और जटिलता जुड़ती है, ऑपरेटरों को एक ओर बिजली का परिवर्तनशील प्रवाह ध्यान में रखना पड़ता है, वहीं उपभोक्ता के लिए किफायती बिजली भी सुनिश्चित करनी होती है।

ग्रिडों को ज्यादा से ज्यादा स्थानों और उपकरणों को भी बिजली देनी है। 2030 तक घरों और व्यवसायों में 30 अरब से अधिक डिजिटली कनेक्टेड उपकरण होंगे, जो आज की तुलना में दोगुने हैं। ऐसे में ऊर्जा प्रणालियों को मांग-आपूर्ति के उतार-चढ़ावों के अनुसार अनुकूल करने की दक्षता मौजूदा अनुमान की तुलना में तेजी से बढ़ानी होगी। डिजिटलीकरण इसके लिए अहम साधन हो सकता है, भले इससे कुछ नई बाधाएं सामने आती हों।

विद्युत प्रणालियों को ऑप्टिमाइज करने वाले डिजिटल उपकरण दक्षता में सुधार के साथ किफायत बढ़ा सकते हैं और ऊर्जा सुरक्षा सुदृढ़ कर सकते हैं। खासकर, एआई में इसकी व्यापक क्षमता है। हालिया अध्ययनों ने स्पष्ट किया है कि पहले से मौजूद उपकरण ही मौसम-संवेदी उत्पादन स्रोतों के आउटपुट की बेहतर भविष्यवाणी कर सकते हैं। ये मांग-आपूर्ति की अनुरूपता बनाए रखने में मदद कर सकते हैं और बिजली ढांचे में विसंगति का पता लगाकर इसे दुरुस्त कर सकते हैं।

लेकिन इन अवसरों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए कुछ चुनौतियों से निपटना पड़ेगा। भले ही मांग-आपूर्ति से जुड़ी नई तकनीकों में अधिकतर डिजिटल रूप से सक्षम हैं, यानी उनमें दूसरी डिजिटल प्रणालियों से जुड़ने की क्षमता है- लेकिन वे अलग-अलग काम करती हैं।

अक्सर इनमें ग्रिड के साथ संवाद बनाए रखने की जरूरी कार्यक्षमता नहीं होती। ऐसी परेशानियां अनावश्यक अक्षमता पैदा करती हैं, लागत बढ़ाती हैं, इनोवेशन की राह रोकती हैं और डिजिटलीकरण के फायदों को साकार करना मुश्किल बनाती हैं।

इसीलिए, हमारी ऊर्जा प्रणालियों में महज डिजिटल क्षमताएं होना पर्याप्त नहीं। उन्हें इंटर-ऑपरेबल बनाना होगा, ताकि नई तकनीकों को सहजता से लागू और एकीकृत किया जा सके। नेटवर्क की हर यूनिट जब प्रभावी संवाद कर सकेगी तो मनचाहे परिणाम तेजी से मिल पाएंगे।

यदि बेहतर तरीके से लागू किया जाए तो डिजिटल तकनीकों के बीच अधिक इंटर-ऑपरेबिलिटी मांग और आपूर्ति, दोनों ही पक्षों पर वास्तविक लाभ दे सकती है। स्मार्ट ईवी चार्जर ऐसे समय पर चार्जिंग कर सकते हैं, जब रिन्यूएबल ऊर्जा उत्पादन अधिक हो।

आधुनिक उपकरण कीमतों को लेकर रियल टाइम सिग्नल दे सकते हैं, जिससे पीक समय में बिजली खपत कम हो सकेगी। रूफटॉप सोलर सिस्टमों को एकीकृत कर ग्रिड में बिजली दी जा सकती है। उपयुक्त फ्रेमवर्क में ये संसाधन एक साथ काम कर सकते हैं।

जब तक हम इंटर-ऑपरेबिलिटी के लिए अधिक प्रयास नहीं करेंगे, तब तक संभावनाओं का उपयोग न कर पाने, मौका चूकने, फंसे हुए निवेश और बढ़ते ऊर्जा-सुरक्षा खतरों वाले भविष्य का जोखिम उठाएंगे। बीते चार सालों में ऊर्जा सुविधाओं पर साइबर हमले तीन गुना से अधिक बढ़े हैं।

एआई इन हमलों को और पेचीदा बना रहा है। इंटर-ऑपरेबल सिस्टम ऐसे खतरों के प्रति बेहतर कारगर हो सकता है। इसीलिए हम सरकारों और उद्योगों से मजबूत और सुरक्षित डिजिटल ऊर्जा प्रणालियों पर मिलकर काम करने की अपील कर रहे हैं।

यह स्पष्ट है कि हमें एक साझा दृष्टिकोण और दीर्घकालिक योजना की सबसे ज्यादा जरूरत है। यूनिवर्सल आइडेंटिटी, मशीन रीडेबिलिटी और सत्यापन की क्षमता के साथ डिजिटल एनर्जी ग्रिड के ताजा प्रस्तावों का उद्देश्य एनर्जी इको-सिस्टम की एकीकृत डिजिटल बुनियाद बनाना है। ये खासियतें ऊर्जा के पारदर्शी, भरोसेमंद और इंटर-ऑपरेबल लेनदेन को सुलभ बनाएंगी। इन्हीं विचारों पर आगे बढ़ते हुए भारत ने इंडिया एनर्जी स्टैक (आईईएस) की शुरुआत की है।

2030 तक घरों और व्यवसायों में 30 अरब से अधिक डिजिटली कनेक्टेड उपकरण होंगे, जो आज की तुलना में दोगुने हैं। ऐसे में ऊर्जा प्रणालियों को मांग-आपूर्ति के अनुसार अनुकूल करने की दक्षता तेजी से बढ़ानी होगी।


