
05-02-2025 (Important News Clippings)
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USAID Freeze Could Aid India in Region
To extend help, it will need a Saarc-like body
ET Editorial
The Trump administration’s decision to freeze USAID humanitarian assistance in South Asia is not a game changer because of the region’s overdependence on debt, causing greater distress. As an emerging market region, South Asian governments collectively are among the most highly indebted. Almost half of the debt is owed to multilateral creditors, followed by bilateral creditors and bondholders. In comparison, multilateral and bilateral aid flows to the region have been relatively flat despite South Asia being the second-highest recipient globally. Within these broader trends, China has consistently increased its presence as a creditor, while US engagement has been sporadic. Donald Trump’s effort to fold USAID into the state department will not destabilise the debt-aid dynamics of the region.
This is primarily due to India, which accounts for the biggest share of South Asian borrowings and led G20 efforts to reduce debt distress in the developing world after the pandemic. It is also among the top five creditor countries in South Asia. With Chinese debt service obligations reaching unmanageable proportions and the US aid spigot drying up periodically, India may have a constructive role to play. For that, it will need an instrument such as Saarc, which is in limbo.
Trump will work on all the levers of investment, trade, credit and aid to deliver US isolation. This will also have a bearing on South Asia, which receives a big part of its remittance flows from the US. But the region’s surplus workforce creates a special place for it in a world economy increasingly dependent on migration. If it can operate within Trump’s sensitivity to illegal immigration, tariffs and strategic alignments, South Asia can avoid some of the damage caused by trade fragmentation. New Delhi’s engagement with Washington could chart out a beneficial outcome for South Asia. This would be another way to increase India’s position in its neighbourhood, whose experience of conducting business with the world’s biggest economies has been fraught.
Date: 05-02-25
Finally, a Holistic Mission Minerals
ET Editorial
It has been an important week for building the blocks of India’s energy transition: a clear, holistic approach for a critical minerals policy. Just days ahead of budget, the Union Cabinet approved the ₹12,400 cr National Critical Minerals Mission (NCMM) that had been announced in the July 2024 budget. This was followed up by Nirmala Sitharaman announcing a tailings policy — set of guidelines for managing waste materials from mining operations — and duty exemptions for nonferrous scrap as source of critical minerals.
A comprehensive approach on critical minerals was long overdue. Earlier efforts had been piecemeal, not building into clear policy and a roadmap. In 2019, a Nalco-HCL-MECL joint venture — Khanij Bidesh India Ltd (KABIL) — was set up to acquire critical mineral sources outside the country. It took another four years to identify 30 critical minerals. Two years later, policies and measures for securing long-term sustainable supply and strengthening value chains have been finalised. NCMM sets out the approach till 2030-31, addressing domestic production, acquisition of assets abroad, recycling of critical minerals as well as issues related to trade, R&D, HR and financing.
The mission must be reviewed regularly to remain fit for purpose. Augmenting production shouldn’t impose undue environmental and biodiversity costs. Including the environment, forests and climate change ministry in the empowered committee will avoid this. To secure assets abroad, India should explore strategic partnerships, including local production and value addition, especially in other developing countries. The resource efficiency policy must be finalised to maximise use of critical minerals, their recovery from secondary sources and recycling.
