31-01-2018 (Important News Clippings)

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31 Jan 2018
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Date:31-01-18

Naga boycott

Centre must come clean on the 2015 Framework Accord

TOI Editorials

In a major development 11 parties in Nagaland, including the ruling Naga People’s Front (NPF) and its ally BJP’s state unit, have come together and decided not to field any candidate in the upcoming assembly polls next month. In fact, the move has forced BJP to suspend two of its local leaders for supporting the poll boycott resolution. The Naga parties, along with Naga tribal and civil society groups and Naga insurgent outfits including the NSCN(IM), have jointly called for achieving a solution to the Naga issue before elections. Further, Naga tribal and civil society groups have called for a bandh tomorrow to press home their demand.

The unity being displayed by Naga groups has significant ramifications for the northeast as a whole. It will be recalled that the signing of the Framework Naga Accord in 2015 between the Centre and NSCN(IM) – the largest of the Naga insurgent groups – had raised hopes of a solution to the question of Naga autonomy and statehood. However, negotiations between the two sides since then have failed to make much headway. Moreover few people, including within BJP, have any clear idea of what the 2015 accord actually entails.

This secrecy surrounding the accord and the talks has added to people’s confusion and made them nervous. After all, should the Centre accept the key Naga demand of Greater Nagaland uniting Naga dominated areas in Assam, Arunachal Pradesh and Manipur with present Nagaland state, all hell is certain to break loose in the northeast. This was exemplified recently by protests in Assam’s Dima Hasao over an RSS leader’s reported statement that the district would be included in Greater Nagaland – two people were killed in police firing here.

The Centre can no longer expect to allay people’s apprehensions by simply stating that the resolution of the Naga issue won’t impinge on the territorial integrity of any other state. While redrawing state borders isn’t feasible, keeping people in a state of suspense over the Naga negotiations isn’t helping either. The Centre must come clean on the 2015 Framework Naga Accord and update people about the status of the Naga peace process. BJP keeping its own leaders and allies in the dark is clearly not healthy and does nothing to mitigate the trust deficit in the northeast, which is the biggest impediment to development.


Date:31-01-18

हमारे विकास की विडंबना दर्शातीं अनचाही बेटियां

संपादकीय

दुनिया में सबसे तीव्र विकास दर का दावा करने वाले आर्थिक सर्वेक्षण में प्रकट हुईं 2.10 करोड़ अनचाही बेटियां देश और समाज की संवेदना को झकझोर देने वाली हैं। वे हमारे विकास की विडंबना की कथा कहती हैं। बेटे की चाहत में ही अनचाही बेटियां इस संसार में आती हैं और उनके लिए न तो परिवार के स्तर पर संसाधन उपलब्ध रहते हैं और न ही देश व समाज के स्तर पर। उन बेटियों तक ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं की पहुंच भी नहीं हो पाती। पश्चिमोत्तर विश्वविद्यालय की अर्थशास्त्री सीमा जयचंद्रन के शोध में पहली बार प्रकट हुआ यह आंकड़ा सरकार और समाज के सामने गंभीर प्रश्न उपस्थित करता है। इसमें लैंगिक अनुपात में सबसे ज्यादा अंतर अंतिम संतान के संदर्भ में देखा गया है जहां आखिरी संतान का पलड़ा बेटे के पक्ष में झुका हुआ है।

जैववैज्ञानिक लिहाज से प्रकृति में एक लड़की पर 1.05 लड़कों का जन्म होता है। भारत में यह आंकड़ा प्रथम संतान पर 1.82, दूसरी संतान पर 1.55 और तीसरी संतान पर 1.65 का है। इसी असंतुलित होते लैंगिक अनुपात को लक्ष्य करते हुए नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने खोई स्त्रियां (मिसिंग वीमैन) नामक अवधारणा विकसित की थी, जिसके तहत भारत में 1990 में 3.7 करोड़ लड़कियां या तो गर्भ के समय ही मार दी जाती हैं या फिर पैदा होने के बाद उपेक्षा के कारण। वह आंकड़ा 2014 में 6.3 करोड़ तक पहुंच गया है। इस बीच 2005-06 से 2015-16 के बीच कामकाजी महिलाओं की संख्या 36 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत तक आ गई है।

