01-06-2024 (Important News Clippings)
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Date: 01-06-24
Look At Job Market
Consumption growth is half of GDP’s. That’s worrying
TOI Editorials
India’s GDP growth for Jan-Mar quarter and also 2023-24 was higher than what most economists and even GOI’s statistics ministry forecast. GDP for 2023-24 expanded 8.2% to ₹173.8L cr, while the fourth quarter growth was 7.8%. The economy is doing well, with GDP receiving an unexpected boost from the relatively low economy-wide inflation rate, or deflator, of 1.4%. It’s also led to a surge in manufacturing growth.
Upside | Public investment is arguably the most important catalyst for economic growth today. Led by it, the overall fixed investment in 2023-24 expanded by 9% to ₹58.3L cr. Along with it, manufacturing has started firing. It grew 9.9% in 2023-24 to record ₹27.5L cr.
Challenges | Robust GDP growth hasn’t necessarily made decision-making easier for RBI and GOI. GVA growth, which measures supply side, has lagged GDP growth by a relatively large extent of over a percentage point in the last two quarters of 2023-24. Also, the large difference between the deflator and retail inflation complicates both monetary and fiscal policymaking.
Downside | The most puzzling aspect of GDP data is the weak growth rate of private consumption. This component grew 4% in 2023-24, growing at less than half the pace of total output. This may be on account of the deterioration in the quality of employment. For example, the Jan-Mar GOI urban jobs data showed that the proportion of self-employed has increased by more than a percentage point since the same period in 2022. Poor quality of jobs can be a drag on GDP.
Date: 01-06-24
India, the Choice For Global Talent?
Plan an immigration policy for high-end labour
ET Editorials
India’s population will peak after most developed nations. That will make it a late entrant into the market for migrant labour. It will face a settled world order of labour movement to economies now ageing. These countries have the advantage of established welfare systems and decades of structured immigration. India has neither. However, it offers opportunities to foreign workers in high-end manufacturing, services and the knowledge economy. This bridges some of the domestic skills gap that weighs on the economy’s potential to grow. It also smoothens India’s economic transition to an adverse age-dependency demographic. An immigration policy directed at improving productivity will speed up development and climb the value chain in manufacturing and services faster.
A structured immigration policy has a positive spin-off —it involves creating the ecosystem that, in effect, arrests migration. This means creating an academic and research environment to compete with those that draw Indians abroad. These institutions then have to feed into industry that creates the right kind of jobs. Social security needs to be upgraded alongside improved cultural assimilation. The fiscal effects are broadly positive — in India’s case, the hurdle may be higher to harmonise the social and economic environments. All the more reason to plan early for the eventuality of Indians growing old before they become rich.
Tech is bringing forward timelines. AI is set to disrupt the job market just about the time countries reach a critical phase of labour shortages. As competition for talent intensifies, there will be attempts to hoard skills in demand in a post-AI world. India’s advantage in skilling its workforce will diminish in a couple of decades. It should, by then, have established itself as a base for suitable immigrants. The scale of India’s ageing will have to be tackled through tech adaptation and its attendant immigration. This is as good a time to set the ball rolling to make India the country of choice for high-end global talent.