Date: 05-02-25
India-Indonesia ties as a beacon for global relations
Anindya Bakrie, [ Chair of the Indonesian Chamber of Commerce and Industry (KADIN), and the CEO of Bakrie & Brothers ]
Date: 05-02-25
काम के घंटे नहीं, बल्कि उत्पादकता बढ़नी चाहिए
संपादकीय
पिछले 20 वर्षों में पड़ोसी चीन के कामगारों की प्रति घंटे उत्पादकता 4.4 गुना बढ़ी है, जबकि भारत की 2.5 गुना । दरअसल भारत कर्मचारी उत्पादकता में दुनिया में 130वें स्थान पर है, जबकि सप्ताह कार्य अवधि के पैरामीटर पर ऊपर। चीन ने भी अब अपना ‘9- 9-6’ (सुबह 9 से रात 9 तक 6 दिन काम) का फॉर्मूला छोड़ दिया, क्योंकि अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा घंटे काम करने से उत्पादकता घट रही है। यूके, जापान और अमेरिका में कर्मचारी सप्ताह में सबसे कम घंटे क्रमशः ( 35.1, 36.9 और 38 ) काम करते हैं लेकिन प्रति कर्मचारी उत्पादकता सबसे ज्यादा है। जबकि भारत के कामगार लगभग दूना समय काम करके भी उनकी उत्पादकता का दसवां हिस्सा भी नहीं दे पाते। इसका मतलब है कि किसी कर्मचारी की उत्पादकता उसके ज्यादा समय तक काम करने से नहीं, बल्कि उस उद्यम की किस्म और कर्मचारी की स्किल्स से तय होती है। यह भी देखा गया है कि जिन देशों में श्रम-समर्थक सिस्टम या कानून हैं, वहां की उत्पादकता ज्यादा है। क्योंकि उद्यमी या कॉर्पोरेट घराने श्रमिकों की स्किल्स पर समय-समय पर तकनीकी के विकास के अनुरूप खर्च करते हैं। अधिकांश सीईओ स्थापित सिद्धांतों की अनदेखी कर शोषणकारी व्यवस्था ला रहे हैं, नतीजतन उत्पादकता बढ़ने की जगह घट रही है।
Date: 05-02-25
ट्रम्प की वापसी अमेरिका में प्रगति के युग का अंत है
यूएस जोसेफ श्टाइलाइट्ज, ( अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर )
35 साल पहले यूरोप में साम्यवाद के पतन ने दुनिया को एक नए युग में प्रवेश कराया था। फ्रांसिस फुकुयामा ने इसे इतिहास का अंत कहा था, यह भविष्यवाणी करते हुए कि सभी समाज अंततः उदार लोकतंत्र और बाजार अर्थव्यवस्थाओं की ओर बढ़ेंगे। लेकिन आज यह कहना लगभग एक घिसी-पिटी बात बन गया है कि यह भविष्यवाणी गलत थी। लेकिन उसके साढ़े तीन दशकों के बाद अब डोनाल्ड ट्रम्प और उनके मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) आंदोलन की वापसी के साथ, शायद हमें मौजूदा युग को प्रगति का अंत कहना चाहिए। हममें से अधिकांश लोग प्रगति को स्वाभाविक मानते हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि 250 साल पहले का जीवन-स्तर 2,500 साल पहले के जीवन स्तर से बहुत अलग नहीं था | पश्चिम में पुनर्जागरण के युग और औद्योगिक क्रांति तक जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में बड़े सुधार नहीं हुए थे।
पुनर्जागरण के विचारकों ने इस बात को समझा था कि वैज्ञानिक प्रयोग और इनोवेशन लोगों को प्रकृति को समझने और नई, परिवर्तनकारी तकनीकों का निर्माण करने में मदद कर सकते हैं। सामाजिक विज्ञान समाज के सभी सदस्यों के लिए स्थितियों में सुधार के प्रयासों में योगदान दे सकते हैं। ऐसे प्रयासों के लिए कानून के शासन की आवश्यकता थी ताकि निरंकुशता को हटाया जा सके। साथ ही इसके लिए सत्य के लिए सम्मान को गफलत पर विजय प्राप्त करना जरूरी था और मानव मामलों में विशेषज्ञता का उत्थान होना भी । मागा क्रांति की सबसे परेशान करने वाली विशेषताओं में से एक इन मूल्यों का स्पष्ट अस्वीकार है।
तो क्या प्रगति जारी रह सकती है? जैसे सोवियतों ने स्पुतनिक लॉन्च किया था, वैसे ही हम ट्रम्प और उनके दरबारियों को स्पेस और एआई के क्षेत्र में उल्लेखनीय तकनीकी उपलब्धियों की अगुवाई करते देख सकते हैं। लेकिन क्या हम वास्तव में अमेरिका के नए कुलीन-तंत्र से समावेशी प्रगति की उम्मीद कर सकते हैं?
