25-09-2025 (Important News Clippings)

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25 Sep 2025
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Date: 25-09-25

Construction Job

Probe into bank-builder nexus, which made patsies out of middle-class homebuyers, must be thorough

TOI Editorials

Home loan subvention schemes-advertised as “book now, pay nothing till possession”-always smelt fishy But many thousands of homebuyers fell for them in “hot” real estate markets. It wasn’t their fault. With home prices and rent shooting up in tandem, the option to not pay EMIS plus rent during the period of construction felt too good. It wasn’t long before buyers realised it was too good to be true. Many of them never got their houses but have been relentlessly hounded by recovery agents for repayment of loans. Now, more than 15 years after the schemes were first floated, CBI-under SC’s orders -is examining the role banks and other financial institutions played in perpetrating this massive fraud.

The charge of “fraud” is not applied lightly. Consider the structure of these schemes. Banks needed borrowers, and builders needed buyers. Both found what they were looking for in the common man. Ordinarily banks release home loan payments to builders-on behalf of borrowers after verifying the progress of construction. But under subvention schemes, they paid the full amount right at the start, “knowing very well that not even a brick has been laid at the site” – SC’s words, not ours. The understanding was that the builder/developer would pay EMIS till they handed over the finished house to the buyer, but this wasn’t an ironclad guarantee. The builder could default at will, and then the responsibility to pay was the buyer’s.

Consider what happened at a Greater Noida project outside Delhi. In 2015, the builder received full payments for two phases of the project that had not been approved by the local planning authority. Which shows banks released crores of rupees without due diligence. They didn’t have to, because they had the best collateral possible in the form of middle-class borrowers. But was it just laziness and negligence, or did bank officials receive kickbacks? Those answers will hopefully emerge as the CBI probe progresses. Already 21 housing projects and the role of 19 lenders – including leading banks like HDFC and ICICI-are under the scanner. RBI has washed its hands of the case by declaring it cautioned against lending for subvention schemes in 2013. But given that the lives of middle-class borrowers were at stake, it could have taken a harder line. SC will have much to say in this matter when its inquiry is over. Meanwhile, govt’s silence on today’s rigged realty market is deafening.


Date: 25-09-25

Calling the Bluff of Caste Empowerment

ET Editorials

UP government’s directive on Sunday banning caste-based rallies, signages and FIRS where caste isn’t subject of a complaint is step one in taking politics ‘kicking and screaming beyond caste’. Contrary to its detractors, the order isn’t denial of caste as a social construct. Rather, it seeks to limit its use as a blunt political instrument. 2025 India needs a politics that privileges interests and concerns that unite people over those that divide.

Far from realising BR Ambedkar’s vision of annihilation of caste’, caste has been embedded in politics in the name of social representation and empowerment. Mandalisation in the 90s— empowerment of OBCS-spawned numerous caste-based parties. Caste, sub-castes and sub-sub-castes became the organising principle for securing political space and power reaching theological proportions. Apart from giving rise to a new set of elites, it also further ghettoised politics. The latest ban will push more parties toappeal beyond ‘tribal’ loyalties, as was once the case with Congress, and later with BJP to a lesser extent. Opposition parties have charged the ruling BJP of imposing the ban to form a ‘Hindu conglomeration’. That may well be the case. After all, BSP’s demise came about with dalits moving en bloc to BJP. That hardly besmirches the effort to move politics beyond caste groupings.

Caste and religion are realities. But ensuring they do not become overriding determinants of modern democracies requires creating spaces that transcend these manufactured ties. The ban must be seen in this context, and can lay the ground- work for a politics of inclusive progress. All parties should take to it, and engage beyond earmarked fences. Like in business, in politics too, scaling up can have surprising Rols.


Date: 25-09-25

जल्द न्याय दिलाने के लिए चार छोटे कदम उठाए जाएं

विराग गुप्ता, ( वकील और अनमास्किंग वीआईपी’ के लेखक )

अगर कोई आम व्यक्ति यह बात कहता कि विकसित भारत के रास्ते में न्यायिक प्रणाली यानी अदालतें सबसे बड़ा रोड़ा है, तो उसे संविधान विरोधी बताने के साथ उसके खिलाफ एफआईआर और अवमानना का मामला दर्ज हो सकता था। लेकिन यह तीखा तंज प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने सुप्रीम कोर्ट के जजों की उपस्थिति में किया है। उनसे सहमत होने के बावजूद यह बताना जरूरी है कि इस दुर्व्यवस्था पराभव और पतन के लिए सरकार भी बराबर से जिम्मेदार है। नवरात्रि में इन चार सूत्रों पर अमल से अन्याय की आसुरी शक्तियों के खात्मे के साथ विकसित भारत का सपना भी सफल हो सकता है-

1. डाटा और ऐप : कैट जैसे अनेक न्यायाधिकरण, आयकर, जीएसटी विभागों और स्थानीय निकायों में चल रहे लाखों विवाद और मुकदमों का सही हिसाब नहीं है। लोक अदालतों में 2024 में 10.45 करोड़, 2023 में 8.53 करोड़ और 2022 में 4.19 करोड़ मुकदमों का निपटारा हुआ। पिछले तीन सालों में 23 करोड़ मुकदमों के निपटारे के बावजूद जिला अदालतों, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में 5.3 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। क्या हम विवाद और मुकदमा प्रधान देश बन गए हैं?