Date: 01-06-24
इजरायल को कमजोर पड़ता समर्थन
संपादकीय
सात महीने पहले शुरू हुई इजरायल-हमास जंग (Israel-Hamas war) अब गतिरोध के स्तर पर पहुंच गई है। वैसे तो दोनों में से कोई भी पक्ष अपने उद्देश्य के करीब भी नहीं पहुंचा है, लेकिन इजरायल की विफलताएं उसके पास मौजूद असंगत सैन्य शक्ति की वजह से काफी बढ़ गई हैं।
इजरायली सेना ने गाजा को मलबे में तब्दील कर दिया है, फिर भी न तो वे हमास को खत्म करने के करीब हैं और न ही, हमास द्वारा अक्टूबर 2023 में अचानक हमला कर बंधक बनाए गए इजरायली नागरिकों को छुड़ा पाए हैं। अमेरिका और यूरोप से आपूर्ति होने वाले अत्याधुनिक हथियारों से गाजा पर हमला करने के बावजूद 129 इजरायली नागरिक बंधक बने हुए हैं और काफी हद तक हमास नेतृत्व को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा है।
हाल ही में रफा (Rafah) से इजरायल में दागे गए रॉकेटों से पता चलता है कि हमास अपनी पीठ पर ईरान का हाथ होने की वजह से मजबूत जवाबी कार्रवाई करने की क्षमता रखता है। इस तरह इजरायल एक विषम गुरिल्ला युद्ध में फंस गया है।
साल 2020 के अब्राहम समझौते (अमेरिका, इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच) के आधार पर एक पश्चिम एशियाई गठबंधन बनाने की अमेरिका की उम्मीदें विफल हो गई हैं क्योंकि फिलिस्तीनियों के साथ इजरायल के व्यवहार के खिलाफ अरब जगत में असंतोष की आवाज ने अरब शक्तियों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब इजरायल के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन तेजी से कमजोर पड़ रहा है।
हमास के हमले पर, जिसमें बच्चों सहित 1,200 लोग मारे गए थे और 252 लोग बंधक बनाए गए, करीब पूरी दुनिया की सहानुभूति हासिल कर चुका इजरायल अब गाजा में आक्रामक रुख अपना चुका है।
खबरों के मुताबिक इसकी वजह से 36,000 से ज्यादा आम फिलिस्तीनी लोग मारे जा चुके हैं (जिनमें करीब 15,000 बच्चे थे) और 80,000 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। इसे लेकर काफी आक्रोश है। रफा में इजरायल की सैन्य कार्रवाई की लगभग पूरी दुनिया में आलोचना हुई है, खासकर उस हमले के बाद जिसमें विस्थापित फिलिस्तीनी नागरिकों के लिए बनी एक टेंट सिटी जलकर तबाह हो गई।
इस महीने की शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर फिलिस्तीन के संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के प्रस्ताव को सही ठहराया और सिफारिश की कि सुरक्षा परिषद इस पर अनुकूल तरीके से विचार करे। इस प्रस्ताव के पक्ष में 143 (भारत सहित), विपक्ष में 9 वोट पड़े और 25 सदस्य देश अनुपस्थित रहे।
इसके बाद नॉर्वे, आयरलैंड और स्पेन ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दे दी। पिछले हफ्ते अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने युद्ध अपराधों और मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोप में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और हमास नेता याह्या सिनवार, दोनों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट की मांग की थी।
आईसीसी के स्थापना कानून पर इजरायल के यूरोपीय सहयोगियों सहित 124 देशों के दस्तखत हैं। इसके मुताबिक अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ वारंट है और वह इन देशों की यात्रा पर जाता है तो वे उसे गिरफ्तार करने के लिए बाध्य हैं।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने इजरायल के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका के द्वारा पिछले साल दाखिल एक मामले में इसी 30 मई को इजरायल को आदेश दिया कि वह गाजा पर अपने सैन्य हमले तत्काल बंद करे।
