06-07-2024 (Important News Clippings)

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06 Jul 2024
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Date: 06-07-24

अभी बहुत कुछ छूट रहा है नए टेलीकॉम कानून में

विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील, ‘अनमास्किंग वीआईपी’ पुस्तक के लेखक )

स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकार की आमदनी घट गई है। दूसरी तरफ मोबाइल टैरिफ दरों में भारी इजाफे से ग्राहक को औसतन 50 रु. महीना ज्यादा देने होंगे। 119 करोड़ मोबाइल और 92.4 करोड़ इंटरनेट ब्रॉडबैंड कनेक्शन वाले देश में सरकार की आमदनी कम होती जाए, टेलीकॉम कम्पनियों का घाटा और आम लोगों की जेब पर बोझ बढ़े तो यह चिंता की बात है।

इस तस्वीर के साथ अधकचरे तरीके से लागू किए गए नए टेलीकॉम कानून के 6 पहलुओं की पड़ताल जरूरी है।

1. ओटीटी : जुलाई 2022 में जारी मसौदे में टेलीकम्युनिकेशन का दायरा बहुत बड़ा था। पर दिसम्बर 2023 में संसद से पारित कानून में टेलीकम्युनिकेशन के दायरे से ओटीटी, इंटरनेट आधारित कॉल्स और मैसेजिंग एप्स को हटा दिया गया। देश की बड़ी आबादी नेटफ्लिक्स, जूम और वॉट्सएप आदि का इस्तेमाल करती है। पर विदेशी कम्पनियों से जुड़ी इन सेवाओं को कानून, लाइसेंस, टैक्स के दायरे से बाहर रखने से डिजिटल क्रांति की तस्वीर धुंधला रही है।

2. स्पेक्ट्रम : स्पेक्ट्रम घोटाले पर यूपीए सरकार की बहुत फजीहत हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार स्पेक्ट्रम का आवंटन नीलामी के आधार पर ही होना चाहिए। लेकिन नए कानून में सैटेलाइट जैसी सेवाओं के लिए प्रशासनिक आधार पर स्पेक्ट्रम के आवंटन का कानून है। एलॉन मस्क जैसे दिग्गजों के वर्चस्व वाले सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं वाले सेक्टर के लाइसेंस और नियमन के लिए भारत में प्रभावी कानून नहीं है। रियायती दरों पर स्पेक्ट्रम आवंटन से सरकारी खजाने को नुकसान और सैटेलाइट इंटरनेट के निर्बाध संचालन से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा बढ़ सकता है।

3. मोबाइल टॉवर : मोबाइल कंपनियों ने टैरिफ दरों को 10 से 25 फीसदी बढ़ाया है। 5जी के नाम पर डेटा प्लान की दरों में 46 फीसदी बढ़ोतरी से मोबाइल कम्पनियों की सालाना आमदनी 47,500 हजार करोड़ होने के साथ उनके शेयर की वैल्यू भी बढ़ेगी। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू बहुत स्याह है। मार्च 2023 में मोबाइल कम्पनियों का घाटा लगभग 6.40 लाख करोड़ हो गया है। टेक्नोलॉजी, रिसर्च और 12 लाख नए मोबाइल टावरों को लगाने के लिए टेलीकॉम कम्पनियों के पास पैसे नहीं हैं। इसीलिए 5जी के नाम पर पैसे चुकाने वाले ग्राहकों को सही सेवा नहीं मिल रही।

4. सस्ता डेटा : अमेरिका में एक जीबी डेटा की औसत कीमत 5.37 डॉलर है, जबकि भारत में सिर्फ 0.16 डॉलर। भारत में पिछले 10 सालों में डेटा की खपत 43 गुना बढ़ी है। इसका फायदा ओटीटी, इंटरनेट आधारित कॉलिंग सेवाओं और मैसेजिंग एप्स को हो रहा है। लेकिन उन्हें कानून के दायरे से बाहर रखने और उनसे लाइसेंस फीस की वसूली नहीं होने से सरकार को चपत लगने के साथ, मोबाइल कम्पनियों का घाटा बढ़ रहा है। साल 2015 में स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को 1.09 लाख करोड़ मिले थे। जबकि इस साल 2024 में स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को सिर्फ 11,340 करोड़ की आमदनी हुई है।

5. अनचाहे कॉल्स : मोबाइल टॉवरों की स्थापना जिस भूमि में होती है, वह विषय संविधान के अनुसार राज्य सरकारों के अधीन है। इलेक्ट्रिसिटी कानून से जुड़ा विषय भी समवर्ती सूची में है। उसके बावजूद टेलीकॉम कानूनों को बनाने और लागू करने में राज्य सरकारों के साथ पर्याप्त परामर्श नहीं किया गया। डीएनडी यानी डु नॉट डिस्टर्ब, अनचाहे कॉल्स और साइबर अपराध से लोगों को बचाने के बारे में कई सालों से सिर्फ हल्ला हो रहा है। अनचाहे कॉल्स से जुड़े कानून की धारा 28 के तहत नियम बनना अभी बाकी है, इसलिए आम जनता को नए कानून से ज्यादा राहत नहीं मिलेगी।