2. सर्कुलर इकोनामी : अपराध रोकने और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए अदालतों का गठन हुआ है। लेकिन फर्जी मुकदमों और न्याय में विलंब की वजह से देश में अन्याय, अपराध और अराजकता बढ़ रही है। सिविल मामलों में सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। जिला अदालतों में तीन चौथाई से ज्यादा मुकदमे आपराधिक हैं, जिनमें सरकार या पुलिस पक्षकार है। जेलों में बंद 70 फीसदी कैदी अंडरट्रायल हैं। आम आदमी को मुकदमेबाजी में गाढ़ी कमाई खर्च करनी पड़ती है। जबकि सरकारी वकील, पुलिस, जज और जेल सरकारी खर्च पर चलते हैं। अपराध और अन्याय को बढ़ाने वाले इस आर्थिक तंत्र की रीढ़ को तोड़े बगैर मुकदमेबाजी के जंजाल से मुक्ति मिलना मुश्किल है।

3. जजों की संख्या : विधि आयोग की रिपोर्ट के आधार पर जजों की संख्या बढ़ाकर समस्या के जादुई समाधान का फार्मूला दिया जाता है। लेकिन नए पद बनाने से पहले वर्तमान खाली पदों पर नियुक्ति पर कोई बात नही करता। हाईकोर्ट में 33 फीसदी और जिला अदालत में 21 फीसदी जजों के पद और दूसरे स्टाफ के 27 फीसदी पद रिक्त हैं। न्यायिक व्यवस्था पर राज्य सरकारें बजट का सिर्फ 0.59 फीसदी खर्च कर रही हैं। चार सालों में ई-कोर्ट और इन्फ्रा विकास के लिए 7210 करोड़ और 9000 करोड़ आवंटित किए गए हैं। दिल्ली में सीवेज प्लान के लिए 57000 करोड़ का मास्टर प्लान तैयार हो रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर प्रति व्यक्ति खर्च 15000 रुपए जबकि न्यायपालिका पर सिर्फ 182 रुपए है। विधिक सहायता के राष्ट्रीय अभियान के लिए सिर्फ 200 करोड़ का बजट है, जो अधिकांशतः मीटिंग और कांफ्रेंस में खर्च हो जाता है। जबकि मुकदमों से जुड़े 3108 करोड़ दस्तावेजों के डिजिटलीकरण के लिए 2038 रु. आवंटित किए गए हैं। संख्या बढ़ाने से ज्यादा जरूरी है। कि वर्तमान जजों को बेहतर आवास, कार्यस्थल, स्टाफ, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि सुविधाएं दें।

4. समाधान : नेपाल से सबक लेकर गवर्नेस सुधारना अब पूरे देश की जरूरत है। गलत एफआईआर दर्ज करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो। जेलों में बंद गरीब बेगुनाह कैदियों की रिहाई के लिए राष्ट्रीय अभियान शुरू हो। छोटे अपराधों का सामुदायिक सेवा के दंड के माध्यम से तुरंत निपटारा हो । सरकारी अपीलों में राष्ट्रीय मुकदमा नीति का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हो। पीआईएल के नाम पर पब्लिसिटी और सियासी मुकदमेबाजी पर रोक लगे। गलत या बेवजह का मुकदमा दायर करने वालों के खिलाफ कठोर जुर्माना लगे ।

न्यायिक व्यवस्था में वंशवाद, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता की वजह से मेरिट की अवहेलना होती है। कानूनों में सनसेट प्रावधान, पुलिस सुधार, जजों और लोक अभियोजकों की नियुक्ति में सरकारी हस्तक्षेप रोकने की अपेक्षा करना दूर की कौड़ी है। संविधान के अनुसार आम जनता को जल्द न्याय दिलाने की जवाबदेही पूरी करने के लिए ये छोटे कदम भी उठाए जाएं तो मुकदमेबाजी की संस्कृति कमजोर होने के साथ मुकदमों के बोझ से राहत मिल सकती है।


Date: 25-09-25

राजनीतिक समस्याओं के समाधान भी राजनीतिक हों

आरती जेरथ, ( राजनीतिक टिप्पणीकार )

मणिपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा बहुप्रतीक्षित थी। लेकिन इस दौरान उठी असहमति की आवाजें बताती हैं कि 28 महीनों की जातीय हिंसा के दौरान मणिपुर को मिले जख्मों पर मरहम लगाने के लिए तीन घंटे का दौरा काफी नहीं हो सकता था।

पीएम के मणिपुर पहुंचने से कुछ घंटों पहले ही विरोध-प्रदर्शन करने वालों ने उनके स्वागत में लगाए पोस्टर फाड़ दिए थे। उनके रवाना होने के कुछ घंटे बाद फिर से हिंसा भड़क उठी। आक्रोशित भीड़ ने चुराचांदपुर में एक कुकी नेता का घर जला दिया। कई अन्य घरों पर हमला किया गया। इसी इलाके में एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने शांति का आह्वान किया था, छात्राओं से पारंपरिक लोक गीत सुने थे और विकास परियोजनाओं का उद्घाटन किया। सत्य, समाधान और न्याय के रोडमैप के बिना कोई शांति मिशन पूरा नहीं होता | मणिपुर को उन मुद्दों पर राजनीतिक समाधान देने की जरूरत थी, जिनके चलते यह प्रदेश संघर्ष की भेंट चढ़ते हुए जातीय तौर पर विभाजित हो चुका था।

