
28-02-2025 (Important News Clippings)
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Date: 28-02-25
Arresting Thoughts
How’s an ‘anti-national slogan, however defined, a crime? What about the right to free speech?
TOI Editorials
Once again, that undefined-in-law non-offence, ‘anti-India’ slogan, is a reason for police action. A 14-year-old boy and his parents in Navi Mumbai were deemed threats because of the teen’s vocal support for Pakistan’s cricket team, voiced inside his house. Courts will-incredibly-now be asked to determine whether any Indian cheering a rival team can disrupt India’s harmony, or harm the nation. But even as things stand, the case unravels itself. Police acted swiftly upon a complaint by locals walking by the house who heard the boy cheering during Sunday’s India-Pakistan cricket match. They confronted the parents, who stood by their son. Over to cops, who obliged by arresting the parents and sending the teen to a remand home. No less egregious was the fact that administration found enough cause to raze the scrap dealer’s business place within two days, on the fig leaf of the property being “unauthorised”.
First, the arrests. Police promptly filed an FIR under BNS Sections 196 (promoting enmity between groups, doing acts prejudicial to mainte- nance of harmony) and 197 (imputations/ assertions prejudicial to national integ- ration). These are serious allegations that invite up to three years in jail. Surely police should be trained enough to know these clauses don’t apply, by simple common sense. But clearly, since they acted basis locals reportedly saying there were “vulgar” slogans, misapplication of the law wasn’t an issue for cops.
But more important is the issue of the constitutional guarantee for freedom of speech. Are we to believe that cheering Pakistan weakens the Indian state, and therefore ‘reasonable restrictions’ apply? If the issue weren’t so serious, the question would be deemed absurd. India’s govts, politicians, govt officers and cops must ask themselves what they say about this country when they arrest people who have broken no law. Courts must make it clear that ‘anti- national slogans’ don’t constitute a crime.
Second, the razing of a place of trade is flagrant violation of the Supreme Court’s detailed guidelines issued in Nov 2024 to be followed before tearing down alleged unauthorised construction. Directions included a 15-day prior notice to the owner, and a step-by- step process including a date to hear the owner. But for Sindhudurg district’s Malvan municipal council, this was unnecessary. Letters from cops and the local MLA were reason enough. SC had said officials flouting its directive would be prosecuted and officers would have to restore demolished structures at personal cost. Courts should remember this too.
Date: 28-02-25
यूरोप से हमारी ट्रेड-वार्ता महत्वपूर्ण साबित होगी
संपादकीय