इसके पहले जनवरी महीने में भी आईसीजे ने इजरायल को आदेश दिया था कि वह गाजा में जंग को रोकने के लिए यथासंभव सभी उपाय करे। वैसे तो इस तरह के बढ़ते टकराव के माहौल में ऐसे आदेशों का पालन कठिन ही है, लेकिन इनमें काफी प्रतीकात्मक शक्ति जरूर है।
इस बीच, अमेरिका में जो बाइडन का फिर से राष्ट्रपति चुना जाना अधर में ही दिख रहा है, क्योंकि इजरायल को हमास के खिलाफ जंग में बिना शर्त समर्थन दिए जाने को लेकर डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर ही मतभेद की स्थिति है।
अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों से ऐसा लग रहा है कि सभी नस्ल के युवा मतदाताओं (यहूदी समुदाय सहित) में गाजा में इजरायली कार्रवाई को लेकर गहरी आपत्ति है।
जंग को लेकर इजरायली मंत्रिमंडल में भी फूट पड़ गई है, जिससे यह संभव है कि श्री नेतन्याहू और उनके साथियों को इसकी कीमत चुकानी पड़े। लेकिन गाजा की बरबादी और पश्चिमी तट से बड़े पैमाने पर फिलिस्तीनियों के निष्कासन के साथ, यह संभव है कि दो देशों में विभाजन का समाधान जमीन पर पस्त हो गया हो, जिससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने नई चुनौतियां आ सकती हैं।
Date: 01-06-24
देर आयद दुरुस्त आयद
नवल किशोर कुमार
आज के दौर में स्वास्थ्य एक बड़ा सवाल है और इसके लिए आंकड़ों की कोई कमी नहीं है। फिर चाहे वह कैंसर रोगियों की संख्या का मामला हो या फिर हृदय संबंधी रोग से ग्रस्त लोगों की संख्या का यह संख्या कितनी अधिक हो सकती है, उसका अनुमान सिर्फ इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में रोजाना 10 से 15 हजार नए मरीज इमरजेंसी से लेकर जनरल ओपीडी में आते हैं।
यह हाल बेशक देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल का है, लेकिन इसके आधार पर पूरे देश के स्तर पर यदि हम संख्या का अनुमान लगाएं तो हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि आज स्वास्थ्य के मामले में हम कहां खड़े हैं। हालांकि देश में लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सरकार के स्तर पर आधारभूत संरचना मौजूद है। मसलन, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस (सीबीएचआई) द्वारा 2019 में जारी रिपोर्ट के 1 अनुसार भारत में कुल 23,581 सरकारी अस्पताल और 22 सेंट्रल गवर्नमेंट के अस्पताल हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज के दौर में यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है और बड़ी संख्या में लोगों को निजी अस्पतालों की शरण में जाना पड़ता है।
इसके अलावा इलाज के खर्चे में हुई गुणात्मक तरीके कारण निम्न आय वर्गीय लोगों को गुणवत्तायुक्त इलाज से वंचित कर दिया है। वहीं मध्यम आय वर्गीय परिवारों के लिए भी यह कम मुश्किलों वाला नहीं रह गया है। ऐसे में स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीमा कंपनियों से उसे राहत जरूर मिलती है। मसलन, इलाज का खर्चा बीमा कंपनियां उठाती हैं और इसके बदले इस सुविधा के उपभोगकर्ता को बीमा योजना के तहत एक तय राशि प्रीमियम के रूप में चुकानी होती है, लेकिन बीमा कंपनियों से बीमा का दावा करना अमूमन आसान नहीं होता। दस्तावेज संबंधी कागजातों के निष्पादन के नाम पर अनावश्यक देरो बहुत साधारण सी बात है। लिहाजा होता यह है कि बीमा कराने के बाद भी मरीज को अपने इलाज के लिए प्रारंभ में अपने पैसे से इलाज कराना होता है। इसके कारण उन्हें आर्थिक संकट का सामना तो करना ही पड़ता है, सबसे अधिक संकट समय पर इलाज नहीं होने के कारण होता है। खैर, मध्यम आय वर्गीय लोगों के लिए यह राहत भरी खबर है कि भारतीय बीमा नियामक व विकास प्राधिकरण (इरडाई) ने बीमा कंपनियों की मनमानी पर नकेल कसने के लिए कुछ कदम उठाए हालांकि उसने यह कदम तब उठाए हैं जब ‘लोकल सर्किल्स’ के एक सर्वे का परिणाम सामने आया है, जिसमें 43 प्रतिशत बीमाधारकों ने यह कहा है कि बीमा कंपनियां संकट के समय साथ तो नहीं ही देती हैं, संकट के बाद भी बीमा की राशि देने में आनाकानी करती हैं। इरडाई ने कहा है कि आपात मामलों में बीमा कंपनी को आवेदन प्राप्त होने के एक घंटे के अंदर कैशलेस प्राधिकरण के अनुरोध पर निर्णय लेना चाहिए। बीमाकर्ता कंपनियां इसके लिए आगामी 31 जुलाई तक तैयारी कर लें। इसके अलावा वे चाहें तो कैशलेस ऑथराइजेशन को सुगम बनाने के लिए अस्पताल में डेस्क बना सकती हैं।