प्रधानमंत्री के दौरे में लगभग 8 हजार करोड़ रुपए की बुनियादी ढांचे की योजनाओं की घोषणा की गई थी, जिनमें एक कामकाजी महिला हॉस्टल, नया सचिवालय और पुलिस मुख्यालय आदि शामिल थे। इसके बावजूद चुराचांदपुर से स्वयं भाजपा विधायक हाओकि अपनी मायूसी नहीं छुपा पाए। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित परियोजनाओं में से अधिकतर नई नहीं थीं। लेकिन इससे भी बढ़कर योजनाओं का असंतुलित वितरण गहरी चिंता का विषय था, क्योंकि डर है कि इससे जातीय दरारें और गहराएंगी। हाओकि के अनुसार घोषणाओं की लगभग 85% योजनाएं मैतेई प्रभुत्व वाले घाटी के इलाके को लाभान्वित करेंगी। जबकि कुकी- बहुल पहाड़ी क्षेत्रों को बहुत कम मिलेगा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि आर्थिक पैकेज से हालात सामान्य नहीं होंगे। हमारे सामने राजनीतिक समस्या है और उसका समाधान भी राजनीतिक ही चाहिए।

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने लोगों से संपर्क साधने का प्रयास नहीं किया हो। चुराचांदपुर और इम्फाल, दोनों जगहों पर उन्होंने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हिंसा पीड़ितों से मुलाकातें कीं। नौकरियों, क्षेत्र में बिना किसी भय के वस्तुओं और लोगों के आवागमन और जल्द सामान्य स्थिति की बहाली जैसी उनकी गुहार सुनी। लेकिन उत्साहवर्धक बातों और सद्भाव बढ़ाने के आह्वान से इतर प्रधानमंत्री के पास भविष्य की बेहतरी के लिए किसी ठोस वादे का अभाव दिखा। कम से कम यह एक मौका तो था, जब भरोसा बनाने और शांति बहाली की यात्रा शुरू की जा सकती थी।

चुराचांदपुर में पहली चिंगारी से भड़की आग को लगभग पूरे राज्य में फैले 28 महीने हो चुके हैं। हालांकि इस साल फरवरी में देरी से लागू किए गए राष्ट्रपति शासन के बाद भी वहां के खंडित हो चुके समाज में संदेह और शत्रुता के अंगार सुलगते रहते हैं। कुकी लोग पहाड़ियों तक ही सीमित हैं, मैतेई घाटी तक। कोई भी दूसरे के क्षेत्र में जाने की हिम्मत नहीं करता । राज्य की मुख्य जीवनरेखा- राष्ट्रीय राजमार्ग 2- प्रधानमंत्री की यात्रा की प्रत्याशा में फिर से खोल दी गई, लेकिन शत्रुतापूर्ण जातीय क्षेत्रों में जाने के डर से शायद ही कोई इस पर यात्रा करता है। चूंकि अधिकांश आर्थिक गतिविधियां इम्फाल के आसपास केंद्रित हैं, इसलिए पहाड़ियों तक सीमित कुकी लोगों ने आजीविका के स्रोत खो दिए हैं।

मणिपुर संकट जैसी त्रासदियों के कोई सरल समाधान नहीं हो सकते। लेकिन समाधानों की तलाश दो महत्वपूर्ण कारणों से शुरू हो जानी चाहिए। अव्वल तो देश की चेतना को झकझोरने के लिए, क्योंकि आखिर हम कब तक अपने ही लोगों के दुःख-दर्द से नजरें फेरे रखेंगे? दूसरे, एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में सुरक्षागत खतरों को लेकर भी हमें चिंतित होना चाहिए। मणिपुर म्यांमार के साथ सीमाएं साझा करता है, जिससे वहां उग्रवादियों, नशीले पदार्थों और हथियारों की पहुंच आसान हो जाती है। बांग्लादेश की स्थिति भी चिंताजनक है। मोहम्मद यूनुस ने अपने देश और पूर्वोत्तर के राज्यों के बीच मुक्त व्यापार के एक आर्थिक क्षेत्र का प्रस्ताव रखकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। प्रधानमंत्री का दौरा इस बात की प्रबल पुष्टि है कि मणिपुर भारत का अभिन्न अंग है। तब वहां पर राजनीतिक सुलह की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए।


Date: 25-09-25

हिंसा की चपेट में लेह

संपादकीय

लद्दाख को अलग राज्य का दर्जा देने और इस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांगों को लेकर लेह में जारी शांतिपूर्ण आंदोलन जिस तरह हिंसक हो उठा और जिसके नतीजे में चार लोग मारे गए और कई घायल हो गए, उसके पीछे कोई शरारत भी हो सकती है। इसका अंदेशा इसलिए होता है, क्योंकि हिंसा के दौरान भाजपा कार्यालय को आग लगाने के साथ लदाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद के कार्यालय को क्षति पहुंचाई गई और सुरक्षा बलों के वाहनों को निशाना बनाया गया। यह आंदोलन इसलिए हिंसक उपद्रव में तब्दील हो गया, क्योंकि अनशन पर बैठे दो लोगों की तबीयत खराब होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। लाख की मांगों को लेकर आंदोलन भले ही लेह एपेक्स बाडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के नेतृत्व में हो रहा हो, लेकिन उसकी कमान मुख्यतः पर्यावरण एवं सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक के हाथ में थी। लगता है वे अपने आंदोलन में शामिल लोगों और खासकर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर नियंत्रण नहीं रख पाए। यह ठीक है कि हिंसा भड़कने के बाद उन्होंने अनशन समाप्त कर दिया और शांति की अपील की, लेकिन उन्हें इस पर गौर करना होगा कि उनके शांतिपूर्ण आंदोलन को हिंसक तत्वों ने कैसे पटरी से उतार दिया? इस हिंसा का इसलिए कहीं कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि गृह मंत्रालय ने 6 अक्टूबर को लदाख के प्रतिनिधिमंडल के साथ अगले दौर की बातचीत सुनिश्चित कर दी धी । यह बातचीत होने के पहले ही मांगों को मानने की जिद पकड़ने का कोई मतलब नहीं था।