यूरोपियन आयोग की अध्यक्ष की 20 आयुक्तों के साथ भारत में दो-दिवसीय ट्रेड वार्ता अनायास नहीं है। संकेत है कि भारत और आयोग दोनों मजबूत ट्रेड बांड्स के लिए तैयार होने के उद्देश्य से यह बैठक कर रहे हैं। जहां भारत को छोड़ कर ब्रिक्स के सभी चार प्रमुख सदस्यों ने डब्ल्यूटीओ में ईयू के खिलाफ मुकदमा कर रखा है, वहीं भारत इस आशा में है कि उसके साथ ईयू का फ्री ट्रेड एग्रीमेंट संभव हो सकेगा। ट्रम्प की चुनौती के बाद यूरोप को ट्रेड के नए रस्ते अपनाने होंगे। पहले फ्रांस के राष्ट्रपति और फिर ब्रिटेन के पीएम का अमेरिका जाकर ट्रम्प से मिलना महत्वपूर्ण है। ट्रम्प ने उन्हें कोई आश्वासन नहीं दिया, ना ही ब्रिटेन या फ्रांस ने अपने रवैये में कोई लचीलापन दिखाया। ब्रिटेन ने रक्षा बजट जीडीपी का 2.5% करने और जल्द ही 3% तक बढ़ाने की बात कहकर अमेरिका को चुनौती दी है। फ्रांस भी लगातार ईयू के सदस्य देशों से मिलकर यूक्रेन को हरसंभव मदद देने की बात कर रहा है। थोपे गए युद्ध से कराहते यूक्रेन के राष्ट्रपति का अमेरिका में झुककर खनिज बेचने का समझौता ईयू के सदस्य देशों को हजम नहीं हो रहा है। चीन पर भरोसा नहीं है। लिहाजा भारत ही एक ऐसा बड़ा देश है, जहां से ट्रेड में लचीलापन लाकर व्यापार किया जा सकता है। ईयू जानता है कि भारत को भी मैन्युफैक्चरिंग सामान के अलावा कृषि उत्पाद के लिए बाजार की तलाश है।
Date: 28-02-25
लालफीताशाही से निजात
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘विनियमन आयोग’ का गठन करने प्रधान की अपनी सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया है। इसका उद्देश्य मौजूदा नियमों में कटौती करना और नए निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना है। पुराने नियमन को हटाने की बात कुछ सप्ताह पहले संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा और केंद्रीय बजट में भी कही गई थी। अब महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विनियमन का काम कितनी गहराई से और कितने टिकाऊ स्तर पर किया जाएगा। ‘जन विश्वास’ नामक एक विधेयक पहले ही पारित किया जा चुका है जो कुछ नागरिक अपराधों की आपराधिकता को समाप्त करता है। वादा किया गया है कि ऐसा ही एक अन्य विधेयक लाकर तकरीबन 100 छोटे-मोटे अपराधों की आपराधिकता समाप्त की जाएगी। उनकी जगह जुर्माने की व्यवस्था की जाएगी। ये अहम कदम हैं। परंतु इनकी बदौलत दृष्टिकोण में बदलाव नहीं आएगा बल्कि दशकों से बनी दमनकारी राज्य मशीनरी के दंडात्मक पहलुओं को कम किया जाएगा।
सरकार को नए आयोग से कहना चाहिए कि वह सभी वर्तमान नियमन का व्यापक आकलन करे। उनका हर कोण से आकलन होना चाहिए। पहला, उन्हें जिस उद्देश्य से बनाया गया था क्या वे अभी भी प्रासंगिक हैं? दूसरा, क्या वे उद्देश्य प्राप्ति में सफल रहे? तीसरा, उन्होंने नागरिकों, उद्यमियों और निवेशकों पर क्या लागत डाली। इस लागत की लाभ से तुलना करनी चाहिए ताकि पता चल सके। आदर्श स्थिति में ऐसी कवायद नियमन लाने के पहले पारदर्शी तरीके से अंजाम दी जानी चाहिए। परंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि सरकार या स्वतंत्र नियामकों ने ऐसा किया हो। यह अच्छी आदत नहीं है और अन्य उदार लोकतांत्रिक देशों के विपरीत है। यहां तक कि उच्च नियमन वाले यूरोपीय देशों से भी अलग नीतिगत बदलावों के सार्वजनिक जोखिम और पुरस्कार आकलन का अभाव और नियम निर्माण की कमी, समग्र नीतिगत ढांचे को नहीं बल्कि एक व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है जो अफसरशाही को मजबूत बनाता है। विनियमन आयोग को इस रुख से दूरी बनानी होगी। इस लिहाज से देखे तो आयोग के कर्मचारियों की नियुक्ति एक अहम चयन होगा। इसमें सेवानिवृत्त कर्मचारियों को नहीं भर लिया जाना चाहिए जो यही मानते हैं कि विनियमन में सुधार होना चाहिए।