6. नियम नहीं बने : नए कानून में शामिल 62 धाराओं में से लगभग 39 को ही फिलहाल लागू किया गया और 23 धाराओं से जुड़े नियम अभी जारी नहीं किए गए। इसकी वजह से अंग्रेजों के समय बनाया गया टेलीग्राफ एक्ट अभी भी लागू है। अपचाहे कॉल और मैसेजों से मुक्ति के लिए कानून की धारा-28 में प्रावधान हैं। लेकिन उससे जुड़े नियमों को संसद में पेश करना बाकी है। ऐसी ही गफलत दूसरे कानूनों में है। नीट विवाद के बाद आपाधापी में नकल विरोधी कानून लागू करने के बाद जल्दबाजी में नियम बना दिए गए।

तीन आपराधिक कानूनों को भी हड़बड़ी में लागू करने से न्यायिक अराजकता बढ़ने का खतरा है। आपराधिक कानूनों के लिए तीन कानूनों की संहिता है। उसी तरह टेलीकॉम, इंटरनेट, मोबाइल, एआई और डेटा से जुड़े विषयों पर कानून और नियमों की संहिता लागू करने की जरूरत है।


Date: 06-07-24

ढहता आधारभूत ढांचा

संपादकीय

यह अच्छा हुआ कि बिहार सरकार ने एक के बाद एक पुल गिरने की घटनाओं को देखते हुए अनेक इंजीनियरों को निलंबित कर दिया। इस तरह की कार्रवाई इसलिए आवश्यक थी, क्योंकि पुलों के गिरने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था। यह सामान्य बात नहीं कि महज 15 दिनों के अंदर एक दर्जन पुल गिर जाएं। बिहार में इसके पहले भी कई पुल गिर चुके हैं। एक-दो पुल तो ऐसे रहे, जो निर्माणाधीन स्थिति में ही ध्वस्त हो गए। इसे देखते हुए यह आवश्यक था कि बिहार सरकार कोई ठोस कदम उठाती। उसने कई विभागों के इंजीनियरों को निलंबित करने के साथ ही पुलों का निर्माण करने वाली कंपनियों को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए उनका भुगतान रोकने की पहल की है। उसने कंपनियों से यह भी पूछा है कि क्यों न उन्हें काली सूची में डाल दिया जाए? यदि ऐसी कंपनियों की गलती पाई जाती है तो उन्हें न केवल काली सूची में डाला जाना चाहिए, बल्कि उन पर जुर्माना लगाने के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि वे नाम बदलकर फिर से सक्रिय न होने पाएं। यह तो किसी जांच से ही सामने आएगा कि नए-पुराने पुल इतनी जल्दी-जल्दी क्यों गिरते रहते हैं, लेकिन इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इसके पीछे एक बड़ा कारण दोयम दर्जे का निर्माण है। यह समस्या केवल बिहार की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की है। पिछले ही दिनों झारखंड से यह खबर आई कि वहां सुंदर नदी पर बना पुल उद्घाटन से पहले ही धंसने लगा। इस तरह के मामले देश के अन्य हिस्सों से भी सामने आते रहते हैं।

एक आंकड़े के अनुसार 2012 से 2021 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे-बड़े दो सौ से अधिक पुल गिर चुके हैं। बात केवल पुलों की ही नहीं, सड़कों, एक्सप्रेसवे और आधारभूत ढांचे से जुड़े अन्य निर्माण कार्यों की भी है। आखिर यह एक तथ्य है कि पिछले दिनों दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे की एक छत गिर गई। इसी तरह की घटना जबलपुर और राजकोट हवाईअड्डे पर भी हुई। वास्तव में अपने देश में बरसात का मौसम आधारभूत ढांचे की पोल खोलने का काम करता है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि जब भी कोई बड़ी घटना घटती है तो जांच के आदेश दे दिए जाते हैं, क्योंकि पुलों के गिरने और सड़कों के धंसने के मामले रह-रहकर सामने आते ही रहते हैं। इसका सीधा मतलब है कि आधारभूत ढांचे के निर्माण में लापरवाही का परिचय दिया जा रहा है। यह लापरवाही कमीशनखोरी की ओर ही साफ संकेत कर रही है। यह ध्यान रहे तो अच्छा कि आधारभूत ढांचे का तेज गति से निर्माण होने के साथ ही खराब गुणवत्ता के कारण उसके नष्ट होते रहने का सिलसिला प्रगति को थामने के साथ ही संसाधनों की बर्बादी और देश की बदनामी का भी कारण बनता है।


