17-04-2018 (Important News Clippings)

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17 Apr 2018
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Date:17-04-18

ग्रामीण युवाओं में फिर से जगाना होगा कृषि के प्रति लगाव

सुरिंदर सूद

बीते दशकों में कृषि क्षेत्र में होने वाले निवेश का बड़ा हिस्सा सिंचाई के खाते में गया है। इसके बावजूद इस दौरान शुद्ध सिंचित क्षेत्र में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र को संस्थागत ऋण का प्रवाह करीब एक दशक में तिगुना से भी अधिक हो चुका है। लेकिन कर्ज लेने वाले लोगों की संख्या अधिक नहीं बढ़ी है। किसानों की कर्ज जरूरतों का बड़ा हिस्सा अब भी लालची साहूकारों जैसे अनौपचारिक स्रोतों के जरिये ही पूरा होता है। अनाज, दूध, बागवानी उत्पादों और मछली का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। फिर भी भारत वैश्विक भूख सूचकांक में निम्न स्तर पर बना हुआ है। वर्ष 2017 के भूख सूचकांक में भारत 119 देशों की सूची में 100वें स्थान पर रहा है। एक साल पहले के 97वें स्थान की तुलना में तीन पायदान की गिरावट ही देखने को मिली। एक सच यह भी है कि दुनिया के कुपोषित एवं भूखे लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा भारत में ही रहता है।

 सरकार राष्ट्रीय खाद्य संरक्षा कानून के तहत करीब दो-तिहाई आबादी को भारी सब्सिडी पर खाद्यान्नों की आपूर्ति करती है। इसके बाद भी कुपोषण की समस्या गंभीर है जिसका खमियाजा बच्चों की खराब सेहत और अपर्याप्त विकास के तौर पर सामने आता है। फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) हरेक साल बड़ी ही उदारता से बढ़ा दिया जाता है। लेकिन किसानों की आय बढ़ नहीं रही है। इससे भी बदतर यह है कि कृषि एवं गैर-कृषि आय के बीच फासला बढ़ता ही जा रहा है।  माना जाता है कि कृषि अनुसंधान एवं विकास में निवेश पर मिलने वाला प्रतिदान तकनीक-आधारित अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। इसके बावजूद कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी हिस्सा भी कृषि अनुसंधान पर खर्च नहीं किया जाता है। कृषि शोध केंद्रों की तरफ से विकसित तकनीक का एक अच्छा खासा हिस्सा भी किसानों तक नहीं पहुंच पाता है। सकल पूंजी निर्माण में कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों की हिस्सेदारी 1980 के शुरुआती दशक में 18 फीसदी हुआ करती थी लेकिन हाल के वर्षों में यह लुढ़कते हुए छह से आठ फीसदी के बीच आ गया है।
पिछले 20 वर्षों में औसतन दो हजार से अधिक किसान रोजाना खेती करना बंद कर रहे हैं। जनगणना के आंकड़ों की मानें तो 1991 में जहां किसानों की कुल संख्या 11 करोड़ थी वहीं 2001 में यह घटकर 10.3 करोड़ और 2011 में तो महज 9.58 करोड़ हो गई। किसानों की पहचान के लिए कृषि से प्राप्त आय को इकलौता पैमाना माना गया है।  ये कुछ भयावह संकेतक हैं कि कृषि क्षेत्र के साथ क्या गड़बड़ हुआ है और क्यों? साफ है कि कृषि विकास के लिए अपनाई गई नीतियां और कार्यक्रम न तो समुचित तरीके से बनाए गए हैं और न ही उनका क्रियान्वयन सही तरीके से हुआ है। काफी दुखद है कि ये गलतियां अब भी बदस्तूर जारी हैं।कृषि को अमूमन मुद्रास्फीति से निपटने और कृषि उत्पादों के लिए बढ़ती एवं बदलती उपभोक्ता मांगों को पूरा करने के एक साधन के तौर पर देखा जाता है। शायद ही कृषि उत्पादों के उत्पादन में लगे किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को सुरक्षित रखने की कोई कोशिश की गई है।  वर्ष 1991 में आर्थिक एवं संरचनात्मक बदलावों का जो दौर शुरू हुआ था उसमें भी कृषि क्षेत्र को नजरअंदाज किया जाता रहा है। वर्ष 2001 के बाद से ही किसानों की बढ़ती मुश्किलें उनकी आत्महत्या की वारदात में आई तेजी के रूप में परिलक्षित हो रही हैं। लेकिन इन समस्याओं को तब तक नजरअंदाज किया जाता रहा जब तक ग्रामीण क्षेत्र का यह असंतोष किसानों के विरोध प्रदर्शनों की शक्ल में नहीं तब्दील हो गया।सवाल यह है कि खेती और इससे जुड़े किसानों को कब तक नजरअंदाज किया जाता रहेगा और उन्हें सामाजिक विकास से वंचित रखा जाएगा? राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी ने हाल ही में प्रकाशित एक नीति पत्र में इसी सवाल पर गौर किया है। अकादमी का कहना है कि महज विकास नहीं बल्कि सामाजिक विकास के समावेश वाली सतत वृद्धि को प्राथमिकताएं एवं कार्यक्रम तय करने और आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के वितरण का आधार बनाया जाना चाहिए। अकादमी ने ग्रामीण एवं शहरी इलाकों के बीच की खाई को पाटने की भी बात कही है ताकि गांवों से शहरों की ओर होने वाले व्यापक प्रवास को थामा जा सके।

