11-04-2024 (Important News Clippings)
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Changing Climate On Climate Action
ET Editorials
The European Court of Human Rights’ (ECtHR) ruling on Tuesday in the case brought by Verein KlimaSeniorinnen Schweiz, a Swiss association of women senior citizens, breaks new ground by linking climate change to infringement of human rights, to the obligation of states to protect fundamental rights. The verdict makes it the state’s duty to act to limit climate change. It also makes it clear that while all of society must participate in efforts to limit climate change, the buck stops at the state’s door.
Swiss senior citizens, who, given their age, are particularly affected by impacts of climate change in terms of health and living conditions, had sued the Swiss state for not doing enough to combat global warming. Ostensibly a ‘first world’ suit, the door now opens for wider consideration of impacts and actions to arrest climate change beyond Switzerland and, indeed, Europe. Initially binding on Switzerland, the ruling will impact 40-odd jurisdictions that are signatories to European Convention on Human Rights, including all EU member-states, Britain, Norway, Türkiye and some Central Asian states.
Climate cases have been on the rise globally, from 884 to 2,180 in 2022. But it’s with the ECtHR ruling that the burden of proof has shifted — states have to justify that their policies are sufficient. India’s Supreme Court’s latest ruling in the Great Indian Bustard case is in a similar vein. By stressing that limiting climate change is central to protecting fundamental rights to life and equality, courts are creating legal accountability for states. The ruling is likely to create fresh impetus for climate action at a time when competing demands like cost of living, job creation and geopolitical fragmentation have led countries to soft pedal on climate commitments.
Date:11-04-24
माफिया तत्वों से निपटने का तरीका
प्रकाश सिंह, ( लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं )
करीब तीन दशकों से उत्तर प्रदेश में माफिया सुर्खियों में रहते थे। योगी आदित्यनाथ के 2017 में मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद माफिया के विरुद्ध एक सुनियोजित अभियान चलाया गया। अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिए गए कि उन्हें अपराधियों के प्रति ‘जीरो टालरेंस’ की नीति अपनाते हुए काम करना है। इसके सकारात्मक परिणाम सामने दिख रहे हैं। कुख्यात माफिया ठिकाने लगाए जा चुके हैं। उनका आर्थिक साम्राज्य ढह गया है और वे खुद या तो जेल में हैं या फिर मारे गए।
माफिया की समस्या विश्वव्यापी रही है। सबसे पहले इसका उल्लेख हमें 19वीं शताब्दी में इटली के सिसिली प्रांत में मिलता है। वहां उन दिनों डकैतों के गिरोह जमींदारों की जमीन कब्जा लेते थे। उनसे बचने के लिए जमींदारों ने ग्रामीणों को संगठित कर उन्हें हथियार दिए। कालांतर में ये लोग अपराध की ओर मुड़ गए। एक समय अमेरिका में भी नशाबंदी के बाद आपराधिक तत्वों को बल मिला और अल कैपोन जैसे माफिया डान शिकागो में खड़े हो गए। कैपोन के बारे में कहा जाता था कि अधिकारियों के साथ उसकी साठगांठ थी। इसी तरह जापान में याकूजा गिरोह होते थे, जिनके सदस्य नशीले पदार्थों के व्यापार और देहव्यपार में लिप्त थे। चीन में उन्हें ट्रियाड के नाम से जाना जाता था। दुनिया भर में ऐसे तमाम उदाहरण हैं।
