31-10-2019 (Important News Clippings)

Afeias
31 Oct 2019
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Date:31-10-19

Bring in Machines

MGNREGS design can provide states with more flexibility without diluting its core objectives

TOI Editorials

Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Scheme is the country’s primary vehicle to ensure rural livelihood security. Open to adults who are willing to do unskilled manual work, it guarantees 100 days of employment at pre-determined wage rates. Given the diversity of conditions across states, the scheme could do with more flexibility. It is in this context that government should view the requests of the three states, which want to use machines in carrying out work in rocky terrain.

Two conditions govern MGNREGS today. The wage to material ratio has to be maintained at 60:40 level, and contractors and labour displacing machinery are disallowed. If livelihood security is the primary aim, creation of rural assets is an attendant objective of the scheme. It’s possible to ensure that both aims are simultaneously met even after providing states more flexibility by way of machines. Flexibility to accommodate regional differences is not alien to the scheme. To illustrate, the wages vary between states, based on local conditions. Therefore, states are not asking for something entirely new.

Three states, Karnataka, Andhra Pradesh and Madhya Pradesh, reportedly want relaxations of the bar on machines to tackle rocky terrain. About 260 different kinds of work are permissible under the scheme. If the scheme design is restrictive, it may come at the expense of utilising the full spectrum of activities possible. Even if greater flexibility is granted, there are ways of keeping track of activities to make sure none of the core objectives are diluted. For instance, geo-tagging is now mandatory and over 36 million assets under the scheme have been tagged. The lesson here is that MGNREGS should evolve with time and the process need not compromise government’s legal obligation to provide livelihood security. Expanding rural assets is also important.


Date:31-10-19

Modi in Riyadh

Why partnership between India and Saudi Arabia suits strategic interests of both nations

TOI Editorials

Prime Minister Narendra Modi’s official visit to Saudi Arabia comes at a pivotal moment for New Delhi and Riyadh. For long, ties between the two sides have been akin to a buyer-seller relationship with Saudi oil fuelling the Indian economy. But today the Saudi leadership, especially under Crown Prince Mohammed bin Salman (MBS), is looking to diversify its engagements with the world and elevate its ties with key countries such as India. This is because Riyadh knows that the days of the exclusively petrodollar funded Saudi state are numbered due to the advent of shale oil and renewables.

Hence, Riyadh is looking to completely transform its economy under the rubric of its Vision 2030 that envisages modern manufacturing, technology and service sectors. And that means linking Saudi industry to global value chains and preparing Saudi citizens – including Saudi women – for 21st century workplaces. This dovetails with MBS’s social reform agenda that in recent times has taken on the clergy and given women greater freedoms. And if Saudi Arabia – land of the holy Mecca and Medina – returns to a moderate version of Islam, it is bound to have a salutary impact on the global Muslim community and weaken the Wahhabi ideological moorings of Islamist radicalism, currently inflaming Pakistan as well as Kashmir Valley.

This is a geopolitical shift New Delhi should welcome and support. On the security front, New Delhi-Riyadh cooperation could blunt Pakistan’s strategy of sponsoring terror against India and asking the Saudis to bail it out when international heat turns up on it. The current Saudi leadership has already made plain it does not support any justification for terrorism. On economy, India offers a huge, diverse market for Saudi investments. Aside from investments in Indian refineries, Saudi funds for Indian infrastructure are welcome and necessary.

Meanwhile, much room for bilateral cooperation exists in green energy, IT, education and medicine. In fact, India can provide the software and human capital for Saudi Arabia’s economic transformation. Riyadh, on its part, should scrap the Asian premium on oil sales to New Delhi. Taken together, as Saudi Arabia eyes a new place for itself in regional geopolitics, its ties with India can serve as the bridge between West and South Asia. This would enable Riyadh to plug into the dynamic, rising economies of South and East Asia, thereby aiding its own economic transformation.


Date:31-10-19

वृद्घि, आय, गरीबी और नोबेल पुरस्कार

नियंत्रण वाले बेतरतीब परीक्षण के नतीजों को हर जगह-हर समय लागू करने को लेकर सतर्कता बरतनी होगी।

आलोक शील , (लेखक इक्रियर में मैक्रोइकनॉमिक्स के आरबीआई चेयर प्रोफेसर हैं।)

वर्ष 2019 के लिए अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अभिजित बनर्जी, एस्टर डफ्लो और माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से दिया गया है। उन्हें यह पुरस्कार ‘ऐसे नियंत्रित बेतरतीब परीक्षण के प्रयोगात्मक कार्य के लिए दिया गया जिसने दुनिया भर में गरीबी से लडऩे में अहम सहायता की है। महज दो दशक में इस नए प्रयोग पर आधारित रुख ने विकासात्मक अर्थशास्त्र में काफी बदलाव उत्पन्न किया है और यह अब शोध के क्षेत्र में काफी फल फूल रहा है।’ उनके काम के केंद्र में कम लागत वाले हस्तक्षेप हैं जो ऐेसे प्रायोगिक शोध से निकले हैं जो बताता है कि किस तरह का हस्तक्षेप कारगर है और कैसा नहीं। दालों का मुफ्त वितरण बाल टीकाकरण केंद्रों पर बच्चों की आवक सुधारता है या नहीं अथवा नि:शुल्क मच्छरदानी वितरण से मलेरिया के मामलों में कमी आती है या उन्हें रियायती दर पर बांटने से ऐसा होता है, आदि इस शोध के उदाहरण हैं।

उनका काम गरीबों की सहायता और उन पर केंद्रित सरकारी योजनाओं पर व्यय होने वाली राशि को अधिक उपयोगी बनाने वाला है लेकिन इस दावे पर करीबी नजर डालनी होगी कि उनके काम ने विकास अर्थशास्त्र में आमूलचूल बदलाव उत्पन्न किया है। इसकी तीन मोर्चों पर परख आवश्यक है। पहला, 2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल एंगस डीटन को इसी काम के लिए दिया गया था। उनका अध्ययन भी गरीबी, खपत और लोक कल्याण पर था। यह बात भी स्पष्ट नहीं है कि प्रायोगिक नियंत्रित बेतरतीब परीक्षण डीटन के तरीके से बेहतर है या नहीं। डीटन का काम विस्तृत विश्लेषण पर आधारित था।