वर्तमान में सत्ता में बैठे लोग पूरी तरह से धन की खोज से प्रेरित हैं, और इसे शोषण के जरिए हासिल करने से उन्हें कोई संकोच नहीं है। उन्होंने पहले ही अपने निजी हितों को व्यापक हेरफेर और गलत सूचनाओं के माध्यम से आगे बढ़ाने के लिए बाजार की ताकत और मीडिया और टेक्नोलॉजी से जुड़े प्लेटफार्मों का लाभ उठाने में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।
आज की अमेरिकी शैली का भ्रष्टाचार उसके अतीत के रूपों से जिन मायनों में अलग है, वह है उसकी विशालता और निर्लज्जता । 100 डॉलर के नोटों को भूरे कागज के लिफाफों में भरने का विचार अब बाबा आदम के जमाने का लगता है। आज अमेरिकी कुलीन-तंत्र खुले तौर पर एक राजनेता के चुनाव अभियान में सैकड़ों मिलियन डॉलर का योगदान कर सकता है। 15 साल पहले बराक ओबामा के प्रशासन से टेस्ला को मिला 465 मिलियन का बिना शर्त का कर्ज अब आने वाले समय की तुलना में मामूली ही लगेगा।
प्रगति के लिए बुनियादी विज्ञान और एक शिक्षित श्रम-शक्ति में निवेश की आवश्यकता होती है। फिर भी अपने पहले कार्यकाल के दौरान, ट्रम्प ने रिसर्च के लिए फंडिंग में इतनी बड़ी कटौती का प्रस्ताव रखा कि उनके साथी रिपब्लिकन भी हिचकिचा गए थे। क्या वे इस बार भी उन्हें रोकने की वही इच्छा दिखाएंगे? ऐसे में क्या प्रगति अभी भी संभव है, जब ज्ञान के उन्नयन और प्रसारण के लिए जिम्मेदार संस्थानों पर लगातार हमले हो रहे हों ?
Date: 05-02-25
कामकाजी महिलाओं की चुनौतियां
अजय जोशी
वैश्वीकरण के दौर में शुरू किए गए आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों के फलस्वरूप महिलाओं की तुलना में पुरुषों को आमतौर पर अपेक्षाकृत अधिक प्रशिक्षण और रोजगार के अवसर मिले। इसके कारण अधिकतर महिलाओं को अनौपचारिक क्षेत्र या आकस्मिक श्रमबल में प्रवेश करना पड़ा। भारत में कुल कामगारों में से असंगठित क्षेत्र में कार्यरत कार्यबल का लगभग 33 फीसद हिस्सा महिलाओं का है। यह स्पष्ट है कि अनौपचारिक क्षेत्र भारत में बड़ी संख्या में महिला श्रमिकों को आजीविका प्रदान करता है।
भारतीय परिवारों पर आर्थिक दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। देश में जीवन निर्वाह लागत, बच्चों की शिक्षा के लिए खर्च और आवास संपत्तियों की लागत में तेजी से वृद्धि हुई है, जिससे हर परिवार को अपनी आय बढ़ाने के तरीके तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस कारण देश में रोजगार मामले में महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय की रपट के अनुसार असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के स्वामित्व वाले प्रतिष्ठानों की संख्या वर्ष 2022-23 के 22.9 फीसद से बढ़ कर वर्ष 23-24 में 26.2 फीसद हो गई। श्रम मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के नए सदस्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी बीते सितंबर के 26.1 फीसद से बढ़ कर अक्तूबर में 27.9 फीसद हो गई। यह वृद्धि कोई उल्लेखनीय नहीं कही जा सकती।