भारत में माफिया गिरोह ने सबसे पहले मुंबई में अपनी जड़ें जमाईं। इसमें पहला नाम हाजी मस्तान का जुड़ा। बाद में वरदराजन मुदलियार कुख्यात हुआ। करीम लाला ने भी अपनी दहशत फैलाई। दाऊद इब्राहिम का अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क था। एक वक्त अपराध जगत में उसका वर्चस्व रहा। वह पाकिस्तान के इशारे पर भारत विरोधी कार्यों में भी लिप्त पाया गया। महाराष्ट्र के अलावा कई अन्य प्रदेशों में भी माफिया ने अपनी पैठ बनाई। उत्तर प्रदेश में माफिया की जड़ें पिछली सदी के नौवें दशक में जमना शुरू हुईं, लेकिन 1991 में भाजपा सरकार बनने के बाद उन पर सख्त प्रहार हुआ।
पुलिस महानिदेशक कार्यालय से विस्तृत निर्देश भेजे गए। गिरोहों को सूचीबद्ध किया गया। उनकी आपराधिक कुंडली तैयार करके उन पर कार्रवाई हुई। उस समय अपराध जगत में पैर जमा रहा मुख्तार अंसारी तब घर छोड़कर भूमिगत हो गया। उसके घर की कुर्की कर दी गई। डीपी यादव पुलिस के डर से एक जिले से दूसरे जिले भाग रहे थे। बाद में उन्हें यही ठीक लगा कि आत्मसमर्पण करके जेल चला जाए ताकि जान को कोई खतरा न रहे। 1993 में सरकार बदली और उसके बाद 20 साल से कुछ अधिक का समय ऐसा रहा, जब सपा या बसपा की सरकार रही।
इन सरकारों के दौरान माफिया गिरोह खूब फले फूले। उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिला। उन दिनों राजनीति और अपराध के बीच की रेखा मिट सी गई। कौन अपराधी कब विधायक, सांसद या मंत्री बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता था। इसी दौरान हरिशंकर तिवारी, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, धनंजय सिंह, विजय मिश्रा, अमरमणि त्रिपाठी, रमाकांत और उमाकांत यादव इत्यादि विशेष चर्चा में रहे।
मुख्तार अंसारी का पूर्वी उत्तर प्रदेश में वर्चस्व रहा। चाहे रेलवे का ठेका हो, बालू का या शराब का, सब मुख्तार अंसारी और उसके गुर्गे झटक लेते थे। किसी अन्य की बोली लगाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी और यदि उसने लगाई तो उसका अंजाम बुरा होता था। मुख्तार पांच बार विधायक चुना गया। तीन बार तो जेल के अंदर रहते हुए चुनाव लड़ा। बिहार, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली में भी मुख्तार का दबदबा था।
उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारी शैलेंद्र सिंह ने एक बार पुख्ता आधार पर कार्रवाई करनी चाही तो उलटे उन्हें ही प्रताड़ित किया गया और वह इस्तीफा देने को मजबूर हुए। अधिकारियों पर धौंस जमाना मुख्तार अंसारी के लिए साधारण बात थी। सब जानते थे कि उसकी पहुंच मुख्यमंत्री तक है, इसलिए अधिकारी भी उससे पंगा नहीं लेते थे। इस पर हैरानी नहीं कि उसकी मौत पर कुछ नेताओं ने उसे मसीहा बताया।
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद परिदृश्य तेजी से बदला। वह माफिया तत्वों को उसी नजर से देखते हैं, जैसे पुराणों में देवता राक्षसों को। शास्त्रों में राक्षसों का उन्मूलन पवित्र कार्य माना गया है। योगी राज में पुलिस अधिकारियों को सख्त निर्देश दिए गए। माफिया के विरुद्ध अभियान चला और सकारात्मक परिणाम आने लगे। योगी शासन में गैंगस्टर एक्ट के अंतर्गत 71,476 अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई।
राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत 897 अपराधियों को निरुद्ध किया गया। माफिया के 68 गिरोहों को चिह्नित करने के पश्चात उनके 1,197 सदस्यों के विरुद्ध अलग-अलग धाराओं में कार्रवाई की गई। मुख्तार अंसारी के विरुद्ध करीब 65 मुकदमे थे। इनमें से आठ में उसे सजा दिलाई गई। वाराणसी के एक मामले में उसे आजीवन कारावास की सजा हुई। उसके गिरोह की 608 करोड़ की संपत्ति या तो जब्त कर ली गई या ध्वस्त कर दी गई।