जब लदाख जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था, तब इस क्षेत्र को केंद्रशासित प्रदेश बनाने की मांग होती थी जब अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद उसे यह दर्जा मिल गया तो अलग राज्य की मांग पर जोर दिया जाने लगा। इसके औचित्य को सिद्ध करने वाले तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन उन पर जोर देने के लिए हिंसा की यह पर जाना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और चिंताजनक भी लाख को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग करने वाले इस क्षेत्र के लिए अपना लोक सेवा आयोग भी चाह रहे हैं और एक के बजाय दो लोकसभा सीटें भी एक लेह के लिए और दूसरी कारगिल के लिए यह सही है कि जम्मू-कश्मीर का हिस्सा होने के दौरान लाख को 370 के तहत जो विशेष अधिकार मिले थे, वे केंद्रशासित बनने के बाद समाप्त हो गए, लेकिन इस नतीजे पर पहुंचना सही नहीं होगा कि इससे क्षेत्र के लोगों की संस्कृति और जमीनों के लिए खतरा पैदा हो गया। ऐसा लगता है कि इस खतरे को भय के भूत की तरह खड़ा किया गया। जो भी हो, केंद्र सरकार को इस अशांत हो उठे क्षेत्र में शांति का माहौल बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि वह चीन और पाकिस्तान से लगा इलाका है।


Date: 25-09-25

आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का दबदबा चरम स्तर पर

आकाश प्रकाश, ( लेखक अमांसा कैपिटल से जुड़े हैं )

फिलहाल वैश्विक बाजार आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) की धुन पर नाच रहे हैं। एआई की धमक चारों तरफ दिख रही है, चाहे आप तेजी पर भरोसा करते हुए शेयर बाजार में उतर गए हों या फिर किनारे रहकर बाजार में स्थिति सामान्य होने का इंतजार कर रहे हों। फिलहाल बाजार में तेजड़िये हावी हैं क्योंकि बाजार को लग रहा है कि एआई बड़े बदलाव लाने वाला है और आने वाला समय इसी का है। एआई तकनीक ही यह तय करेगी कि कंपनियों या देशों के स्तर पर भविष्य में कौन जीतेगा और कौन हारेगा।

एआई की ताकत में विश्वास रखने वाले आश्वस्त हैं कि एआई पश्चिम देशों की जनसांख्यिकी और वित्तीय चुनौतियों को दूर कर देगी। उत्पादकता बढ़ने से आर्थिक वृद्धि तेज होगी जिससे कर्ज के जाल में फंसे पश्चिमी देशों के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों की आर्थिक समस्या दूर हो जाएगी।

कर्मचारियों की, खासकर शुरुआती स्तर पर, कम जरूरत होने से पश्चिम देशों में जनसांख्यिकीय समस्या उतनी भयावह नहीं रह जाएगी। एआई कंपनियों के परिणामों के दायरे को भी व्यापक बनाएगा जिसमें मजबूत प्रदर्शन करने वाली आगे निकल जाएंगी और उनका कारोबार बढ़ता जाएगा जबकि कमजोर व्यवसाय से बाहर हो जाएंगी। अमेरिका को चीन की तरह एआई की दौड़ में एक विजेता के रूप में देखा जाता है। एआई कारोबार पूरे जोरों पर है फिर चाहे आप अमेरिकी बाजार के आंतरिक पहलुओं को देखें या चीन / कोरिया और ताइवान के बेहतर प्रदर्शन पर विचार करें। जहां तक भारत की बात है तो इसे एआई के मामले में अभी फिसड्डी समझा जा रहा है।

आगे सूरत कैसी रहेगी या एआई के दीर्घकालिक प्रभाव, समय और वास्तविक लाभों पर बहस की गुंजाइश हो सकती है मगर समय बीतने के बाद ही इसके वास्तविक असर का पता चलेगा। व्यापार एवं विषयगत चीजें वर्तमान में हर जगह मौजूद हैं। एआई बाजारों में अत्यधिक महत्त्व रखता है और बाजार पूंजीकरण, मुनाफा कमाई और पूंजीगत व्यय के लिहाज से इसकी अहमियत सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गई है।

फिलहाल अमेरिका में सभी वेंचर कैपिटल निवेश का 65 फीसदी हिस्सा एआई या मशीन लर्निंग आधारित स्टार्टअप इकाइयों में जा रहा है। ओपनए आई 500 अरब डॉलर के मूल्यांकन पर धन जुटाने के लिए तैयार है हालांकि इसके आंतरिक अनुमानों से पता चलता है कि अगले पांच वर्षों में इसे 100 अरब डॉलर से अधिक नुकसान होगा। हर लाज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) कंपनी नई पूंजी के रूप में अरबों डॉलर जुटा रही है। अरिकल ने जब ओपनए आई के साथ 300 अरब डॉलर का पांच साल के लिए क्लाउड समझौता किया तो उसके बाजार पूंजीकरण में एक दिन में 240 अरब डॉलर वृद्धि हो गई। ऑरेकल के बाजार पूंजीकरण में उछाल के लिए बाजारों में मजबूती जरूरी है ताकि ओपनएआई अनुबंध के लिए आवश्यक नकदी जुटा सके। वृत्तीय तर्क एक नए स्तर पर काम कर रहा है!