कामकाजी महिलाओं के संबंध में ‘एनएसओ’ की वर्ष 2024 में जारी रपट के अनुसार शहरों में कुल 52.1 फीसद महिलाएं और 45.7 फीसद पुरुष कामकाजी हैं। मगर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं नौकरियों में अब भी पुरुषों से पीछे हैं, हालांकि पिछले छह वर्षों में उनकी हिस्सेदारी दोगुनी हो गई और यह 5.5 फीसद से 10.5 फीसद तक पहुंच गई। शहरी कामकाजी महिलाओं में से 52.1 फीसद नौकरीपेशा, 34.7 फीसद स्वारोजगार में तथा 13.1 फीसद अस्थायी श्रमिक हैं ‘इंडिया एट वर्क’ की रपट 2024 के अनुसार इस साल नौकरियों के लिए कुल सात करोड़ आवेदन आए, जिनमें 2.8 करोड़ महिलाओं के थे। यह संख्या 2023 की तुलना में 20 फीसद अधिक है। देश के रोजगार परिदृश्य में बदलाव आ रहा है और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। रपट के अनुसार 2023 के मुकाबले 2024 में महिला पेशेवरों के औसत वेतन में भी 28 फीसद की वृद्धि हुई ।
इस सब के बावजूद संगठित क्षेत्र में असंगठित क्षेत्र की तुलना में महिलाओं के कम रोजगार का मुख्य कारण कम कौशल और कम वेतन पर काम करने के लिए तैयार होने की मजबूरी है। देश में पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन में लगभग 25.4 फीसद का अंतर है। अधिकांश असंगठित क्षेत्र के व्यवसाय जैसे मिट्टी के बर्तन बनाने, कृषि, निर्माण कार्य, हथकरघा, घरेलू सेवाएं और घरेलू उद्यमों में महिलाएं कार्यरत हैं। असंगठित क्षेत्र में महिला श्रमिक आमतौर पर बहुत कम वेतन पर बीच-बीच में काम करने वाले आकस्मिक श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं। उनको अत्यधिक शोषण का सामना करना पड़ता है, जिनमें काम की लंबी अवधि अस्वीकार्य कार्य परिस्थितियां और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बनी रहती हैं।
भर्ती एजेंसी ‘टीमलीज सर्विसेज’ की एक रपट के अनुसार भारत में दस में से पांच महिला कर्मचारियों ने किसी न किसी तरह के लैंगिक भेदभाव का अनुभव किया है। यह भेदभाव वेतन, कार्य के घंटे, अवकाश, अवसर और पदोन्नति के मामले में है। इस सर्वेक्षण के अनुसार, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों वाली महिलाओं को भी भर्ती प्रक्रिया के दौरान और नौकरी की संभावनाओं के लिए प्रतिस्पर्धा करते समय नुकसान उठाना पड़ता है। कामकाजी महिलाएं हो या अपना कारोबार करने वाली, उन्हें काम पर तुलनात्मक रूप से अधिक चुनौतियों का सामना सिर्फ इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि वे महिला हैं। यह धारणा कि महिलाएं केवल विशिष्ट कार्यों के लिए उपयुक्त हैं, उनके साथ काम करने वालों के बीच भेदभाव को जन्म देती है।
बच्चों वाली महिलाओं को भी भर्ती प्रक्रिया के दौरान और नौकरी की संभावनाओं के लिए प्रतिस्पर्धा करते समय नुकसान उठाना पड़ता है। कामकाजी महिलाएं हों या अपना कारोबार करने वाली, उन्हें काम पर तुलनात्मक रूप से अधिक चुनौतियों का सामना सिर्फ इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि ये महिला हैं। यह धारणा कि महिलाएं केवल विशिष्ट कार्यों के लिए ही उपयुक्त हैं। यहां तक कि बेहतर योग्यता वाली महिलाओं के समांतर समान योग्यता वाले पुरुष उम्मीदवार को वरीयता दी जाती है। भले ही कानून भर्ती और पारिश्रमिक में समानता की घोषणा करता है, लेकिन इसका हमेशा पालन नहीं किया जाता है। एक ही काम के लिए महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग वेतन मिलता है।