Date: 20-11-25

बचने न पाएं माओवादी

संपादकीय

कुख्यात माओवादी सरगना हिड़मा के अपने कई साथियों संग मारे जाने के दूसरे दिन जिस तरह कुछ और माओवादी मार गिराए गए, उससे माओवाद अंतिम सांसें गिनते हुए दिखने लगा है। अब यह उम्मीद बढ़ गई है कि अगले वर्ष मार्च तक माओवाद के खात्मे का लक्ष्य आसानी से पूरा हो जाएगा। ऐसा होता हुआ इसलिए दिख रहा है, क्योंकि अब तीन-चार माओवादी सरगना ही ऐसे रह गए हैं, जो पस्त पड़े अपने साथियों का नेतृत्व कर सकने में समर्थ हैं। यदि वे हथियार नहीं डालते तो उनका सफाया करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।

बचे-खुचे माओवादियों को मुख्यधारा में आने के लिए अवश्य कहा जाना चाहिए, लेकिन उनके खिलाफ जो अभियान जारी है, उसमें कोई नरमी इसलिए नहीं आने दी जानी चाहिए, क्योंकि अतीत में उन्होंने निष्क्रिय रहकर अपने को फिर से संगठित करने के साथ ही ताकतवर भी बना लिया था। इस बार उन्हें कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि उनके हथियार डालने की शर्तें अत्यधिक उदार हैं। जो इन उदार शर्तों का लाभ उठाने को तैयार नहीं, उन्हें यह संदेश देने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए कि उनका बचना संभव नहीं। मुख्यधारा में शामिल होने से इन्कार करने और अपनी लड़ाई जारी रखने वाले माओवादी किसी नरमी के हकदार नहीं हो सकते।

जितना जरूरी यह है कि हथियारबंद माओवादियों के खिलाफ दबाव और बढ़ाया जाए, उतना ही यह भी कि उन्हें वैचारिक खुराक देने वाले उनके दबे-छिपे समर्थकों पर शिंकजा कसा जाए। माओवाद सभ्य समाज विरोधी एक विषैली विचारधारा है। इस खतरनाक विचारधारा के लिए भारत में कोई स्थान नहीं हो सकता। यह सही समय है कि उन नकली मानवाधिकारवादियों पर भी निगाह रखी जाए, जो माओवादियों को गरीबों की लड़ाई लड़ने वाला बताते हैं।

कुछ तो ऐसे हैं, जो खूंखार माओवादियों को बंदूकधारी गांधीवादी तक बता चुके हैं। तथ्य यह भी है कि वाम दलों को माओवादियों के खिलाफ जारी अभियान रास नहीं आ रहा है। ये दल इस अभियान को तो कठोर बताते हैं, लेकिन माओवादियों की बर्बरता के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोलते। उन्हें यह भी नहीं दिखता कि माओवादी विकास के बैरी बन चुके हैं और वे सबसे अधिक नुकसान उन आदिवासियों को ही पहुंचा रहे हैं, जिनके हितैषी होने का फर्जी दावा करते हैं। एक समय माओवाद नक्सलवाद के रूप में था।

बंगाल में अपनी कमर टूटने पर नक्सलियों ने ही आंध्र में माओवादियों का चोला धारण किया। अब वे किसी तरह का अन्य कोई चोला धारण न करने पाएं, इसके लिए विचारधारा के स्तर पर भी उनका सामना किया जाना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पिछड़े और विशेष रूप से आदिवासी इलाकों में विकास के कामों को समय रहते पूरे करने पर जोर दिया जाए।


Date: 20-11-25

रोजगार का भविष्य

संपादकीय

देश की श्रम शक्ति बदलाव के दौर से गुजर रही है। भारतीय उद्योग परिसंघ, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद और भारतीय विश्वविद्यालय संघ द्वारा तैयार हालिया भारत कौशल रिपोर्ट 2026 (काम का भविष्य- गिग श्रम शक्ति, फ्रीलांसिंग, एआई समर्थित श्रम शक्ति, दूर से किए जाने वाले काम और उद्यमिता) इस बदलाव को विस्तार से दर्ज करती है। रोजगार-योग्यता पिछले वर्ष के 54.81 फीसदी से बढ़कर 56.35 फीसदी हो जाने के साथ, रिपोर्ट नौकरी के लिए तैयार होने और कौशल अपनाने में निरंतर सुधार की ओर संकेत करती है। यह अध्ययन रोजगार-योग्यता परीक्षणों और 1,000 से अधिक संस्थानों से प्राप्त अंतर्दृष्टियों पर आधारित है।

रिपोर्ट के निष्कर्ष इस बात की पुष्टि करते हैं कि वैश्विक प्रतिभा केंद्र के रूप में भारत का कद बढ़ रहा है। वैश्विक स्तर पर आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) के क्षेत्र में काम कर रही श्रम शक्ति का करीब 16 फीसदी भारत से है। इस क्षेत्र में करीब 6 लाख लोग काम कर रहे हैं और 2027 तक यह आंकड़ा दोगुना बढ़ने का अनुमान है। डिजिटल और फ्रीलांस अर्थव्यवस्था का भी तेजी से विस्तार हो रहा है और वर्ष 2030 तक गिग कर्मियों की संख्या बढ़कर 2.35 करोड़ हो जाने का अनुमान है। एआई समर्थित भर्ती, हाइब्रिड कार्य मॉडल और मानव संसाधन प्रणाली आदि तमाम क्षेत्रों में नियुक्तियों को नए ढंग से परिभाषित कर रहे हैं। अब हर10 में से करीब 9 कर्मचारी किसी न किसी तरह जेनेरेटिव एआई टूल्स पर निर्भर हैं। भारत में इसे अपनाने की दर अधिकांश विकसित देशों से कहीं तेज है।