अर्थशास्त्री सीमा के ये आंकड़े भारतीय समाज का आईना हैं, जिसमें इस देश के विभिन्न प्रांत अपनी तुलना दूसरे राज्यों से कर सकते हैं और अपने देश की तुलना दूसरे देश से भी कर सकते हैं। सीमा का आंकड़ा भी बताता है कि जहां विकसित क्षेत्र दक्षिण पूर्व एशिया के देश इंडोनेशिया में जन्म और अंतिम संतान के संदर्भ में लैंगिक अनुपात प्रकृति के करीब है वहीं भारत के पंजाब और हरियाणा जैसे विकसित राज्य विपरीत दिशा में भाग रहे हैं। उम्मीद की किरण केरल और मेघालय जैसे छोटे लेकिन, मातृसत्ता वाले राज्यों से दिखाई देती है। यह चुनौती सरकार, समाज और बाजार तीनों के लिए है। अगर यह संस्थाएं पूर्वग्रह से नहीं उबरेंगी तो ऐसे दारुण आंकड़े उपस्थित होते रहेंगे।


Date:31-01-18

नीतिगत कमियों का खमियाजा

संपादकीय

इन दिनों कृषि क्षेत्र बुरे दौर से गुजर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त निराशा में इसे महसूस भी किया जा सकता है। इस बीच वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि क्षेत्र की आय में और कमी आएगी। यह बात परेशान करने वाली है। समीक्षा में जलवायु के रुझान का विश्लेषण करके कहा गया है कि कृषि क्षेत्र की आय में मध्यम अवधि में 15 से 18 फीसदी की कमी आ सकती है। जबकि असिंचित क्षेत्रों में यह कमी 20 से 25 फीसदी तक हो सकती है। यानी कुल रकबे का करीब आधा हिस्सा आय की कमी की चपेट में रहेगा।एक अनुमान के मुताबिक इसके चलते पहले से संकटग्रस्त कृषक परिवार को सालाना 3,600 रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसके बावजूद जलवायु प्रतिरोधी कृषि को बढ़ावा देने और मौजूदा कृषि व्यवहार में सुधार अपनाते हुए उसे मौसम की मार से बचाने की दिशा में प्रयास कमजोर ही रहे हैं। समीक्षा में इस बात पर जोर दिया गया है कि देश के कृषि क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाया जा सके। इसके लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर आधारित सिंचाई तकनीक अपनाने और बिजली तथा उर्वरक क्षेत्र में अलक्षित सब्सिडी को प्रत्यक्ष आय समर्थन से प्रतिस्थापित करने की बात कही गई है।

किसानों की चिंताओं की वजह केवल जलवायु परिवर्तन नहीं है। अन्य वजह भी हैं जिनके बारे में समीक्षा में चलताऊ टिप्पणी की गई है। उनमें से कुछ अहम हैं खेती के रकबे में लगातार कमी, प्राकृतिक संसाधनों मसलन जमीन और पानी का संकट, उच्च मूल्य वाली फसलों को लेकर खेती में विविधता का नहीं आ पाना और ग्रामीण युवाओं का खेती में रुचि न लेना। इन सबका असर खेती पर नजर आ रहा है। जैसा कि समीक्षा में कहा गया कृषि क्षेत्र का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद और वास्तविक कृषि राजस्व दोनों पिछले चार साल से ठहरे हुए हैं।

हालांकि समीक्षा में कहा गया है कि लगातार दो साल मॉनसून कमजोर रहने से भी हालत खराब हुई है लेकिन यह सच नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र का संकट केवल वर्ष 2014 और 2015 के सूखे में ही नजर नहीं आया बल्कि बाद के वर्षों में अच्छी पैदावार के बावजूद संकट कम नहीं हुआ। जाहिर सी बात है गलत सरकारी नीतियां भी इसके लिए उत्तरदायी हैं। कृषि मूल्य से जुड़ी नीतियों ने कृषि क्षेत्र को काफी कमजोर किया है। सरकार का मूल्य प्रबंधन खाद्य मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने पर केंद्रित रहा है ताकि उपभोक्ताओं को इसका लाभ मिल सके। जबकि उसे किसानों के हितों की रक्षा करनी चाहिए थी। तथ्य यह है कि अधिकांश जिंसों की थोक कीमतें इनकी तय सरकारी कीमत से कम रहती हैं।

