20-04-2024 (Important News Clippings)

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20 Apr 2024
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Date:20-04-24

Cloud-Seeding Isn’t a Rain/Water Solution

ET Editorials

The Dubai deluge prompted much speculation about whether the UAE’s cloud-seeding programme was the culprit. It turns out that it’s almost certain it wasn’t. The extreme rain event was most probably spurred by climate change coupled with freak weather conditions. But curiosity about cloud-seeding lingers. What it is, is a weather-modification technique that began in the 1940s when two scientists from General Electric used silver iodide bullets to generate artificial rain. During the Vietnam War between 1967 and 1972, the US spent some $3 mn each year on weather-modification campaigns designed to draw out the monsoon season and create muddy, challenging conditions for enemy fighters a continent away.

Today, China has the most extensive cloud-seeding programme in the world. In 2022, it was used to bring more rainfall to the Yangtze that had dried up. At least 52 countries have cloud-seeding programmes. Last year, the Delhi government had considered cloud-seeding to combat pollution. But after expert advice, it refrained from playing Indra.

Many climate scientists believe that cloud-seeding can only help at the margins. But its popularity only shows increasing desperation for a quick fix to the effects of climate change. These attempts are like other geoengineering methods, like reflecting sunlight before it hits Earth using sulfate aerosols. Moreover, manipulating weather patterns can lead to conflicts of interest, as different groups may have opposing preferences. It can also be weaponised. India has raised questions about China’s weather-modification activities and its link with flash floods in Himalayan states. Such quick fixes have limited use. Reducing carbon emissions should be seen as the prime solution to weather ‘mood swings’.


Date:20-04-24

पश्चिम एशिया का खत्म न होने वाला टकराव

दिव्य कुमार सोती, ( (लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं )

इजरायल ने ईरान में सैन्य कार्रवाई की तो है, लेकिन न तो वह कुछ खुलकर कह रहा और न ही ईरान आधिकारिक रूप से यह स्वीकारना चाहता है कि उसे इजरायल ने निशाना बनाया। इजरायल-ईरान में टकराव की जड़ में हमास द्वारा इजरायल पर गत 7 अक्टूबर को किया गया वह भीषण आतंकी हमला है, जिसमें एक हजार से अधिक इजरायली और अन्य देशों के लोग मारे गए थे। उसके बाद शुरू हुआ गाजा का संघर्ष इजरायल-ईरान युद्ध के कगार पर आकर खड़ा हो गया। यह आसानी से नहीं टलेगा।

पिछले सप्ताह ईरान ने इजरायल पर करीब 185 ड्रोन और 150 क्रूज एवं बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला किया, क्योंकि इजरायली सेना ने सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास में ईरानी जनरलों को निशाना बनाया था। इसके बाद ईरान सरकार, जो इजरायल को धरती से मिटाने की कसमें खाती है, के पास हमले के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। इसी बीच इजरायली सेना ने गाजा में हमास के शीर्ष नेता इस्माइल हानिया के तीन बेटे मार गिराए, इसलिए ईरान बौखला गया। यदि वह इजरायल को निशाना न बनाता तो पूरे विश्व में अपने कट्टरपंथी समर्थकों के बीच साख गंवा देता।

सीरिया में ईरानी दूतावास पर बमबारी कर इजरायल ने जिन ईरानी जनरलों को आतंकी साजिश रचने का जिम्मेदार बताते हुए मारा, उन पर दूतावास के बाहर भी हमला किया जा सकता था, परंतु उन्हें दूतावास में ही निशाना बनाया गया। इजरायल अच्छे से जानता था कि ऐसा करना कूटनीतिक प्रोटोकाल और अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन होगा। फिर भी उसने संभवतः ऐसा इसलिए किया, क्योंकि 7 अक्टूबर के आतंकी हमले के बाद उसने ठान लिया था कि सही समय पर हमास की हरकत के लिए ईरान की जवाबदेही तय की जाएगी।