बहरहाल, नई कार्य व्यवस्था अहम कमियों को भी उजागर करती है। गिग और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था को उसके लचीलेपन के लिए पसंद किया जाता है और यह अभी भी औपचारिक श्रम संरक्षण के दायरे से बाहर है। लाखों आपूर्ति कर्मी, फ्रीलांसर और प्लेटफॉर्म आधारित पेशों में बीमा का अभाव है, भविष्य निधि की व्यवस्था नहीं है या फिर दिक्कतें दूर करने की कोई व्यवस्था नहीं है। जब तक नियामकीय ढांचा विकसित नहीं होता है, लचीलापन असुरक्षा के रूप में नजर आ सकता है।

रिपोर्ट में छोटे लाभ और निष्पक्ष कार्य प्रोटोकॉल की मांग, जिसमें कौशल-सत्यापित प्रमाणपत्र और डेटा संरक्षण मानदंड शामिल हैं, नीतिगत शून्य को रेखांकित करती है। कौशल के क्षेत्र में बढ़ती खाई भी एक बड़ी समस्या है। एआई विभिन्न उद्योगों में उत्पादकता को बदल रहा है, लेकिन केवल सीमित संख्या में कंपनियां बड़े पैमाने पर एआई प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, जिससे डिजिटल साक्षरता का असमान परिदृश्य बन रहा है।

बड़ी कंपनियां स्वचालन और विश्लेषण को अपना रही हैं, जबकि छोटे और मध्यम उद्यम इन्हें अपनाने के लिए जूझ रहे हैं। जैसे भारत की 1990 और 2000 के दशक की सेवा-आधारित वृद्धि ने समृद्धि के ऐसे क्षेत्र बनाए जिनसे बड़ी संख्या में कम-कुशल और असंगठित कामगार बाहर रह गए थे, वैसे ही एआई-आधारित वृद्धि उस समस्याग्रस्त प्रवृ​त्ति को दोहराने का जोखिम रखती है। स्वचालन की नई लहर असमानताओं की खाई को और चौड़ा कर सकती है, जैसा कि एक बार सेवाओं के उभार ने किया था।

लैंगिक यानी स्त्री-पुरुष में और क्षेत्रीय असमानता ने भी चुनौती बढ़ा दी है। महिलाओं की रोजगार-योग्यता का स्तर 50.86 फीसदी है जो अब पुरुषों के लगभग समान है लेकिन उच्च वृद्धि वाले क्षेत्रों मसलन तकनीक, विनिर्माण और ऊर्जा क्षेत्र में उनकी सीमित पहुंच है। क्षेत्रीय अंतर बरकरार हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक रोजगार के मामले में आगे हैं जबकि बिहार और पूर्वोत्तर के राज्य काफी पीछे हैं। देश के कौशल मिशन के अगले चरण में समता और दक्षता पर ध्यान देना होगा।

रोजगार की योग्यता को सार्थक रोजगार में बदलने के लिए नीतियों को अर्थव्यवस्था में हो रहे प्रगति और परिवर्तनों के साथ तालमेल बैठाना होगा। एक आधुनिक श्रम ढांचे को गिग और रिमोट कार्य को मान्यता देनी चाहिए। इस संदर्भ में लागू होने की प्रतीक्षा कर रहीं चार श्रम संहिताएं एक शुरुआत हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त, नैतिक एआई शासन को बढ़ावा देने के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि भर्ती और कार्यस्थल प्रबंधन में एल्गोरिदम की पारदर्शिता और निष्पक्षता बनी रहे। अंततः, शिक्षा और कौशल सुधार के जरिये कक्षाओं को करियर से जोड़ना चाहिए और परियोजना-आधारित तथा उद्योगों के साथ तालमेल वाली शिक्षा दी जानी चाहिए।


Date: 20-11-25

फसल बीमा की जमीनी हकीकत

विनोद के शाह

फसल बीमा योजना का उद्देश्य किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की संपूर्ण भरपाई करना है, मगर जमीनी हकीकत इससे उलट दिखाई देती है। फसल बर्बादी के बाद किसान राहत की उम्मीद में भटकता है, राज्य सरकारें केंद्र से वित्तीय सहायता की गुंजाइश तलाशती हैं, जबकि बीमा कंपनियां निश्चिंत रहती हैं कि ‘बीमा शर्तों’ के कारण प्रारंभिक या आंशिक नुकसान पर उन्हें भुगतान नहीं करना है।

अतिवृष्टि और बाढ़ से इस बार पंजाब, महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के अनेक जिलों में खरीफ की फसलें बुरी तरह प्रभावित हुईं। ऐसी स्थिति में फसल बीमा किसानों के लिए सहारा होना चाहिए था, मगर यह राहत के बजाय चिंता का कारण बन रहा है। बीमा कंपनियों को प्रीमियम के तौर पर किस्तों में पूरा भुगतान करने के बावजूद सरकार को किसानों के लिए राहत राशि बांटने को मजबूर होना पड़ रहा है। वर्ष 2016 में शुरू हुई ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ में हर वर्ष किसान हितग्राहियों की संख्या बढ़ी है। इसका एक कारण यह है कि बैंक ऋण लेने पर बीमा अनिवार्य है। दूसरा, इस बीमा के प्रचार में मात्र दो फीसद प्रीमियम पर किसानों को संपूर्ण फसल सुरक्षा का वादा।