फिलहाल सात दिग्गज तकनीकी कंपनियों (मैग-7) का एसएंडपी 500 में 32 फीसदी भार है। जनवरी 2023 में चैटजीपीटी लॉन्च होने के ठीक बाद यह केवल 18 फीसदी था। एनवीडिया, जिसका एसएंडपी 500 में 8 फीसदी भार है, अब इस सूचकांक के इतिहास में अकेला सबसे अधिक भार वाला शेयर बन चुका है। इसका वर्तमान बाजार पूंजीकरण अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद के 15 फीसदी के बराबर है !

यहां तक कि सूचकांक के रिटर्न में भी सात दिग्गजों की तरफ अत्यधिक झुकाव है जनवरी 2021 से एसएंडपी 500 में आई तेजी का 55 फीसदी हिस्सा शीर्ष 10 शेयरों की तरफ से आया है। अगर आपने इन 10 शेयरों में पर्याप्त निवेश नहीं किया था तो आपके पास वृहद बाजारों के साथ बने रहने का कोई मौका नहीं था। एक ही जगह केंद्रित रिटर्न का यह ताना-बाना फिलहाल जारी है और ‘लिबरेशन डे’ (2 अप्रैल, 2025) के बाद से मैग-7 में लगभग 50 फीसदी की वृद्धि हुई है जबकि शेष 493 एसएंडपी 500 स्टॉक में केवल 20 फीसदी की बढ़त दर्ज हुई है।

यहां तक कि बाजार में कमाई का गणित भी मैग-7 और एआई थीम की ओर बहुत अधिक झुका हुआ है। वर्ष 2023 और 2024 में ‘मैग-7’ ने एसपेंडपी 500 में कमाई में लगभग 35 फीसदी की वृद्धि देखी, जबकि शेष 493 शेयरों के लिए कमाई में केवल 3 फीसदी की वृद्धि हुई नतीजा यह हुआ कि वृहद एसएंडपी 500 सूचकांक के मुकाबले तकनीकी क्षेत्र का सापेक्ष प्रदर्शन फिलहाल 2000 आई अतिशय उछाल या बबल से भी अधिक मजबूत है।

अगर हम कंपनियों के पूंजीगत व्यय पर नजर डालते हैं तो टेक्नॉलजी और एआई की उपस्थिति उल्लेखनीय है। एसएंडपी 500 कंपनियों के पूंजीगत व्यय में ‘मैग 7’ और ऑरेकल की हिस्सेदारी 35 फीसदी से अधिक है। इन प्रमुख अमेरिकी तकनीकी कंपनियों ने 2023 से निजी घरेलू निवेश में अपनी हिस्सेदारी दोगुना कर दी है। इन कंपनियों के लिए पूंजीगत व्यय अब बिक्री का 20 फीसदी से अधिक हो गया है जबकि पहले यह 10 फीसदी से कम था। यहां तक कि परिचालन नकदी प्रवाह में भी 65 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल वे डेटा सेंटर के विकास पर कर रही हैं। उनका पूंजीगत व्यय एवं बिक्री का अनुपात 20 फीसदी है तथा अनुसंधान एवं विकास और बिक्री अनुपात 15 फीसदी है जिसका अर्थ यह है कि बिक्री का 35 फीसदी वृद्धि में पुनर्निवेश किया जा रहा है। वास्तव में ये आंकड़े अभूतपूर्व हैं।

दूरसंचार कंपनियां अपने फाइबर-ऑप्टिक के विशाल तंत्र के साथ 2000 के ‘टेक्नॉलजी बबल’ के चरम के दौरान अत्यधिक निवेश के पुरोधा के रूप में देखी गई। 2000 में दूरसंचार कंपनियों का पूंजीगत व्यय अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद का 0.8 फीसदी तक पहुंच गया था। आज तकनीकी कंपनियों का पूंजीगत व्यय अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.2 फीसदी है और वर्तमान अनुमानों के अनुसार यह 2028 तक 1.4 फीसदी को पार कर जाएगा। यह डॉट कॉम बबल’ के दौरान दूरसंचार कंपनियों के पूंजीगत व्यय के सर्वोच्च स्तर से 75 प्रतिशत अधिक है (स्रोतः अपोलो ग्लोबल चार्टबुक)।

हालांकि, इन सभी आंकड़ों में बढ़ोतरी जारी रह सकती है लेकिन बाजार पूंजीकरण रिटर्न और पूंजीगत व्यय के लिहाज से हम अनजानी राह की तरफ बढ़ते दिख रहे हैं। ये सभी एआई और इस विश्वास से प्रेरित हैं कि यह तकनीक हमारी दुनिया को बदल देगी।

इस प्रचार और उन्माद को किसी न किसी स्तर पर धरातल पर वापस आना होगा। एआई वास्तव में क्रांतिकारी तकनीक हो सकती है लेकिन इन ऊंचे स्तरों से ये निवेश के कमजोर विकल्प सावित हो सकते हैं जब यह चरम दौर खत्म होगा तो मैग -7, चीन / कोरिया ताइवान और कई अन्य व्यापार अपनी पुरानी स्थिति में लौट आएंगे। भारत ने एआई व्यापार में भाग नहीं लिया है और इसे एआई में फिसट्टी के रूप में देखा जाता है। भारत को विदेशी पूंजी दोबारा आकर्षित करने के लिए इंतजार करना पड़ सकता है। इस बीच, हमें अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को ताकत देने के लिए और एक विकास एजेंडा लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भारत एआई की होड़ में पूरी तरह से शामिल नहीं हो सकता है, लेकिन हम इसके अपरिहार्य मोहभंग और मोहभंग के चक्र से लाभ उठाने के लिए स्वयं को तैयार कर सकते हैं।


