07-06-2024 (Important News Clippings)

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07 Jun 2024
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Date: 07-06-24

Green and Bear It For a Steely Resolve

ET Editorials

India is gearing up to fight at WTO over the EU’s Carbon Border Adjustment Mechanism (CBAM), which mandates non EU steel producers to report emissions. There are compelling reasons to address this issue at WTO. India is the only major steel producer experiencing robust growth, with an 8.5% increase in the first four months of 2024 compared to a year ago.

Indian steel has a large carbon footprint. The sector accounts for about 12% of India’s CO2 emissions, with an emission intensity of 2.55 t of CO2 per tonne of crude steel, compared to the global average emission intensity of 1.85 tCO2/tcs. Decarbonising is crucial to meet India’s climate targets and grow its export market. Earlier this year, the steel ministry began formulating a green steel policy. A task force has been set up to explore using biomass as an alternative in blast furnaces to reduce emissions. The ministry is also betting big on green hydrogen. But that’s for post-2030. Major steel producers have decarbonisation plans, but these rely on developing technologies such as carbon capture, utilisation and storage, and green hydrogen.

Meanwhile, new capacity, mostly carbon-intensive, is being added to achieve the 300 mn-t goal by 2030. These could become stranded assets. GoI must nudge the industry to go green. India has additional options, such as a green steel procurement policy and targets to encourage market creation and demand aggregation, supporting R&D to advance breakthrough tech and solutions, promoting alternative emissions mitigation actions, and framing mechanisms and frameworks for financing the transition, including mandatory compliance with carbon emissions trading. All these measures could ensure a fit-for-purpose steel sector.


Date: 07-06-24

नैसर्गिक राजनीतिक व्यवस्था

संपादकीय

भारतीय जनता पार्टी (BJP) लोक सभा चुनावों में बहुमत के आंकड़े से दूर रह गई है और इस बात ने अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्यचकित किया है। खासतौर पर इसलिए कि किसी भी एक्जिट पोल या ओपिनियन पोल में ऐसी संभावना नहीं जताई गई थी। हालांकि राज्यों के राजनीतिक हालात के आधार पर चुनाव नतीजों का अलग-अलग पहलुओं से विश्लेषण किया जा रहा है लेकिन यह कहा जा सकता है कि केंद्र में गठबंधन की सरकार देश की नैसर्गिक राजनीतिक व्यवस्था का अंग है और बीते 10 वर्ष इस लिहाज से थोड़ा अलग थे। बीते 10 वर्षों को छोड़ दिया जाए तो सन 1989 से ही देश में गठबंधन की सरकारें रही हैं। उससे पहले 1984 में कांग्रेस को ऐतिहासिक बहुमत मिला था लेकिन 1989 में पार्टी हार गई थी। बीते दो आम चुनावों की प्रकृति कुछ अलग थी। भाजपा को 2014 में महत्त्वपूर्ण जीत मिली थी और उस चुनाव में जनता ने बदलाव के लिए मतदान किया था। 2019 में पुलवामा और बालाकोट के बाद पार्टी ने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर और मजबूत जीत हासिल की। इस बार अपेक्षाकृत सामान्य चुनाव में पार्टी सामान्य बहुमत से पीछे रह गई। इस चुनाव में शासन और स्थानीय मुद्दे प्रमुख थे। बहरहाल, भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) आराम से सरकार बनाने की स्थिति में है।

देश के राजनीतिक मानचित्र पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि हालात केंद्र में गठबंधन सरकार के अनुकूल रहे हैं। देश में 11 ऐसे राज्य हैं जहां क्षेत्रीय दलों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है-उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, पंजाब, जम्मू-कश्मीर तथा केरल (यदि वाम को क्षेत्रीय ताकत माना जाए)। इन राज्यों में 347 लोक सभा सीट हैं। अन्य 10 राज्य ऐसे हैं जहां राज्यस्तरीय दलों का पराभव हुआ है या उनका कोई अस्तित्व ही नहीं था। ये राज्य हैं- कर्नाटक, तेलंगाना, असम, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड। इन राज्यों में 169 लोक सभा सीटें हैं। कुल मिलाकर इन सभी राज्यों में 500 से अधिक सीटें हैं। ताजा परिणाम दिखाते हैं कि कांग्रेस ने दूसरी श्रेणी के कुछ राज्यों में भाजपा को चुनौती देने का तरीका तलाश लिया है। कांग्रेस का पराभव भी भाजपा के बहुमत तक पहुंचने की एक वजह थी। समाजवादी पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश में जबरदस्त प्रदर्शन किया है और लोक सभा में भाजपा को बहुमत नहीं मिलने देने में उसकी भी अहम भूमिका रही है। ऐसे में देश के राजनीतिक हालात को देखते हुए भाजपा को अब अपने हिंदुत्ववादी बयानों को नियंत्रित करना होगा ताकि क्षेत्रीय दल उसके साथ बने रहें। अगर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल यूनाइटेड समय पर साथ नहीं आया होता तो भाजपा के लिए हालात बहुत मुश्किल हो जाते। कांग्रेस की क्षेत्रीय दलों में स्वीकार्यता बढ़ी है तथा वह उनके लिए जगह खाली करने की इच्छुक है। यह बात भी बताती है कि गठबंधन देश में प्राकृतिक हैं।