ऐसे में कोशिश यह होनी चाहिए कि उपभोक्ताओं और किसानों के हितों के बीच संतुलन कायम किया जाए। इसके लिए बेहतर कृषि विपणन व्यवस्था के साथ कृषि उपज वितरण समितियों द्वारा संचालित बाजारों की मौजूदा कमियों को दूर करने की आवश्यकता है। कृषि व्यापार में बिचौलियों और संघों के दबदबे को दूर करने के लिए जरूरी है कि बाजार को पारदर्शी और प्रतिस्पर्धी बनाया जाए। समीक्षा में सरकार की 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की प्रतिबद्धता की सराहना की गई है। इसके लिए कृषि क्षेत्र को वर्ष 2017-18 के लिए अनुमानित 2.1 फीसदी की तुलना में कई गुना तेज गति से विकसित करना होगा। ऐसे में यह सलाह उचित है कि सरकार किसानों को आय बढ़ाने के लिए सलाह दे और कृषि से जुड़े पशुपालन और मत्स्यपालन जैसे कामों की मदद से विविधता लाने को प्रेरित करे। कृषि में विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाना भी उतना ही आवश्यक है। इसके लिए कृषि शोध में निवेश बढ़ाना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कृषि क्षेत्र का संकट बरकरार रहेगा।


Date:31-01-18

एक साथ चुनाव

संपादकीय

संसद के संयुक्त सत्र के संबोधन में राष्ट्रपति की ओर से लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की पैरवी से यह साफ हो जाता है कि सरकार इसे लेकर गंभीर है। चूंकि राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार का नीतिगत दस्तावेज होता है इसलिए उसमें एक साथ चुनाव का विचार शामिल होना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इस विचार पर विपक्षी दलों की जो भी राय हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पहले आम चुनाव के बाद से लंबे समय तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे।बाद में सरकारों के कार्यकाल पूरा करने के पहले ही गिर जाने और मध्यावधि चुनाव की नौबत आने के कारण एक संविधान सम्मत स्वस्थ परंपरा बाधित हो गई। इसके स्थान पर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने की परंपरा ने जड़ें जमा लीं। इससे विचित्र और कुछ नहीं कि यह जानते हुए भी इस बदली हुई परंपरा को उपयुक्त बताया जाए कि बार-बार होने वाले चुनाव राजनीति की लय को बाधित करने के साथ ही आर्थिक तौर पर देश के लिए बोझ साबित होते हैं।

बेहतर हो कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में एक साथ चुनाव की चर्चा होने के बाद सभी राजनीतिक दल इस पर गंभीरता से चिंतन करें कि इस नेक विचार को फिर से अमल में कैसे लाया जा सकता है? नि:संदेह इसके लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन करने होंगे, लेकिन यह कठिन कार्य नहीं। ऐसे नियम-कानून आसानी से बनाए जा सकते हैं जिससे कभी केंद्र या राज्य सरकार के अल्पमत में आने जाने की स्थिति में बिना मध्यावधि चुनाव नई सरकार का गठन हो सके। ध्यान रहे कई देशों ने ऐसे उपाय कर रखे हैं कि सरकार के अल्पमत में आने के बाद भी मध्यावधि चुनाव से बचा जा सके। आखिर भारत ऐसा ही क्यों नहीं कर सकता?बार-बार चुनाव के सिलसिले को रोकना केवल राजनीतिक तंत्र में सुधार को ही बल नहीं देगा, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी मददगार बनेगा। इससे आर्थिक संसाधनों के साथ मानव संसाधन पर पड़ने वाले अतिरिक्त बोझ से बचने के साथ ही विकास को गति देने में भी सहूलियत होगी। हमारे राजनीतिक दल इससे अनजान नहीं हो सकते कि बार-बार चुनाव होने के चलते आचार संहिता किस तरह विकास प्रक्रिया को बाधित करती है। वे इससे भी भली तरह अवगत होंगे कि चुनावों की घोषणा होते ही किस तरह सभी दलों की भाव-भंगिमा बदल जाती है। इससे कई बार तो राजनीतिक परिदृश्य के साथ ही सामाजिक माहौल भी प्रभावित होता है।

चूंकि चुनावी मुद्दों के आगे अन्य सभी मसले नेपथ्य में चले जाते हैं इसलिए अन्य अनेक आवश्यक कार्य भी प्रभावित होते हैं। यह आदर्श स्थिति नहीं हो सकती कि ऐसा औसतन वर्ष में दो-तीन बार हो। यदि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने पर सहमति बनती है तो इससे जनता को तो कोई परेशानी नहीं होने वाली, लेकिन कुछ विपक्षी राजनीतिक दल उसकी आड़ अवश्य ले सकते हैं। उन्हें ऐसा करने से बचना चाहिए और जनहित के साथ ही राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। किसी भी राजनीतिक दल का हित राष्ट्रहित से इतर नहीं हो सकता।