Date: 25-09-25

साठगांठ पर सख्ती

संपादकीय

हर किसी का सपना होता है कि शहर में उसका भी अपना एक घर हो इसके लिए वह अपने जीवन भर की पूंजी लगा देता है। खासकर मध्यम वर्ग के लोग इस सपने को पूरा करने के लिए अपने दैनिक खर्चे में कटौती कर बैंकों से कर्ज भी लेते हैं मगर परेशानी तब बढ़ जाती है, जब तय समय पर उन्हें घर नहीं मिल पाता है। जाहिर है यह सब भवन निर्माताओं की मनमानी की वजह से ही होता है। ऐसे मामलों में कर्ज देने वाले बैंकों की भूमिका पर भी सवाल उठते रहे हैं देशभर में ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें भवन निर्माताओं और बैंकों के बीच साठगांठ के आरोप लगे हैं। इसी घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली एनसीआर के बाद अब मुंबई, बंगलुरु, कोलकाता, मोहाली और प्रयागराज में घर खरीदारों से धोखाधड़ी करने के आरोप में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को छह नए मामले दर्ज करने की अनुमति दी है। सीबीआइ का कहना है कि प्रारंभिक जांच से पता चला है कि इस संबंध में संज्ञेय अपराध का मामला बनता है।

इसमें दोराय नहीं कि मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए बढ़ती महंगाई के इस दौर में शहरों में घर खरीदने के वास्ते रकम जुटाना काफी मुश्किल होता है ऐसे में बैंकों से कर्ज लेना ही एकमात्र विकल्प होता है मगर इन्हीं बैंकों के कम अगर भवन निर्माताओं के साथ साठगांठ कर पर खरीदारों के साथ धोखाधड़ी करने लगें, तो कर्ज की यह सुविधा ही मुश्किल में डाल देती है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस वर्ष जुलाई में दिल्ली एनसीआर में घर खरीदारों के साथ धोखाधड़ी करने के आरोपों से जुड़े मामलों में बैंकों और भवन निर्माताओं के बीच साठगांठ की गहन जांच के लिए सीबीआइ को बाईस मामले दर्ज करने की अनुमति दी थी। मामले एनसीआर में कार्यरत भवन निर्माताओं और उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा के विकास प्राधिकरणों से संबंधित हैं। इसके साथ ही न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर के बाहर की आवास परियोजनाओं की प्रारंभिक जांच करने के लिए सीबीआइ को छह सप्ताह का समय दिया था।

दरअसल, शहरों में घर खरीदने वालों के लिए बैंकों ने ब्याज अनुदान योजना शुरू की है। इसके तहत बैंक स्वीकृत राशि सीधे भवन निर्माता के खातों में जमा करते हैं, जिन्हें तब तक स्वीकृत ऋण राशि पर किस्त का भुगतान करना होता है, जब तक कि आवास खरीदारों को नहीं सौंप दिए जाते। सर्वोच्च न्यायालय ऐसे 1,200 से अधिक घर खरीदारों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है, जिन्होंने एनसीआर, विशेष रूप से नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गुरुग्राम में विभिन्न आवास परियोजनाओं में ब्याज अनुदान योजनाओं के तहत आवास बुक किए थे। याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि आवास का कब्जा अभी तक नहीं मिला है और बैंक उन्हें कर्ज की किस्तों का भुगतान करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि बैंक नियमों के विपरीत घर खरीदारों पर दबाव क्यों बना रहे हैं? साफ है कि बैंकों का यह रवैया आपसी मिलीभगत की ओर इशारा करता है और यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने इन मामलों में कड़ा संज्ञान लिया है। दूसरी ओर सरकार को भी इस तरह के मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए। विभिन्न परियोजनाओं के तहत घर खरीदने की पेशकश करने वाले भवन निर्माताओं और कर्ज देने वाले बैंकों पर नजर रखने के लिए माकूल निगरानी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए, ताकि खरीदारों के हितों की रक्षा हो सके।


Date: 25-09-25

असंतुलन की जड़ें

संपादकीय

हरियाणा में लड़के और लड़कियों की संख्या में समानता लाने की दिशा में प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसका कारण समाज के एक बड़े हिस्से की सोच में बदलाव नहीं आना तो है ही, साथ ही सरकारी महकमों का लापरवाह रवैया भी इसके लिए उतना ही जिम्मेदार है। नतीजा यह कि राज्य कई वर्षों से लिंगानुपात में असंतुलन की समस्या से जूझ रहा है। निस्संदेह जब तक लड़के-लड़कियों में भेदभाव खत्म नहीं होगा, तब तक स्थिति बदलने वाली नहीं। हालांकि राज्य सरकार के कुछ सुधारात्मक कदमों से लिंगानुपात में थोड़ा सुधार हुआ है। इस वर्ष एक जनवरी से बाईस सितंबर तक राज्य में लिंगानुपात एक हजार लड़कों पर 907 लड़कियां हो गया है, जो कि पिछले वर्ष इसी अवधि में 904 था। मगर चिंता की बात यह है कि राज्य के ग्यारह जिलों की तस्वीर अब भी नकारात्मक है। इससे यह भी पता चलता है कि राज्य में भ्रूण परीक्षण की पाबंदी पर सख्ती से अमल नहीं हो पा रहा है। ऐसे में प्रदेश सरकार ने गंभीरता दिखाते हुए लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है।