किसी एक विनियमन की लागत चाहे जो भी नजर आए, उसकी वास्तविक लागत निस्संदेह तब अधिक होती है जब यह ढेर सारे कानूनों और प्रतिबंधों के समूह का हिस्सा होता है। जो राज्य के रुख को दर्शाता है। समग्रता में यह टुकड़ों की तुलना में अधिक होता है। यह भारत के नियामकीय ढांचे की जटिल और आंतरिक स्तर पर विरोधाभासी स्थिति है जो किसी अन्य चीज से अधिक निवेशकों के उत्साह को कम करने और विनियमन वाले क्षेत्रों में नई पूंजी के निवेश की उनकी इच्छा को कम करती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उदाहरण के लिए विनिर्माण क्षेत्र में ऑनलाइन खुदरा व्यापार या ऐप अर्थव्यवस्था की तुलना में बहुत कम उत्साह नजर आता है। भले ही पहला क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता में हो लेकिन बाद वाले क्षेत्र में नियामक तंत्र बहुत कम दखल देने वाला है। सार्वजनिक निवेश को नई गति देने के लिए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि निवेशक यह मानें कि उनके सामने एक नई पेशकश की जा रही है जो अतीत से अलग है। यह महत्त्वपूर्ण होगा कि सभी राज्य इस मिशन में सहयोग करें ताकि देश को निवेशकों के अनुकूल बनाया जा सके। बीते दशक में और इस सरकार के सत्ता में रहते यह प्रयास बार- बार किया गया है कि कारोबारियों के अनुकूल निवेशक नीतियों को प्राथमिकता के रूप में दर्शाया जाए। विनियमन को अगर सही ढंग से अंजाम दिया गया तो वह इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मददगार होगा।
Date: 28-02-25
समझौते से आस
संपादकीय
एक ओर रूस के साथ युद्ध में उलझा यूक्रेन अपने हालात संभालने की कोशिश में लगा है, तो दूसरी ओर उसे अमेरिका के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष, कई तरह के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। यों रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध के समांतर इस बात की भी आशंका पहले से जताई जा रही थी कि युद्ध में भविष्य की जरूरतों के मुताबिक यूक्रेन में मूल्यवान खनिज पदार्थों के भंडार पर अमेरिका और रूस कब्जा करने की कोशिश में हैं। अब अमेरिका और यूक्रेन के बीच जिस समझौते पर कदम बढ़ाने की खबर आई है, उससे इस आशंका की पुष्टि होती है कि यूक्रेन शक्तिशाली देशों के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है। गौरतलब है कि दोनों देशों के बीच दुर्लभ खनिजों के दोहन संबंधी समझौते के साथ-साथ एक व्यापक आर्थिक करार की रूपरेखा पर सहमति बन गई है। मगर इसी के साथ युद्ध में यूक्रेन को अमेरिकी मदद के परिप्रेक्ष्य पर स्वाभाविक ही सवाल उठे हैं।
दरअसल, यूक्रेन में दुर्लभ खनिजों के एक बड़े भंडार को लेकर पहले भी जद्दोजहद चलती रही है। उन खनिजों के भंडार का कुछ हिस्सा अब रूस के कब्जे में है। इसमें अमेरिका की दिलचस्पी कोई नई बात नहीं है। अब रूस ने भी अमेरिका की राह की राह में रोड़ा न अटकाने का भरोसा दिया है। हालांकि इस मसले पर अमेरिका के साथ ताजा सहमति से पहले खनिज समझौते के प्रस्ताव के मामले में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की का रुख स्पष्ट रूप से ‘अपने देश को नहीं बेचने’ का रहा था। दरअसल, यूक्रेन में जिन बेहद अहम खनिजों के खजाने पर अमेरिका और रूस की नजर है, उनका इस्तेमाल आधुनिक हथियार और इलेक्ट्रिक कारों और इस तरह के कई सामान बनाने में होता है। फिलहाल ऐसे खनिजों के मामले में चीन काफी आगे है। यह छिपा नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के बारे में क्या राय रखते हैं राष्ट्रपति बनने से पहले और उसके बाद भी ट्रंप ने इस युद्ध को ख़त्म करने के पक्ष में अपनी साफ राय जाहिर की है, क्योंकि वे इस स्थिति को अमेरिका के लिए नुकसानदेह मानते हैं।