दूसरा, प्राकृतिक विज्ञान में आजमाए जाने वाले वैज्ञानिक तौर तरीकों को सामाजिक विज्ञान में अपनाए जाने की पर्याप्त वजह है। भौतिक जगत जिस तरह प्राकृतिक कानूनों का अनुगामी होता है, मानव विज्ञान के साथ ऐसा नहीं है। एक सेब के माध्यम से गुरुत्व का सिद्घांत खारिज हो सकता है लेकिन इंसानी मामलों में लोग अलग-अलग घटनाओं पर अलग प्रतिक्रिया देंगे। बनर्जी, डफ्लो और क्रेमर की शोध प्रवृत्ति तथा व्यवहारात्मक अर्थशास्त्री कास संस्टेन, रिचर्ड थालेर और स्टीवन लेविट के तरीकों में काफी समानता है। उन्होंने भी ऐसा ही प्रयोगात्मक रुख अपनाया जो औषधीय मनोविज्ञान पर आधारित था जिसमें लोगों के वांछित व्यवहार का अध्ययन किया गया। मसलन स्कूल के बाहर वाहन धीमे करना, पुरुषों के शौचालय में यत्र-तत्र पेशाब छलकाना। बहरहाल व्यवहार अर्थशास्त्र राजकोषीय गुणक सुधारने में नाकाम रहा। रिचर्ड थालेर को 2017 में नोबेल मिला। उन्होंने कर कटौती भुगतान की मदद से आय में स्थायी वृद्घि का भ्रम रचने की बात की थी। परंतु सांस्कृतिक अंतर के कारण आय वृद्घि का लोगों पर अलग असर हो सकता है। विभिन्न प्रकार के हस्तक्षेप पर भी भिन्न-भिन्न स्थान और समय पर उनकी प्रतिक्रिया भी अलग-अलग हो सकती है। जाहिर है ऐसे में यह बात काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि आखिर बेतरतीब परीक्षण कहां और कब किए गए। इसके बाद ही उन्हें सफलतापूर्वक आजमाया जा सकता है।

तीसरी बात, वृहद स्तर पर गरीबी उन्मूलन का सबसे तेज तरीका अब भी उच्च वृद्घि, निवेश और उत्पादक रोजगार है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार बीते दो दशक में अत्यधिक गरीबी में भारी कमी आई और यह करीब 30 फीसदी से घटकर 10 फीसदी के आसपास रह गई। यह ऐसी अवधि भी रही जब उभरते और विकासशील देशों में जहां सबसे अधिक गरीब रहते थे वहां विकास में तेजी आई। सन 1999 से 2015 के बीच में गरीबी में कमी की गति सन 1981 से 1999 की तुलना में कहीं तेज थी। चीन, भारत और सब-सहारा अफ्रीका में गरीबी में आई कमी के अंतर को वृद्घि दर में अंतर से समझा जा सकता है। ऐसे में ट्रिकल डाउन के सिद्घांत की चाहे जितनी आलोचना की गई हो, वह यहां सही प्रतीत होता है।

इसे प्रति व्यक्ति आय और अत्यधिक गरीबी के बीच के आपसी संबंध से अच्छी तरह समझा जा सकता है। सन 2015 में कम आय वर्ग में अत्यधिक गरीबी 43.9 फीसदी, निम्र मध्य वर्ग में 13.9 फीसदी और उच्च मध्य तथा उच्च वर्ग में क्रमश: 1.7 फीसदी और 0.7 फीसदी थी। हालांकि संकेत यह भी है कि ट्रिकल डाउन का असर उच्च और उच्च मध्य आय वर्ग वाले देशों में कहीं बेहतर है जबकि निम्र मध्य आय और निम्र आय वाले देशों में कम। हालांकि वियतनाम और भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में बहुत अलग नहीं हैं लेकिन वियतनाम में प्रति व्यक्ति आय न केवल काफी कम है बल्कि वह उच्च मध्य आय वर्ग वाले देश ब्राजील से भी कम है। यहां तक कि अत्यधिक गरीबी के मामले में नेपाल भी भारत से बेहतर स्थिति में है।

अत्यधिक गरीबी को लेकर ऐसे अलग अनुभव बताते हैं कि वृद्घि और प्रति व्यक्ति आय तथा अत्यधिक गरीबी के बीच का रिश्ता निम्र मध्य आय और अल्प आय वाले देशों में कारगर नहीं है। नोबेल विजेताओं द्वारा किए गए हस्तक्षेप जैसे नीतिगत हस्तक्षेप इन देशों में बड़ा अंतर पैदा कर सकते हैं।

उच्च आय और उच्च मध्य आय वाले देशों में ध्यान अत्यधिक गरीबी से सामाजिक गरीबी और असमानता की ओर स्थानांतरित हो गया है। वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबी सन 1990 के 35.9 फीसदी से घटकर 2015 में 10 फीसदी रह गई, सामाजिक गरीबी (विश्व बैंक के अनुसार प्रति व्यक्ति 5.5 डॉलर) 67 फीसदी से घटकर केवल 46 फीसदी पर आई। इस तरह देखें तो आधी दुनिया गरीब है। वृद्घि ने सुधार तो किया लेकिन असमान। चूंकि अत्यधिक गरीबी के मानक नीचे हैं इसलिए इसमें तेजी से गिरावट आई। तेज वृद्घि के कारण असमानता में भी तेज गति से इजाफा होता है। चूंकि ऐसे देशों में सामाजिक गरीबी और असमानता कम करने के लिए लक्षित नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है तो क्या यहां नियंत्रित बेतरतीब परीक्षण का प्रयोग किया जा सकता है? हमने ऊपर जिन तीन बिंदुओं की चर्चा की वे किसी तरह बनर्जी, डफ्लो या क्रेमर के महत्त्वपूर्ण काम को सीमित करने का प्रयास नहीं है। नोबेल समिति द्वारा उनका चयन ही उनकेे काम को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है। हमने जिन बिंदुओं की बात की, इन शोधकर्ताओं ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्हें स्वीकार भी किया है। ऐसे हस्तक्षेप सर्वाधिक गरीबों के जीवन में सुधार कर सकते हैं और सामाजिक गरीबों के मामले में भी ऐसी दलील का इस्तेमाल किया जा सकता है। परंतु ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है जिससे गरीबी एक झटके में दूर हो जाए। हमें उक्त परीक्षण के नतीजों को लागू करते समय सावधानी बरतनी होगी और वृहद स्तर की नीति से जुड़े हस्तक्षेप पर लगातार ध्यान देना होगा। ऐसा करके ही तेज वृद्घि, निवेश और उत्पादक रोजगार का समुचित माहौल तैयार किया जा सकेगा।


