31-08-2024 (Important News Clippings)

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31 Aug 2024
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Date: 31-08-24

आर्थिक विषमताएं दूर करने की भी कोशिशें हों

संपादकीय

हाल ही सामने आई दो रिपोर्ट देश की विरोधाभासी छवि देती हैं। हुरून इंडिया रिच लिस्ट के अनुसार पिछले एक साल में एक अरब डॉलर ( 8,355 करोड़ रुपए) से ऊपर की संपत्ति वाले रईसों में हर पांच दिन में एक नाम और जुड़ गया। इनकी कुल संपत्ति सऊदी अरब, स्विट्जरलैंड की कुल संयुक्त जीडीपी, या अकेले भारत की जीडीपी की आधी यानी 159 लाख करोड़ रुपए है । अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखें। थिंक टैंक ‘प्राइस’ का अध्ययन बताता है कि देश की तीन-चौथाई आबादी के घरों के मुखिया की आय 830 रु. से कम है। एक ताजा लेख में वित्त आयोग के अध्यक्ष ने माना कि 75 साल के विकास के बाद भी देश के 85% कामगार या तो कृषि या 10 से कम वर्कर्स वाले उद्यम में लगे हैं। और चूंकि हुनर के अभाव में उनका आउटपुट बहुत कम है, लिहाजा आय भी कम है। उनके अनुसार व्यापारी, नीति-निर्धारक अफसरशाही, सारा का सारा सिस्टम बगैर कुछ सोचे, सहज व स्वाभाविक रूप से हाई-टेक और भारी पूंजी वाले उद्यमों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। जहां एक ओर हुरून रिपोर्ट चीन में अरबपतियों की घटती संख्या के आधार पर बताती है कि एशिया में भारत पूंजी निर्माण का इंजन बन गया है, वहीं ‘प्राइस’ की रिपोर्ट बताती है कि अमीर-गरीब की खाई बढ़ रही है। देश में मौजूद आर्थिक विषमताएं दूर करने की भी कोशिशें होनी चाहिए।


Date: 31-08-24

हर मामले में गिरफ्तारी जरूरी नहीं है, जमानत पर जोर दें ​​​

अर्घ्य सेनगुप्ता जय ओझा, ( अर्घ्य सेनगुप्ता जय ओझा विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के संस्थापक और रिसर्च फेलो​​​​​​ )

सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व पर जोर दिया है। जमानत-सम्बंधित कानूनों पर ताजा चर्चा एक नेता के अभियोजन के संदर्भ में उठी है। दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री मनीष सिसोदिया को जमानत देते समय सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जमानत पर शीघ्र ट्रायल के मौलिक अधिकार पर बल दिया।

पीठ ने जांच में देरी के लिए ईडी एवं सीबीआई की कठोर शब्दों में निंदा की। 17 महीनों की कैद के बाद सिसोदिया रिहा हुए। तीन सप्ताह बाद उनकी सह-आरोपी भारत राष्ट्र समिति की सांसद के कविता को भी जमानत दे दी गई। लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कई अन्य आरोपी अभी भी जेल में बंद हैं।

कहते हैं कि गठबंधन सरकार के दौरान न्यायपालिका अधिक सक्रिय होती है। तो अब यह पूछने का समय है कि आने वर्षों में जमानत-सम्बंधित कानून में क्या बदलाव आएगा। इस संदर्भ में विशेष रूप से तीन क्षेत्र रुचि के होंगे : मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए) जैसे ‘विशेष कानूनों’ के तहत जमानत; सामान्य प्रतिवादियों की जमानत पर लगाई जाने वाली शर्तों का विनियमन; और कानून में स्थिरता लाने के लिए संभावित संसदीय कदम।

पीएमएलए और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 जैसे विशेष कानूनों में ऐसे प्रावधान हैं, जिनसे जमानत मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। सिसोदिया के मामले में पीएमएलए की धारा 45 पर विवाद था, जो जमानत आवेदनों का ट्विन टेस्ट अनिवार्य बनाती है : 1. जमानत देने के लिए न्यायाधीश को संतुष्ट होना चाहिए कि आरोपी जमानत पर बाहर रहते हुए कोई अपराध नहीं करेगा और 2. यह मानने के युक्तियुक्त आधार हैं कि वह दोषी नहीं है।

सिसोदिया के मामले में, न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट किया कि इस धारा की व्याख्या इस तरह से न हो कि ‘जमानत नियम है और जेल अपवाद’ की जानी-पहचानी कहावत को नकार दिया जाए। इस कदम के बावजूद, पीएमएलए की धारा 45 या यूएपीए की धारा 43 डी(5) जैसे कठोर प्रावधानों के तहत स्वतंत्रता की समर्थक न्यायिक मंशा को बनाए रखना मुश्किल है।

सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 45 को विजय मदनलाल चौधरी के मामले में 2022 में संवैधानिक घोषित कर दिया था। न्यायपालिका का जमानत के प्रति हृदय-परिवर्तन कितना सच्चा है, यह इस फैसले पर पुनर्विचार की कसौटी पर कसेगा।

मनीष सिसोदिया के मामले में न्यायालय के आदेश के बाद गिरीश गांधी बनाम गुजरात राज्य के मामले में एक और आदेश आया, जिसमें न्यायमूर्ति गवई और विश्वनाथन ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलट दिया। उसमें जमानत देने के लिए कठोर शर्तें रखी गई थीं, खास तौर पर स्थानीय जमानतदारों की आवश्यकता के संबंध में। न्यायमूर्तियों ने कहा कि अत्यधिक कठोर शर्तों के तहत जमानत देना जमानत न देने के ही समान है।

यदि न्यायमूर्ति के शब्दों का पालन किया जाए तो हम शेख अयूब जैसे मामलों को दोहराने से बच सकते हैं। शेख अयूब को ढाई लाख रुपए के गबन के मामले में गिरफ्तार किया गया था। सत्र न्यायालय ने जमानत शर्त भी ढाई लाख रुपयों की रखी और 50000 रुपए का प्रतिभूति बंधपत्र भी मांगा, यानी जितने के गबन का आरोप था, उससे अधिक पैसे जमानत मिलने में लग जाते। हालांकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इन शर्तों को रद्द कर दिया था। लेकिन ऐसे अनेक मामले भारत के सत्र न्यायालयों में देखे जाते हैं।

पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के बावजूद, भारत में जमानत की स्थिति को अनुच्छेद 21 की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी के उच्च आदर्शों के साथ जोड़ना कठिन होगा। इस अधिकार को बार-बार संकुचित किया गया है।

न्यायपालिका ने अब रास्ता सुझाया है। कार्यपालिका में सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता है। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने तीन दशक पहले जोगिंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में बताया था कि गिरफ्तारी की शक्ति केवल पुलिस को जांच में सहायता देने के लिए है। हर मामले में गिरफ्तारी का इस्तेमाल जरूरी नहीं।

विधायिका को सतेंद्र अंतिल बनाम सीबीआई के मामले में न्यायालय के आह्वान को स्वीकार कर व्यापक जमानत कानून तैयार करना चाहिए। जमानत पर बहस अमूमन हाई-प्रोफाइल मामलों से प्रेरित होती है। फिर भी कानून के इस क्षेत्र को स्पष्ट करने के इस अवसर को गंवाना नहीं चाहिए। राजनीति के अपराधीकरण का समाधान फौजदारी कानून का राजनीतिकरण नहीं हो सकता।

अपराधियों को दोषी ठहराना चाहिए और उन्हें सजा भी काटनी चाहिए, लेकिन आरोपी को प्रक्रिया से प्रताड़ित करने का कोई अर्थ नहीं। जमानत-सम्बंधित कानून में सुधारों को आपराधिक प्रक्रिया में सुधार की शुरुआत माना जाना चाहिए।


Date: 31-08-24

नए अध्याय की ओर भारतीय कूटनीति

शिवकांत शर्मा, ( लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं )

अपनी बहुचर्चित यूक्रेन यात्रा के दौरान राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ‘हम तटस्थ नहीं हैं। हमने शुरू से ही एक पक्ष चुना है और वह पक्ष शांति का है।’ भारत के किसी भी प्रधानमंत्री की यह पहली यूक्रेन यात्रा थी। वह डेढ़ महीने पहले रूस की यात्रा पर भी गए थे।

तब उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से कहा था कि युद्ध का समाधान जंग के मैदान में नहीं मिलता, परंतु जिस दिन वह राष्ट्रपति पुतिन से गले मिल रहे थे, उसी दिन रूसी सेना ने यूक्रेन में बच्चों के एक अस्पताल पर हमला कर दिया था, जिसमें बच्चों समेत कम से कम 38 लोग मारे गए थे।

हालांकि प्रधानमंत्री ने उस घटना को असहनीय बताते हुए उसकी निंदा की, फिर भी वह अमेरिका और उसके पश्चिमी खेमे के नेताओं को अपनी रूस यात्रा और हमले के दिन पुतिन से गले मिलने की निंदा करने से रोक नहीं पाए। जेलेंस्की ने भी उसे घोर निराशाजनक और शांति प्रयासों के लिए गहरा आघात बताया था।