215 करोड़ रुपये के नाजायज ठेके बंद कर दिए गए। एक ओर उस पर कानूनी शिकंजा कसता गया और दूसरी ओर उसका आर्थिक साम्राज्य भी ध्वस्त होता गया। उपचार के दौरान कार्डियक अरेस्ट से उसकी मौत के बाद आरोप लगाया जा रहा है कि उसे जहर दिया गया। राजनीतिक कारणों से ऐसे आरोप उछाले जा रहे हैं, फिर भी सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं।
उत्तर प्रदेश में माफिया राज का अंत सा हो चुका है। जिस तरह कुख्यात अपराधियों पर प्रहार किया गया और उनके विरुद्ध प्रभावी कार्रवाई की गई, वह दूसरे प्रदेशों के लिए एक उदाहरण है। कुछ महीने पहले जब मैं पंजाब गया था तो वहां के एक अधिकारी ने मुझसे कहा कि पंजाब को आज योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री की आवश्यकता है।
इस तरह के विचार कई अन्य प्रदेशों के लोगों से भी सुनने को मिलते हैं। वैश्विक स्तर पर सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली कुआन यू का नाम आपराधिक तत्वों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई के लिए लिया जाता है, पर हमें याद रखना पड़ेगा कि उत्तर प्रदेश का क्षेत्रफल सिंगापुर से करीब 300 गुना अधिक और आबादी करीब 40 गुना ज्यादा है। एक शहर जैसे देश में शांति स्थापित करने और एक बड़े प्रदेश में अपराधियों का दमन करने में बहुत फर्क है।
Date:11-04-24
अस्थिर म्यांमा और भारत की मुश्किलें
ब्रहादीप अलूने
म्यांमा में लोकतांत्रिक शक्तियों और सेना के बीच सत्ता संघर्ष की दशकों पुरानी जटिल स्थितियों में भी भारत ने बेहद संतुलित नीति अपनाई, लेकिन पिछले तीन वर्षों में म्यांमा की राजनीतिक स्थितियां बेकाबू हो गई हैं। लोकतांत्रिक नेताओं ने विद्रोही समूहों के साथ गठबंधन करके बर्मी सेना को देश के कई इलाकों से खदेड़ दिया है। देश में वैधानिक व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए कोई भी जिम्मेदार निकाय न होने से हिंसा और अराजकता बढ़ गई है। ‘जुंटा’ शासन और विद्रोही गुटों के बीच चल रही लड़ाई राजधानी यांगून तक पहुंच गई है। विद्रोही समूहों ने म्यांमा की सेना को कड़ी चुनौती देते हुए हवाई अड्डे, वायु सेना अड्डे और सैन्य मुख्यालय पर ड्रोन से हमला कर संकेत दिया है कि म्यांमा की सेना कमजोर पड़ गई है और इससे इस देश के टूटने का खतरा बढ़ गया है। म्यांमा के विद्रोही समूहों के भारत के पूर्वोत्तर के समूहों से मजबूत संबंध रहे हैं, चीन इन्हें बढ़ावा देता रहा है। इसलिए म्यांमा की अस्थिरता भारत की सामरिक समस्याओं को बढ़ा सकती है।
दक्षिण पूर्व एशिया के तमाम देश चीन के दक्षिण और भारत के पूर्व में स्थित हैं। इन देशों पर दुनिया की दोनों महान प्राचीन सभ्यताओं का प्रभाव है और भू-राजनीतिक दृष्टि से भी ये देश भारत और चीन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। म्यांमा जातीय विविधता वाला देश है, जिसमें काचिन, काया, कायिन, चिन, बामर, मोन, रखाइन और शान प्रमुख हैं। ये जातियां अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए देश की व्यवस्थाओं को प्रभावित करती रही हैं। इस विविधता ने पृथकतावाद को बढ़ावा दिया है, जिसका फायदा चीन ने उठाया है। चीन की दीर्घकालिक रणनीति म्यांमा के सशस्त्र समूहों से संबंध मजबूत करके म्यांमा की सेना या देश की लोकतांत्रिक सरकारों पर दबाव बनाए रखने की रही है। म्यांमा से चीन के गहरे आर्थिक और सामरिक हित जुड़े हुए हैं। चीन के लिए म्यांमा, बंगाल की खाड़ी के जरिए हिंद महासागर तक सीधी पहुंच के कारण रणनीतिक महत्त्व रखता है।