ईरान दशकों से हमास और हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों के जरिये इजरायल पर हमले कराता आया है-ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तानी फौज लश्कर, जैश जैसे संगठनों के जरिये भारत पर आतंकी हमले कराती रही है। अभी तक इजरायल ईरान समर्थित आतंकी संगठनों पर ही जवाबी कार्रवाई करता था, न कि उनके नियंत्रक ईरान पर। हमास के आतंकी हमले के बाद इजरायल का विचार बदला।
पूर्व इजरायली पीएम नफ्ताली बैनेट का कहना था कि हमसे यह गलती हुई कि हम आतंक रूपी आक्टोपस के पैरों यानी हमास, हिजबुल्ला से लड़ते रहे, परंतु उसके सिर यानी ईरान को कुचलने की कभी कोशिश नहीं की। सीरिया में अपने दूतावास पर इजरायली हमले के बाद ईरान के पास भी यह विकल्प था कि वह किसी और देश में उसके ठिकानों को निशाना बनाता, लेकिन ईरान के कट्टरपंथी शासक इजरायल को नक्शे से मिटाने के सपने अपने समर्थकों को दिखा रहे थे, इसलिए उनके पास उस पर सीधे हमले के अलावा और उपाय न था।

इजरायल पर ईरान के हमले ने उसके मिसाइल कार्यक्रम की कमजोरी ही उजागर की। इजरायल पर दागी गईं 150 मिसाइलों में से मात्र सात ही निशाने पर लगीं। हमले के समय इजरायल की सुरक्षा में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की सेनाएं एक साथ काम कर रही थीं। आधी से ज्यादा ईरानी मिसाइलों को मार गिराने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि वे इजरायली सीमा में प्रवेश करने से पहले ही गिर गईं। जो सात मिसाइलें लक्ष्य तक पहुंचीं, वे भी इजरायल के एक सैन्य हवाई अड्डे का मामूली नुकसान कर पाईं।

इसके बाद भी इस हमले ने इजरायली जनता के सामने ईरानी खतरे को मूर्त रूप दे दिया और दोनों देशों के बीच प्रतिरोधक क्षमता का संतुलन भी गड़बड़ा दिया। यदि इजरायल इस हमले का जवाब न देता तो भविष्य के लिए संकेत जाता कि ईरान सीधे उस पर बमबारी कर सकता है और फिर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा।
इस समय पश्चिम एशिया में तनाव के चलते अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि की सेनाएं तैनात हैं और ईरानी हमले को विफल करने में उन्होंने इजरायल की पूरी सहायता की, परंतु यह स्थिति हमेशा नहीं रहेगी, इसलिए इजरायल के लिए ईरान पर जवाबी कार्रवाई कर शक्ति संतुलन बहाल करना जरूरी था, ताकि भविष्य में ईरानी हमले नियमित न हो जाएं। खास बात यह है कि इजरायल ने ईरान पर हमला उसके सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई के जन्मदिन के मौके पर किया।

एक तरह से इजरायल और ईरान ने इतिहास में पहली बार एक-दूसरे पर सीधे सैन्य हमले किए। इजरायल के अंदर एक धड़ा है, जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को समाप्त करना चाहता है, क्योंकि यदि वह परमाणु बम बनाने में सफल हो गया तो वह पाकिस्तान की तरह परमाणु युद्ध की धमकी की आड़ में इजरायल के विरुद्ध व्यापक आतंकी युद्ध चलाता रह सकता है।
इस धड़े को सऊदी अरब समेत कई सुन्नी देशों का मौन समर्थन है। वे नहीं चाहते कि शिया देश ईरान के पास परमाणु बम हो। जार्डन की वायुसेना ने तो ईरानी हमले को विफल करने में इजरायल की मदद भी की। माना जाता है कि इजरायली खुफिया एजेंसियां लंबे समय से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए ईरानी वैज्ञानिकों को निशाना बनाने के साथ अन्य विध्वंसक कार्रवाई करती आई हैं।