Date:30-01-18

A path to executive power

The issue of office of profit must be understood as part of the legislature’s institutional separation

Mathew Idiculla (Mathew Idiculla is a research consultant at the Centre for Law and Policy Research, Bengaluru)

On January 21, President Ram Nath Kovind approved the recommendation of the Election Commission (EC) to disqualify 20 Members of the Legislative Assembly (MLAs) of the Aam Aadmi Party (AAP). They were deemed to have been holding offices of profit as they were parliamentary secretaries to ministers in the Delhi government. The party protested the move saying the EC had acted in a unilateral manner as its MLAs had not been given a hearing.

There is a lot at stake here since disqualification necessitates by-elections. However, due to the comfortable majority the AAP enjoys, the move will not bring down the Delhi government.

Office of profit debate

There are multiple questions this issue raises. Did the EC act in a fair manner and was its decision to disqualify the MLAs legally sound? The appointment of parliamentary secretaries also raises broader concerns about the nature of executive power in a parliamentary system.

The concept of office of profit originates from Britain where, during the conflicts between the Crown and the Parliament in the 16th century, the House of Commons disqualified members from holding executive appointments under the Monarch. The underlying principle behind this is the doctrine of separation of powers. The office of profit rule seeks to ensure that legislators act independently and are not lured by offers from the executive. India’s Constitution makers adopted this idea under Articles 102(1)(a) and 191(1)(a) which state that a lawmaker will be disqualified if he or she occupies “any office of profit” under the Central or State governments, other than those offices exempted by law. While the term “office of profit” is not defined in the Constitution, the Supreme Court, in multiple decisions, has laid out its contours.
Chief Minister Arvind Kejriwal had appointed 21 MLAs as parliamentary secretaries soon after the AAP government assumed office in 2015. When this decision was challenged before the High Court, the Delhi government sought to retrospectively amend the Delhi Members of Legislative Assembly (Removal of Disqualification) Act, 1997 to exempt parliamentary secretaries from the definition of “office of profit”. However, the Lieutenant Governor reserved the matter for the President, who refused to give his assent to the Bill. Thus the position of the parliamentary secretaries became precarious.

The Delhi High Court, in September 2016, set aside the appointment of parliamentary secretaries since it lacked the approval of the Lieutenant Governor. Citing this, the AAP claimed that since the appointment was anyway void, the MLAs could not be said to have been occupying an office of profit. However, the EC said that the MLAs “de facto” held the office of parliamentary secretaries. The AAP now alleges that the EC is acting in a partisan manner, as in other States, the striking down of the office of parliamentary secretaries has not resulted in the disqualification of MLAs. While the legality of the decision in the instance in Delhi will be decided in court, it is also critical to examine what the practice of appointing parliamentary secretaries reveals.

Rewarding loyalists

The trend of appointing MLAs as parliamentary secretaries is done across the political spectrum. Many of these have been legally challenged and struck down by the judiciary. Recently, the Supreme Court struck down the Assam Parliamentary Secretaries (Appointment, Salaries, Allowances and Miscellaneous Provisions) Act, 2004, calling it unconstitutional. Hence, the issue has a chequered legal past.So why do State governments create such posts in the first place? Such posts are mainly to reward MLAs who do find a place in the cabinet. One of the major constraints in cabinet formation is Article 164 (1-A) of the Constitution which limits the number of Ministers in State cabinets — including the Chief Minister — to 15% of the total number of MLAs of the State; for Delhi it is 10% of the total seats. It is to get round this constitutional cap that State governments create such posts.

Article 164 (1-A) was inserted by the 91st Constitutional Amendment in 2003 on the recommendation of the M.N. Venkatachaliah-headed National Commission to Review the Working of the Constitution. While it can be debated whether the prescribed cap is too harsh, constitutional constraints and office of profit restrictions seek to prevent the creation of multiple executive posts to reward loyal legislators.

In India’s parliamentary system, contesting elections to the legislature is primarily seen as a path to exercise executive power. It is often ignored that holding the government to account is not only the Opposition’s role but also that of the entire legislature. Rewarding MLAs with executive posts can restrict them from performing their primary role.