वित्तीय बाजारों में तथा अन्य स्थानों पर यह चिंता है कि केंद्र में गठबंधन की सरकार होने से सुधार प्रभावित होंगे, लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि गठबंधन सरकारें सुधारों के क्रियान्वयन के मामले में बेहतर साबित हुई हैं।

वास्तव में राजग सरकार में जनता दल यूनाइटेड और तेलुगू देशम पार्टी के रूप में दो क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी के कारण केंद्र और राज्यों के बीच रिश्ते और सहज होने चाहिए। सरकार में क्षेत्रीय दलों की इस प्रकार मौजूदगी से जरूरी सुधारों को लेकर सहमति बनाने में मदद मिलेगी। काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि नई राजग सरकार इसे लेकर किस प्रकार आगे बढ़ती है।


Date: 07-06-24

गठबंधन धर्म

संपादकीय

गठबंधन सरकारों में सहयोगी दलों की मंत्री पद और विभागों की मांग को लेकर खींचतान नई बात नहीं है। हर दल का मुखिया अपने नेताओं की सामूहिक आकांक्षाओं को साथ लेकर चलता है। गठबंधन का पहला धर्म होता है, नीतियों और योजनाओं पर फैसले के समय निजी या दलगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सहमति बनाने का। गठबंधन का एक भी दल इस धर्म का निर्वाह नहीं कर पाता, तो वह सरकार चल नहीं पाती। देश में गठबंधन सरकारें बनी और चली हैं, पर वे तब-तब गिर गई हैं, जब गठबंधन धर्म के निर्वाह में दलगत स्वार्थ या वैचारिक मतभेद आड़े आए हैं। इस बार फिर गठबंधन सरकार बनने जा रही है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने नरेंद्र मोदी की अगुआई में सरकार बनाने पर सहमति जता दी है। मंत्रालयों के बंटवारे आदि को लेकर मंथन चल रहा है। हर बड़े दल से बड़प्पन की अपेक्षा रहती है और वह थोड़ा झुक कर अपने सहयोगियों का मान ऊपर रख भी लेता है। मगर सरकार गठन से पहले ही जिस तरह जद (यू) और तेलगु देशम की तरफ से नीतियों को लेकर शर्तें रखी जाने लगी हैं, उससे गठबंधन के भविष्य पर आशंका गहराने लगी है।

जद (यू) ने कहा है कि अग्निवीर योजना पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। यही मांग विपक्षी दल शुरू से उठाते आ रहे हैं। चुनाव प्रचार के दौरान इंडिया गठबंधन ने तो सार्वजनिक रूप से एलान किया था कि अगर उसकी सरकार बनी तो अग्निवीर योजना को खत्म कर देंगे। वही बात अगर सहयोगी करने लगेंगे, तो सरकार के लिए मुश्किल होगी। भाजपा समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है। इस दिशा में वह आगे भी बढ़ चुकी है। मगर उसके दोनों प्रमुख सहयोगी दलों ने इस पर भी पुनर्विचार की बात कही है। सभी राज्य सरकारों से सहमति की मांग कर रहे हैं। हालांकि ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सरकार अगर लचीला रुख अपनाए, तो सहमति बन सकती है। राजनीति में हर कदम के दूरगामी परिणाम होते हैं। कौन-सा दल किस मुद्दे पर अपनी बात मनवा लेता है, उससे उसके राजनीतिक भविष्य पर असर पड़ता है। भाजपा को इस वक्त सहयोगी दलों के साथ मिल कर सरकार चलाने की मजबूरी है, पर वह अपने सिद्धांतों और नीतियों से डिगेगी, तो नुकसान का खतरा बना रहेगा।