गत दिवस इजरायल ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीधा निशाना तो नहीं बनाया, पर उन शहरों के सैन्य ठिकानों पर कार्रवाई की, जहां उसके परमाणु संयंत्र भी हैं। ईरानी सूत्र इस हमले को एक छोटा और विफल ड्रोन हमला बता रहे हैं, क्योंकि सच स्वीकारने पर ईरान को फिर से इजराइल पर मिसाइल हमले करने होंगे, जो पहले की तरह विफल कर दिए जाएंगे और उसकी कमजोरी की पोल पुनः खुल जाएगी। ईरान का व्यवहार बालाकोट में भारत के हमले के बाद पाकिस्तान जैसा है।

इजरायल ने शायद इसलिए ईरान पर हमलों की जिम्मेदारी नहीं ली, क्योंकि ऐसा करना रूसी वायुसेना को ईरान में आने का बहाना दे सकता था, जैसा सीरिया में देखा जा चुका है और अमेरिका ऐसा नहीं चाहता। पश्चिम एशिया में ईरान-इजरायल का टकराव पहले ही यूक्रेन में अमेरिका समर्थित प्रतिरोध की धार कुंद कर रहा है। ऐसे में इन दोनों देशों का टकराव धीरे-धीरे तेजी पकड़ने और विश्व शांति को संकट में डालने वाला हो सकता है, जिसकी जद में देर-सबेर ईरानी परमाणु कार्यक्रम भी आ सकता है। चूंकि यह साफ है कि पश्चिम एशिया में शांति के आसार नहीं, इसलिए भारत को सतर्क रहना होगा।


Date:20-04-24

मानव विकास को प्राथमिकता जरूरी

नितिन देसाई

संभावना जताई जा रही है कि वर्ष 2047 तक भारत विकसित देशों की सूची में जगह बना लेगा। इस विषय पर चर्चा भी जमकर हो रही है। परंतु, विकसित देश बनने की प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए भारत को विकास से संबंधित अपनी नीतियों में कई बदलाव करने होंगे। विकास नीति के अंतर्गत जिन दो प्रमुख खंडों में बड़े बदलावों की आवश्यकता है वे हैं मानव विकास –विशेषकर शिक्षा एवं स्वास्थ्य- और तकनीकी नवाचार। कुछ मायनों में दूसरा खंड काफी हद तक पहले खंड पर निर्भर है और इसलिए मैं यहां मानव विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा।

राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2021-22 में शिक्षा एवं स्वास्थ्य की हिस्सेदारी साधारण थी। सकल मूल्य वर्द्धन में इनका हिस्सा क्रमशः 4 प्रतिशत और 1.6 प्रतिशत था। अगर हम भारत को एक विकसित देश बनाना चाहते हैं तो यह स्थिति बदलनी होगी। शिक्षा एवं स्वास्थ्य न केवल आर्थिक वृद्धि लिए आवश्यक हैं बल्कि विकास लक्ष्यों का आवश्यक हिस्सा भी हैं। विकास के लक्ष्यों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता भी शामिल की जानी चाहिए।

आर्थिक वृद्धि दर और मानव विकास के कुछ मानकों के बीच आपसी संबंध यह नहीं बताता है कि ऊंची आर्थिक वृद्धि बेहतर मानव विकास सुनिश्चित करती है या फिर मानव विकास बेहतर होने से आर्थिक वृद्धि की गति तेज हो जाती है। इसे बेहतर ढंग से समझने के लिए अधिक सावधानी पूर्वक आंकड़ों के विश्लेषण की आवश्यकता होगी।

जनक राज, वृंदा गुप्ता और आकांक्षा श्रवण ने हाल में अपने एक आलेख में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा निर्धारित मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) और 1990-2019 के दौरान राज्य स्तरीय आर्थिक विकास के बीच संबंध का विश्लेषण किया गया है। उनके विश्लेषण में एचडीआई और भारत में आर्थिक विकास के बीच दीर्घ अवधि के संबंध का जिक्र किया गया है। परंतु, कारण एवं प्रभाव के संदर्भ में यह संबंध दो दिशाओं वाला है।

