30-06-2018 (Important News Clippings)
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Date:30-06-18
Pulling the Edge to the Centre
Ashish Kundra, [The writer is an IAS officer, government of Mizoram]
The last couple of years have seen an unprecedented push by GoI for economic development of the North-Eastern Region (NER). The eight states that comprise NER are marked by great diversity, constituting nearly 200 indigenous ethnic groups. With 8% of India’s land mass, it has a combined population of 46 million. But despite being endowed with rich natural resources, it remains economically backward because of limited internal resource generation and a low skill base. Verrier Elwin, adviser to Prime Minister Jawaharlal Nehru on North-Eastern Affairs, in his seminal work, Philosophy of Nefa (North-Eastern Frontier Agency), defined the political approach to socioeconomic development of the region, which was articulated in the principles of ‘panchsheel’ (five principles)
1) People should develop along the lines of their own genius, and imposing anything on them should be avoided. Traditional arts and culture should be encouraged.
2) Tribal rights in land and forests should be respected.
3) A team of local people should be trained to do administrative and development work.
4) GoI should not over-administer these areas, or over-whelm them with multiplicity of schemes.
5) Results should be judged, not by statistics or the amount of money spent, but by the quality of human character that is evolved.
The post-Independence period saw arapid push towards industrialisationfor the rest of India. But a policy of gradualism was adopted for the northeast. A laissez-faire approach followed for several decades. However, this did not deter people-to-people exchanges with the rest of India. An exploitative economy based on timber felling thrived, which laid the seeds of political discontent, and the region became a theatre of insurgencies for decades.
In the early 1990s, the Centre realised that NER was lagging far behind. Anew ministry of development of northeastern region was created, and it was decided that each GoI ministry would earmark 10% of its budget for this region. Suddenly, there was a spurt in flow of central resources. But low absorption capacities engendered nepotism, corruption and capture by elites. The approach of the present central government marks a clear departure from the past. There is a visible expansion of public investment, at the heart of which lies a thrust on improving connectivity and infrastructure. Arunachal Pradesh did not exist on the railway map of India until April 2014. Now it has regular train service.
Pakyong Airport in Sikkim is ready for commissioning commercial flight services to Pasighat in Arunachal Pradesh, and will resume after a hiatusof 30-odd years. Under the Ude Desh ka Aam Naagrik (UDAN) regional connectivity scheme, 92 new routes are set to be activated in the region. In October 2017, Union road transport and highways minister Nitin Gadkari announced GoI plans of investingof.`1.45 trillion for highway construction in NER. A 9 km-long Bhupen Hazarika Setu now connects Assam with Arunachal Pradesh.
The 5 km-long Bogibeel Bridge, whose construction was started in 2002, will be the longest rail-and-road bridge in India once it is commissioned soon. Under BharatNet, digital connectivity in the region is also set to witness adramatic change by March 2019. There is also a renewed push to energise stalled hydropower projects. The 1,200 MW Teesta 3 project in Sikkim and the 60 MW Tuirial hydropower project in Mizoram have been recently commissioned. Two hydropower projects of 710 MW capacity will become operational in Arunachal Pradesh soon. The North East Industrial Development Scheme, rolled out in March 2018, assures five-year income-tax holiday, goods and services tax (GST) exemptions, capital investment subsidy, transport subsidy and interest subvention on working capital.
Hopefully, this will attract private entrepreneurs from outside the region for investment and jobs. NER is also the fulcrum of GoI’s ‘Act East’ policy. Trade and economic linkages with countries like Myanmar, Thailand, Singapore and Indonesia through the development of transnational infrastructure projects are central to this approach.
The new doctrine of GoI for development of the region seeks to bridge the emotional divide between the people of the northeastern region and the rest of India through improved connectivity. Latent economic possibilities of the region are also being harnessed. Young people here wish to be equal partners in India’s growth story. Yet, it must be ensured that in the quest for development, the intrinsic ethnic identity that defines the people of the region — or, for that matter, of any other — is preserved.