Date:31-10-19

निर्यात योजना का अभाव

संपादकीय

गत वर्ष केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय ने एक उच्चस्तरीय सलाहकार समूह का गठन किया था। समूह को ऐसे तरीके सुझाने थे जिनकी सहायता से देश के निर्यात में सुधार किया जा सके। अब यह रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है और यह व्यापार नीति को लेकर सरकारी हलकों की सोच का उपयोगी संकेतक है। उस नजरिये से देखें तो निकलने वाले संकेत चिंतित करते हैं। इसमें स्वीकार किया गया है कि निर्यात के क्षेत्र में देश का प्रदर्शन काफी गड़बड़ रहा है लेकिन इसकी अनुशंसाएं भी खरी नहीं उतरतीं। रिपोर्ट में बिल्कुल सही कहा गया है कि भारतीय निर्यात गहरे संकट में है। इसके लिए वैश्वीकरण के खात्मे या विश्व व्यापार की व्यापक समस्याओं को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है इसका कारण यह है कि जिस समय वैश्विक व्यापार वृद्धि का स्तर लगभग ढह गया है, उसी दौरान भारत का कारोबारी प्रदर्शन भी बिगड़ा है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारत के निर्यात प्रदर्शन में गिरावट की कुछ नितांत घरेलू वजह भी हैं। इन्हें हल करना आवश्यक है। खेद की बात है कि कुछ उपयोगी अनुशंसाओं वाली यह रिपोर्ट इस सवाल का जवाब नहीं देती कि निर्यात में कैसे इजाफा किया जाए। हकीकत यह है कि कुछ मायनों में यह पुराने रास्ते अपनाने की सलाह देती है। उदाहरण के लिए जब बात कपड़ा एवं वस्त्र क्षेत्र की आती है तो यह सुझाती है कि भारत को बांग्लादेश के साथ मुक्त व्यापार के खतरों का आकलन करना चाहिए। क्या वाकई यह हमारी समस्या है? मुद्दा यह है कि बांग्लादेश का कपड़ा एवं वस्त्र निर्यात वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी है जबकि हमारा नहीं। ऐसे में सवाल यह होना चाहिए कि आखिर भारतीय वस्त्र निर्यातक बांग्लादेश और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की वैश्विक हिस्सेदारी में अपना हिस्सा कैसे सुनिश्चित करें। यहां संरक्षणवादी उपायों का तो कोई प्रश्न ही नहीं है।

वृहद पक्ष देखें तो रिपोर्ट में दिए गए सुझाव बाधित निवेश, मौद्रिक नीति के कमजोर पारेषण आदि को लेकर अन्य स्थानों पर जताई जा रही चिंता के अनुरूप ही हैं। व्यापार संवद्र्धन नीति की बात करें तो रिपोर्ट की अनुशंसाएं अफसरशाही मानसिकता से ग्रस्त हैं और ये पर्याप्त महत्त्वाकांक्षी भी नहीं दिखतीं। उदाहरण के लिए इसमें सुझाव दिया गया है कि मौजूदा निवेश संवद्र्धन एजेंसी को प्रोत्साहन देने का अधिकार दिया जाना चाहिए और एक व्यापार संवद्र्धन एजेंसी अलग से गठित की जानी चाहिए। ये सारे उपाय मूल समस्या को हल नहीं करते। असल समस्या यह है कि देश में व्यापार वार्ता और प्रबंधन ध्वस्त हो चुके हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री के अधीन होने के बजाय ये विभिन्न मंत्रालयों के अधीन हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति अक्सर ऐसी वार्ताओं को विधायिका की निगरानी से मुक्त करने के लिए अनुमति देता है और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय सीधे राष्ट्रपति के अधीन होता है।

कम से कम एक मोर्चे पर रिपोर्ट अत्यधिक आशावाद की शिकार नजर आती है। रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि मंत्रालय के बाहर किसी प्रतिष्ठित संस्थान द्वारा बड़े आंकड़ों के विश्लेषण से निर्यात नीति तैयार की जा सकती है। यह थिंक टैंकों या आईटी सलाहकारों के लिए अच्छी खबर हो सकती है लेकिन इससे नीति निर्माण में सुधार होता नहीं दिखता। मूल समस्या है घरेलू उद्योग का प्रतिस्पर्धी न होना और यह समस्या आगे भी बनी रहेगी। जरूरत यह है कि घरेलू बाजार सस्ता और भरोसेमंद हो, कारक बाजार लचीले हों, कर दर कम हो और लालफीताशाही का प्रभाव भी कम हो। यह कोई रॉकेट विज्ञान नहीं है। इसके लिए केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।


Date:31-10-19

कश्मीर घाटी : मीडिया, विपक्ष और विदेश

संपादकीय

मोदी सरकार ने यूरोपीय संसद के 23 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर की स्थिति का जायजा लेने भेजा तो विपक्ष ने इसे इस आधार पर गलत बताया कि जब उसके कुछ नेता व सांसद वहां जाना चाहते थे तो इस सरकार ने मना कर दिया था। यह भी आरोप है कि यूरोपीय सांसदों की पूरी यात्रा परोक्ष रूप से सरकार-प्रायोजित है। प्रतिद्वंद्वात्मक प्रजातंत्र में सरकार के कार्यों की आलोचना मीडिया और विपक्ष का मूल कर्तव्य है, लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे होते हैं जिन पर सरकार के कदम की आलोचना के पहले यह देखना होता है कि उस कदम के न लेने पर क्या स्थितियां बेहतर थीं या रहेंगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर को लेकर सरकार की हर आलोचना का भारत-विरोधी तत्व या पड़ोसी पाकिस्तान फायदा उठाते हैं। फिर आलोचना करने वाले यह क्यों चाहते हैं कि 70 साल से पड़ोसी पाकिस्तान की शह पर अलगाववादी हिंसा का दंश झेलता कश्मीर रातोरात बदल जाएगा। खुद जब ये सरकार में रहे तो यही हिंसा वहां की निहत्थी जनता और अर्धसैनिक बलों के जवानों की लाश गिराती रही। इतने दबाव के बावजूद अगर आतंकवादियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि हर रोज सेब का ट्रक लाने वाले ड्राइवरों को गोली मारी जा रही है तो जवानों द्वारा हिंसा का दमन तब तक जारी रहना चाहिए जब तक आतंक का एक तत्व भी सांस ले रहा है। इस प्रक्रिया में संभव है कि कुछ मानवाधिकारों की अनदेखी हो पर लक्षित लाभ को देखते हुए देश के मानवाधिकार के स्व-नियुक्त अलमबरदारों और विपक्ष को यह संयम बरतना होगा। फिर अगर अमेरिकी कांग्रेस के कुछ सांसद कश्मीर की हालत पर अंतरराष्ट्रीय मंचों से जार-जार रोते हैं, तो यह सरकार की रणनीति भी हो सकती है कि यूरोपीय यूनियन के तमाम सदस्य देशों के सांसदों का प्रतिनिधि मंडल सरकार के प्रयासों पर मुहर लगाए और तब भारत विश्व मंचों पर भी विरोधियों का मुंह बांध सके। यह भी सच हो सकता है कि इन 27 प्रतिनिधियों में 23 दक्षिणपंथी विचारधारा वाले हों। लेकिन क्या विपक्ष का इन प्रतिनिधियों की विश्वसनीयता कम करना देश के हित में होगा? पहले भी कांग्रेस नेतृत्व ने जाने-अनजाने में कश्मीर की हालत और मानवाधिकार के उल्लंघन की बात कर पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ में एक हथियार पकड़ा दिया था। यह गलती दोबारा करना विपक्ष के लिए अनुचित ही नहीं राजनीतिकरूप से भी घाटे का सौदा होगा।


Date:31-10-19

हम अपनी प्रतिभाओं को पहचान क्यों नहीं पाते ?