प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा के समय ही अमेरिका वाशिंगटन में नाटो गठबंधन की शिखर बैठक की मेजबानी कर रहा था, जिसका मुख्य विषय स्वाभाविक रूप से यूक्रेन का संकट था। जब वह यूक्रेन की यात्रा पर गए, उस समय यूक्रेन की सेनाएं रूस के कुर्स्क प्रदेश की जमीन पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रही थीं।

इसलिए चीन और भारत के कुछ आलोचकों का मानना है कि मोदी को ये दोनों यात्राएं रूस और अमेरिका, दोनों को खुश रखने के दबाव में करनी पड़ीं। वह पिछले दो साल से रूस और भारत के बीच होने वाली द्विपक्षीय वार्षिक शिखर बैठकों को टालते आ रहे थे और 2022 की शंघाई सहयोग संगठन शिखर बैठक में भी नहीं गए।

यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों के मोर्चे पर स्पष्ट समर्थन देने और बढ़ती आर्थिक व्यापारिक निर्भरता के कारण पुतिन और शी चिनफिंग के रिश्ते और गहरे होते जा रहे। ऐसे में पुतिन को भारत की दोस्ती के बारे में आश्वस्त करना जरूरी हो चला था। दूसरी तरफ, अमेरिका और उसके खेमे के देश रूस के हमले की सीधी निंदा से बचने और रूस से तेल खरीदकर पश्चिमी आर्थिक प्रतिबंधों को निष्प्रभावी करने से नाखुश थे।

उन्हें आश्वस्त करना भी जरूरी था, परंतु जेलेंस्की के हालिया बयानों से स्पष्ट होता है कि यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की नीतियों पर सार्वजनिक रूप से अप्रसन्नता जाहिर करने के बावजूद वह चाहते हैं कि भारत सुलह-शांति कराने में पहल करे। वह भारत से शांति पहल की अपील कई बार कर चुके हैं।

यूक्रेन की संसदीय विदेश समिति के अध्यक्ष एलेग्जांडर मेरेज्को मानते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को यूक्रेन की कूटनीतिक जीत के रूप में देखा जा सकता है। मोदी की यात्रा को लेकर यूक्रेन की इस खुशी का सबसे बड़ा कारण शायद यही है कि भारत यूक्रेन संकट के आरंभ से ही युद्ध का विरोधी और कूटनीति का पक्षधर रहा है।

उसके अमेरिका और रूस, दोनों से घनिष्ठ संबंध हैं। वह दक्षिणी देशों की आवाज उठाता रहा है, परंतु चीन की तरह रूस के साथ खड़ा नहीं दिखा। इसीलिए यूक्रेन ने पिछले साल शी चिनफिंग के पहले और उसके बाद ब्राजील के साथ मिलकर रखे दूसरे शांति प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

भारत ने शुरू से ही युद्ध की निंदा करते हुए दोनों पक्षों से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों और क्षेत्रीय अखंडता का आदर करने और कूटनीति के द्वारा समाधान खोजने का आग्रह किया है। अपनी यूरोप यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग सर्बिया और हंगरी तक जाकर लौट गए। वह यूक्रेन नहीं गए। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा का चहुंओर स्वागत हुआ।

उन्होंने राष्ट्रपति बाइडन और पुतिन को अपनी यात्रा के दौरान हुई वार्ताओं की जानकारी भी दी। फोन पर हुई बातचीत में राष्ट्रपति बाइडन ने प्रधानमंत्री के शांति संदेश और मानवीय राहत की सराहना की। इसके अगले दिन फोन पर राष्ट्रपति पुतिन के साथ हुई बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने दोहराया कि भारत इस संकट के त्वरित, बाध्यकारी और शांतिपूर्ण समाधान के लिए पूरी तरह कटिबद्ध है।

वह सितंबर 2022 में भी साफ शब्दों में कह चुके थे कि यह जमाना युद्ध का नहीं है। रूस विश्लेषक ओलेग इग्नातोफ का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा को रूस में भी सकारात्मकता से देखा जा रहा है। उनका कहना है कि भारत की भूमिका रचनात्मक होगी तो रूस भी उसका स्वागत करेगा।

हालांकि रूसी कुर्स्क प्रदेश पर यूक्रेन के हमले के बाद से रूसी विदेश मंत्री लावरोव बातचीत की संभावना को खारिज करते आ रहे हैं, परंतु राष्ट्रपति जेलेंस्की ने कहा है कि वह दूसरा शांति शिखर सम्मेलन भारत की मेजबानी में कराए जाने का समर्थन करेंगे।