ठीक वैसे ही जैसे एयरपोर्ट पर विभिन्न विमानन कंपनियां अपना डेस्क उपभोक्ताओं की सुविधा के लिए बनाती है। इरडाई ने यह भी का हैं कि वे डिजिटल माध्यम से ऑथराइजेशन देने की प्रक्रिया शुरू करें। इसके अलावा उसने बीमा कंपनियों को यह भी कहा है कि अब कोई भी दावा वे प्रोडक्ट मैनेजमेंट कमिटी की मंजूरी के बिना खारिज नहीं की जा सकेगी। यदि कोई दावा आंशिक रूप से या पूरी तरह से खारिज किया जाता है तो पॉलिसी के दस्तावेज के नियमों और शर्तों सहित पूरा विवरण उपभोक्ता को उपलब्ध कराना होगा। इन सबके अलावा इरडाई ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि इलाज के दौरान मरीज की मौत होने पर बीमा कंपनियों को
हैं।
एक घंटे के अंदर बीमे की राशि का भुगतान करना होगा और यह भी कि संबंधित अस्पतालों से दस्तावेज संग्रह करने का काम बीमा कंपनियां स्वयं करेंगों, मृतक के परिजन नहीं जाहिर तौर पर ये कुछ ऐसे पहल हैं, जिनसे मध्यम आय वर्गीय परिवारों को राहत मिल सकती है और वे उम्मीद कर सकते हैं कि अपनी गाड़ी कमाई का एक हिस्सा जो वे बीमा कंपनियों को दे रहे हैं. यह जाया नहीं होगा। समय पड़ने पर वह काम आएगा, लेकिन इसमें बड़ी अड़चन यह है कि इरडाई स्वयं इस मामले में लचर रहा है।
ऐसे मामले बहुत कम ही आए हैं. जिनमें बीमाधारकों की शिकायत पर इरडाई ने आगे बढ़कर वीमाकर्ता कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई की हो। आज स्वास्थ्य संबंधी बीमा के क्षेत्र में भारतीय जीवन बीमा निगम जैसी देशी कंपनियां तो हैं ही, विदेशी कंपनियां भी हैं। अब यह पूरी तरह से बाजार का रूप ले चुका है। आंकड़ों के रूप में कहें तो आज का भारत वैश्विक स्तर पर 10वां सबसे बड़ा बाजार है और सभी उभरते बाजारों में दूसरा सबसे बड़ा है, जिसका अनुमानित बाजार हिस्सा 1.9 प्रतिशत है। उम्मीद है कि भारत आने वाले दशक में सबसे तेजी से बढ़ते बीमा बाजारों में से एक के रूप में उभरने के लिए तैयार है। वर्तमान में देश में 67 वीमाकर्ता कंपनियां हैं, जिनमें से 24 जीवन बीमाकर्ता, 26 सामान्य वीमाकर्ता हैं, 5 एकल स्वास्थ्य बीमाकर्ता कंपनियां और 12 पुनर्बीमाकती हैं।
हम चाहें तो इस निष्कर्ष पर भी पहुंच सकते हैं कि भारत में बीमा उद्योग ने पिछले दो दशकों में प्रभावशाली वृद्धि दर देखी है, जो निजी क्षेत्र की अधिक भागीदारी और वितरण क्षमताओं में सुधार के साथ साथ परिचालन दक्षता में पर्याप्त सुधार के कारण संभव हो पाई है. लेकिन मूल समस्या उन लोगों की है जो अब भी बीमाधारक नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो दिहाड़ी मजदूर हैं, खेतिहर मजदूर हैं या फिर हम चाहें तो इनमें आसंगठित क्षेत्रों के मजदूरों को शामिल कर सकते हैं। इन लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। और इनके वास्ते सरकारी अस्पताल हैं, जिनकी गुणवत्ता पर हमेशा प्रश्नचिएन लगा रहता है। देश और राज्यों की राजधानियों के मुख्य अस्पतालों को छोड़ दें तो जिला स्तर पर जो सरकारी आस्पताल मौजूद हैं, वे रेफरल अस्पताल बनकर रह गए हैं। जाहिर तौर पर यह काम हरडाई का नहीं, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों का है, जिन्हें जन स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकता सूची में ऊपर रखना होगा और स्वास्थ्य क्षेत्र पर बाजार को पूर्ण रूप से साथी होने से रोकना होगा। वजह यह कि यह देश जितना उच्च आर्य वर्ग और मध्यम आय वर्ग के लोगों का है, उतना ही निम्न आय वर्ग के लोगों का भी।