संदर्भ : खेल, सिनेमा, बिज़नेस व अन्य क्षेत्रों में व्यक्ति जितना गुणी होगा, उसकी आलोचना का उतना ही जोखिम रहेगा

प्रीतीश नंदी , वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता

विकास संबंधी अर्थशास्त्र पर क्रांतिकारी शोध के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अभिजीत बनर्जी की उपलब्धि का पूरी दुनिया ने जश्न मनाया, लेकिन हमारे एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ‘पूरी तरह वामपंथी’ कहकर उन्हें नीचा दिखाने में लगे रहे। भाजपा में बौद्धिक खालीपन (इसे आप पूरे भारतीय दक्षिण पंथ में बौद्धिक खालीपन भी कह सकते हैं) को देखते हुए इसे इस तरह भी परिभाषित किया जा सकता है कि बनर्जी कम्युनिस्टों के सहयात्री हैं या वे अर्बन नक्सल हैं (कृपया पूरी आज़ादी से अपना चुनाव करें। आज की राजनीतिक शब्दावली ट्रोल से तय होती है, जो तर्क से पूरी तरह मुक्त है)। लेकिन, मंत्री महोदय एक कदम और आगे बढ़ गए और हम सबकी ओर से सार्वजनिक रूप से कह दिया कि भारत नए नोबेल विजेता के विचारों को खारिज करता है।

मैं जानता हूं कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा। अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की खबर सुनकर राहुल गांधी ने दावा किया था कि गरीबी पर अपनी इस रिसर्च के लिए ख्यात इस बंगाली अर्थशास्त्री ने उनकी पार्टी को ‘न्याय’ योजना के लिए कुछ अमूल्य जानकारी मुहैया कराई थी। यह योजना पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के घोषणा-पत्र का हिस्सा थी। चूंकि कांग्रेस चुनाव हार गई, तो भाजपा नेता ने निष्कर्ष निकाल लिया कि बनर्जी के आर्थिक विचार भारत ने खारिज कर दिए हैं।

हालांकि, नोबेल विजेता ने तत्काल जवाब दिया कि उन्होंने न्याय योजना के लिए कुछ जानकारी जरूर मुहैया कराई थी पर उनसे विशुद्ध रूप से डेटा यानी तथ्य व आंकड़े मांगे गए थे। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनका कांग्रेस और एक योजना के रूप में न्याय से कोई संबंध नहीं है। उनके मुताबिक इस योजना को और भी बेहतर स्वरूप दिया जा सकता था, लेकिन चूंकि किसी ने उस पर उनसे विचार नहीं मांगे थे, इसलिए उन्होंने वह मामला वहीं छोड़ दिया। हमारे मंत्री जो कहते हैं उस पर चकित होना तो हमने बहुत पहले ही छोड़ दिया है। लेकिन, हमारे नवीनतम नोबेल विजेता के बारे में की गई टिप्पणी का वक्त ठीक नहीं था, बल्कि इससे अपनी प्रतिभा को न पहचानने की हमारी अक्षमता जाहिर होती है, जबकि दुनिया उसे मान्यता दे चुकी होती है। हम यही बात खेलों, सिनेमा और व्यावसायिक उपक्रमों में देखते हैं। लेकिन, यह सबसे ज्यादा बौद्धिक विमर्श में दिखता है। कोई भारतीय जितना गुणी दिखता है, राज्य-व्यवस्था द्वारा उसकी निंदा करने का जोखिम उतना ही ज्यादा रहता है। केवल भोंदू और याचक किस्म के लोगों को ही तत्काल ख्याति मिलती है।

इसके पहले के नोबेल विजेता, जो वास्तव में बनर्जी के मेंटर रहे हैं, अमर्त्य सेन भी इसी कारण से निशाना बने थे। उन्हें कांग्रेस के निकटवर्ती के रूप में देखा गया था। यह व्यवहार फिर इस सनकभरी धारणा पर आधारित था कि चूंकि वे भाजपा की आर्थिक नीतियों से सहमत नहीं हैं तो आवश्यक रूप से कांग्रेस के साथ उनकी मिलीभगत है। कांग्रेस सरकार ने उनके महान काम को देखते हुए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया पर इसे उनकी राजनीतिक निकटता का सबूत मान लिया गया। जिसने भी प्रोफेसर सेन के काम को पढ़ा-समझा होगा तो वह इस पर हंसेगा जरूर। उन्हें भारत रत्न से सम्मानित कर सरकार की ही विश्वसनीयता बढ़ी है।

हम यह समझने में नाकाम रहते हैं कि जब हम हमारे बीच के श्रेष्ठतम लोगों पर हमला करते हैं तो हम दुनिया के सामने हंसी के पात्र बन जाते हैं। गरीबी पर अमर्त्य सेन के काम को व्यापक रूप से सराहा गया है। और शायद दुनिया में सर्वाधिक गरीब आबादी वाले देश के रूप में हमें उनकी अंतर्दृष्टि से बहुत कुछ सीखना चाहिए। यही बात अभिजीत के बारे में सच है। बस फर्क इतना सा है कि चूंकि उनके पास वास्तविक जमीनी आंकड़े हैं, तो उसे आप शायद अंतर्दृष्टि की बजाय खोज कहना चाहें। वे सिद्धांत की बजाय तथ्यों व आंकड़ों यानी जमीनी आंकड़ों की बात ज्यादा करते हैं। ऐसे लोग ही तो भारत की बेशकीमती संपदा के हिस्से होते हैं। उनका राजनीतिकरण क्यों करें? उनकी सिर्फ इसलिए निंदा न करें कि उनका दृष्टिकोण मौजूदा सरकार से ठीक-ठीक नहीं मिलता? वैसे भी यही लोग तो देश को और उनका पालन-पोषण करने वाले शहर कोलकाता को गौरव प्रदान करते हैं, जिसे हर सरकार कांग्रेस हो या भाजपा, खारिज करने में लगी रहती है।