‘कृषि क्षेत्र में नीतियों एवं विकास प्राथमिकताओं के बीच असंतुलन’ शीर्षक से जारी नीति पत्र में कृषि क्षेत्र की चिंताओं को खत्म करने के लिए कुछ अन्य सुझाव भी दिए गए हैं। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण सुझाव असिंचित, पारिस्थितिकी रूप से वंचित एवं कृषि के लिहाज से पिछड़े इलाकों में कृषि प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाने और बाजार ढांचे के विकास से जुड़ा हुआ है। इससे कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही कृषि आय भी बढ़ाई जा सकेगी और क्षेत्रीय असमानता भी कम हो पाएगी। कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों में ग्रामीण युवाओं की रुचि बहाल करना भी जरूरी है। ऐसा होने से कृषि को वैज्ञानिक कलेवर देने और सतत वृद्धि को सुनिश्चित किया जा सकेगा। युवाओं को कृषि में तकनीक के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जाना चाहिए ताकि कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाई जा सके और लागत में भी कमी आए। इसके अलावा व्यापक स्तर पर कौशल विकास कार्यक्रम भी चलाने की जरूरत है जिसमें गैर-कृषि ग्रामीण क्षेत्र में आय बढ़ाने पर जोर दिया गया हो। इससे किसानों को अपनी आय पर पडऩे वाले दबावों से निपटने में सहूलियत होगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो किसानों का असंतोष और कृषि क्षेत्र की खराब हालत और भी बिगड़ती जाएगी।


Date:17-04-18

कामयाबी की झलक

संपादकीय

नक्सल प्रभावित जिलों की सूची से 44 जनपदों को बाहर किया जाना इस बात का सूचक है कि सरकार नक्सली हिंसा पर लगाम लगाने में एक हद तक सफल हुई है, लेकिन वह इस सफलता पर संतुष्ट होकर नहीं बैठ सकती और न ही उसे बैठना चाहिए। इसका कारण यह है कि नक्सली संगठन अपनी ताकत बटोरकर नए सिरे से हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में माहिर हैं। कई बार वे सुरक्षा बलों की सक्रियता के चलते अपने कदम पीछे खींच लेते हैं, लेकिन अतीत में यह सामने आया है कि वह इस दौरान अपनी ताकत बढ़ाने का काम करते हैं। इस बार वे ऐसा न करने पाएं और जिन जिलों में उनकी निष्क्रियता दर्ज की गई है वहां फिर से सक्रिय न होने पाएं, इसके लिए सरकार को सतर्क रहना होगा। नक्सली हिंसा में आई कमी के पीछे एक बड़ा कारण नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास योजनाओं को पहुंचाने में मिली सफलता है। अब इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सली न केवल विकास विरोधी हैं, बल्कि वे निर्धन एवं वंचित तबकों की झूठी आड़ भी लेते हैं। नक्सलियों के इस रवैये को बेनकाब करने की जरूरत है। यह काम मुश्किल इसलिए नहीं, क्योंकि आए दिन यह देखने को मिल रहा है कि नक्सली किस तरह विकास के कामों में बाधा पहुंचाते हैं। वे न केवल सड़कों के निर्माण के विरोधी हैं, बल्कि यह भी नहीं चाहते कि ग्रामीण इलाके संचार सेवा से जुड़ें और यही कारण है कि हाल के समय में सड़क निर्माण वाली कंपनियों को धमकाने और मोबाइल टॉवरों को नष्ट करने के मामले बढ़ते हुए दिखे हैं।