The creation of such posts can also be attributed to the larger institutional malaise facing the legislatures. Lawmakers have been enfeebled over the years through measures such as binding party whips and a purely executive-driven legislative agenda. In such an institutional milieu, lawmakers increasingly seek positions with perks to exercise influence. Unless legislatures are truly strengthened and the disproportionate power of the executive in the legislature curtailed, the demand for creating such posts will continue to persist.


Date:30-01-18

The Limits Of Freedom

Sedition law has been misused by over-zealous agencies. That’s no reason to scrap it

Written by Soli J. Sorabjee (The writer is former Attorney General of India)

The law of sedition in India has an interesting history. Part III of the Constitution guarantees certain fundamental rights to citizens and non-citizens. No fundamental right is absolute. Freedom of speech and expression guaranteed by Article 19(1)(a) can be reasonably restricted on the grounds specified in Article 19(2). In the Draft Constitution, one of the heads of the restrictions proposed on freedom of speech and expression was “sedition”.

K M Munshi opposed the inclusion of “sedition” in the Draft Constitution as a restriction on freedom of speech and expression. During the debates in the Constituent Assembly, in view of the bitter experience of the arbitrary application of the sedition law by the colonial regime against nationalist leaders, Jawaharlal Nehru amongst others, agreed with Munshi and deliberately omitted “sedition” as one of the permissible grounds of restriction under Article 19(2). However, sedition remained a criminal offence in the IPC Section 124-A and provides inter alia for the sentence of life imprisonment and fine upon conviction.

Sedition was construed by the Privy Council to include any statement that caused “disaffection”, namely, exciting in others certain bad feelings towards the government. On the other hand, the Federal Court of India presided over by the distinguished chief justice, Maurice Gwyer, ruled that sedition law is not to be invoked “. to minister to the wounded vanity of government. The acts or words complained of must either incite to disorder or must be such as to satisfy reasonable men that is their intention or tendency.”

Our Supreme Court had occasion to deal with the constitutionality of Section 124-A. In its landmark decision in 1962 in Kedernath vs. State of Bihar, the SC disapproved of the view of the Privy Council and adopted the view of the Federal Court. The Court ruled that mere criticism of the government or comments on the administration — however vigorous, pungent or ill-informed — was not sedition and that incitement to violence is the essential ingredient of that offence.

In 1995, certain persons were sought to be prosecuted for sedition for shouting slogans like Khalistan Zindabad and raj karega khalsa. The SC held that the casual raising of such slogans a couple of times by the individuals did not tantamount to sedition and therefore Section 124-A could not be invoked.
The issue of sedition arose again in 2003 in Nazir Khan vs. State of Delhi wherein the SC made the following significant observations: “It is the fundamental right of every citizen to have his own political theories and ideas and to propagate them and work for their establishment so long as he does not seek to do so by force and violence or contravene any provision of law. Thus, where the pledge of a Society amounted only to an undertaking to propagate the political faith that capitalism and private ownership are dangerous to the advancement of society and work to bring about the end of capitalism and private ownership and the establishment of a socialist State . that the mere use of the words ‘fight’ and ‘war’ in their pledge did not necessarily mean that the Society planned to achieve its object by force and violence”.

The legal position which emerges is that merely shouting slogans like Pakistan or Khalistan zindabad, however deplorable, per se would not attract Section 124-A which deals with sedition. Criticism of the SC judgment upholding the conviction of Afzal Guru also would not attract Section 124-A. However if a person has said “Hindustan murdabad”, or that the Indian state is tyrannical and it is necessary to overthrow it, that could possibly amount to sedition.

It is true that Section 124-A has often been misused by ill-informed and over enthusiastic prosecuting agencies who are allergic to any criticism of the government. It is reported that Union minister Arun Jaitley was sought to be charged with sedition, a classic case of comedy of errors. In such cases, the illegal and arbitrary action in question deserves to be struck down. The remedy does not lie in repealing Section 124-A. Remember, that there is no statutory provision which cannot be misused thanks to human ingenuity or cunning with the aid of resourceful lawyers. Misuse of Section 124-A in some cases, however regrettable, is no ground for its deletion.

The provision properly interpreted and correctly applied protects and preserves the integrity of the Indian state and is also a deterrent for persons who are minded to commit acts of incitement to violence and acts which cause disturbance of public order.