इसका अभिप्राय यह है कि त्वरित वृद्धि के लिए उच्च मानव विकास जरूरी है और मानव विकास के स्तर में सुधार के लिए आर्थिक वृद्धि भी उतनी ही आवश्यक है। वे शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय से एचडीआई पर होने वाले प्रभाव का स्पष्ट आकलन नहीं कर पाए। शिक्षा के प्रभाव के विश्लेषण से पता चलता है कि प्राथमिक शिक्षा में सुधार का अंतर-राज्यीय स्तर पर वृद्धि में भिन्नता पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है। मगर माध्यमिक शिक्षा में सुधार का असर क=षि एवं विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि पर पड़ता है। इसके अलावा, उच्च शिक्षा में सुधार का सेवाओं पर भी व्यापक असर होता है।

तो क्या सार्वजनिक व्यय अधिक कारगर नहीं रहने का कारण पर्याप्त वित्त पोषण की कमी हो सकता है? विश्व बैंक के विकास सूचकांकों के अनुसार वर्ष 2021 में भारत में शिक्षा पर खर्च सरकार के कुल व्यय का 14.7 प्रतिशत रहा था। यह आंकड़ा निम्न मध्यम-आय वाले देशों से मेल खाता है। हालांकि, 2018 में स्वास्थ्य पर खर्च सरकार के कुल व्यय का 3.5 प्रतिशत था। यह निम्न मध्यम-आय वाले देशों के 5.1 प्रतिशत से कम रहा था। शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च केंद्र एवं राज्य सरकारों के व्यय पर कितना निर्भर है?

राष्ट्रीय लेखा क्षेत्र द्वारा चिह्नित ‘अन्य सेवाओं’ में शिक्षा एवं स्वास्थ्य की लगभग 80 प्रतिशत भागीदारी होती है। ‘अन्य सेवाओं’ में सार्वजनिक क्षेत्र की सकल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) में 17 प्रतिशत भागीदारी थी और 83 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र एवं परिवारों से आया। सरकार की तरफ से की गई अनदेखी इस बात से झलकती है कि वर्ष 2021-22 में सार्वजनिक क्षेत्र के जीएफसीएफ में ‘अन्य सेवाओं’ की हिस्सेदारी केवल 5.9 प्रतिशत थी।

शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों में दिखे नतीजे निराशाजनक रहे हैं। ‘एनुअल स्टेट ऑफ एजुकेशन’ शीर्षक से ‘प्रथम’ की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि 14 से 18 वर्ष के उम्र दायरे में आने वाले लगभग 25 प्रतिशत छात्र कक्षा 2 की पुस्तक ठीक ढंग से अपनी क्षेत्रीय भाषा में नहीं पढ़ पाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार लगभग आधे बच्चे भाग (तीन अंकों की संख्या को एक अंक की संख्या से भाग) देने में कठिनाई महसूस करते हैं। कम उम्र के छात्रों में गुणवत्ता से जुड़ी समस्या दयनीय है। यह रिपोर्ट 14-18 वर्ष के बच्चों पर ध्यान केंद्रित करती है।

जहां तक स्वास्थ्य क्षेत्र में दिखे प्रभावों की बात है तो कुछ सकारात्मक असर दिखे हैं, मसलन शिशु मृत्यु दर में कमी इसका एक उदाहरण है। परंतु बच्चों में पोषण में कमी और संक्रामक बीमारियों का प्रसार लगातार जारी रहना चिंता के दो प्रमुख कारण हैं। गरीब लोगों के लिए अपर्याप्त सार्वजनिक प्रावधान एक गंभीर त्रुटि है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्तमान स्वास्थ्य व्यय में परिवारों को अपनी जेब से 52 प्रतिशत हिस्से का भुगतान करना पड़ता है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर निःशुल्क दवाओं का पर्याप्त प्रावधान नहीं किया गया है।

उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर हाल में किए गए एक ताजा अध्ययन में अनुमान लगाया गया कि 2011-12 में लगभग 4.6 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य मद में भारी भरकम रकम खर्च करनी पड़ी। यह रकम उनके कुल खर्च का 10 प्रतिशत या इससे अधिक हो गई। ये खर्च गंभीर बीमारियों के इलाज पर हुए। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में लोगों को उत्पादक परिसंपत्तियां बेचनी पड़ीं और रकम उधार लेनी पड़ी। इतना ही नहीं, उन्हें बच्चों की शिक्षा पर खर्च में कटौती तक करनी पड़ी। मानव विकास में व्यापक सुधार ऊंचे एवं अच्छी तरह संगठित सार्वजनिक व्यय और शिक्षा एवं स्वास्थ्य विकास में निजी गतिविधियों के संवर्द्धन एवं नीति नियमन पर निर्भर करेगा।