भारत के आठ नोबेल विजेताओं में से चार कोलकाता से हैं। बेशक, सूची की शुरुआत रवींद्रनाथ टैगोर से होती है, महान कवि, उपन्यासकार, चित्रकार, संगीतकार और हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के किंवदंती पुरुष। वे व्यक्ति जिन्होंने गांधीजी को सबसे पहले महात्मा कहा था। इनमें वे भी शामिल हैं, जो दुनिया के सर्वाधिक अविश्वसनीय लोगों में से एक हैं- मदर टेरेसा, जिन्हें गरीबों में भी गरीबतम लोगों के बीच काम करने के कारण नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और कोलकाता को ‘सिटी ऑफ जॉय’ का तमगा मिला। कोलकाता से जुड़े दो और नोबेल विजेता हैं- भौतिकशास्त्री सीवी रमन और मेडिकल शोधकर्ता रोनाल्ड रॉस, जिन्होंने नोबेल दिलाने वाला ज्यादातर कार्य इसी महानगर में किया। रमन ने अद्भुत ‘रमन प्रभाव’ की खोज कोलकाता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहते हुए की थी और भारतीय मेडिकल सर्विस में 25 साल तक काम करने वाले रॉस ने मलेरिया के प्रसार को लेकर अपना नई जमीन तोड़ने वाला काम तब किया, जब वे कोलकाता के प्रेसीडेंसी जनरल हॉस्पिटल में काम किया करते थे। रमन को भौतिकी का तो रॉस को मेडिसिन का नोबेल पुरस्कार मिला था।

यदि दिल्ली को अपने भ्रष्ट राजनेताओं के लिए जाना जा सकता है, मुंबई अपने साहसी उद्योगपतियों और फिल्म सितारों के लिए जाना जा सकता है, आगरा पर्यटकों और बेंगलुरु अपने आईटी स्टार्टअप के लिए तो अब वक्त है कि हम नोबेल पुरस्कार विजेताओं के लिए कोलकाता को इसकी पहचान दें।


Date:30-10-19

महज कारोबारी सुगमता का बढ़ना काफी नहीं

जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री

विश्व बैंक की ईज ऑफ डूइंग बिजनेस 2020 में भारत 190 देशों की सूची में 63वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत कारोबारी सुगमता की विश्व रैंकिंग में 14 स्थानों की छलांग के साथ 63वें स्थान पर पहुंचा है। पिछले वर्ष 2019 में इसी सूची में भारत 77वें स्थान पर था। कारोबारी सुगमता के मामले में भारत वर्ष 2018 में पहले शीर्ष 100 देशों की फेहरिस्त में शामिल हुआ था। तब वह 30 स्थानों की छलांग के साथ 130 से 100वें स्थान पर पहुंचा था। इस तरह, भारत कारोबार सुमगता में तो तेजी से आगे बढ़ा है, लेकिन कारोबार सुगमता की छलांग की तरह रोजगार के अवसरों में छलांग दिखाई नहीं दे रही है। विश्व बैंक ने भारत को उन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया है, जिन्होंने लगातार तीसरे साल अपनी रैंकिंग में सुधार किया है। रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए सुधार के ये प्रयास सराहनीय हैं। भारत ने जिन क्षेत्रों में बड़े सुधार किए हैं, वे हैं बिजेनस शुरू करना, दिवालिएपन का समाधान, सीमा पार व्यापार बढ़ाना, कंस्ट्रक्शन परमिट में तेजी लाना।

पिछले दिनों प्रकाशित बौद्धिक संपदा, नवाचार और कारोबार सुगमता से संबंधित विभिन्न वैश्विक रिपोर्टों में भी भारत की बेहतर प्रगति की बात कही जा रही है। प्रमुख कारोबार सूचकांकों के तहत कारोबार और निवेश में सुधार का परिदृश्य भी दिखाई दे रहा है। आईएमडी विश्व रैंकिंग 2019 के अनुसार, वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तेज वृद्धि, कंपनी कानून में सुधार और शिक्षा मद में खर्च बढ़ने के कारण भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ा है। इस रैंकिंग में भारत 43वें स्थान पर आ गया है। पिछले साल वह 44वें स्थान पर था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कारोबार में बढ़ती अनुकूलताओं के कारण भारत में ख्याति प्राप्त वैश्विक फाइनेंस और कॉमर्स कंपनियां अपने कदम तेजी से बढ़ा रही हैं। कई विकसित और विकासशील देशों के लिए कई काम बड़े पैमाने पर भारत से आउटसोर्स हो रहे हैं।

भारत में वैश्विक वित्तीय कंपनियों के दफ्तर ग्लोबल सुविधाओं से सज्जित हैं। इनमें बड़े पैमाने पर प्रतिभाशाली भारतीय युवाओं की नियुक्तियां हो रही हैं। यूबीएस बैंक के मुंबई व पुणे सेंटर में करीब 4,000 कर्मचारी हैं। यूबीएस का रिसर्च डिपार्टमेंट दुनिया के लिए नए कौशल विकास और नई तकनीकों से सुसज्जित आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) क्लाउड कंप्यूटिंग, स्टैटिस्टिक्स, मशीन लर्निंग और ऑटोमेशन में विशेषज्ञता रखने वाले युवाओं की बडे़ पैमाने पर भर्ती कर रहा है। बेंगलुरु में गोल्डमैन सॉक्स का नया कैंपस लगभग 1,800 करोड़ रुपये में बना है और यह कैंपस न्यूयॉर्क स्थित मुख्यालय जैसा है, यहां पर कर्मचारियों की संख्या 5,000 से अधिक है। दुनिया की दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी अमेजन ने हैदराबाद में 30 लाख वर्गफुट क्षेत्र में जो इमारत बनाई है, वह हैदराबाद की सबसे बड़ी इमारत है। इसमें 15 हजार कर्मचारी हैं।