Date: 06-07-24

कौशल की कमी दूर करना जरूरी

संपादकीय

भारत के रोजगार क्षेत्र का एक बड़ा विरोधाभास यह है कि जहां एक ओर बेरोजगारी बड़ी चुनौती बनी हुई है, वहीं देश के संभावित बड़े नियोक्ताओं की शिकायत है कि उन्हें काम करने के लिए श्रमिक नहीं मिल रहे हैं। गत सप्ताह लार्सन ऐंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस एन सुब्रमण्यन ने कहा कि इंजीनियरिंग क्षेत्र की इस दिग्गज कंपनी को कुल मिलाकर 45,000 श्रमिकों और इंजीनियरों की जरूरत है। इस मामले में एलऐंडटी कोई अपवाद नहीं है। पूरे भारत की बात करें तो पूर्व में स्टील निर्माताओं से लेकर टेक्सटाइल हब तिरुपुर तक कंपनियों को मशीन ऑपरेटर, वेल्डर, फिटर, वाहन चालक, टेक्नीशियन, कारपेंटर और प्लंबर जैसे साधारण कामों के लिए कुशल श्रमिक तलाशने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। यह कमी केवल ऑर्डर बुक के विस्तार, चुनावों या गर्मियों की वजह से नहीं है जिन्होंने श्रमिकों को वापस उनके गांव भेज दिया। यह देश के श्रम बाजार की एक पुरानी कमजोरी का परिणाम है जिसकी वजह से वेतन और लागत में ऐसे समय में इजाफा हो रहा है जब निजी क्षेत्र का निवेश अभी भी अपेक्षाकृत कमजोर है। यह कमी उस समय और बढ़ जाती है जब हम मूल्य श्रृंखला में ऊपर जाते हैं। उस स्थिति में कंपनियों को अंतर को पाटने के लिए विदेशों खासकर चीन से तकनीशियनों और इंजीनियरों को बुलाना पड़ता है।

इस कमी की प्रमुख वजह शिक्षा और प्रशिक्षण की खराब गुणवत्ता है। इससे कंपनियों को इंजीनियरों और तकनीकी कर्मचारियों के प्रशिक्षण की अतिरिक्त लागत वहन करनी पड़ती है। ताजा इंडिया स्किल्स रिपोर्ट के अनुसार करीब 64 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रैजुएट रोजगार पाने योग्य हैं और इनमें से 40 फीसदी औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों यानी आईटीआई से आते हैं। कुल मिलाकर करीब आधे युवाओं के पास ही रोजगार पाने लायक कौशल है।

दिलचस्प है कि यह हतोत्साहित करने वाली तस्वीर भी 2014 की तुलना में बेहतर है। उस समय केवल 33.9 फीसदी युवा ही रोजगार पाने लायक थे। यह सुधार सरकार के प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना तथा अप्रेंटिस एवं अन्य योजनाओं की बदौलत आया। इस प्रगति के बावजूद रिपोर्ट में संकेत दिया गया है कि बाजार को कुशल श्रमिक उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। यह बताती है कि केवल दो फीसदी श्रमिकों के पास औपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण है और नौ फीसदी के पास अनौपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण है। इसके अलावा सरकार के कौशल कार्यक्रमों में भी गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षकों या प्रमाणन की कमी है। इसके परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत प्रशिक्षित 20 फीसदी से भी कम लोगों को कंपनियों में रोजगार मिल पाया।

समस्या की मूल वजह यह है कि प्रशिक्षण कार्यक्रम उद्योग जगत की जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं। इससे एक बार फिर यह बात रेखांकित होती है कि उद्योग जगत के साथ करीबी भागीदारी करने की आवश्यकता है। इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम इस समस्या का सटीक उदाहरण हैं। भारत हर वर्ष जो 15 लाख इंजीनियर तैयार करता है उनमें से 5 फीसदी से भी कम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों या भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थानों से होते हैं। अधिकांश स्नातक ऐसे निजी और सरकारी संस्थानों से आते हैं जिन्हें अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद की मान्यता तो होती है लेकिन उनकी गुणवत्ता में काफी अंतर होता है। सरकार द्वारा 2008 में स्थापित राष्ट्रीय कौशल विकास निगम एक गैर लाभकारी संस्था है जिसे उद्योग जगत के साथ काम करने के लिए बनाया गया था लेकिन वह भी इस समस्या को हल नहीं कर सका। इसका असर देश के श्रमिकों पर पड़ रहा है। बड़े नियोक्ता इससे बचने के लिए आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे श्रमिक और प्रभावित हो रहे हैं। यही वजह है कि देश के श्रमिकों को उचित कौशल प्रदान करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।