पहला शांति शिखर सम्मेलन स्विट्जरलैंड में हुआ था, जिसमें रूस को नहीं बुलाया गया था और चीन भी रूस की अनुपस्थिति की वजह से शामिल नहीं हुआ। भारत ने भाग लिया था, परंतु उसने रूस की अनुपस्थिति के चलते सम्मेलन की विज्ञप्ति को एकतरफा बताकर उस पर हस्ताक्षर नहीं किए थे।

इसी को रेखांकित करते हुए चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि पहले शांति शिखर पर हस्ताक्षर न करने वाले देश को दूसरे शिखर सम्मेलन की मेजबानी नहीं करने दी जाएगी। समस्या यह है कि अमेरिका, उसके खेमे के देशों और चीन के साथ-साथ स्विट्जरलैंड और आस्ट्रिया जैसे गुटनिरपेक्ष देशों की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है।

ऐसे में केवल भारत ही बचता है, जिस पर दोनों पक्ष भरोसा कर सकते हैं। इसलिए यदि वह रूस और यूक्रेन, दोनों को शांति वार्ता की मेज पर लाने में सफल हो जाता है तो संभवतः ऐसी शर्तों को आड़े नहीं आने दिया जाएगा। अपनी निष्पक्षता कायम रखने के लिए भारत ने यह स्पष्ट किया है कि समझौते का फॉर्मूला यूक्रेन और रूस को स्वयं तय करना होगा।

भारत केवल माध्यम बनेगा, मध्यस्थ नहीं। जो भी हो, यदि भारत की मेजबानी में शांति सम्मेलन कराने की बात आगे बढ़ती है तो भारत की कूटनीति में एक नया अध्याय जुड़ेगा, क्योंकि अभी तक भारत बड़े गुटों के संघर्ष में तटस्थ रहने की नीति पर ही चला है, शांति बहाल कराने की सक्रिय नीति पर नहीं।


Date: 31-08-24

समावेशी पहल

संपादकीय

कई बार साधारण-सी दिखने वाली कोई पहल आगे चलकर दूरगामी महत्त्व की साबित होती है। दस वर्ष पहले जब जन धन खाता योजना की शुरुआत हुई, तो इसे लेकर कई तरह की आशंकाएं जताई गई थीं। मसलन, अगर साधारण लोग बैंक में खाता खोल रहे हैं तो खाता चालू रखने की शर्तों को कैसे और कितने दिन तक पूरा कर पाएंगे और इससे आम लोगों के साथ- साथ देश को क्या लाभ होगा ! अब यह कहा जा सकता है कि जन धन खाता योजना में महत्त्वपूर्ण कामयाबी मिली है और एक बड़ा तबका इससे लाभान्वित हुआ है । इसके अलावा, इसने देश की अर्थव्यवस्था में काफी अहम योगदान दिया है। शायद यही वजह है कि जिस समय दुनिया भर में आर्थिक उतार-चढ़ाव और उथल- पुथल है, कई देशों में मंदी का माहौल है, उस समय भारत में केवल जन धन खातों में ढाई लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की राशि जमा है।

गौरतलब है कि जन धन खाता योजना शुरू होने के बाद समाज का एक बड़ा वंचित और गरीब तबका बैंकिंग क्षेत्र के दायरे आया। इस तबके के लोगों का खाता अगर किसी बैंक या डाकघर में किसी तरह खुल भी जाता था, तो उसे बनाए रखना उनके लिए मुश्किल था। इसके मद्देनजर जन धन खाता योजना में यह सुविधा दी गई कि खाते में न्यूनतम राशि अगर नहीं है, तब भी खाता कायम रहेगा। साथ ही, जमा राशि पर ब्याज मिलने के अलावा एक अहम पहलू दुर्घटना बीमा के तहत अब दो लाख रुपए तक की सुरक्षा राशि दिया जाना है। इस योजना के खाताधारकों को विभिन्न सरकारी कल्याण योजनाओं के तहत मिली राशि सीधे हस्तांतरित करने में मदद मिलती है। आज ग्रामीण लोगों और खासकर महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में इस योजना ने बड़ी भूमिका निभाई है, जो राष्ट्रीय स्तर पर समावेशी वित्तीय विकास का एक ठोस आधार बना है । यह देखने की बात होगी कि देश के विकास में गरीब तबकों के समावेशन के जिस मकसद से इस योजना की नींव रखी गई थी, वह आने वाले वक्त में किस हद तक वास्तव में जमीन पर उतरती है।