लेकिन हमें कारोबार सुगमता, नवाचार व प्रतिस्पद्र्धा के वर्तमान स्तर और विभिन्न वैश्विक रैंकिंग में आगे बढ़ते कदमों से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। अभी इन क्षेत्रों में व्यापक सुधार की जरूरत है। खासतौर से भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक स्पद्र्धा में आगे बढ़ाना जरूरी है। विश्व आर्थिक मंच द्वारा 141 देशों के लिए जारी वैश्विक प्रतिस्पद्र्धा सूचकांक (ग्लोबल कंपीटेटिवनेस इंडेक्स) 2019 में भारत पिछले वर्ष 2018 की तुलना में 10 स्थान फिसलकर 68वें पायदान पर आ गया है। सूचना, संचार और प्रौद्योगिकी को अपनाने में सुस्ती, चिकित्सा व स्वास्थ्य की स्थिति ने भी भारत के प्रदर्शन पर प्रभाव डाला है। निश्चित रूप से देश में शोध व विकास पर खर्च बढ़ाना होगा। यहां इस पर जितनी राशि खर्च होती है, उसमें इंडस्ट्री का योगदान काफी कम है, जबकि अमेरिका तथा इजरायल जैसे विकसित देशों व पड़ोसी देश चीन में यह काफी अधिक है। इससे भारतीय प्रोडक्ट्स ग्लोबल ट्रेड में पहचान नहीं बना पा रहे हैं। उन सभी तरीकों को अपनाना अब जरूरी हो गया है, जो कारोबार को भी तेजी से बढ़ाएं और विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर भी पैदा करें। यही रास्ता हमें आर्थिक मंदी से मुक्ति भी दिलाएगा और दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत बनने में भी मदद करेगा। मेक इन इंडिया जैसे अभियान भी इसके बिना अधूरे रहेंगे।


Date:30-10-19

नेतृत्व जो जनजातियों को नहीं मिला

रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

भारतीय संविधान ने दो सामाजिक समूहों को विशेष रूप से वंचित माना है। पहला, अनुसूचित जाति, जिसे बोलचाल की भाषा में दलित कहा जाता है, जबकि दूसरा समूह है अनुसूचित जनजाति, जिसे अमूमन आदिवासी माना जाता है। दोनों समूह अपनी रचना में असाधारण रूप से एक-दूसरे के विपरीत हैं। भाषा, जाति, गोत्र, धर्म और आजीविका जैसे तमाम मामलों में पूरी तरह से जुदा। आंध्र प्रदेश की मडिगा जाति और उत्तर प्रदेश की जाटव जाति में कोई समानता नहीं, सिवाय इसके कि दोनों जातियों के लोग सरकारी नौकरी के लिए ‘अनुसूचित जाति’ कोटे के तहत आवेदन कर सकते हैं। इसी तरह, तमिलनाडु के नीलगिरी पहाड़ियों की इरुला जनजाति और मध्य प्रदेश की महादेव पहाड़ियों की गोंड जनजाति भी एक समान नहीं हैं, सिवाय इसके कि दोनों जनजातियों के लोग सरकारी नौकरी के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ कोटे के तहत आवेदन कर सकते हैं।

बावजूद इसके देश भर के दलित एक विलक्षण व्यक्तित्व के सम्मान में एकजुट दिखते हैं, और वह हैं भीमराव आंबेडकर। हालांकि अपने जीवनकाल में जिस बौद्धिक कौशल का उन्होंने परिचय दिया और सियासत में जिस तरह बड़े पद संभाले, उसकी वजह से महाराष्ट्र की अपनी महार (उप-जाति) में ही उनकी लोकप्रियता ज्यादा थी, मगर मृत्यु के बाद वह पूरे देश में दलितों के आदर्श बन गए। वहीं दूसरी तरफ, जनजातियों के पास ऐसा कोई नेता (जीवित या दिवंगत) नहीं है, जिसके पास आंबेडकर जैसा कद या सम्मान हो।

आंबेडकर की दलितों के बीच अनुकरणीय स्थिति का मैं लंबे समय से कायल रहा हूं। एकनाथ आवाड की आत्मकथा, जो कि मूलत: मराठी में लिखी गई है और जेरी पिंटो ने उसका बेहतरीन अंग्रेजी तर्जुमा किया है, मुझे फिर से उनकी यादों में खींच ले गई। आवाड का जन्म महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में बतौर मांग (मातंग) हुआ था। हालांकि बहुत छोटी उम्र से पढ़ने-लिखने की उत्कट इच्छा के कारण उनके परिजनों ने उन्हें ‘महाराचा औलाद’ (महार का बेटा) कहना शुरू कर दिया था। हाई स्कूल छात्र के रूप में एकनाथ ने बहुत गंभीरता से आंबेडकर को पढ़ा, और साथ-साथ समाजवादी सांसद नाथ पाई (कभी बेशक वह प्रेरक व्यक्तित्व रहे, मगर अब भुला दिए गए) के भाषणों में भी उत्सुकता दिखाई। 1970 के दशक में किशोरावस्था में एकनाथ दलित पैंथर्स से प्रभावित हुए और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम आंबेडकर के नाम पर रखे जाने की मांग को लेकर चले आंदोलन में शामिल हुए। इस आंदोलन के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘यदि नाम बदलने का समर्थन करता कोई मोर्चा एक दिन निकलता, तो ठीक उसके अगले दिन इसके विरोध में दूसरा मोर्चा निकलता। इस कारण से तब मोर्चों की शृंखला शुरू हो गई थी। शिव सेना नाम बदलने के खिलाफ थी। उन दिनों छात्र, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, ग्रामीण आदि सभी पक्ष या फिर विपक्ष में थे।’

नाम बदलने के इस आंदोलन ने उच्च जातियों को बर्बर प्रतिशोध के लिए उत्तेजित कर दिया। आवाड याद करते हैं, ‘महारों के घरों में जमकर आगजनी की गई… मराठवाड़ा में करीब 180 गांव ऐसी हिंसा के गवाह बने। दस दिनों तक दंगे भड़कते रहे। 18 जगहों पर पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। एक हजार से ज्यादा दलित घरों को आग के हवाले कर दिया गया।’ उस समय कॉलेज छात्र के रूप में आवाड इस संघर्ष से बुरी तरह प्रभावित हुए। वह लिखते हैं, ‘जैसे ही दलितों के विरुद्ध हिंसा की खबरें आईं, मैं बेचैन होने लगा। मन गुस्से से भर गया।’

गरीबी और जातिगत भेदभाव के खिलाफ अपने शुरुआती संघर्षों के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘अभाव का कष्ट आपको खुशी नहीं देता। अपमान सह लेने और अपने जीवन की बेकदरी से आप खुशहाल जीवन नहीं जी सकते। मगर जब इंसान परिस्थितियों से जंग शुरू करता है और अन्याय के खिलाफ मुखर होता है, तब जिंदगी उसे अलग जिंदादिली का एहसास कराती है। मेरा अनुभव है कि संघर्ष एक निकास-द्वार बनाता है, जिससे आपका रोष और गुस्सा बाहर निकलता है।’ आवाड की मानें, तो 1970 और 1980 के दशकों में ‘शिव सेना और कांग्रेस, दोनों का दलितों के प्रति विषाक्त रवैया था। शिव सेना बेशक मुंबई की ऐसी पार्टी मानी गई, जो मराठी लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रही है, पर गांवों में तो वह उच्च-जाति की पार्टी थी, जो हिंदू जातिवाद के कड़वे स्वाभिमान को जगाए हुए थी।’