हालांकि यूक्रेन और अमेरिका के बीच इस संबंध में समझौते की जिस रूपरेखा पर फिलहाल सहमति बनी है, उसे एक व्यापक समझौते की दिशा में शुरुआती कदम माना जा रहा है, लेकिन यह तभी अपने मौजूदा संदर्भ में जमीन पर उतर पाएगा, जब इसे यूक्रेन की संसद में मंजूरी मिल जाएगी। सच यह है कि रूस के साथ युद्ध में अपनी ताकत को लेकर यूक्रेन का दावा चाहे जो रहा हो, मगर सच यह है कि अगर अमेरिका का आश्वासन न हो तो उसके सामने कई जटिल चुनौतियां खड़ी हो जा सकती हैं। यही वजह है कि अमेरिका के साथ ताजा समझौते के समांतर यूक्रेन अपने लिए अमेरिका से अपने लिए सुरक्षा गारंटी और निरंतर सैन्य समर्थन की उम्मीद कर रहा है। मगर अमेरिका में सत्ता बदलने और डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद जो नई परिस्थितियां पैदा हुई हैं, उसमें अपने क्षेत्र में खनिजों के दोहन पर सहमति देने के बदले यूक्रेन को क्या गारंटी मिलती है, यह देखने की बात होगी । यों अब तक समझौते के बावजूद अमेरिका ने इस मसले पर कोई स्पष्ट गारंटी नहीं दी है, जबकि यह समझौते के लिए यूक्रेन की ओर से सबसे अहम शर्त थी। फिर भी ताजा समझौते से यह आस जगी है और माना जा रहा है कि युद्ध विराम की कोशिशों में तेजी आ सकती है।
Date: 28-02-25
अधिकार क्षेत्र की बात
संपादकीय
दोषी करार दिए गए नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लगाने वाली याचिका का केंद्र सरकार ने विरोध किया है। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में सरकार ने कहा आजीवन प्रतिबंध लगाना उपयुक्त होगा या नहीं, यह पूरी तरह संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। केंद्र का कहना है, याचिका में जो अनुरोध किया गया है वह विधान को फिर से लिखने या संसद को विशेष तरीके से कानून बनाने का निर्देश देने सरीखा है । दागी नेताओं के बचाव में मोदी सरकार यूं ही नहीं नजर आ रही । उसके 39 फीसद मंत्री भी दागी हैं। 2009 की लोकसभा में केवल 30 फीसद दागी नेता थे, जबकि 2024 में यह बढ़कर 46 फीसद हो चुका है। 251 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें भी 27 सांसदों को अदालतों द्वारा दोषी करार दिया जा चुका है। केरल, तेलंगाना, ओडिसा के 95, 82, 76 फीसद दागी हैं तो झारखंड, बिहार व बंगाल के 71, 53, 52 फीसद दागी सांसद हैं। उप्र, हिमाचल व महाराष्ट्र के आधे यानी 50 फीसद सांसद दोषी हैं। बहरहाल, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा8 (1) के तहत अयोग्यता की अवधि दोषसिद्धि की तारीख से छह साल या कारावास के मामले में रिहाई की तारीख से छह साल है। शीर्ष अदालत के समक्ष आने वाले दोषी नेताओं के मसलों पर हमेशा यह सवाल खड़ा होता है। पारदर्शिता, भ्रष्टाचार मुक्ति व पक्षपात के खिलाफ बढ़-चढ़कर बोलने वाली मोदी सरकार दागियों को पार्टी में शामिल करने, उन्हें टिकट देने और मंत्री बनाने तनिक हिचकती नहीं नजर आती । गंभीर मामलों के दोषियों को माननीय का चोला ओढ़ाने में सरकार की भूमिका स्पष्ट है। देश भर के राजनीतिक दलों का यही हाल है। यही कारण है, इस गंभीर बात पर कोई चीख – चिल्लाहट नहीं मचती। राजनीति में स्वच्छ छवि वालों का टोटा होता जा रहा है। हालांकि सिर्फ राजनीतिक कीचड़ उछालने के लिए छद्म आरोपों का भी कम इस्तेमाल नहीं किया जाता है। मगर त्वरित आरोपों को सुलझाने की व्यवस्था भी की जा सकती है। कानून बनाने वाले सम्मानियों का दोषमुक्त नजर आना बेहद जरूरी है। लोकतंत्र का अर्थ यह कदापि नहीं होना चाहिए कि सजायाफ्ताओं को देशवासी सम्मान देने को मजबूर हों । संसद का अधिकार क्षेत्र सर्वोपरि है मगर सांसदों के चरित्र और दोषमुक्त होने के प्रति जवाबदेही राजनीतिक दलों की होनी चाहिए।