Date: 06-07-24

भारत-ब्रिटेन संबंध नए शिखर की ओर

हर्ष वी पंत और शेरी मल्होत्रा, ( हर्ष वी पंत स्टडीज ऐंड फॉरेन पॉलिसी के उपाध्यक्ष हैं तथा शेरी मल्होत्रा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन नई दिल्ली में एसोसिएट फेलो (यूरोप) हैं। )

ब्रिटेन में 14 साल बाद सत्ता परिवर्तन के साथ नई सरकार के समक्ष भारत से संबंधों समेत विदेश नीति को लेकर कई चुनौतियां होंगी। दोनों देशों के लंबे साझा इतिहास के बावजूद वर्षों से भारत और ब्रिटेन के संबंध बहुत मजबूत नहीं रहे हैं। इसके अतिरिक्त लंबी ब्रेक्जिट प्रक्रिया तथा आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भी ब्रिटेन को इस तरफ ध्यान देने की फुर्सत नहीं मिली। ब्रेक्जिट के रास्ते से हटने के बाद भारत और ब्रिटेन की साझेदारी फिर पटरी पर लौटती दिख रही है। ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की विदेश और व्यापार नीति तथा वैश्विक ब्रिटेन के रूप में विश्व पटल पर छाने की उसकी आकांक्षाओं में भारत की प्रमुख भूमिका इसकी खासियत है।

दोनों देशों के संबंध 2022 में तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के कार्यकाल में व्यापक रणनीतिक साझेदारी और द्विपक्षीय सहयोग को मजबूत करने के लिए 2030 रोडमैप के साथ नई ऊंचाई पर पहुंचे।

लेबर पार्टी को जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व काल के दौरान व्यापक रूप से भारत विरोधी माना जाता था। उस समय वह ब्रिटेन के मुस्लिम समुदाय को रिझाने के लिए अपने संदर्भों में बार-बार कश्मीर का जिक्र करती थी, क्योंकि मुस्लिम समुदाय लेबर पार्टी का बहुत बड़ा वोट बैंक था, लेकिन कियर स्टार्मर के नेतृत्व में पार्टी का रुख बदल गया है। स्टार्मर ने यह स्पष्ट ऐलान किया कि लेबर पार्टी भारत के साथ-साथ ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय समुदाय के साथ बेहतर संबंध स्थापित करेगी। ब्रिटेन में भारतीय समुदाय की संख्या लगभग 18 लाख है, जो वहां की अर्थव्यवस्था में 6 फीसदी से अधिक योगदान देते हैं।

एजेंडे में व्यापार, सुरक्षा और प्रौद्योगिकी

अच्छी बात यह है कि भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को लेबर पार्टी और कंजर्वेटिव पार्टी दोनों दलों का समर्थन प्राप्त है। इससे नई लेबर पार्टी सरकार में भी इसके अंजाम तक पहुंचने की पूरी संभावना है। एफटीए का उद्देश्य दोनों देशों के बीच वर्ष 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को दोगुना करना है, जो इस समय लगभग 40 अरब पाउंड (करीब 4.27 लाख करोड़ रुपये) का है। इससे भारत के कपड़ा, परिधान और रत्न क्षेत्र को खासा लाभ होगा। फिर भी इसमें भारत के उच्च शुल्क समेत कई पेच हैं, जो ऑटोमोबाइल और स्कॉच व्हिस्की के मामले में 100 से 150 फीसदी तक पहुंच सकता है। दूसरा मामला ब्रिटेन की भारतीय बाजार के सेवा क्षेत्र में पैठ बनाने की इच्छा का है। सेवा क्षेत्र ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में 80 फीसदी योगदान देता है।

दूसरी ओर, भारत अपने कुशल पेशेवरों के लिए बेहतर गतिशीलता चाहता है। टोरीज (कंजर्वेटिव पार्टी) के शासन में यह राजनीतिक रूप से काफी विवाद का विषय बन गया था, क्योंकि टोरीज ने ब्रेक्जिट के लिए एंटी इमिग्रेशन व्यवस्था बनाने की वकालत की थी। इस मामले में लेबर सरकार नरम रुख अपनाते हुए कुछ रियायत दे सकती है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के बदले रणनीतिक परिदृश्य के परिणामस्वरूप ब्रिटेन का झुकाव हिंद महासागर की ओर हुआ है। यह ब्रिटेन के इंटीग्रेटेड रिव्यू रिफ्रेश (आईआर रिफ्रेश 2023) रणनीति में दर्ज है, जो ब्रिटेन के हिंद-प्रशांत की ओर झुकाव को मजबूत करता है और नियम आधारित व्यापार के लिए भारत जैसे समान विचारधारा वाले देशों के साथ सहयोग पर जोर देता है।