देश में संगठित और असंगठित कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में सुधार के लिए समय-समय पर प्रयास भी किए गए हैं। इसके लिए बने कार्यबल ने अगस्त 2024 में अपनी सातवीं बैठक में इस बात पर जोर दिया कि कार्यबल में महिलाओं की सक्रिय और सार्थक भागीदारी को बढ़ावा देना सामाजिक न्याय के साथ-साथ जीवंत, नवोन्मेषी और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए आवश्यक आर्थिक और रणनीतिक अनिवार्यता है। टास्क फोर्स ने देखभाल अर्थव्यवस्था को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में पहचाना, जिसमें महिला कार्यबल भागीदारी बढ़ाने की महत्त्वपूर्ण संभावना है। टास्क फोर्स ने उद्योग संघों से आग्रह किया कि ये आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए जागरूकता पैदा और नियोक्ताओं को प्रोत्साहित करें।
महिला रोजगार की स्थिति को संतोषजनक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समय-समय पर प्रयास हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि हमारी प्राथमिक अवधारणा यह है कि महिलाओं के लिए समान अवसर होने चाहिए महिलाओं को रोजगार में समान अवसर दिलाने की दृष्टि से वर्ष 2006 के अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में इस हेतु प्रस्ताव में इसकी पुष्टि भी की गई। महिलाओं के अधिकारों की स्थिति पर आयोग ने कई अहम मुद्दों पर सिफारिशें की हैं, जिनका लक्ष्य पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अधिकार के सिद्धांत को व्यवहार में लाना है।
देश में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न ( रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 के माध्यम से महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए प्रावधान किए गए हैं। मातृत्व लाभ (संशोधन) विधेयक, 2016 में संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को मौजूदा 12 सप्ताह से बढ़ा कर 26 सप्ताह का मातृत्व अवकाश देने का प्रावधान किया गया यह कानून दस या उससे अधिक कर्मचारियों वाले सभी व्यवसायों पर लागू है। अन्य कानूनों जैसे कारखाना अधिनियम, समान मजदूरी अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम आदि में भी यथास्थान महिलाओं के हितों की सुरक्षा के लिए प्रावधान किए गए हैं।
देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के रोजगार की गुणवत्ता में सुधार की दृष्टि से सरकार व्यावसायिक संगठनों और अन्य सभी संबंधित पक्षकारों के मिले-जुले प्रभावी प्रयासों से ही महिलाओं के रोजगार अवसरों में वृद्धि और कार्यदशाओं में सुधार संभव है। उनको घर का काम भी करना पड़ता है। ऐसी महिलाओं को अंशकालिक रोजगार के समुचित अवसर मिलने चाहिए। जो महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं ये आनलाइन पोर्टल के जारिए अपना काम शुरू कर सकती हैं जैसे शिक्षण, कपड़ा व्यवसाय, फास्ट फूड जैसे केक, पिज्जा बर्गर आइसक्रीम आदि का कारोबार ये घरों से सिलाई, कढ़ाई, मेहंदी, पापड़, अचार और टिफिन सेंटर जैसे गृह कार्यों से अपना व्यवसाय शुरू कर सकती हैं। परंपरागत लघु उद्योगों को नई तकनीक से शुरू कर महिलाओं को ज्यादा अवसर दिए जा सकते हैं।
Date: 05-02-25
अमानवीय वापसी
संपादकीय