अब यह एक सच है कि नक्सली संगठन निर्धन आदिवासियों एवं ग्रामीणों की आड़ में उगाही करने वाले संगठन में तब्दील हो गए हैं। वे माफिया गिरोह की तरह से काम कर रहे हैं। गांव-गरीब के हित से उनका कोई लेना-देना नहीं। यह तो पहले से ही स्पष्ट है कि संविधान और कानून में उनका कोई भरोसा नहीं। वे लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं को भी कोई महत्व नहीं देते। ऐसे लोगों के खिलाफ सख्ती दिखाने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन विडंबना यह है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में कई ऐसे राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक संगठन हैं, जो अपने स्वार्थो के चलते नक्सलियों की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मदद करते रहते हैं। इन संगठनों के खिलाफ भी सख्ती बरतने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त इस पर भी प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि आखिर नक्सली संगठन आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक कहां से हासिल कर ले रहे हैं? पता नहीं नक्सलियों की हथियारों तक पहुंच को रोकने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं? दरअसल यह काम भी प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी देखने की जरूरत है कि नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस और अधिक सक्षम कैसे बने। इस मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नक्सलियों की कमर तोड़ने का काम मोटे तौर पर केंद्रीय सुरक्षा बलों ने किया है। नक्सली फिर से सिर न उठाने पाएं, यह सुनिश्चित करने का काम राज्य सरकारों और उनकी पुलिस को ही करना चाहिए।


Date:17-04-18

राष्ट्रमंडल के पदक और ओलंपिक

श्रीराम सिंह (पूर्व ओलंपियन)

ऑस्ट्रेलिया का गोल्ड कोस्ट भारत के लिए शुभ साबित हुआ है। वहां आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने अच्छा खेल दिखाया। दर्जन भर से अधिक स्वर्ण पदक हमारी झोली में आए हैं। बैडमिंटन (टीम के रूप में) में तो हमें पहली बार सोना मिला ही,भारोत्तोलन, कुश्ती, शूटिंग, बॉक्सिंग जैसे खेलों में भी हमने मेडल जीते। एथलेटिक्स के लिहाज से राष्ट्रमंडल खेल कभी हमारे लिए सुखद नहीं रहे थे, पर अब इसमें भी हम मैदान मारने लगे हैं। यह उपलब्धि काफी कुछ बयां कर रही है। बता रही है कि देश में खेल का माहौल बनाने का जो काम हो रहा है, वह असर दिखा रहा है। फिर भी, मैं मानता हूं कि कुछ कमियां हैं, जिनको दूर करने की जरूरत है।

हमें यह सोचना चाहिए कि राष्ट्रमंडल या एशियाई खेलों में अच्छा प्रदर्शन करता भारत ओलंपिक में क्यों पिछड़ जाता है? इसका एक जवाब यह है कि राष्ट्रमंडल या एशियाई खेलों में वे देश शामिल ही नहीं होते, जिनके खिलाड़ियों की तूती ओलंपिक में बोलती है। दक्षिण कोरिया, जापान, चीन जैसे देशों का नाम यहां लिया जा सकता है, जो ओलंपिक का हिस्सा तो होते हैं, लेकिन राष्ट्रमंडल में शामिल नहीं होते। यही हाल कुश्ती, बॉक्सिंग, शूटिंग जैसी इवेंट का है, जिसमें तकनीक व क्षमता के मामले में हम पर बीस साबित होने वाले दूसरे देशों के खिलाड़ी राष्ट्रमंडल खेलों में नहीं दिखते।

एक बात और। राष्ट्रमंडल जैसे आयोजनों में इसलिए भी हमारा खेल काफी अच्छा रहता है, क्योंकि कभी-कभी अच्छे खिलाड़ी उनमें शामिल नहीं होते। ऐसा इसलिए, क्योंकि राष्ट्रमंडल और एशियाई खेल, दोनों इवेंट एक ही साल आयोजित किए जाते हैं। खिलाड़ी दूसरे आयोजन में अच्छा प्रदर्शन करने की चाह में पहला टूर्नामेंट छोड़ देता है। कुछ खिलाड़ी इसलिए भी इनमें नहीं आना चाहते, क्योंकि वे ओलंपिक में भागीदारी को लेकर पूरी तरह समर्पित होते हैं।
सुखद बात है कि यह परिदृश्य अब बदल रहा है। राष्ट्रमंडल व एशियाई खेलों में हमारे खिलाड़ियों का खेल काफी सुधरा है। अब हम टेबल टेनिस जैसे टीम वर्क वाले खेलों में भी पदक जीतने लगे हैं। मगर ओलंपिक में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हमें देश की खेल संस्कृति को नई धार देनी होगी। एक स्तर के अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में जीत दर्ज कराने का अर्थ यह नहीं है कि हम अगले स्तर पर जीत दर्ज कराने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। इसकी तैयारी हमें निचले स्तर से करनी होगी।