वित्तीय वर्ष 2024-25 में देश में लगभग 4.19 करोड़ ऋणी किसान और 5.22 करोड़ गैर-ऋणी किसान फसल बीमा योजना से जुड़े हैं। योजना के अनुसार किसान केवल दो फीसद तक प्रीमियम देता है, जबकि शेष 98 फीसद हिस्सा केंद्र और राज्य सरकार समान रूप से वहन करती हैं। इस वर्ष केंद्र सरकार ने 14,600 करोड़ रुपए का प्रावधान किया और लगभग इतनी ही राशि राज्यों ने भी बीमा कंपनियों को दी है। मगर आश्चर्य यह है कि इतने भारी सरकारी निवेश के बावजूद प्रभावित किसानों को उनकी पिछली फसलों में वास्तविक नुकसान का दस फीसद से भी कम मुआवजा मिला है।

पूर्व में फसल नुकसान का मूल्यांकन ‘फसल कटाई प्रयोग’ के माध्यम से तहसील स्तर पर किया जाता था। तीन वर्ष के औसत उत्पादन के आधार पर क्षतिपूर्ति तय होती थी। लेकिन इस पद्धति में राजस्व अमले और बीमा कंपनियों के बीच सांठगांठ से आंकड़े अक्सर किसानों के खिलाफ जाते थे—औसत उत्पादन जानबूझकर कम दर्शाया जाता, जिससे मुआवजा घट जाता था।

कृषि मंत्रालय ने इस व्यवस्था को सुधारने के लिए उपग्रह आधारित फसल आकलन प्रणाली लागू की है। उपग्रह से ली गई तस्वीरों से प्रत्येक किसान के खेत का विश्लेषण कर फसल क्षति का निर्धारण किया जाता है। इसी प्रणाली के आधार पर अगस्त 2025 में गत फसल के लिए देशभर के लगभग तीस लाख प्रभावित किसानों को 3,200 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया। इसमें राजस्थान के किसानों को 1,120 करोड़, मध्यप्रदेश को 1,156 करोड़, छत्तीसगढ़ को 150 करोड़ और शेष अन्य राज्यों को 778 करोड़ रुपए दिए गए।

मगर यह राहत किसानों के लिए मरहम के बजाए उनके घावों पर नमक छिड़कने का काम कर रही है। अनेकों पीड़ित किसानों को सिर्फ सौ रुपए से लेकर दो हजार रुपए तक की बीमा राहत राशि उनके बैंक खातों में पहुंचाई गई है। कुछ किसानों को दी गई राशि उनके द्वारा अदा की गई प्रीमियम की दो फीसद रकम से भी कम है।

मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के कुंवरहटा गांव में सभी प्रभावित किसानों के खातों में कुल सत्रह रुपए का ही भुगतान हुआ है। जबकि महाराष्ट्र के शिलोत्तर गांव के एक किसान के खाते में बीमा कंपनी ने ग्यारह एकड़ धान की फसल की क्षतिपूर्ति राशि सिर्फ दो रुपए तीस पैसे जमा कराई है।

उपग्रह तस्वीरों में खेतों की हरी-भरी फसलें दिख जाती हैं, लेकिन यह अंतिम उत्पादन का आकलन नहीं कर पातीं। असल नुकसान तब पता चलता है जब फसल से दाने और भूसे को अलग किया जाता है। जब दाना कम और भूसा ज्यादा निकलता है तो किसानों की मेहनत पर पानी फिर जाता है। यह समस्या फसल क्षति का बड़ा कारण होती है, जिसका आकलन उपग्रह प्रणाली से करना संभव नहीं हो पाता। यही वजह है कि आकलन में कई विसंगतियां सामने आती हैं और किसानों को वास्तविक नुकसान के अनुपात में बीमा राशि का भुगतान नहीं मिल पाता।

हाल के दिनों में अतिवृष्टि और बाढ़ से हुए फसल नुकसान के बीमा कंपनियों की परिधि में न आने की निराशाजनक शर्तों के बाद कई राज्य सरकारें अपने स्तर पर किसानों को राहत दे रही हैं या केंद्र सरकार से वित्तीय पैकेज मांग रही हैं। फसल बीमा कंपनियां केवल अंतिम उत्पादन पर नुकसान की सामूहिक भरपाई उत्पादन में गिरावट के आकलन से करती हैं। लेकिन हाल में फसलों को हुआ नुकसान प्रारंभिक अवस्था का है, इसलिए बीमा कंपनियां राहत देने से साफ बच रही हैं।

पंजाब सरकार ने 23.81 लाख प्रभावित किसानों को नुकसान की भरपाई के लिए 1,623.51 करोड़ रुपए की राहत राशि वितरित की। महाराष्ट्र सरकार ने 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में नुकसान के लिए 1,356.30 करोड़ रुपए जारी किए। अन्य राज्य नुकसान आकलन की प्रक्रिया में हैं। देखा जाए तो यह बेहद चिंताजनक है कि जब सरकारें प्रीमियम के रूप में अरबों रुपए बीमा कंपनियों को दे रही हैं और कंपनियां संपूर्ण सुरक्षा कवच देने का दावा करती हैं, इसके बावजूद सरकार किसानों को अलग से राहत राशि देने को बाध्य है।

ऐसे में फसल बीमा योजना का वास्तविक औचित्य क्या रह जाता है? क्या यह योजना किसानों से अधिक बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने का माध्यम बन गई है? शुरुआत से अब तक के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी से बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में किसानों की फसलें नष्ट होने के बाद भी संबंधित बीमा कंपनियां कभी भी लाभ से वंचित नहीं रही हैं।