कड़े पहरे में 205 भारतीयों को सी-17 अमेरिकी विमान में चढ़ते देखना जितना शर्मसार करने वाला था, उतना ही दर्दनाक और अमेरिकी निष्ठुरता को प्रतिबिंबित करने वाला भी था। हालांकि, डोनाल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में ही यह कहा था कि यदि वह राष्ट्रपति चुने गए, तो अवैध रूप से अमेरिका में रह रहे बाहरी लोगों को निकाल बाहर करेंगे। तब दुनिया को यही लगा कि बड़बोले ट्रंप के सैकड़ों शिगूफों में शायद यह एक और विनोदी बात है। मगर उन्हें सत्ता संभाले बमुश्किल एक सप्ताह बीता था कि अमेरिकी फौजी विमानों ने इस काम को अंजाम देना शुरू कर दिया। कोलंबियाई नागरिकों के साथ तो बहुत बुरा सुलूक किया गया था। उन्हें न सिर्फ हाथों में हथकड़ियां व पैरों में बेड़ियां पहनाई गई थीं, बल्कि रास्ते में पीने का पानी तक नहीं दिया गया था। कोलंबियाई राष्ट्रपति ने इस अमानवीयता पर सख्त ऐतराज किया था। उन्होंने इस निष्कासन में नागरिक विमान के बजाय फौजी हवाई जहाज के इस्तेमाल पर भी यह कहते हुए आपत्ति जताई थी कि उनके नागरिकों के साथ यह अपराधी सरीखा सुलूक हुआ।
एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया भर के करीब एक करोड़ दस लाख लोग इस समय अवैध रूप से अमेरिका में रह रहे हैं। इनमें काफी सारे लोग भारत के भी बताए जाते हैं। ब्योरों के मुताबिक, अमेरिका ने फिलहाल करीब 18,000 भारतीयों को वापस भेजने का फैसला किया है, क्योंकि इनके पास वहां रहने के उपयुक्त दस्तावेज नहीं हैं। भारत और अमेरिका के रिश्ते विगत वर्षों में काफी अच्छे हुए हैं और इसीलिए भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने काफी पहले अमेरिकी प्रशासन को इस काम में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया था। उन्होंने बेहद सकारात्मक रुख दिखाते हुए कहा था कि अवैध आव्रजन अक्सर गैर- कानूनी गतिविधियों से जुड़ा होता है और वह भारत की प्रतिष्ठा के भी मुफीद नहीं । यदि कोई भारतीय अवैध रूप से अमेरिका में पाया जाता है, तो उसकी नागरिकता का सत्यापन करने के बाद हम उसे वापस लेने के लिए खुले हुए हैं। ऐसे में, ट्रंप प्रशासन की यह कार्रवाई निश्चित रूप से निंदनीय है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि अवैध प्रवेश या घुसपैठ किसी देश को मान्य नहीं हो सकती, भारत खुद इसका सबसे बड़ा शिकार है। लाखों बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ-साथ हजारों रोहिंग्या यहां वर्षों से रह रहे हैं । अदालती निर्देश के बावजूद सरकार राजनयिक स्तर पर बांग्लादेश और म्यांमार के साथ बातचीत कर रही है कि वे अवैध रूप से रह रहे अपने – अपने नागरिकों को ले जाएं। अमेरिका सबसे पुराने लोकतंत्र का दावा करते नहीं अघाता, मगर उसने बुनियादी मानवीय शिष्टाचार भी नहीं निभाया। केंद्र सरकार को भारतीय नागरिकों के साथ हुए इस सुलूक का मसला वाशिंगटन के समक्ष जरूर उठाना चाहिए। ट्रंप प्रशासन शायद यह भूल गया कि किसी न किसी हसीन सपने से प्रेरित लोग जान- माल का जोखिम उठाकर वहां पहुंचे हैं। उनके साथ अपराधियों सरीखे व्यवहार से सपनों के इस महादेश की भी छवि खंडित होती है। पहरे में लौटते लोगों की स्मृतियों में तो वह अब ताजिंदगी दुःस्वप्नों का देश रहेगा। अमेरिका का यह जन निष्कासन भारतीय निगरानी तंत्र के लिए भी एक बड़ा सबक है। आखिर इतनी बड़ी तादाद में लोग गैर-कानूनी तरीके से कैसे देश से बाहर चले गए? भारतीय नागरिकों को यह पाठ पढ़ने की जरूरत है कि समृद्धि की तलाश में विदेश जाते हुए वे ऐसा कोई कदम न उठाएं, जिससे देश की प्रतिष्ठा पर आंच आए।