हमें ग्रामीण इलाकों पर अधिक से अधिक ध्यान देना चाहिए, क्योेंकि वहां से हमें काफी टैलेंट मिल सकता है। टूर्नामेंट कराके हम वहां से बच्चों को चुन सकते हैं, और उन्हें एक स्पोट्र्स पर्सन में रूप में ढलने में मदद कर सकते हैं। उन्हें कोच की सुविधा देकर और उनका डाइट ठीक करके हम उनका उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह एक लंबी योजना जरूर है, मगर इस पर संजीदगी से आगे बढ़ना चाहिए। मुश्किल यह है कि हम सिर्फ उसी साल सक्रियता दिखाते हैं, जिस साल इवेंट होने वाले होते हैं। जबकि हमें काफी पहले से अपनी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। जैसे 2020 में जापान में हो रहे ओलंपिक की तैयारी अपने यहां 2016 से ही शुरू हो जानी चाहिए थी। और 2024 के पेरिस ओलंपिक की 2020 से।
दरअसल, छोटी उम्र में सीखने की क्षमता कहीं ज्यादा होती है। अगर जूनियर लेवल पर ही अच्छे कोच दिए जाएंगे, तो न सिर्फ बच्चों की नींव मजबूत होगी, बल्कि बचपन में ही उन्हें तकनीक का ज्ञान हो जाएगा। मगर अपने यहां अच्छे कोच हाई-लेवल पर दिए जाते हैं। बड़े शहरों की बात छोड़ दें, तो हमारे ग्रामीण इलाकों में ऐसे-ऐसे स्कूलों को भी मान्यता मिली हुई है, जिनके पास बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। उनके पास अच्छे मैदान नहीं हैं। बच्चे अगर खेलेंगे नहीं, तो फिर खेल की तरफ उनका रुझान कैसे बढ़ेगा?
जमीनी स्तर पर काम करना ज्यादा जरूरी है। जिस तरह की ट्रेनिंग हमारे बच्चों को कॉलेज या विश्वविद्यालयों में मिलती है, वह दूसरे देशों में स्कूलों में ही मिलने लगती है। जाहिर है, उनकी तैयारी हमसे कहीं पहले शुरू हो जाती है। हमारी सरकार ने अब ‘खेल इंडिया’ कार्यक्रम शुरू किया है। देर से ही सही, लेकिन अच्छी मंशा के साथ शुरू की गई यह एक अच्छी पहल है। इनमें से जो अच्छे बच्चे निकलेंगे, उन्हें अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए तैयार करना चाहिए। संभव हो, तो यह सुविधा उन्हें अपने घर के आस-पास ही मिले। इससे बच्चे की पढ़ाई भी नहीं छूटेगी और वह खेल पर भी ध्यान दे पाएगा।

एक जरूरत हमारे खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अधिक से अधिक भेजे जाने की भी है। विदेशों में खेलने से खिलाड़ी को अपनी क्षमता का एहसास होता है। साल 1976 के ओलंपिक में बतौर खिलाड़ी भाग लेने के लिए जब मैं कनाडा के मॉन्ट्रियल पहुंचा था, तो मुझे कुछ पता ही नहीं था। तब अगर 10-15 दिन पहले हम पहुंचते और विश्व स्तर के खिलाड़ियों के साथ हमें 4-5 रेसिंग मिल जाती, तो संभव है कि तस्वीर कुछ और होती। हमें पता चल जाता कि हम कहां खड़े हैं? इससे हमें अपनी गलतियों को सुधारने का वक्त मिलता। जब तक इस तरह के कॉम्पिटिशन नियमित अंतराल पर खिलाड़ियों को नहीं मिलेंगे, उन्हें अपने बारे में पूरा पता नहीं चल पाएगा।