चीन म्यांमा आर्थिक गलियारा चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल की एक प्रमुख आर्थिक और रणनीतिक कड़ी है। इसे विद्रोही गुट किसी प्रकार निशाना न बना सकें, इस नीति पर चलते हुए चीन ने म्यांमा की सेना और विद्रोहियों पर नियंत्रण तो किया है, लेकिन चीन की यह रणनीति भारत की सामरिक समस्या को बढ़ा सकती है। म्यांमा की सेना देश के कई इलाकों में सुसंगठित जातीय सेनाओं से हार रही है। भारत के लिए म्यांमा की स्थिरता सामरिक और आर्थिक रूप से अति महत्त्वपूर्ण है। भारत की ‘पूर्व की ओर देखो’ की दशकों पुरानी नीति का संचालन म्यांमा के माध्यम से ही हो सकता है। करीब डेढ़ दशक पहले भारत ने ‘कलादान मल्टी माडल ट्रांजिट पोर्ट प्रोजेक्ट’ की अति महत्त्वाकांक्षी परियोजना के माध्यम से म्यांमा के साथ अपने हितों को निकटता से जोड़ने की दीर्घकालिक रणनीति पर कार्य शुरू किया था। यह परियोजना भारत के पूर्वी बंदरगाहों को म्यांमा के सितवे बंदरगाह और आगे पूर्वी भारत को म्यांमा के माध्यम से समुद्र, नदी और सड़क के माध्यम से जोड़ती है।
भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र सामरिक रूप से बेहद संवेदनशील है। इन क्षेत्रों में जातीय विविधता अलगाववाद को बढ़ावा देती रही है। इसलिए अनिवार्य है कि भारत अपने पड़ोसियों के साथ सामंजस्य बनाए। दोनों देश एक-दूसरे के साथ सोलह सौ किमी से अधिक लंबी थल सीमा और बंगाल की खाड़ी में समुद्री सीमा भी साझा करते हैं। म्यांमा भारत और चीन के बीच एक रोधक राज्य का काम करता है। इस देश से भारत को पटकोई पर्वत शृंखला, घने जंगलों तथा बंगाल की खाड़ी ने अलग कर रखा है। चीन चाहता है कि वह म्यांमा के रास्ते बंगाल की खाड़ी तक पहुंचे। म्यांमा आर्थिक गलियारा से बंगाल की खाड़ी में चीन अपना प्रभाव बढ़ा सकता है, जिससे उसे हिंद महासागर में रणनीतिक बढ़त हासिल हो सकती है। भारत पूर्वोत्तर की सुरक्षा और व्यापार के लिए संकीर्ण सिलीगुड़ी गलियारे के विकल्प को तलाश रहा है और इसमें म्यांमा से सहयोग पर आधारित परियोजनाओं का पूर्ण होना बेहद जरूरी है।
भारत, लोकतांत्रिक सरकार न होने के बाद भी म्यांमा की सेना से संबंध बनाए रखते हुए पूर्वोत्तर के राज्यों में शांति स्थापना के प्रयासों में सफल हो रहा था। मगर अब स्थितियां भारत के अनुकूल नहीं दिख रही हैं। सितवे शहर पर नियंत्रण के लिए म्यांमा सेना और अराकान सेना के बीच लड़ाई चल रही है। अराकान आर्मी म्यांमा के कई जातीय सशस्त्र समूहों में सबसे नए, लेकिन सबसे सुसज्जित समूहों में से एक है और कई वर्षों से राखीन राज्य और पड़ोसी चिन राज्य के कुछ हिस्सों में सेना से लड़ रहा है। इस विद्रोही समूह ने रखाइन में महत्त्वपूर्ण बढ़त हासिल कर ली है। अब वह इस क्षेत्र में बहुत मजबूत है और म्यांमा की सेना को इन क्षेत्रों से भागना पड़ा है। रखाइन म्यांमा के दक्षिण पश्चिम में स्थित, बंगाल की खाड़ी का तटवर्ती और पश्चिमोत्तर में बांग्लादेश का सीमावर्ती राज्य है। म्यांमा के उत्तर पश्चिमी तट पर बसा सितवे, रखाइन प्रांत की राजधानी है। सितवे बंदरगाह को लेकर कलादान परियोजना के सफल होने से भारत के पूर्वोत्तर हिस्सों में, बल्कि उत्तरी और मध्य म्यांमा में नए व्यापार, परिवहन और व्यवसाय को बढ़ावा मिल सकता है। बंगाल की खाड़ी से लगे रखाइन प्रांत और पूर्वोत्तर से लगे चिन प्रांत के बड़े हिस्से अब विद्रोहियों के कब्जे में आ चुके हैं।
भारत का पूर्वोत्तर का इलाका दशकों से अलगाववादी विद्रोहों से प्रभावित रहा है। पूर्वोत्तर भारत के कई विद्रोही गुटों ने म्यांमा के सीमावर्ती गांवों और कस्बों में अपने शिविर बना रखे हैं। ये विद्रोही समूह गुप्त स्रोतों से चीन म्यांमा सीमा पर हथियार हासिल करते हैं। म्यांमा के अस्थिर होने और विद्रोही संगठनों के प्रभाव में आने से पूर्वोत्तर के अलगाववादी संगठन पुन: मजबूत हो सकते हैं। भारत के सामने यह भी चुनौती होगी कि वह म्यांमा में अपने हितों की सुरक्षा के लिए किस पर निर्भर रहे। म्यांमा से लगती सीमा पर पूर्ण बाड़बंदी से पूर्वोत्तर के जातीय समूह नाराज हो सकते हैं, वहीं प्राकृतिक जटिलताओं के कारण यह संभव भी नहीं है। ऐसे में भारत को नए सिरे से अपनी सैन्य रणनीति पर आगे बढ़ने की जरूरत होगी। म्यांमा में तेल और ऊर्जा के असीम भंडार हैं। चीन इनका दोहन करना चाहता है और विद्रोही गुटों के लिए यह आय का प्रमुख साधन बन सकता है। पूर्वोत्तर में भारत के महत्त्वपूर्ण साझीदार रहे म्यांमा में सेना के कमजोर होने से इन राज्यों में अलगाव का एक नया दौर फिर शुरू हो सकता है। बहरहाल, भारत को म्यांमा में शांति स्थापित करने के लिए गंभीर कूटनीतिक प्रयास करने की जरूरत है।