ऐसी स्थितियों में सरकार की अगुआई कर रहे दल के सामने चुनौती होती है कि वह कैसे अपने सहयोगियों को नीतियों पर एकमत करे और किस हद तक उनकी शर्तों को माने। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की राजनीतिक छवि टिकाऊ और भरोसेमंद सहयोगी की नहीं रही है। इससे पहले भी वे कई बार राजग के साथ रहे, बीच में छोड़ कर चले गए, फिर आ गए हैं। बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने जैसी उनकी कुछ पुरानी मांगें हैं। इसके अलावा अल्पसंख्यकों के आरक्षण के मुद्दे पर भी उनके विचार अलग हैं। अब जब वे मोलभाव करने की स्थिति में हैं, ये मुद्दे उठा सकते हैं। मगर इससे सरकार की मुश्किलें बढ़ेंगी ही। गठबंधन की सरकारें शर्तों की रस्साकशी से नहीं, सहयोग और सहमति के संकल्प से चलती हैं। अगर इसकी कमी इस गठबंधन में रहेगी, तो अनिश्चितताओं के बादल शायद ही कभी छंटेंगे।


Date: 07-06-24

जलवायु अनुरूप नगरों की जरूरत

प्रमोद भार्गव

सूर्य अपनी प्रचंड किरणों से पृथ्वी, प्राणी के शरीर, समुद्र और जल के अन्य स्रोतों से नमी सोख लेता है। नतीजतन उम्मीद से ज्यादा तापमान बढ़ता है, जो गर्म हवाएं चलने का कारण बनता है। यही हवाएं लू कहलाती हैं। अब यही हवाएं देश के पचास से ज्यादा शहरों को ‘उष्मा-द्वीप’ (हीट आइलैंड) में बदल रही हैं। राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश में पारा 43 से 47 डिग्री के बीच बना हुआ है। राजस्थान के बाड़मेर में दिन का तापमान 48 डिग्री और कश्मीर में गरम हवाओं के चलते तापमान 34 डिग्री तक पहुंच गया है। आमतौर से गरम हवाएं तीन से आठ दिन चलती हैं और एक-दो दिन में बारिश हो जाने से तीन-चार दिन राहत रहती थी, लेकिन इस बार गरम हवाएं चलने की निरंतरता बनी हुई है। इस कारण कई शहर ऊष्मा-द्वीप में बदल गए हैं और रहने लायक नहीं बचे हैं। इसके प्रमुख कारणों में शहरीकरण का बढ़ना और हरियाली का क्षेत्र घटना माना जा रहा है।

सामान्य स्थिति में द्वीप का अर्थ समुद्री या नदी-घाटियों में पानी से घिरे उस ऊंचे स्थल से लिया जाता है, जिसके चारों ओर जल भरा होता है। लेकिन अब उष्मा-द्वीप उन शहरी इलाकों को कहा जाने लगा है, जो ज्यादा तापमान से झुलस रहे हैं। ज्यादातर उष्मा-द्वीप घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में आमद दर्ज करा रहे हैं। ऐसे इलाकों में बाहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक तापमान का सामना करना पड़ता है। ऊंची इमारतें, सीसी की सड़कें, पैदलपथ और अन्य बुनियादी ढांचागत विकास इसके लिए दोषी हैं। हरियाली कम होने के कारण उच्च ताप वाले क्षेत्र उष्मा-द्वीप में परिवर्तित हो जाते हैं। इन क्षेत्रों में दिन का तापमान लगभग 1-7 डिग्री और रात का तापमान लगभग 2-5 डिग्री तक बढ़ जाता है।

सीएसई ने देश में अलग-अलग जलवायु वाले नौ शहरों के अध्ययन में पाया कि जयपुर जैसे शहरों में ज्यादा तापमान वाले दिनों में शहर का 99.52 फीसद हिस्सा गर्म हवाओं के केंद्र में आकर ऊष्मा-द्वीप बन जाता है। सतत आवास कार्यक्रम (सस्टेनेबल हैबिटैट प्रोग्राम) के निदेशक रजनीश सरीन का कहना है कि हीट सेंटर उस क्षेत्र को कहते हैं, जहां जमीनी सतह का तापमान (एलएसटी) छह साल या उससे अधिक समय में बार-बार मैदानी इलाकों में 45 डिग्री से ऊपर दर्ज किया जा रहा है। महानगरों में हरियाली और जल-संरचनाओं का क्षेत्र कम होने से हीट सेंटर का विस्तार हो रहा है। शहरों में हरियाली और नमी बनाए रखने वाले तालाब, नदी-झीलों का अस्तित्व सिमटता जा रहा है। यह जलभराव गर्मी से बचाव करता था। इनके सिमटने से शहरों में और शहरों के आस-पास बंजर भूमि और ईट, सीमेंट, कंक्रीट के जंगल बढ़ते जा रहे हैं, जो गर्मी बढ़ाने का काम कर रहे हैं। सीएसई ने नागपुर, अहमदाबाद, चेन्नई, पुणे, जयपुर, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता और भुवनेश्वर में यह सर्वेक्षण किया है। लेकिन जिन शहरों में इस नजरिए से सर्वे नहीं हो पाया है, वे भी ऐसे ही हालातों के शिकार हो सकते है।