इससे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत और ब्रिटेन के बीच रणनीतिक साझेदारी बढ़ी है। दोनों देश संयुक्त सैन्य अभ्यास, नौसेना अंतर-संबंध एवं समुद्री क्षेत्र जागरूकता, आतंकवाद रोधी अभियान, मानवीय सहायता एवं आपदा राहत जैसे क्षेत्रों में सहयोग के जरिये समुद्री क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहे हैं। क्षेत्र में यूके कैरियर ग्रुप को तैनात करने के अलावा ब्रिटेन गुरुग्राम स्थित भारतीय नौसेना के सूचना संलयन केंद्र में भी शामिल हो गया है।

प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के पहले विदेश नीति भाषण, जिसमें ब्रिटेन और चीन संबंधों के ‘स्वर्ण युग’ के समाप्त होने का ऐलान था, से आगे बढ़ते हुए आईआर रिफ्रेश द्वारा चीन को एक बड़ी चुनौती के रूप में संदर्भित करने के परिणामस्वरूप भारत और ब्रिटेन के मतभेद कुछ कम हुए थे। भले ही चीन को एक खतरे के तौर पर पेश करने में यह रणनीतिक रूप से नाकाम रही हो। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे सक्रिय यूरोपीय शक्ति के रूप में उभरने की चाहत और रक्षा खर्च 2030 तक अपनी जीडीपी का 2.5 फीसदी तक बढ़ाने की योजना के बावजूद ब्रिटेन की क्षमता और संसाधनों को लेकर कई बड़े सवाल बने हुए हैं।

अभी इस बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या लेबर सरकार टोरीज द्वारा शुरू की गईं हिंद-प्रशांत केंद्रित योजनाओं को जारी रखेगी या नहीं। इसके अलावा, यूरोप में अमेरिका का दबदबा घटने के बाद ब्रिटेन को यूरोपीय-अटलांटिक सुरक्षा प्रदाता, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता के लिए भारत जैसे सहयोगी के साथ मिलकर प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

इसी साल जनवरी में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की ब्रिटेन यात्रा से दोनों देशों के बीच सुरक्षा और प्रतिरक्षा जैसे क्षेत्रों में साझेदारी को आगे बढ़ाने में मदद मिली। किसी भारतीय रक्षा मंत्री की 22 वर्षों में यह पहली ब्रिटेन यात्रा थी। वर्ष 2023 में दोनों देशों के बीच 2+2 की व्यवस्था के साथ संबंधों को नई उड़ान मिली। इसके उलट एक तस्वीर यह भी सामने आती है कि पिछले दशक में भारत की कुल रक्षा खरीद का 3 फीसदी ही ब्रिटेन से आया, जबकि इस क्षेत्र में, विशेषकर उन्नत प्रौद्योगिकी के आदान-प्रदान से रक्षा विनिर्माण क्षेत्र को मजबूत करने की अधिक संभावनाएं विद्यमान हैं और निर्यात लाइसेंसिंग नियमों को आसान बनाने में भी गुंजाइश मौजूद है, ताकि रूसी हार्डवेयर पर भारत की निर्भरता कम हो सके। भारत और ब्रिटेन प्रतिरक्षा के अलावा, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI), सेमीकंडक्टर और हाई परफॉर्मेंस कंप्यूटिंग जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। ब्रिटिश फर्म एसआरएएम ऐंड एमआरएएम टेक्नोलॉजीज ने भारत के सेमीकंडक्टर क्षेत्र में 30,000 करोड़ रुपये निवेश की योजना बनाई है।

जलवायु के मोर्चे पर भी दोनों देश अनुसंधान और डिजाइन सहभागिता को मजबूत करने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त फिनटेक, टेलीकॉम, स्टार्टअप और उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्र भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। साइबर सुरक्षा क्षेत्र में दोनों देश उन्नत साइबर सहभागिता के माध्यम से नई इबारत लिख रहे हैं। यही नहीं, अमेरिका के अलावा ब्रिटेन ही ऐसा देश है, जिसके साथ भारत सालाना साइबर डायलॉग आयोजित करता है।

नए युग की शुरुआत

युद्धग्रस्त यूक्रेन को ब्रिटेन का ठोस समर्थन प्राप्त है। इधर, रूस के साथ भारत के घनिष्ठ संबंध भी जगजाहिर हैं। इसके बावजूद भारत और ब्रिटेन के आपसी संबंधों में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। कभी भारत एवं ब्रिटेन के संबंधों में खटास का कारण रहे पाकिस्तान और खालिस्तान जैसे पहले से चले आ रहे मुद्दे भी धीरे-धीरे किनारे हो गए हैं। अब दोनों देश आपसी सहयोग को तवज्जो दे रहे हैं। नई ताकत के साथ खड़ी हो रही लेबर पार्टी के साथ भारत और ब्रिटेन के संबंधों में प्रगाढ़ता की बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं, क्योंकि स्टार्मर ने भारतीय चिंताओं को दूर करने के लिए बहुत ही गंभीरता से प्रयास किया है।