ऐसे में फसल बीमा योजना में कुछ आवश्यक सुधारों की जरूरत है। व्यक्तिगत खेत स्तर पर वास्तविक आकलन में फसल नुकसान का निर्धारण केवल उपग्रह से नहीं, बल्कि भौतिक सत्यापन और उपज परीक्षण से भी होना चाहिए। बीमा कंपनियों की जवाबदेही तय करने के लिए भुगतान में अनुचित कटौती पर आर्थिक दंड लगाने की व्यवस्था होनी चाहिए। राज्य स्तर पर पारदर्शी पोर्टल बने, ताकि किसान अपने नुकसान और भुगतान की स्थिति ऑनलाइन देख सके।

प्रीमियम की समीक्षा करना भी जरूरी है। प्रीमियम के अनुपात में न्यूनतम गारंटीड मुआवजा कानूनी रूप से तय किया जाए। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा और प्रारंभिक फसल क्षति को भी बीमा योजना में शामिल करना अनिवार्य हो।

फसल बीमा का उद्देश्य किसानों को संकट से उबारना है, न कि उन्हें बीमा कंपनियों के जाल में फंसाना। करोड़ों रुपए का प्रीमियम देने के बाद भी जब किसान को न राहत मिलती है, न भरोसा, तो यह नीति सुधार की मांग बन जाती है। अब जरूरत है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस योजना की समीक्षा करें, ताकि यह बीमा कंपनियों का सुरक्षा कवच नहीं, बल्कि किसानों की वास्तविक वित्तीय ढाल बन सके ।


Date: 20-11-25

संकट में शेख हसीना के साथ भारत

विवेक शुक्ला

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को सोमवार को जब ढाका की एक अदालत ने मौत की सजा सुनाई तब वो नई दिल्ली के अपने आवास में सुरक्षित बैठी थीं। उन्हें इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल ने जलाई 2024 के छात्र आंदोलन के दौरान हुई हत्याओं का मास्टरमाइंड बताया वहीं दूसरे आरोपी पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमान खान को भी 12 लोगों की हत्या का दोषी माना और फांसी की सजा सुनाई। शेख हसीना नई दिल्ली के एक अज्ञात स्थान पर है। सुरक्षा कारणों से उनके आवास की जानकारी गुप्त रखी गई है। वो अपने देश में पिछले साल हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद आनन- फानन में नई दिल्ली आ गई थी। शेख हसीना ने बीते दिनों भारत के कुछ खास अखवारों को इंटरव्यू हुए अपने देश की सरकार की निंदा भी की थी। उन्हें भले ही सजा सुना दी गई है, पर शेख हसीना भारत की राजधानी नई दिल्ली में सुरक्षित है। फिलहाल तो उनके अपने देश में वापस जाने की कोई संभावना भी नहीं है।

देखा जाए तो दिल्ली उनके लिए दूसरे घर की तरह है, क्योंकि 1975 से 1981 तक छह साल उन्होंने यहीं निर्वासन में बिताए थे। उन दिनों शेख हसीना नई दिल्ली पंडारा पार्क में रहती थीं। उनके पति डॉ. एम. ए. वाजेद मियां (परमाण वैज्ञानिक) और दोनों बच्चे भी साथ थे। उनके पड़ोस में ही भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी भी रहा करते थे। तब समय काटने के लिए शेख हसीना ने आकाशवाणी के बांग्ला सेवा में काम करना भी शुरू कर दिया था। वरिष्ठ पत्रकार मनमोहन शर्मा याद करते है, शेख हसीना उस दौर में नियमित रूप से संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन में आया करती थीं।

दरअसल 15 अगस्त 1975 को ढाका के धानमंडी स्थित घर में उनके पिता बंगबंध शेख मजीवर रहमान, मां और तीन भाइयों की हत्या कर दी गई थी। उस वक्त शेख हसीना अपने पति और बच्चों के साथ जर्मनी में थी, इसलिए बच गई। परिवार के नरसंहार से वे पूरी तरह टूट चुकी थी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें भारत में राजनीतिक शरण दी इंदिरा और मुजीबुर रहमान के बीच गहरे व्यक्तिगत संबंध थे।

दिल्ली में उनके सबसे करीबी दोस्त प्रणब मुखर्जी और उनकी पत्नी शुभ्रा मुखर्जी थे। दोनों परिवार लगातार मिलते-जुलते थे। तालकटोरा रोड स्थित प्रणव मुखर्जी के घर हसीना अपने बच्चों के साथ अक्सर जाती थीं। दोनों परिवारों के बच्चे भी अच्छे दोस्त बन गए थे। प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने एक बार बताया था, मम्मी और हसीना आंटी घंटों कला, संगीत और बांग्ला साहित्य पर बातें करती थीं। जब 18 अगस्त 2015 को मम्मी का निधन हआ तो हसीना आंटी अपनी बेटी पुतुल के साथ श्रद्धांजलि देने आई थीं। पुतुल और मै इंडिया गेट पर गुड़ियों से साथ खेलते थे।

बांग्लादेश में हालात सुधरे तो शेख हसीना 1981 में स्वदेश लौट गई, लेकिन मखर्जी परिवार से रिश्ता कभी नहीं टूटा। दिल्ली आने पर वे जरूर शुभ्रा और प्रणब मुखर्जी से मिलती थीं। अवामी लीग के नेता लगातार दिल्ली आकर उनसे बांग्लादेश लौटने और सक्रिय राजनीति करने की गुजारिश करते थे। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने 1981 में वापसी का फैसला किया। वो 2024 से दिल्ली में है, लेकिन अब न शुभ्रा मुखर्जी है, न पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी। दोनों इस दुनिया में नहीं रहे। यह मुमकिन है कि प्रणव कुमार मुखर्जी के परिवार के सदस्य उनसे मिलते-जलते हो।