सवाल यह है कि लिंगानुपात में असंतुलन क्यों है ? दरअसल, इसकी जड़ें सामाजिक सोच और पुरानी मान्यताओं में दबी हैं। इससे समाज आज तक उबर नहीं पाया है। नब्बे के दशक में भ्रूण का पता लगाने की तकनीक का जो दुरुपयोग शुरू हुआ, वह बढ़ता चला गया। इसे रोकने के लिए कड़े कानून बनाए गए, लेकिन उन पर सख्ती से अमल नहीं हुआ। वर्ष 2001 की जनगणना में हरियाणा में लिंगानुपात 861 तक गिर गया था। हालांकि राज्य में लगातार जागरूकता अभियान चलाने के बाद स्थिति थोड़ी सुधरी। वर्ष 2019 में यह अनुपात 923 तक तक पहुंच गया। मगर पिछले वर्ष यह फिर घट गया। इससे स्पष्ट है कि सरकार के सामने चुनौतियां कम नहीं हुई हैं। इस दिशा में जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है। परिवारों की उस सोच को भी बदलना होगा, जो बेटियों को आज भी बोझ मानते हैं। आज जरूरत है बेटियों के जन्म को सम्मान और समानता के नजरिए से देखने की।


Date: 25-09-25

नवीकरणीय ऊर्जा की चुनौतियां

गिरीश पांडे

पिछले एक दशक में भारत की ऊर्जा यात्रा उल्लेखनीय परिवर्तन की साक्षी बनी है। तीव्र क्षमता वृद्धि, सौर और पवन ऊर्जा में वैश्विक नेतृत्व और नवोन्मेषी फ्लैगशिप कार्यक्रमों के साथ भारत स्वच्छ और आत्मनिर्भर ऊर्जा की ओर तेजी से अग्रसर है। भारत में स्वच्छ ऊर्जा न केवल कार्बन उत्सर्जन को कम कर रही है, बल्कि हरित रोजगार भी पैदा कर रही है। ऊर्जा की पहुंच में सुधार हो रहा है, और वैश्विक जलवायु नेतृत्वकर्ता के रूप में भारत की भूमिका दिनोंदिन मजबूत हो रही है।

पिछले महीने गुजरात के हंसलपुर में एक कार्यक्रम के दौरान हरित गतिशीलता योजनाओं का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि स्वच्छ ऊर्जा और स्वच्छ गतिशीलता एक वैश्विक केंद्र के रूप में भारत के भविष्य को आकार देंगे। मार्च, 2014 से जून, 2025 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता लगभग तीन गुना बढ़ कर 226.8 गीगावॉट हो गई है। सौर ऊर्जा उत्पादन 1 लाख 8 हजार गीगावॉट प्रति घंटे से भी ज्यादा हो गया है, जिससे भारत जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सौर ऊर्जा उत्पादक बन गया है।

जुलाई, 2025 की स्थिति के अनुसार देश में अब पचास प्रतिशत स्थापित बिजली क्षमता गैर-पारंपरिक ईंधन स्रोतों से चालित है, और भारत ने यह लक्ष्य निर्धारित समय से पांच वर्ष पूर्व ही हासिल कर लिया है। यह उपलब्धि जहां पेरिस समझौते के अंतर्गत नेशनल डिटरमाइंड कांट्रिब्यूशन (एनडीसी) की प्रतिबद्धता के लिए निर्धारित लक्ष्य से पांच साल पहले ही प्राप्त कर ली गई वहीं देश जलवायु परिवर्तन की रोकथाम और टिकाऊ विकास के प्रति संकल्पित है, और स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने की गति लगातार बढ़ रही है। इसमें सौर, पवन, पनबिजली, जैव एवं परमाणु ऊर्जा शामिल हैं। कुल 484.82 गीगावॉट स्थापित क्षमता में इन नवीकरणीय स्रोतों की हिस्सेदारी 242.78 गीगावॉट हो गई। यह किसी भी विकासशील देश के लिए बहुत दुर्लभ मामला है, जिसने अपने लिए निर्धारित लक्ष्य से पहले ही ऐसी सफलता प्राप्त की। आज गैर – जीवाश्म स्रोत कुल बिजली उत्पादन का 49% हिस्सा दे रहे हैं। इसका श्रेय उत्पादन- आधारित प्रोत्साहन – पीएलआई योजना- जैसे क्रांतिकारी प्रयासों को जाता है। यह कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन खत्म करने के वैश्विक प्रयासों के लिए देश की प्रतिबद्धता की पुष्टि है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाना इसलिए और अनिवार्य हो गया है कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अकेले जीवाश्म ईंधनों की हिस्सेदारी करीब तीन-चौथाई है ।

भारत की रणनीति भी बहुत व्यावहारिक है । वह जीवाश्म ईंधनों से एकाएक पीछा नहीं छुड़ा रहा और कोयला एवं गैस आधारित संयंत्र अभी भी प्रमुख ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बने हुए हैं। चूंकि भारत ने 2030 तक गैर-जीवाश्म क्षमता को 500 गीगावॉट तक ले जाने और 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है, तो उसे ग्रिड आधुनिकीकरण, ऊर्जा भंडारण, क्लीन टेक मैटीरियल रिसाइक्लिंग और ग्रीन हाइड्रोजन जैसे आधुनिक ईंधनों में निवेश बढ़ाना ही होगा।

प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम होने के बावजूद स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में हुई यह प्रगति मूल्यवान है, और भारत जी-20 के उन चंद देशों में शामिल है, जो जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं। सोलर पार्क और विंड कारिडोर स्वच्छ ऊर्जा में निवेश को लुभाने में भी सहायक बने हैं। उल्लेखनीय है कि बीते दशक में सौर एवं पवन ऊर्जा की लागत 80 प्रतिशत से भी अधिक घट गई है। इसके चलते कई क्षेत्रों में सौर-पवन ऊर्जा की लागत कोयले और गैस से बनने वाली बिजली से भी किफायती हो गई है। नवीकरणीय ऊर्जा कीमतों में स्थायित्व प्रदान करने के साथ ही यह ऊर्जा स्वतंत्रता भी सुनिश्चित करती है। एक बार इंस्टाल होने के बाद उसमें लागत लगभग नगण्य रह जाती है।