लगातार तीसरी बार सत्ता में आई मोदी सरकार ने ऑस्ट्रेलिया, यूएई और यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन ब्लॉक के साथ व्यापार समझौतों के लिए नया दृष्टिकोण अपनाया है। भारत का यही नजरिया खासकर संरक्षणवादी अमेरिका और चीन की नीतियों के वैश्विक संदर्भ में, ब्रिटेन में चुनाव बाद राजनीतिक स्थिरता आने से एफटीए के लिए निर्धारित लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का ठोस आधार प्रदान करता है।

ब्रिटेन के साथ भारत के संबंध इस समय बहुत ही रोचक मोड़ पर हैं और दिशा चाहे जो भी हो, लेकिन दोनों देशों की दोस्ती नए शिखर की ओर बढ़ती प्रतीत हो रही है। पी5, जी7 और फाइव आइज के सदस्य के रूप में इस वक्त वैश्विक पटल पर ब्रिटेन का दबदबा है, जबकि भारत सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था और दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है। दोनों देश मिलकर आगे बढ़ने के लिए वैश्विक पटल पर अपने-अपने लिए भूमिका गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं।


Date: 06-07-24

ब्रिटेन की सत्ता

संपादकीय

दरअसल, कंजर्वेटिव पार्टी से लोगों का मोहभंग हो चुका था। खासकर प्रधानमंत्री ऋषि सुनक खासे अलोकप्रिय हो चुके थे। इस तरह वहां सत्ता-विरोधी लहर थी, जिसमें कंजर्वेटिव पार्टी ध्वस्त गई। ब्रिटेन में काफी समय से महंगाई उच्च स्तर पर है, लोगों पर करों का बोझ काफी बढ़ गया है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं चरमरा गई हैं और देश की अर्थव्यवस्था एक तरह से ठप पड़ गई है। ऋषि सुनक ने अर्थव्यवस्था संभालने का आश्वासन दिया था, इसके लिए उन्होंने परिश्रम भी खूब किया, मगर कामयाब नहीं हो सके। नतीजतन, लोगों का रहन-सहन पर खर्च बढ़ता गया है।

दरअसल, कंजर्वेटिव पार्टी के प्रति वहां के लोगों में रोष इस बात को लेकर भी था कि ‘ब्रेक्जिट’ करके ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो गया, जिससे वहां की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा। इसके अलावा गैरकानूनी तरीके से हो रहे प्रवासन पर सुनक सरकार काबू नहीं पा सकी। इसके चलते वहां की सार्वजनिक सुविधाओं पर बोझ बढ़ा है। लेबर पार्टी ने आवास नीति बनाने, आव्रजन नीति को कड़ा करने और यूरोपीय संघ से रिश्ते मजबूत बनाने का वादा किया था। इससे वहां के लोगों में भरोसा पैदा हुआ। हालांकि चुनावी वादों को जमीन पर उतारना आसान नहीं होता। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को संभालना स्टार्मर के लिए भी बड़ी चुनौती होगी। खाली हो चुके खजाने के साथ करों का बोझ कम करना और सार्वजनिक सुविधाओं को बेहतर बनाना भी आसान नहीं होगा। ऐसे में, अगर आव्रजन नीतियों को कड़ा किया जाता है, तो अलग मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। देखने की बात है कि यूरोपीय संघ के साथ मिल कर वे ब्रिटेन की जर्जर हो चुकी अर्थव्यवस्था और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में कहां तक कामयाब हो पाते हैं।