आज जब वो फिर से नई दिल्ली में है, तो यह इतिहास का एक विडंबनापूर्ण दोहराव लगता है। 2024 का वह काला साल था जब बांग्लादेश की सड़कों पर छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा। उस आंदोलन ने जल्द ही पूरे देश को जकड़ लिया। सरकार ने सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण को बनाए रखने का फैसला किया था, जो स्वतंत्रता संग्राम के वीरों के परिजनों के लिए था। छात्रों ने इसे अन्यायपूर्ण बताते हुए विरोध शुरू किया। लेकिन हसीना सरकार ने इसका दमनकारी जवाब दिया।

पुलिस और सशस्त्र बलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की, जिसमें सैकड़ों की मौत हो गई। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 300 से अधिक लोग मारे गए, जबकि मानवाधिकार संगठनों का अनुमान 1,000 से ऊपर है। यह हिंसा हसीना के 15 वर्षों के शासन का अंतिम अध्याय साबित हुई।

अगस्त 2024 में, सेना प्रमुख जनरल वाकर-उज-जमान ने हस्तक्षेप किया और हसीना को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया। हसीना ने हेलीकॉप्टर से भागते हुए भारत का रुख किया। नई दिल्ली पहुंचकर उन्होंने कहा, ‘मैं हमेशा भारत की कृतज्ञ हूं।’ भारत ने उन्हें शरण दी, लेकिन यह निर्णय विवादास्पद रहा। बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार, जिसका नेतृत्त्व नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस कर रहे है, ने हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। लेकिन भारत ने इसे
अस्वीकार कर दिया, संप्रभुता और मानवीय आधार पर। हसीना के भारत में रहने से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया है।

आज की सजा उसी हिंसा का परिणाम है। ढाका की अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्रिब्यूनल (आईसीटी) ने हसीना को ‘जनसंहार’ और मानवता के खिलाफ अपराधों का दोषी ठहराया। खैर, शेख हसीना फिलहाल भारत है। बांग्लादेश सरकार ने उनके प्रत्यर्पण के लिए भारत से औपचारिक अनुरोध किया है, लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि ‘यह मामला संवेदनशील है और कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया जाएगा।’हसीना के वकील अब अपील की तैयारी कर रहे है, जो बांग्लादेश की सर्वोच्च अदालत में होगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है।’

शेख हसीना शुरू से ही भारत ते करीब रहीं इंदिरा गांधी ने शेख हसीना के पिता को मुजीब को ‘भाई’ कहा था, और हसीना को उनकी ‘बेटी’ यह बंधन आज भी कायम है। हसीना के शासनकाल में भारत-बांग्लादेश संबंध चरम पर पहुंचे। 2015 में भूमि सीमा समझौता, व्यापार वृद्धि और आतंकवाद विरोधी सहयोग प्रमुख उपलब्धियां थीं। लेकिन हसीना के भारत समर्थक रुख ने उन्हें पाकिस्तान- समर्थित विपक्ष का निशाना बनाया। क्या भारत उन्हें सौपेगा? विशेषज्ञों का मानना है कि नहीं, क्योंकि यह भारत की शरण नीति का उल्लंघन होगा।


Date: 20-11-25

सीधे नकद बांटने की नीति बुरी नहीं

अजीत रानाडे, ( अर्थशास्त्री )

जब किसी अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में नकद राशि डाली जाती है, तो क्या होता है? क्या वहां का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) तुरंत बढ़ जाता है? बिल्कुल नहीं। अर्थव्यवस्था का मामूली जानकार भी बता सकता है कि इसका तात्कालिक नतीजा महंगाई के रूप में निकलेगा। आप वस्तुओं की समान मात्रा और सेवाओं के लिए अधिक पैसे खर्च करने लगते हैं। इसीलिए इस तरह के नकदी आर्थिक प्रोत्साहन का उपयोग अत्यधिक आर्थिक संकट (जैसे- गंभीर मंदी या खर्च के बजाय लोगों द्वारा नकदी जमा करना) की स्थिति में अपरंपरागत और अंतिम विकल्प के रूप में किया जाता है। इस तरह के नकदी प्रवाह का मतलब होता है, लोगों को ‘मुफ्त में पैसा मिलना। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि वे अपना खर्च बढ़ा सकें और मांग में वृद्धि हो सके। लोगों की खरीदारी क्षमता यदि एक सीमा तक बढ़ जाए और अतिरिक्त वस्तुओं व सेवाओं की आपूर्ति आर्थिक विकास व महंगाई को नियंत्रित करते हुए की जाए, तब लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है।

इस तरह का नकद प्रोत्साहन महंगाई बढ़ाएगा या कल्याण करेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि मांग की आपूर्ति किस हद तक हो पा रही है। यह आपूर्ति श्रृंखलाओं की दक्षता पर निर्भर करता है, क्योंकि उन्हीं को कीमतें बढ़ाए बिना नई मांग को पूरा करने के लिए अन्य बाजार से वस्तुएं मंगवानी पड़ती हैं। जब रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था में नई ‘मुफ्त’ नकदी डालता है, तो उसे मौद्रिक नीति कहा जाता है। मगर जब कोई सरकार नकद हस्तांतरण करती है, तो वह एक राजकोषीय उपाय होता है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे कुछ अन्य मदों के लिए खजाने का खर्च कम करना पड़ता है।