Date: 05-02-25
अवैध अप्रवासियों पर आक्रामक अमेरिका
हर्ष वी पंत, ( प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन )
अवैध आप्रवासन के खिलाफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्रतिक्रिया के रूप में अवैध अप्रवासी भारतीयों का पहला जत्था भारत आ गया है। यह कार्रवाई ट्रंप के उस चुनावी वादे के संदर्भ में की गई है, जिसमें उन्होंने अमेरिका में एक करोड़ से अधिक अवैध अप्रवासियों के रहने के दावे किए थे। चूंकि चुनाव में उन्हें इसका फायदा मिला था, इसलिए वह अपने आधार वोट- बैंक को संतुष्ट करने के लिए अवैध अप्रवासियों की वतन वापसी करा रहे हैं। आकलन है कि करीब 18 हजार भारतीयों को वापस भेजा जाएगा, जो गैर-कानूनी रूप से वहां गए हैं। हालांकि, अनुमान यह भी है कि अमेरिका में लगभग 7.25 लाख भारतीय अवैध तरीके से रहते हैं, लेकिन इसकी अभी तक पुष्टि नहीं हुई है।
पिछले साल भी करीब 1,100 भारतीय को वापस भेजा गया था, लेकिन इस साल आंकड़ा काफी बड़ा है। मगर भारत का रुख स्पष्ट है। अगर ये लोग गलत तरीके से अमेरिका गए हैं और उनको वापस भेजा जाता है, तो उन्हें खुले दिल से स्वीकार किया जाएगा। नई दिल्ली का यह रवैया इसलिए भी है, क्योंकि अवैध आप्रवासन भारत में भी एक गंभीर मसला है और हमारा मानना है कि इससे संगठित अपराध को मदद मिलती है। यही कारण है कि साल 2023 में जब अवैध आप्रवासन का मसला राज्यसभा में उठा, तब यह जरूर कहा गया कि कई देश अपने यहां मौजूद अवैध अप्रवासी भारतीयों की संख्या तब तक नहीं बताते, जब तक कि उनको निर्वासित नहीं किया जाता, लेकिन इसकी जानकारी भी दी गई कि देश में 30 अक्तूबर, 2023 तक 2,925 ऐसे एजेंटों की पहचान कर ली गई थी, जो गलत तरीके से भारतीयों को विदेश भेजते हैं।
अवैध आप्रवासन का शायद ही कोई समर्थन करता है। भारत ने भी अमेरिका को आश्वस्त किया है कि वह इस मामले में उसका पूरा साथ देगा। बीते दिनों जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की फोन पर बातचीत हुई थी, तब उसमें भी यह मसला उठा था। हालांकि, अमेरिका में मौजूद अवैध अप्रवासियों में भारत की हिस्सेदारी बमुश्किल तीन प्रतिशत है और इसकी तुलना में अमेरिका के पड़ोसी देश, मेक्सिको या लातीन अमेरिका से बड़ी संख्या में लोग गैर-कानूनी रूप से अमेरिका जाते हैं। मगर भारतीय नागरिकों पर इसलिए कार्रवाई की गई है, क्योंकि बीते कुछ वर्षों में हमने यह आंकड़ा बढ़ते देखा है, जो चिंता की वजह है।
इस पूरे प्रकरण के दो पहलू स्पष्ट हैं। एक, अमेरिकी राष्ट्रपति घरेलू राजनीति के दबाव में ऐसा कर रहे हैं। और अपने नागरिकों को यह एहसास दिलाना चाहते हैं कि उन्होंने चुनाव में जो कहा था. , उसे पूरा करने की ताकत रखते हैं। पद संभालते ही जिस तरह से उन्होंने ताबड़तोड़ फैसले किए, उसका संदेश भी कमोबेश यही था। हां, यह अलग बात है कि उनके कुछ फैसले अब अदालती पेच में फंस गए हैं और मुमकिन है कि उन्हें अपने कदम पीछे भी खींचने पड़ जाएं। मगर इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा चिंतनीय