लोक नीतियों एवं स्वास्थ्य सुविधाओं पर व्यय का मुख्य लक्ष्य लोगों के जीवन में बदलाव लाने पर होना चाहिए न कि आर्थिक प्रभाव पर। मुख्य ध्यान गरीब परिवारों की जेब से होने वाले खर्च में कमी करने पर होना चाहिए। वास्तव में गरीबों की हालत तब और तंग हो जाती है जब उन्हें इलाज के लिए अपने गांव या छोटे शहरों से दूर जाना पड़ता है। स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति एक ऐसे व्यापक दृष्टिकोण के आर्थिक प्रभाव भी दिखेंगे जो पर्यावरण में सुधार पर ध्यान केंद्रित करता है।

मुझे स्मरण है कि एक पोषण विशेषज्ञ ने योजना आयोग (अब नीति आयोग) को सलाह दी थी कि पूरक खाद्य आपूर्ति की तुलना में सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति पोषण में सुधार का अधिक विश्वसनीय जरिया हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोगों का स्वास्थ्य बेहतर रहेगा तो इसके सकारात्मक आर्थिक प्रभाव भी दिखेंगे। पंजाब के एक मशहूर अर्थशास्त्री ने तर्क दिया था कि राज्य में कृषि के विकास में मलेरिया उन्मूलन का बड़ा योगदान रहा है।

देश में स्कूल और कॉलेज तेजी से स्थापित हो रहे हैं। अब इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा के तेजी से प्रसार की आवश्यकता है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की चुनौती जरूर है मगर राजनीतिक कारणों से पाठ्यक्रमों में बदलाव की जरूरत तो बिल्कुल नहीं है, बल्कि प्राथमिक विद्यालयों से लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता है। इसके लिए सार्वजनिक एवं निजी शैक्षणिक संस्थानों के प्रदर्शन की समीक्षा की जरूरत होगी।

अगर प्रथम जैसी गैर-सरकारी संस्था प्रदर्शन की समीक्षा की दिशा में काम कर सकती है तो सरकार क्यों नहीं इसके लिए एक व्यापक प्रणाली स्थापित कर सकती है? उच्च शिक्षा में सुधार के लिए लीक से हटकर एक कदम यह हो सकता है कि हम संस्थाओं को अनुदान देने की प्रणाली से हटकर छात्रों को अनुदान या ऋण देने की पद्धति अपनाएं (और विशेष अधिकार प्राप्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को समाप्त किया जाए)। हम छात्रों को पढ़ाई की गुणवत्ता के आधार पर शिक्षण संस्थान चुनने की स्वतंत्रता दी जाए।

स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर अधिक जोर दिए जाने के लिए राज्यों के द्वारा बड़े एवं भिन्न नवाचार उपाय किए जाने की जरूरत है क्योंकि कमजोर प्रदर्शन का मूल कारण अलग-अलग हो सकता है। वैसे भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर केंद्र सरकार का व्यय राज्यों की तुलना में काफी कम है, विशेषकर तब जब वर्तमान एवं सेवानिवृत्त कर्मचारियों पर होने वाला व्यय घटा दिया जाए। इसे देखते हुए केंद्र सरकार को संघात्मक ढांचे को अधिक प्रभावी ढंग से काम करने देना चाहिए। ऐसा करने से ही मानव विकास की रफ्तार तेज होगी जिससे सरकार दीर्घकालिक लक्ष्य प्राप्त कर पाएगी।