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को भारी जीत का श्रेय चुनावों की औपचारिक घोषणा से ठीक पहले महिलाओं के लिए घोषित नकद हस्तांतरण योजना को दिया जा रहा है। चुनाव की पूर्व संध्या पर घोषित ऐसी योजनाओं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पैसे की सांविधानिकता पर हम यहां चर्चा नहीं करेंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह मामला सर्वोच्च न्यायलय के अधीन है और वह 2019 में दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है। उसमें संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 112 और 202 के उल्लंघन की बात कहते हुए इन रेवड़ियों पर रोक लगाने की मांग की गई है। इस मुकदमे में 2013 के एक फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें चुनाव आयोग को यह निर्देश दिया गया था कि इन रेवड़ियों के समय और दायरे को लेकर वह दिशा-निर्देश तैयार करे।

बहरहाल, हम यहां नकद हस्तांतरण के अन्य पहलुओं, विशेषकर महंगाई, कल्याणकारी योजनाओं और सरकारी खजाने पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर विमर्श कर रहे हैं। बिहार उन राज्यों में शुमार है, जहां महिलाओं के लिए 12 से अधिक नकद योजनाएं चल रही हैं। एक्सिस बैंक के एक शोध के अनुसार, भारत की हर पांच में से एक वयस्क महिला नकद राशि पा रही है। इस वर्ष कुल भुगतान देश के सकल घरेलू उत्पाद का 0.5 प्रतिशत होगा, और कुछ राज्यों में यह सरकारी खर्चका पांच प्रतिशत से भी अधिक हो सकता है। बिहार में जितने पैसे बांटे जाएंगे, वह इस वर्ष के बजट में निर्धारित कुल पूंजीगत खर्च से अधिक होगा। यह स्थिति तब है, जब उसका राजकोषीय घाटा पहले ही राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत से अधिक हो चुका है, जबकि इसकी आदर्श स्थिति तीन प्रतिशत मानी जाती है। यही बात महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे कई राज्यों के लिए भी सच है। ये सभी या तो राजकोषीय तनाव में होंगे या उन्हें पूंजीगत खर्च या सामाजिक क्षेत्र के अन्य खचों में कटौती करनी होगी।

आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए असम और बंगाल ने अपने बजट क्रमशः 31 प्रतिशत और 15 प्रतिशत बढ़ा दिए हैं। अक्तूबर 2024 में झारखंड सरकार ने भी महिलाओं को दिए जाने वाले मासिक भुगतान को दोगुना से ज्यादा (1,000 ले 2,500 रुपये) कर दिया है।

सरकारी खजाने पर भार बढ़ाने के अलावा क्या नकद हस्तांतरण महंगाई भी बढ़ाता है? सिद्धांतों में इसका जवाब खोजने के बजाय हमें हकीकत की जमीन पर इसकी पड़ताल करनी चाहिए। निस्संदेह, नकद प्रवाह क्रय-शक्ति और मांग को बढ़ाता है, लेकिन अब तक भारत में महंगाई पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं दिखा है। इसका खाद्य कीमतों पर असर नहीं पड़ा है, क्योंकि पहले से ही वहां बड़े पैमाने पर मुफ्त खाद्यान्न योजना चल रही है, जो एक तरह का हस्तांतरण ही है। वैसे भी आमतौर पर खाद्य मुद्रास्फीति नकद हस्तांतरण योजनाओं के बजाय आपूर्ति में गड़बड़ी और वैश्विक कारणों से बढ़ती घटती है। इसीलिए, जिन परिवारों को नकद मिलता है, वे उसे गैर-खाद्य उत्पादों पर खर्च करते हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा कर्ज या ईएमआई चुकाने में भी किया जाता है। गौरतलब यह भी है कि बीते कुछ वर्षों में परिवार पर विभिन्न मदों का कर्ज बढ़ा है।

नकद हस्तांतरण के कल्याणकारी प्रभावों की बात करें, तो यह गरीबी उन्मूलन का साधन है, लेकिन सशर्त हस्तातरण (यानी, केवल महिलाओं के लिए) ने भी कल्याणकारी मानकों में सुधार किए हैं, जैसे- स्कूल में उपस्थिति और बच्चों की सेहत से जुड़े मानकों में। झारखंड के आय हस्तांतरण पर हुए एक अध्ययन में अर्थशास्त्री कार्तिक मुरलीधरन ने पाया है कि इससे घरों में खान-पान पर खर्च बढ़ा है और उनकी गुणवत्ता सुधरी है। इससे परिवारों के भीतर लैंगिक समानता भी बढ़ी है, जो महिला सशक्तीकरण की ओर इशारा करती है। मेक्सिको, ब्राजील और केन्या में मिले नकद हस्तांतरण के लाभ भी इसकी पुष्टि करते हैं।

बेशक, महिलाओं को नकदी देने को एक सफल चुनावी रणनीति के रूप में आज देखा जा रहा है, लेकिन साल 2017 के आर्थिक सर्वे को याद कीजिए, तो उसमें सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूबीआई) की बात कही गई थी। अगर नकद हस्तांतरण के बजाय हम यूबीआई अपनाते हैं, तो राजनीतिक विभेद भी खत्म हो सकता है। सार्वभौमिक बुनियादी आय को यदि सही तरीके से लागू किया जाए, तो यह देश में कल्याणकारी सुधार एजेंडे का आधार बन सकता है, जिससे महंगाई भी नहीं बढ़ेगी। हालांकि, सच यह भी है कि सभी राजनीतिक दल इस पर राजी हो जाएंगे, तो यह चुनावी सफलता की गारंटी नहीं रह जाएगी।