यह भी अच्छी बात है कि अब लोगों में खेल को लेकर रुझान बढ़ा है। अभिभावक इसमें रुचि लेने लगे हैं। खेलों में पैसा भी आया है। हरियाणा जैसे राज्य पदकवीर खिलाड़ियों को अच्छा-खासा इनाम देने लगे हैं। नौकरी मिलने की उम्मीद भी होती है। इन सबका खासा असर पड़ा है। अभी तो एक खिलाड़ी ही हमारा खेल मंत्री है। इसका भी प्रभाव पड़ रहा है। देश में खेल की संस्कृति बदल रही है। इस बदलाव का आगे की प्रतियोगिताओं में निश्चय ही अच्छा असर पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


Date:16-04-18

Reimagining governance

Getting the Centre, States and district administrations to work in tandem is crucial

Dhiraj Nayyar is Officer on Special Duty and Head, Economics, Finance and Commerce, NITI Aayog. The views expressed are personal.

The 115 Aspirational Districts Programme (ADP) conceived by Prime Minister Narendra Modi is radical not because this is the first time that a government in India has focussed on India’s most backward districts but because the exercise envisages a serious re-imagination of government and governance, and deepens cooperative federalism. The programme is informed by the failures of the past and therefore has a more contemporary vision of how public services are best delivered to those who need them most.

Aspirational districts

The 115 districts were chosen by senior officials of the Union government in consultation with State officials on the basis of a composite index of the following: deprivation enumerated under the Socio-Economic Caste Census, key health and education performance indicators and the state of basic infrastructure. A minimum of one district was chosen from every State. Unsurprisingly, the largest concentration of districts is in the States which have historically under-performed such as Uttar Pradesh and Bihar, or which are afflicted by left-wing extremism such as Jharkhand and Chhattisgarh. Moving forward, the areas that have been targeted for transformation are: education, health and nutrition, agriculture and water resources, financial inclusion, basic infrastructure and skills. Deliberately, the districts have been described as aspirational rather than backward so that they are viewed as islands of opportunity and hope rather than areas of distress and hopelessness. Attitudes and narrative matter for outcomes.

There is no financial package or large allocation of funds to this programme. The intent is to leverage the resources of the several government programmes that already exist but are not always used efficiently. The government doesn’t always need to spend more to achieve outcomes but instead to spend better. Many schemes of the Centre have flexible spending components which permit autonomy at the level of local governments but these are seldom used in practice due to controlling Central and State machineries.

Achieving success in this programme requires three tiers of government, the Centre, States and district administrations, to work in tandem. There is a structure in place. Each district is assigned a prabhari (in-charge) officer from the Centre (of additional secretary or joint secretary rank) and a prabhari officer from the State (of the rank of Secretary to State government) who will work in cooperation with the district administration. It is necessary for the Centre and States to be involved because not all decisions can be taken at the level of district. For example, if there is a shortage of teachers in a local school or a shortage of health personnel in a primary health centre, it needs the State capital to act, possibly through transfers of personnel from over staffed areas. On financial inclusion, the full cooperation of banks is necessary and only the Central government has leverage over them. But most crucial is the District Magistrate or Collector who is familiar with the challenges of his or her geography and has considerable power to implement government schemes. Partnership is not something which comes easily to the upper tiers of government, which are used to dictating terms to lower tiers.

The spirit of cooperation needs to be supplemented by a culture of competition. This programme takes the principle of competitive federalism down to district administrations. Each district will be ranked on the focus areas which are disaggregated into easily quantifiable target areas. So as not to bias the rankings on historical achievements or lack of them, the rankings will be based on deltas or improvements. The rankings will be publicly available.

India’s long history of a dominant state apparatus has led to an entrenched perception that government is the sole actor capable of and responsible for the transformation of India. The ADP has opened its door to civil society and leveraged the tool of corporate social responsibility to form partnerships which will bring new ideas and fresh energy with boots on the ground from non-government institutions to join the “official” efforts. The force multiplier on outcomes from such participation is potentially massive.

Smart data

One area which is being given serious attention is the collection of quality data on a real-time basis. Too often in India, data collection is delayed or lacking in quality which ends up leading to policymakers shooting in the dark. With continuously updated data dashboards, those running the programme on the ground can alter strategies after accurate feedback.

In a way, the ADP is a big pilot programme from reorienting how government does its business of delivering development. A decisive shift in the paradigm of governance is likely to finally fulfil the many broken promises of the past.


 

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