है अवैध अप्रवासियों के खिलाफ इस कदर कार्रवाई बताती है कि आप्रवासन के खिलाफ अमेरिका, यूरोप सहित कई देशों में नकारात्मक माहौल बनने लगा है। बेशक, कार्रवाई गैर-कानूनी रूप से रहने वाले विदेशी नागरिकों पर हो रही है, लेकिन इसका असर कानूनी तरीके से रहने वाले लोगों पर भी पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं का इस्तेमाल आप्रवासन के खिलाफ माहौल बनाने में किया जा सकता है। वैसे भी, संरक्षणवाद की हवा पूरी दुनिया में बहने लगी है और सभी देश अपने संसाधनों पर अपने नागरिकों का ही हक चाहने लगे हैं।
भारत से लोग कहां-कहां गैर-कानूनी रूप से जाते हैं, यह कहना मुश्किल है, लेकिन माना यही जाता है कि वे अमेरिका, यूरोप, कनाडा और मध्य-पूर्व (पश्चिम) एशिया) जाना ज्यादा पसंद करते हैं। पिछले साल ही मार्च में यह खबर आई थी कि वर्ष 2023 में 1,000 से अधिक भारतीयों ने गैर-कानूनी रूप से ब्रिटेन की सीमा में घुसने के लिए जीवन तक को दांव पर लगा दिया था और छोटी-छोटी नौकाओं के सहारे इंग्लिश चैनल पार करने की कोशिश की थी। ऐसा उन्होंने नौकरी
पाने और बेहतर जीवन की तलाश में की थी। आंकड़े बताते हैं कि साल 2023 में ब्रिटेन में शरण मांगने वाले भारतीयों की संख्या 5000 से ज्यादा हो चुकी थी। ये संकेत हैं कि विदेश जाने के लिए भारतीय हर मुश्किल झेलने को तैयार जान पड़ते हैं, क्योंकि उनको लगता है कि बेहतर जीवन वहीं मिल सकता है।
हालांकि, गैर-कानूनी रूप से विदेश जाने वालों का शोषण भी खूब होता है। पिछले दिनों ही यह खबर आई थी कि किस तरह काम की तलाश में रूस पहुंचे भारतीयों को यूक्रेन के खिलाफ जंग में झोंक दिया गया था। मानव तस्करी, अंग व्यापार, नशे के कारोबार जैसे गैर-कानूनी कामों में भी अवैध अप्रवासियों का काफी इस्तेमाल किया जाता है। चूंकि अपने देश में ऐसा कोई व्यवस्थित ढांचा नहीं है, जो इस तरह की आवाजाही को प्रभावी तरीके से रोक सके, इसलिए चूक खूब हो रही है। सरकार भले ही बार-बार आग्रह करती रहती है कि गैर-कानूनी एजेंटों के झांसे में लोग न फंसे, लेकिन कबूतरबाजी और डंकी रास्ते अपने देश की हकीकत बने हुए हैं।
ताजा प्रकरण से भारत सरकार पर भी यह दबाव बनेगा कि वह देश में रह रहे अवैध नागरिकों को वापस भेजने की पहल करे। आज कोई भी सियासी दल शायद ही अवैध आप्रवसान के खिलाफ कार्रवाई का विरोध करेगा। असम में भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण वहां अवैध आप्रवासन के कारण जनसांख्यिकीय में आया बदलाव ही था। बावजूद इसके सीएए या एनआरसी जैसी पहलों को हम वास्तविक रूप से जमीन पर नहीं उतार पा रहे, जबकि अवैध अप्रवासियों से संसाधनों पर काफी ज्यादा बोझ पड़ता है।
बहरहाल, माना यह भी जा रहा है कि इस मामले में अमेरिका का साथ देकर भारत ने अन्य मुद्दों पर बातचीत के रास्ते खोल लिए हैं, विशेषकर टैरिफ के मामले में। मगर अब सवाल यह है कि इन लोगों को यहां कैसे समायोजित किया जाएगा ? इनके लिए शायद ही कोई विशेष नीति बने, क्योंकि ये तो गए थे गैर- कानूनी रूप से ही मगर हां, अवैध अप्रवासियों का दबाव हमारे तंत्र पर न पड़े, इसके लिए यह चिंतन होना ही चाहिए कि भारतीय अब क्यों बड़ी संख्या में विदेश जाने लगे हैं, फिर चाहे इसके लिए उन्हें गलत रास्ता ही क्यों न चुनना पड़े?