Date: 20-11-25

संबंधो को नए सिरे से संवार रहे भारत और भूटान

हर्ष वी पंत, ( प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन )

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिवसीय यात्रा पर भूटान में थे। दक्षिण एशिया की तेजी से बदलती भू रणनीतिक स्थिति के बीच इस पड़ोसी देश के प्रति भारत की प्रतिबद्धता की ओर इस दौरे ने सबका ध्यान आकर्षित किया है। इस यात्रा का मकसद भूटान के हालात को समझना तो था ही, वहां की लोकप्रिय राजशाही के प्रति जुड़ाव को भी रेखांकित करना था।

आज भूटान दोराहे पर खड़ा है। दशकों से अनसुलझे आर्थिक-सामाजिक समस्याओं के साथ आर्थिक विविधता के अभाव के कारण वहां पर बेरोजगारी दर 17.8 प्रतिशत तक पहुंच गई है। हाल के वर्षों में भूटान की नौ प्रतिशत से अधिक आबादी पलायन कर चुकी है, जिससे देश की कार्यशील आबादी और नौकरशाही कमजोर पड़ गई है। साल 2027 तक वहां बुजुर्गों की संख्या सर्वाधिक हो जाएगी। उधर चीन की ओर से घुसपैठ जारी है, जिससे उस पर दबाव बढ़ रहा है। इन तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए भूटान अपने पांचवें राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक के नेतृत्व में प्रयास कर रहा है अपनी अर्थव्यवस्था, शासन और दक्षता में सुधार के लिए वह प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारी निवेश कर रहा है। राष्ट्रवाद को नया रूप देने के लिए भूटान ने 18 वर्ष की आयुवाले नागरिकों के लिए अनिवार्य राष्ट्रीय सेवा की नीति ( ग्वालसुंग) शुरू की है। साथ ही, असम से सटे इलाके में ‘गेलेफू माइंडफुलनेस सिटी’ नाम से
एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र परियोजना शुरू की है, जिसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है।

इधर, भारत भी भूटान के साथ अपने संबंधों को नया रूप दे रहा है। भूटानी प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे जनवरी 2024 से छह बार और नरेश नामग्याल वांगचुक चार बार भारत दौरे पर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी भी दो बार भूटान की यात्रा कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान 1,020 मेगावाट की पुनात्सांगचु-2 परियोजना का उद्घाटन हुआ, जिससे भूटान की कुल उत्पादन क्षमता में 40 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी। भारत ने भूटान को ऊर्जा क्षेत्र में 4,000 करोड़ रुपये की ऋण सहायता प्रदान की है। यह भूटान की वर्तमान पंचवर्षीय योजना और आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज के लिए 10,000 करोड़ रुपये की सहायता के अतिरिक्त है।

भूटान के चौथे नरेश की 70वीं जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री की हालिया यात्रा मजबूत और दीर्घकालिक द्विपक्षीय संबंधों का प्रतीक है। इस दौरान विश्व शांति प्रार्थना महोत्सव का आयोजन किया गया और भारत से भगवान बुद्ध के पवित्र पिपरहवा अस्थि कलश को वहां ले जाया गया। भारत ने वाराणसी में बौद्ध मंदिर के निर्माण के लिए भूमि देने की घोषणा की है। नालंदा में एक भूटानी मंदिर पहले से ही है। गौरतलब है, भारत भूटान के बीच आज जो इतना गहरा संबंध है, उसमें साल 1972 से 2006 तक सिंहासन पर रहे चौथे नरेश का बड़ा योगदान है। उनके नेतृत्व में ही भूटान और भारत ने पनबिजली साझेदारी शुरू की थी। सन् 1984 में चीन के साथ सीमा वार्ता शुरू करने के बाद भी भूटान नरेश भारतीय चिंताओं व हितों के प्रति सचेत रहे और चीन के ‘पैकेज डील को नकार दिया था। साल 2003 में उन्होंने भूटान में छिपे भारतीय उग्रवादियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन ऑल क्लियर’ का व्यक्तिगत रूप से नेतृत्व किया।

अब तक चीन और भूटान के बीच 25 दौर की वार्ता हो चुकी है। हाल के वर्षो में इसमें प्रगति हुई है और थिंपू ने जटिल डोकलाम त्रि- जंक्शन मुद्दे को छोड़ दिया है और इस क्षेत्र पर त्रिपक्षीय वार्ता की वकालत की है। भारत और चीन सिक्किम क्षेत्र में सीमांकन के लिए इसे मुख्य बिंदु के रूप में देख रहे हैं। भूटान ने चीनी घुसपैठ को रोकने के लिए भारतीय रक्षा सहयोग और प्रौद्योगिकी की मांग की है। भूटान से रिश्ता कितना अहम है, इसे इसी से समझा जा सकता है कि इस यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी मौजूद थे। उन्होंने दिल्ली में बम विस्फोट के बाद यात्रा रद्द नहीं की।

संक्षेप में, कनेक्टिविटी, विकास सहयोग, संस्कृति, ऊर्जा, रक्षा एवं सुरक्षा जैसे कई मुद्दों पर द्विपक्षीय चर्चा करके भारत ने यह दर्शाया है कि वह अपने इस पड़ोसी देश का एक अटूट साझेदार बना रहेगा, भले ही उसे घरेलू स्तर पर नए बदलावों का सामना करना पड़ रहा हो।