सामाजिक-कार्य में बीए और फिर मास्टर की डिग्री हासिल करने के बाद एकनाथ ने एक सवर्ण आदर्श जोड़े के साथ काम करना शुरू किया। उनकी समाजवादी सोच ने एकनाथ को आदिवासियों के साथ काम करने को प्रेरित किया। अपने अनुभवों के आधार पर आवाड ने आदिवासियों और दलितों के बीच एक उल्लेखनीय फर्क बताया है। वह लिखते हैं, ‘आदिवासी ज्यादा तकलीफ झेल सकते हैं, जबकि दलित ज्यादा संघर्ष कर सकते हैं।’ उन्होंने लिखा है, ‘किसी भी सामाजिक आंदोलन या क्रांति में वे (आदिवासी) किसी समूह या नेता के अनुयायी के रूप में शामिल होते हैं। उनका अपना कोई नेता नहीं रहा है। आज भी आदिवासियों में बहुत कम नेता हैं’।

बतौर एक्टिविस्ट जब उन्होंने अपना करियर शुरू किया, तो लिखा है, ‘चूंकि मैं मातंग जाति में पैदा हुआ था, इसलिए मुख्य दलित पार्टियां मुझसे सौतेला व्यवहार करती थीं। यह ऐसा था, मानो सिर्फ एक जाति का ही बाबा साहेब के नाम पर हक हो। मुझे यह सही नहीं लगा कि हमने बाबा साहेब के विचारों को जाति के बंधन में बांध दिया है।’ नतीजतन, आवाड आंबेडकर की उपलब्धियों को व्यापक मान्यता दिलाने में जुट गए। कई उच्च जातियों के अलावा मातंग और महार जैसी जातियों के लिए उन्हें आदर्श प्रतीक बनाने में आवाड ने अहम भूमिका निभाई।

आज बी आर आंबेडकर को गुजरे छह दशक से अधिक हो गए हैं। फिर भी, वह पूरे भारत में दलितों को शिक्षित करने, संगठित करने और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इससे भी उल्लेखनीय शायद यह है कि आंबेडकर का नाम उच्च जातियों में भी सम्मान से लिया जाता है। यह सम्मान उन्हें आप बेशक अनिच्छा से दें, लेकिन इसे कतई नकार नहीं सकते। दुर्भाग्य से, आदिवासियों के पास ऐसा कोई नेता नहीं, जो उन्हें आत्म सम्मान और अपनी गरिमा के लिए संघर्ष करने को आंबेडकर जैसा प्रेरित कर सके।


Date:30-10-19

Science versus myths

Today historians have no power before politicians, who are not so much invested in truth as in legend

Devdutt Pattanaik writes and lectures on mythology in modern times

Rajputs appear in history roughly 1,200 years ago in regions now known as Rajasthan, Delhi, Haryana, the Western Gangetic plains and Bundelkhand. For generations they have skilfully used bards, ballads and epic poetry to turn defeats at the northern frontiers of India into moral victories. Raputs lost to Ghazni about 1,000 years ago, to Ghuri about 800 years ago, to Khilji about 700 years ago, to Babur and Akbar about 600 years ago. Yet we remember not their defeat, but their courage; pride; and the images of warriors voluntarily offering their heads to the goddess of war, of their brides burning themselves in pyre rather than surrendering to the enemy, of their loyal horses.

Legends about courage composed by poets, centuries after the events took place, must be textbook material, we are told, not facts about defeat collated by historians. Shouldn’t textbooks be instruments to raise the next generation of patriots, like hagiographies of saints are used to bind sampradayas? Historians disagree, but they have no power before politicians, who need to bind people with a single narrative, and so are not so much invested in truth as in legend (inspiring memories, indifferent to facts) and myth (cultural truth that gives meaning to the world and life, indifferent to facts).

Controlling the discourse of a people

History as a subject based on scientific principles of measurement and evidence is barely 150 years old. In a short span it has become a serious force among people who wish to control the discourse of a people. At first, this was the priest with his access to transcendental, mystical and occult realms; then it was the king with his access to military, and later democratic, power; then the merchant, the entrepreneur, and the technocrat with control over economic power; and then the peasant and the worker, who had the numbers to replace regimes. Now it is the scientist — the historian, the economist, the sociologist, the anthropologist — who uses measurement to present truths that are objective and ontological (independent of the human mind) rather than epistemic (shaped by the human mind). Naturally, priests, politicians and technocrats hate scientists; they yearn for the poets of yore.

A history of language reveals how meanings shift over time. The word ‘myth’ in the 19th century referred to falsehood of polytheism, paganism, and idolatry, as opposed to the ‘truth’ of monotheism. But today it refers to the cultural truth of a people. The Sanskrit word ‘nyaya’, which 2,000 years ago meant epistemology, refers today to justice in Hindi. And ‘itihasa’, which in Hindi today refers to history, meant narratives like the Ramayana and Mahabharata where the authors — Valmiki and Vyasa — are part of the story and hence can confidently say, ‘thus indeed it happened’ or ‘itihasa’, as opposed to ‘purana’ which are old chronicled narratives of gods, kings and sages that authors did not witness but heard from others.

When myths become history

But this meaning is lost to those who prefer myths, legend and sacred lore to scientific historiography. For them, Ramayana is history as is Prithviraj Raso that tells the story of Prithviraj Chauhan, who, while defeated by Mahmood Ghori in battlefield and blinded in prison, still managed to kill his captor using his extraordinary archery skills. It does not matter that Prithviraj Raso was composed 400 years after the event. Or that we know this story because James Tod, a captain in the East India Company, collated the stories that Rajput kings wanted to tell about themselves, and presented it as a book, Annals and Antiquities of Rajasthan, highly criticised even in the 19th century, that practically ‘invented’ the Rajput we know today.

Today anything that does not correlate to Prithviraj Raso is seen as falsehood. Any argument might get the Karni Sena, which became infamous during the Padmavat controversy, at your doorstep. No textbook informs us how there are many conflicting stories about Prithviraj Chauhan not just in the Islamic-Persian narratives, which is understandable, but also in other Rajput and Jain legends. For example, how many of us know about Bela, his daughter, who wanted to marry Brahma, prince of Mahoba, who Prithviraj Chauhan did not approve of? The story comes from the great epic Alha, popular even today in Bundelkhand, where Jayachand is the king of Kannauj, and hardly the ‘traitor’ that Hindutva history insists he is. Alha speaks of how Rajputs fought amongst each other, how caste played a major role, overshadowing merit. It does not paint a flattering picture of Prithviraj Chauhan, as father or leader, and perhaps explains how Rajput infighting made India vulnerable to foreign invasion. But historians and poets who say such things will be silenced. For a king now decides what our past should be.