Date: 01-06-24
भारत आएगा सोना
संपादकीय
भारत भूमि पर भारतीय रिजर्व बैंक के खजाने में 100 टन से कुछ ज्यादा स्वर्ण का शामिल होना सुखद और गौरवान्वित करने वाली खबर है। यह सोना भारत का ही है और भारतीय रिजर्व बैंक इस सोने को स्वदेश लाकर अपने विभिन्न खजानों में सुरक्षित कर लेगा। जब सोने के स्वदेश लाए जाने की सूचना है, तब साल 1991 की याद स्वाभाविक है, जब मजबूरी में देश को अपना सोना विदेश भेजना पड़ा था। तब कर्ज का जाल भारी हो गया था, लेकिन आज भारत की अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन कर रही है और कर्ज चुकाना अब समस्या नहीं है। ऐसे में, इतने बड़े पैमाने पर विदेश से सोना लाने की प्रशंसा ही की जा सकती है। मार्च के अंत तक रिजर्वबैंक के पास 822.1 टन सोना था, जिसमें से 413.8 टन विदेश में था। वास्तव में, अपना सोना किसी अन्य देश में रखने को बहुत अच्छा नहीं माना जाता है। रिजर्व बैंक शायद संदेश देना चाहता है कि भारत अब शक्तिशाली है और वह अपने सोने की हिफाजत खुद कर सकता है।
भारत का ज्यादातर सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास सुरक्षित है और कुछ सोना विदेश में रखना रणनीतिक रूप से ठीक फैसला है। एक खास बात यह भी है कि भारत चालू वित्त वर्ष में ऐसे चंद देशों में शुमार है, जिन्होंने सोना खरीदा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने कुछ ही महीनों में 27.5 टन सोना खरीदकर अपने स्वर्ण भंडार में जमा किया है। विगत कुछ वर्षों में भारत ने अपनी सुधरती आर्थिक स्थिति और जरूरत के अनुरूप जो सोना खरीदा है, उसका ज्यादातर हिस्सा विदेश में ही रखा गया है। आर्थिक विशेषज्ञ भी यह मानते हैं कि अनुपात से अधिक सोना विदेश में रखना कोई अच्छा फैसला नहीं है। ध्यान देने की बात है कि साल 1991 में जब भारत पर आर्थिक संकट आया था, तब विदेशी बैंक गिरवी रखे जा रहे भारतीय सोने को भारत में ही रहने दे सकते थे, पर तब शायद भारतीय अर्थव्यवस्था से दुनिया के ज्यादातर देशों को विश्वास कुछ डिग गया था। आज अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हम ब्रिटेन से आगे निकल गए हैं, तो हमें अपनी नीतियों में गरिमा के अनुरूप परिवर्तन करना ही चाहिए। वैसे, भारत की स्थिति अचानक नहीं सुधरी है। लगभग पंद्रह साल पहले भारत ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 200 टन सोना खरीदा था। संकेत साफ है, आर्थिक उदारीकरण की नीति अब रंग ला रही है।
सोने का भंडार किसी देश की आर्थिक स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है। जरूरत के समय सोना ही मजबूती देता है या संकट से उबारता है। पहले दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएं स्वर्ण मानक को मानती थीं, पर 1970 के दशक में ज्यादातर देशों ने आधिकारिक तौर पर स्वर्ण मानक को छोड़ दिया। फिर भी दुनिया के सभी ताकतवर देशों के पास भारी मात्रा में सोना है। स्वर्ण भंडार के मामले में भारत 822.1 टन के साथ दुनिया में नौवें स्थान पर है और अमेरिका के पास सर्वाधिक 8,133 टन से ज्यादा सोना है। जर्मनी के पास 3,352 टन सोना है। उसके बाद इटली, फ्रांस, रूस, चीन (2,262 टन), स्विट्जरलैंड और जापान का स्थान है। समय के साथ सोने का भाव बढ़ता ही रहा है, बीस साल पहले जो सोना 6,307 रुपये का था, वही सोना आज 73,390 रुपये का हो गया है। जाहिर है, सोने की मांग नहीं घटने वाली, पर ज्यादा से ज्यादा भारतीयों को अपनी बुद्धि और श्रम से सोना खरीदने में सक्षम होना पड़ेगा, तभी देश के स्वर्ण भंडार की खनक-चमक बढ़ेगी।