Date: 06-07-24

सावधानी की जरूरत

संपादकीय

देश के प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने बाजार नियामक सेबी और सैट को शेयर बाजारों में उल्लेखनीय उछालों के बीच सावधानी बरतने की सलाह दी। अधिक न्यायाधिकरण पीठों की वकालत करते हुए स्थिर नींव सुनिश्चत करने की बात भी उन्होंने बात कही। सीजेआई मुंबई में नये प्रतिभूति अपीलीय न्यायाधिकरण यानी सैट परिसर का उद्घाटन भाषण कर रहे थे। उन्होंने अधिकारियों से सैट की नई पीठें खोलने का अग्रह भी किया क्योंकि अब अधिक मात्रा में लेन-देन और नये नियमों के कारण कार्यभार बढ गया है। उनके अनुसार, शेयर बाजार में जितनी तेजी देखी जाएगी, सेबी और सैट की भूमिका उतनी ही अधिक होगी। सेबी और सैट जैसे संस्थानों को बढ़ावा देने के पीछे उन्होंने अत्यधिक राष्ट्रीय महत्त्व बताया। प्रधान न्यायाधीश जिस वक्त यह सुझाव दे रहे थे, ऐन उसी समय बाजार में जबरदस्त तेजी देखी जा रही थी और बीएसई सेंसेक्स नये शिखर यानी अस्सी हजार को पार कर रहा था। यह अपने आपमें रिकार्ड शिखर है। शेयर बाजार और निवेश को लेकर युवाओं में गजब का उत्साह देखने में आ रहा है। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज यानी एनएसई के अनुसार इस वर्ष जनवरी तक निवेशकों की संख्या 87 मिलियन तक पहुंच चुकी थी। महामारी के बाद से इन नये निवेशकों के बढ़ते रुझान को लेकर विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें भ्रम है कि इससे हर स्थिति में मुनाफा होता रहेगा। भारतीय कंपनियों का मुनाफा अच्छा होने के बावजूद यह कभी भी लुढ़क सकता है। कई बार अचानक किसी आर्थिक गड़बड़ी के चलते घरेलू बाजार अप्रत्याशित रूप से धड़ाम भी हो जाता है। वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं और वित्तीय बाजारों का भी इस पर सीधा असर होता है। शेयर बाजार में होने वाले घोटाले और हेराफेरी पर कड़ी नजर रखी जाने के बावजूद आनन-फानन भारी मुनाफा कमाने के लोभ से मुकरा नहीं जा सकता। ऐसे में सेबी और सैट की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। खासकर छोटे निवेशकों के भरोसे को ये अप्रत्यक्ष तौर पर बढ़ाने का काम करती हैं। देश तभी आगे बढेगा, जब वह आर्थिक रूप से समृद्ध होता रहेगा और लोगों का विश्वास बढ़ता रहेगा जिसके लिए सावधानी बेहद जरूरी है।


Date: 06-07-24

बाबाओं की यूट्यूब जंग

विनीत नारायण

जब से सोशल मीडिया का प्रभाव तेजी से व्यापक हुआ है, तब से समाज का हर वर्ग यहां तक कि गृहणियां भी 24 घंटे सोशल मीडिया पर हर समय छाए रहते हैं। इसके दुष्परिणामों पर काफी ज्ञान उपलब्ध है। सलाह दी जाती है कि यदि आपको अपने परिवार या मित्रों से संबंध बनाए रखना है, अपना बौद्धिक विकास करना है और स्वस्थ और शांत जीवन जीना है तो आप सोशल मीडिया से दूर रहें या इसका प्रयोग सीमित मात्रा में करें। पर विडंबना देखिए कि समाज को संयत और सुखी जीवन जीने का और माया मोह से दूर रहने का दिन-रात उपदेश देने वाले संत और भागवताचार्य आजकल स्वयं ही सोशल मीडिया के जंजाल में कूद पड़े हैं। विशेषकर ब्रज में ये प्रवृत्ति तेजी से फैलती जा रही है।

पिछले ही दिनों वृंदावन के विरक्त संत प्रेमानंद महाराज और प्रदीप मिश्रा के बीच सोशल मीडिया पर श्री राधा तत्व को लेकर भयंकर विवाद चला। ऐसे ही पिछले दिनों वृंदावन में नवस्थापित भगवताचार्य अनिरुद्धाचार्य के वक्तव्य भी विवादों में रहे । इसी बीच बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा द्वारा लीला के मंचन में राधा स्वरूप धारण कर बालाकृष्ण से पैर दबवाने पर विवाद हुआ। ये सब ब्रज की विभूतियां हैं। हर एक के चाहने वाले भक्त लाखों-करोड़ों की संख्या में हैं। जैसे ही कोई विवाद पैदा होता है, इनका चेला समुदाय भी सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय हो जाता है। ठीक वैसे ही राजनैतिक दलों की ट्रोल आर्मी, जो बात का बतंगड़ बनाने में मशहूर है, सक्रिय हो जाती है। यह सब सोशल मीडिया में अपनी पहचान बनाने का एक तरीका बन गया है।

अब प्रेमानंद जी वाले विवाद को ही लीजिए, कितने ही कम मशहूर भागवताचार्य भी इस विवाद में कूद पड़े जिनके फॉलोवर्स चार- पांच सौ ही थे पर जैसे ही वे इस विवाद में कूदे तो उनकी संख्या 20 हजार पार कर गई यानी बयानबाजी भी फायदे का सौदा है। परंपरा से शास्त्र ज्ञान का आदान-प्रदान गुरुओं द्वारा निर्जन स्थलों पर किया जाता था जहां जिज्ञासु अपने प्रश्न लेकर जाता था और गुरु की सेवा कर ज्ञान प्राप्त करता था। यही पद्धति भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को बताई थी। भगवद् गीता के चौथे अध्याय का चौंतीसवां श्लोक इसी बात को स्पष्ट करता है। ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया उपदेश्यन्ति ते ज्ञानज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।4.34।। ‘ परंतु सोशल मीडिया ने आकर ऐसी सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। अब धर्मगुरु चाहें न चाहें पर उनके शिष्य, उनके प्रवचनों का सोशल मीडिया पर प्रसारण करने को बेताब रहते हैं और फिर अलग-अलग गुरुओं के शिष्य समूहों में आपसी प्रतिद्वंद्विता चलती है कि किस गुरु के कितने चेले या श्रोता हैं। जिस संत के फॉलोवर्स की संख्या लाखों में होती है उन पर टिप्पणी करना या उन्हें विवाद में घसीटना लाभ का सौदा माना जाता है क्योंकि वैसे तो ऐसा विवाद खड़ा करने वालों की कोई फॉलोइंग होती नहीं है। पर इस तरह उन्हें बहुत बड़ी तादाद में फॉलोवर और लोकप्रियता मिल जाती है।