Date:20-04-24

युद्ध की भड़कती आग

संपादकीय

ईरान और इजरायल जिस राह पर निकल पडे़ हैं, वह युद्ध और विनाश की ओर ही जाता है। इस महीने की शुरुआत से ही दोनों देशों से ‘हमला’ और ‘बदला’ जैसे शब्द सुनाई दे रहे हैं। एक अप्रैल को सीरिया के दमिश्क में ईरानी दूतावास पर हमला हुआ, तो इसका आरोप इजरायल के मत्थे मढ़ा गया। दो हफ्ते बीतने से पहले ही ईरान ने उसका बदला लेने के लिए हमला बोल दिया। उसने इजरायल पर करीब 300 मिसाइलें दागीं। हालांकि, इजरायल ने दावा किया कि उसने ज्यादातर मिसाइलें लक्ष्य तक पहुंचने से बहुत पहले ही नष्ट कर दीं। नुकसान शायद बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन यह उसके सम्मान पर बहुत बड़ी चोट थी। पिछले तीन दशक में किसी देश ने पहली बार इजरायल की धरती पर इस तरह से बमबारी की जुर्रत की थी। इस शुक्रवार को इजरायल ने इसका बदला ले लिया। इजरायल के वमवर्षक ड्रोन ईरान की ओर उड़े और उसके सैन्य शहर इशफाहान पर बम बरसाए। इशफाहान के बारे में कहा जाता है कि इसी जगह पर ईरान अपना परमाणु बम विकसित कर रहा है। इसके अलावा, यह ईरानी फौज का सबसे बड़ा बेस भी है।

यह हमला कितना बड़ा था, इसके बारे में फिलहाल बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ खबरों में तीन बडे़ धमाकों की आवाज सुनाई देने की बात कही गई है। हालांकि, ईरान और इजरायल, दोनों ने ही इसे कमतर दिखाने की कोशिश की है। तेहरान ने कहा है कि कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं हुआ, जबकि इजरायल ने आश्वस्त किया है कि यह हमला ईरान के परमाणु केंद्र पर नहीं था। वैसे मामला हमले के बड़े या छोटे होने का नहीं है, मामला पश्चिम एशिया में और खासकर इन दोनों देशों के बीच उस तनाव का है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है। अतीत में भी इजरायल एक बार ईरान के इसी शहर पर हमला कर चुका है, लेकिन इस बार तनाव बहुत ज्यादा है, इसलिए आशंकाओं की भरमार भी दुनिया को सिहरन दे रही है। अभी ईरान की तरफ से एक बयान यह भी आया है कि फिलहाल इस हमले का बदला लेने का उसका कोई इरादा नहीं है, लेकिन आम धारणा यही है कि बदला देर-सवेर लिया ही जाएगा। अगर इसी तरह से बदला-दर-बदला बात चलती रही, तो पश्चिम एशिया का यह तनाव कब पूर्ण युद्ध में बदल जाएगा, कहा नहीं जा सकता। पिछले चंद रोज में गाजा में जिस तरह का मानवीय संकट खड़ा हुआ है, इजरायल इन झड़पों के चलते उससे दुनिया का ध्यान हटाने में जरूर कामयाब रहा है।

पिछले कुछ महीनों से पश्चिम एशिया में जैसे तनाव दिख रहे हैं और जिस तरह के खतरे खड़े हो रहे हैं, उसके सामने पूरी दुनिया महज तमाशबीन बनी दिख रही है। खासकर जिनको हम महाशक्तियां कहते हैं, वे मौन हैं। रूस यूक्रेन के साथ लड़ाई में उलझा हुआ है। चीन अपनी सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है। अमेरिका में इस साल राष्ट्रपति चुनाव है और ऐसे मौके पर कोई यह मानने को तैयार नहीं कि वह पश्चिम एशिया में निष्पक्ष भूमिका निभा सकेगा। संयुक्त राष्ट्र की अपनी सीमाएं हैं और अक्सर वह ऐसे युद्धों को रोकने में कारगर नहीं हो पाता। बड़ी समस्या यह नहीं है कि इजरायल-ईरान का तनाव बढ़ रहा है और कभी भी आग के भड़क उठने की आशंकाएं हैं, समस्या यह है कि यह सब ऐसे मोड़ पर हो रहा है, जहां पहंुचने के लिए समझदारी के सारे रास्ते बंद कर दिए गए हैं।


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