कॉप शिखर सम्मेलनों में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के प्रति की गई वचबद्धता भी पूरी नहीं हो रही है, इस बाबत भारत कॉप शिखर सम्मेलनों में इस मुद्दे को बराबर उठाता रहा है। अमेरिका में अभी भी 60 प्रतिशत से अधिक बिजली जीवाश्म ईंधनों से पैदा हो रही है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जिसकी आधी से अधिक बिजली अभी भी कोयले से बनती है। इसलिए विश्व की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश के तौर पर अमेरिका और चीन की जिम्मेदारी है कि अपने उत्सर्जन में तेजी से कमी लाएं, विकासशील देशों को वित्त और तकनीकी सहयोग दें, स्वच्छ ऊर्जा नवाचार साझा करें और प्रतिस्पर्धा से ऊपर उठ कर वैश्विक सहयोग को बढ़ाएं।


Date: 25-09-25

लद्दाख की चिंता

संपादकीय

केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में विरोध प्रदर्शन, पुलिस के साथ झड़प और आगजनी दुखद व चिंताजनक हैं। लद्दाख में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो अपने केंद्रशासित प्रदेश को पूर्ण राज्य के रूप में देखना चाहते हैं। ऐसे लोगों और विशेष रूप से युवाओं ने राजधानी लेह में बुधवार को बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए हैं। उनकी पुलिस से झड़प हुई। पुलिस ने कथित तौर पर आंसू गैस के गोले दागे और लाठीचार्ज भी किया, जिससे विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी एकत्र हुए और उन्होंने लेह में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में आग लगा दी और उसके बाहर खड़े वाहनों को फूंक दिया। आम तौर पर बेहद शांत रहने वाले लद्दाख के लिए यह बहुत बड़ी घटना है। यहां न लोग उग्र होते हैं और न पुलिस को कभी बल प्रयोग करना पड़ता है। चिंता इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि विवाद को सुलझाने के लिए 6 अक्तूबर को संवाद प्रस्तावित है। इस बातचीत में सरकार और लद्दाख के प्रतिनिधि शामिल होंगे। लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के सदस्य शामिल होंगे। जब बातचीत होने ही वाली है, तो ऐसे विरोध प्रदर्शन की क्या जरूरत थी ?

वास्तव में, यह पूरा आंदोलन राजनीतिक प्रवृत्ति का है। इस प्रदर्शन को साफ तौर पर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। कहा जा रहा है कि ताजा विरोध प्रदर्शन छठी अनुसूची के विस्तार और लद्दाख को राज्य का दर्जा देने के संबंध में केंद्र के साथ बातचीत को अनुकूल दिशा में जाने की रणनीति का हिस्सा है। लदाख में ऐसे उम्र प्रदर्शन के पीछे जो लोग हैं, उन पर विशेष निगाह रखने की जरूरत है। गौर करने की बात है कि देश भर में प्रसिद्ध जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक भी इस आंदोलन का हिस्सा है। वह इन दिनों भूख हड़ताल पर हैं और उन्होंने प्रदर्शन में हिंसा का विरोध किया है। वांगचुक ने शांति की अपील की है। वह शांतिपूर्ण आंदोलन के पक्ष में हैं और उन्होंने लेह की घटनाओं को उचित ही दुखद करार दिया है। उन्होंने कहा है कि शांतिपूर्ण आंदोलन का मेरा संदेश आज विफल हो गया। अगर बुवा गलत रास्ते पर जाएंगे, तो इससे हमारे उद्देश्य को नुकसान पहुंचेगा। वाकई, लद्दाख के संयमी समाज को सतर्कता और संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए। लद्दाख की जो भौगोलिक स्थिति है, उसे देखते हुए वहां के लोगों को कानून-व्यवस्था के प्रति विशेष रूप से सजग रहना चाहिए।

लदाख अभी साल 2019 में ही केंद्रशासित प्रदेश बना है और इसका वहां लोगों ने स्वागत किया था। इस क्षेत्र को कश्मीर घाटी के वर्चस्व से मुक्ति मिली थी, पर वहां के लोगों की महत्वाकांक्षा को राजनीति ने ही हवा दी। अगर लद्दाख को राज्य बनाने का वादा किया गया था, तो इस पर गंभीरता से काम होना चाहिए या फिर व्यापक पैमाने पर युवाओं को विश्वास में लेना चाहिए। यह आंदोलन और उसमें हिंसा राजनीति का ही हिस्सा है। इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि लद्दाख की आबादी तीन लाख भी नहीं है और भारत में सबसे कम आबादी वाले राज्य सिक्किम में भी छह लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। इसके अलावा यह बताया जाता है कि लद्दाख बदल रहा है, पर वहां प्रति वर्ग किलोमीटर जन- घनत्व लगभग पांच है। अतः एक सुदृढ़ राज्य बनाने से पहले पूरी ईमानदारी से सोचना चाहिए, लेकिन सबसे जरूरी है कि लद्दाख के लोगों को उनके विकास के प्रति आश्वस्त किया जाए। ऐसे प्रयास किए जाएं, ताकि वहां किसी तरह का असंतोष न फैले।