मतलब यह कि आप में योग्यता है कि नहीं, पात्रता है कि नहीं, आपको उस विषय का ज्ञान है कि नहीं, इसका कोई संकोच नहीं किया जाता। केवल सस्ती लोकप्रियता पाने के लालच में बड़े बड़े संतों के साथ नाहक विवाद खड़ा किया जाता है। आजकल ऐसे विवादों की भरमार हो गई है। वैसे तो तकनीकी के हमले को कोई चाह कर भी नहीं रोक सकता। पर कभी- कभी इंसान को लगता है कि उसने भयंकर भूल कर दी। 2003 की बात है जब मैंने बरसाना (मथुरा) के विरक्त संत श्री रमेश बाबा के प्रवचन नियमित रूप से हर सप्ताह बरसाना जा कर सुनना शुरू किया, बाबा की भक्ति और सरलता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और मुझे लगा कि बाबा के प्रवचन पूरी दुनिया के कृष्ण भक्तों तक पहुंचने चाहिए। तब ऐसा होना टीवी चैनल के माध्यम से ही संभव था क्योंकि तब तक सोशल मीडिया इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। मैंने इसके लिए प्रयास करके श्री मान मंदिर में टीवी रिकॉर्डिंग स्टूडियो की स्थापना कर दी। उस दौर में मान मंदिर के विरक्त साधुओं ने मेरा कड़ा विरोध किया। उनका कहना था कि बाबा की बात अगर इस तरह प्रसारित की जाएगी तो बरसाना में कलियुग का प्रवेश कोई रोक नहीं पाएगा पर बाबा ने मुझे अनुमति दी तो काम शुरू हो गया। इसका लाभ मान मंदिर को यह हुआ कि उसके भक्तों की संख्या में देश-विदेश में तेजी से बढ़ोतरी हुई और वहां धन की वर्षा होने लगी। तब मुझे विरोध करने वाले अव्यावहारिक प्रतीत होते थे ।

पर आज जब मैं पलट कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि वाकई इस प्रयोग ने मान मंदिर के पवित्र, शांत और निर्मल वातावरण को बहुत सारे झमेलों में फंसा दिया। वहां टीवी का प्रवेश न हुआ होता तो वहां का अनुभव पारलौकिक होता था जिसे अनुभव करने नीतीश कुमार, अर्जुन सिंह, सुषमा स्वराज, लालू यादव, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक उस दौर में वहां गए और गद्गद् हो कर लौटे।

हमने बात शुरू की थी सोशल मीडिया पर बाबाओं के संग्राम से और बात पहुंच गई अध्यात्म की एकांतिक अनुभूति से शुरू होकर उसके व्यावसायीकरण तक। इस आधुनिक तकनीकी ने जहां श्री राधा कृष्ण की भक्ति का और ब्रज की संस्कृति का दुनिया के कोने-कोने में प्रचार किया वहीं इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन, बरसाना, मथुरा आदि अपना सदियों से संचित आध्यात्मिक वैभव और नैसर्गिक सौंदर्य तेजी से समेटते जा रहे हैं। हर ओर बाजार शक्तियों ने हमला बोल दिया है। कहते हैं कि विज्ञान अगर हमारा सेवक बना रहे तो उससे बहुत लाभ होता है पर अगर वो हमारा स्वामी बन जाए तो उसके घातक परिणाम होते हैं। एक ब्रजवासी होने केऔर संतों के प्रति श्रद्धा होने के नाते मेरा देश भर के संतों से विनम्र निवेदन है कि सोशल मीडिया के संग्राम से बचें और अपने अनुयायियों को होड़ में आगे आकर अपना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने से रोकें जिससे वे अपना ध्यान भजन साधन के अलावा तीर्थस्थलों के सौंदर्यीकरण और रखरखाव में लगा सकें ताकि तीर्थयात्रियों को ब्रज जैसे तीर्थों में जाने पर सांस्कृतिक आघात न लगे, जो आज उन्हें लगने लगा है।


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