Date:30-10-19

Legal pluralism in personal law

Uniformity in civil law can only be achieved in a piecemeal manner

Faizan Mustafa is Vice-Chancellor, NALSAR University of Law, Hyderabad. 

In Jose Paulo Coutinho v. Maria Luiza Valentina Pereira (2019), the Supreme Court has yet again revived the debate on a uniform civil code (UCC) and referred to Goa as “a shining example of an Indian State which has a uniform civil code applicable to all…”. There are rumours that the government may surprise everyone in the winter session of Parliament by introducing a UCC Bill, just as it did by diluting Article 370 on August 5. But in fact it has been the judiciary, rather than the Bharatiya Janata Party or the Rashtriya Swayamsevak Sangh, that has been relentlessly pushing for the enactment of a UCC.

Some earlier cases

In some cases that dealt with the issue of a UCC, the apex court’s observations have been unnecessary obiter dicta (such as in Mohd. Ahmed Khan v. Shah Bano Begum, 1985). In some others (such as in Sarla Mudgal v. Union of India, 1995, in which four Hindu men converted to Islam to take second wives), the court’s observations have been reflective of flawed and problematic judicial reasoning. Instead of condemning the men in Sarla Mudgal, the court demonised Muslims by saying, “Those who preferred to remain in India after the partition, fully knew that the Indian leaders did not believe in two-nation theory or three-nation theory and that in the Indian Republic there was to be only one Nation — Indian nation — and no community could claim to remain a separate entity on the basis of religion” (sic). It also stated there “there is an open inducement to a Hindu husband, who wants to enter into second marriage while the first marriage is subsisting, to become a Muslim”. In this judgment, the court completely negated the idea of legal pluralism; overlooked the fact that while all Congress leaders including Jawaharlal Nehru, Sardar Patel and Mahatma Gandhi voted for Pakistan, Maulana Abul Kalam Azad stood his ground and voted against it; overlooked V.D. Savarkar’s two-nation theory; and also overlooked the history of the Hindu Right’s resistance to the Hindu Code Bill.

With reference to the court’s judgment in Jose Paulo Coutinho, it is important to understand that the reality of Goa is a little complex. The Goa Civil Code of 1867, which was given by the Portuguese, begins in the name of God and the King of Portugal. Uniformity is not necessarily a promise for gender justice. On the opposition of Hindus, the Code permitted limited polygamy for Hindus on certain conditions, including “absolute absence of male issue, the previous wife having completed 30 years of age, and being of lower age, ten years having elapsed from the last pregnancy”.

The Code gives certain concessions to Catholics as well. Catholics need not register their marriages and Catholic priests can dissolve marriages performed in church. Church tribunals are similar to the so-called Sharia courts and dissolution by them is mechanically approved by the High Court. Why the court did not, as a first step towards a UCC in Goa, recommend the adoption of a reformed Hindu Code Bill in preference to the Portuguese Civil Code is not clear.

The provision of matrimonial properties being jointly held and equally divided between spouses on divorce exists under the 1867 Code. However, through pre-nuptial contracts, parties may opt out of this joint ownership of properties. In many marriages, would-be wives are forced to sign on dotted lines. Thus, even where such joint ownership of assets exists, the control over property remains with the husband. Even the Goa Succession, Special Notaries and Inventory Proceeding Act, 2012, enacted by the BJP government in 2016, mentions the surviving spouse only as the fourth preference in Section 52 (order of legal succession), after descendants, ascendants, and brothers of the deceased.

As far as Muslims are concerned, the Muslim Personal Law (Shariat) Application Act of 1937 has not been extended to Goa. Muslims of Goa are governed by Portuguese law as well as Shastric Hindu law.

The majority in Shayara Bano v. Union of India (2017) did hold freedom of religion subject to restrictions under Articles 25 and 26 of the Constitution as absolute. Even the right to follow personal law had been elevated to the highest status of fundamental right. UCC is only one of the directive principles. The Supreme Court rightly held in Minerva Mills Ltd. v. Union Of India (1980) that “to destroy the guarantees given by Part III [fundamental rights] in order purportedly to achieve the goals of Part IV [directive principles] is plainly to subvert the Constitution by destroying its basic structure.”

Futility of one nation, one law

Since personal laws are in the Concurrent List, they may differ from State to State. The framers of the Constitution did not intend total uniformity or one law for the whole country. States have made more than a hundred amendments to the Code of Criminal Procedure and the Indian Penal Code. The law of anticipatory bail differs from one State to another. Even BJP governments in different States, including Gujarat, have reduced fines under the amended Motor Vehicles Act despite the Centre justifying the hefty fines. This proves the futility of one nation, one law.

Not all Hindus in the country are governed by one law. Marriages amongst close relatives is prohibited by the Hindu Marriage Act of 1955, but is considered auspicious in the south. The Hindu Code Bill recognises customs of different Hindu communities. Even the Hindu Succession Act of 1956 made several compromises and could not make daughter a coparcener till 2005. Wives are still not coparceners. Even today, property devolves first to Class I heirs and if there are no Class I heirs, then to Class II heirs. While heirs of sons are Class I heirs, those of daughters are not. Even among Class II heirs, preference is given to the male line. If a couple does not have a child, the property of not only the husband but also of the wife goes to the husband’s parents.

Similarly, there is no uniform applicability of personal laws among Muslims and Christians. The Constitution protects the local customs of Nagaland, Meghalaya and Mizoram. In fact, let’s leave aside discriminatory personal laws; even land laws enacted after 1950 in a number of States are gender unjust. These laws have been exempted from judicial scrutiny and have been included in the Ninth Schedule.

No blueprint of a UCC has been prepared yet. No expert committees, like the Hindu Law Committee of 1941, has been constituted so far. Several provisions of codified Hindu law such as solemnisation of marriage, satpati, kanyadaan, the sacramental nature of marriage, income tax benefits for the Hindu joint family, and absolute testamentary powers may not find a place in the UCC. Provisions like dower (payment by husband) or nikahnama (prenuptial contract) are to be incorporated in the UCC. Will Hindus accept these changes?

Last year, the Law Commission had concluded that a UCC is neither desirable nor feasible. Indeed, it is best to enact a UCC in a piecemeal manner.