मानव निर्मित प्रदूषण से जुड़ी इस आपदा के कारणों में आधुनिक विकास और बढ़ता शहरीकरण है। इन्हीं कारणों से हवाएं आवारा होकर लू का रूप लेने लगी हैं। सुनामी जैसे तूफान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं। अमेरिका के नेशनल ओसियानिक एंड एटमासफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन की रपट के अनुसार भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया के कई देश गरम हवाओं से जूझ रहे हैं। इन देशों में गरम हवाएं चलने की आशंका 45 गुना बढ़ गई है। इन देशों में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमा शामिल हैं। वियतनाम में तो हालात इतने बदतर हो गए हैं कि गर्मी की वजह से कई तालाब पूरी तरह सूख गए हैं और लाखों टन मछलियां मर गई हैं। पश्चिम एशिया के देश सीरिया, इजराइल, फिलिस्तीन, जार्डन और लेबनान में गरम हवाएं पांच गुना बढ़ सकती हैं। एशिया में घातक गरम हवाएं लगातार चलने का यह तीसरा वर्ष है। इसकी एक वजह अलनीनो भी मानी जा रही है। प्रशांत महासागर से आने वाली गरम हवाओं की वजह से दुनिया में गरम हवाएं चल रही हैं।

हरेक जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल आमफहम हो गए हैं। हालांकि लू और प्रचंड गर्मी के बीच भी एक अंतर होता है। गर्मी के मौसम में ऐसे क्षेत्र जहां तापमान, औसत तापमान से कहीं ज्यादा हो और पांच दिन तक यही स्थिति यथावत बनी रहे तो इसे ‘लू’ कहने लगते हैं। मौसम की इस असहनीय विलक्षण दशा में नमी भी समाहित हो जाती है। यही सर्द-गर्म थपेड़े लू की पीड़ा और रोग का कारण बन जाते हैं। किसी भी क्षेत्र का औसत तापमान, किस मौसम में कितना होगा, इसकी गणना एवं मूल्यांकन पिछले 30 साल के आंकड़ों के आधार पर की जाती है। वायुमंडल में गर्म हवाएं आमतौर से क्षेत्र विशेष में अधिक दबाव की वजह से उत्पन्न होती हैं। वैसे तेज गर्मी और लू पर्यावरण और बारिश के लिए अच्छी होती हैं। अच्छा मानसून इन्हीं आवारा हवाओं का पर्याय माना जाता है, क्योंकि तपिश और बारिश में गहरा अंतर्सबंध है। जिस तरह से बेमौसम बरसात ने दुबई शहर को बाढ़ में बदल दिया, उसने आधुनिकतम शहरी विकास के माडल को नकार दिया है। यही हालात मुंबई, चेन्नई और बंगलुरु में देखने में आ रहे हैं। अतएव हमें जलवायु परिवर्तन के अनुकूल शहरों का निर्माण करना होगा।

हवाओं के गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढ़ना है। इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पांचवां तत्त्व यूं ही नहीं माना गया है। सच्चाई है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्त्व की उत्पत्ति नहीं की होती, तो संभवत: आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व आकाश से ऊर्जा लेकर ही क्रियाशील रहते हैं। ये सभी तत्त्व परस्पर परावलंबी हैं। यानी किसी एक तत्त्व का वजूद क्षीण होगा तो अन्य को भी छीजने की इसी अवस्था से गुजरना होगा। प्रत्येक प्राणी के शरीर में आंतरिक स्फूर्ति एवं प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्त्व से ही संभव होती है, इसलिए इसे ब्रह्मतत्त्व भी कहा गया है। अतएव प्रकृति के संरक्षण के लिए सुख के भौतिकवादी उपकरणों से मुक्ति की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति भी बढ़ रही है और जलीय स्रोतों पर दोहन का दबाव बढ़ता जा रहा है। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में प्रकृति से उत्पन्न कठिन हालातों के साथ जीवन यापन की आदत डालनी होगी तथा पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान देना होगा।


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