Date:11-04-24
हकीकत पर पर्दा
संपादकीय
अगर अचल किसी आपराधिक मामले की जांच केंद्रीय एजेंसी को सौंप ने तो उससे कही संदेश जाता है कि उस मामले को सुलझाने में राज्य सरकार नाकाम रही या उस पर भरोसा नहीं रह गया है। पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं के उत्पीड़न और जमीन कब्जा करने के मामले में वहां के उच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच कराने का आदेश दिया है। इससे राज्य सरकार पर कमजोर हुए भरोसे का संदेश जाता है। हालांकि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस इस मामले को भाजपा की रची साजिश बता रही है। इस वर्ष जनवरी से ही खाली विवानों में घिरा हुआ है। राशन घोटाला मामले में जांच के लिए प्रवर्तन निदेशालय का चल तृणमूल कांग्रेस नेता शाहजहां शेख के घर पहुंचा तो उस पर पथराव किया गया, जिसमें कई कर्मचारी पायल हो गए। उसके बाद वहां की महिलाओं ने आरोप लगाया कि शाहजहां शेख के लोग महिलाओं को घर से उठा कर ले जाते और उनका यौन शोषण करते हैं। उन्होंने कई मूर्खों पर जबरन कब्जा कर लिया है। इसे लेकर महिलाएं पिछले करीब दो महीने से आंचलन कर रही हैं। हालांकि राज्य सरकार ने मामले की जांच कराई, पर उसमें कोई भी आरोप साबित नहीं हो पाया। उसके बाद वहां भाजपा और मूल कांग्रेस के बीच सिवासी आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं। कोलकाता उच्च न्यायालय ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया था। पहले उसने राज्य सरकार से स्थिति रपट मांगी, पर उसमें तमाम आरोपों का सिरे से खंडन ही किया गया था। राज्य महिला आयोग और पुलिस की महिला शाखा की रपटें राज्य सरकार की दलीलों को सही ठहरा रही हैं, मगर राष्ट्रीय महिला आयोग इसके उलट तस्वीर पेश कर रहा है। स्वाभाविक ही, अचलत ने मामले की जांच सीबीआई से कराना उचित समझा है अब संदेशखाली को लेकर राजनीतिक रस्साकशी कुछ अधिक बढ़ गई है। इसे लेकर भाजपा जहां ममता सरकार पर निशाना साध रही है, वहीं ममता बनर्जी का कहना है कि संदेशखाली आरएसएस का गढ़ बन चुका है और वही ऐसे बेबुनियार विवा कर रहा है। जाहिर है, इस आरोप-प्रत्यारोप के बीच हकीकत सामने नहीं आ पा रही। शाहजहां शेख पर गंभीर आरोप हैं और उसे केवल एकतरफा दलीलों के आधार पर बेगुनाह करार नहीं दिया जा सकता।
पश्चिम बंगाल पर सवा से राजनीतिक वर्चस्व के लिए खूनी संघर्ष और सता के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पहले वाम मोर्चा के कार्यकताओं पर आरोप लगते थे कि वे सरकारी संरक्षण में जमीनों पर कब्जा करते, ठेकेदा अनियमितताएं करते और विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं के खिलाफ हिंसा करते हैं। उन्हीं प्रवृत्तियों के प्रतिकार में लोगों ने बृणमूल कांग्रेस के हाथ में सत्ता सौंपी थी मगर अब वह लिपी बात नहीं है कि तृणमूल के कार्यकर्ता और नेता भी उसी राह पर चल पड़े हैं, जिस पर पहले वाम मोर्चा के कार्यकर्ता चला करते थे। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिसमें तृणमूल कार्यकर्ताओं और नेताओं पर दबंगई के आरोप है। हालांकि भाजपा जिस तरीके से अपना राजनीतिक प्रभाव जमाना चाहती है, वह भी आरोपों से मुक्त नहीं है। मगर चूंकि कानून-व्यवस्था की जिम्मेवारी राज्य सरकार पर है, इसलिए उससे पारदर्शिता और निष्पक्षता की उम्मीद अधिक की जाती है। संदेशखाली को लेकर छिले विचारों को अगर राज्य सरकार ने निष्पक्ष होकर निपटा लिया होता, तो अचालत को सीबीआई जांच का आदेश देना ही न पड़ता।