Date:30-06-18
एकीकृत परिवहन प्रणाली अपनाने का आ गया वक्त
भारतीय शहरों की परिवहन व्यवस्था में अब सवारियों को केंद्र में रखते हुए नीतियां बनाने की जरूरत है। एकीकृत शहरी परिवहन प्राधिकरण का गठन अपरिहार्य नजर आने लगा है।
विनायक चटर्जी , (लेखक ढांचागत सलाहकार फर्म फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं)
अगस्त 2017 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नई मेट्रो रेल नीति को मंजूरी दी थी जिसमें शहरी परिवहन में मेट्रो रेल प्रणालियों की भूमिका का विस्तार करने का मसौदा पेश किया गया था। कई शहरों ने नई मेट्रो रेल परियोजनाएं शुरू करने की प्रतिबद्धता जताई है लेकिन यह समझने की कोशिश कम ही की गई है कि कोई भी मेट्रो रेल प्रणाली किसी शहर की समग्र सार्वजनिक परिवहन जरूरतों में किस तरह मुफीद बैठती है? नई मेट्रो नीति इसी बिंदु पर कारगर लगती है। इसमें यह कहा गया है कि अगर एक शहर अपनी मेट्रो रेल परियोजनाओं के लिए केंद्रीय मदद चाहता है तो वहां की राज्य सरकार को एकीकृत मेट्रोपोलिटन परिवहन प्राधिकरण (यूएमटीए) का गठन और उसके परिचालन की प्रतिबद्धता जतानी होगी। यूएमटीए एक ऐसा निकाय है जो शहरी परिवहन के सभी साधनों के लिए जिम्मेदार होगा, लिहाजा आवागमन के लिए एक समेकित नजरिया अपनाया जा सकेगा। जिन शहरों में पहले से ही मेट्रो परियोजनाएं चल रही हैं वहां एक साल के भीतर यूएमटीए का गठन करना है।
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के लिए आदर्श के तौर पर देखे जाने वाले कई विदेशी शहरों में इस तरह की एक नीति-नियामक संस्था मौजूद है जो शहरी आवागमन के सभी पहलुओं से संबंधित योजना बनाने, उसका क्रियान्वयन करने और परिचालन के लिए उत्तरदायी होता है। न्यूयॉर्क सिटी ट्रांजिट अथॉरिटी, लंदन ट्रांसपोर्ट और सिंगापुर का एसबीएस ट्रांजिट एवं एसएमआरटी इसके कुछ उदाहरण हैं। एक एकीकृत परिवहन प्राधिकरण में परिवहन के सभी साधनों को इस तरह समेकित किया जाएगा कि यात्री को उसके घर तक पहुंचने के लिए जरूरी संपर्क मुहैया कराया जा सके और हरेक परिवहन प्रणाली का दूसरी प्रणाली से प्रभावी सम्मिलन हो। सभी परिवहन साधनों में किराये के डिजिटल भुगतान के लिए एक साझा यात्रा कार्ड की व्यवस्था करना भी इसी निकाय का दायित्व होगा। यह पैदल चलने वाले यात्रियों की जरूरतों, इंटरचेंज व्यवस्था, सड़कों का डिजाइन और परिवहन प्रणालियों का कॉन्कोर्स बनाने के बारे में भी गौर करेगा।
शहरी यातायात नियोजन के प्रति खंडित नजरिया बताता है कि दिल्ली और बेंगलूरु के 27 फीसदी कामकाजी और लखनऊ के केवल 11 फीसदी कामकाजी लोग ही अपने काम पर जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के ये आंकड़े लंदन और सिंगापुर के क्रमश: 45 फीसदी और 59 फीसदी अनुपात की तुलना में काफी कम हैं। सार्वजनिक परिवहन का कम इस्तेमाल किए जाने की एक अहम वजह तो यह है कि इसका सुविधाजनक घर-घर संपर्क नहीं है। शहरी यातायात को लेकर समेकित दृष्टिकोण नहीं होना ही इसकी मुख्य वजह है। शहरों की सीमाओं का विस्तार होने से अब लोगों को कार्यस्थल पर जाने के लिए अधिक दूर जाना पड़ रहा है। ऐसे में यह समस्या और गंभीर रूप ही अख्तियार करेगी।
केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने हैदराबाद में यूएमटीए के गठन को लेकर मई 2016 में जारी एक रिपोर्ट में कहा था कि तेलंगाना की राजधानी में शहरी परिवहन के विभिन्न पहलुओं को 20 कानून और 13 एजेंसियां नियमित कर रही हैं। इन एजेंसियों के बीच बहुत कम सामंजस्य होता है क्योंकि इनमें से कई एजेंसियों के उद्देश्य और लक्ष्य विरोधाभासी होते हैं। नतीजा यह होता है कि टिकटों की एकसमान व्यवस्था, बहुपक्षीय यात्री सूचना और विभिन्न परिवहन साधनों की उपलब्धता वाले टर्मिनल बनाने की राह में रोड़े खड़े होते हैं। इन परिवहन साधनों के किराये एकांगी तरीके से तय कर दिए जाते हैं और बसों के मार्ग का निर्धारण ऑपरेटरों के दबाव में होता है। बस ऑपरेटर जांचे-परखे मार्गों पर ही बसें चलाना पसंद करते हैं जबकि दूसरे मार्गों पर परिचालन से परहेज करते हैं।
भारत में विभिन्न परिवहन प्रणालियों को एक प्राधिकरण के मातहत लाने की शुरुआती कोशिशें छिटपुट और काफी हद तक असफल रही हैं। दिल्ली में दिल्ली समेकित बहुस्तरीय परिवहन प्रणाली (डिम्ट्स) का गठन अपने शुरुआती वादे पर खरा उतरने में नाकाम रहा है। इसकी मुख्य वजह यह है कि डिम्ट्स को मुख्य रूप से क्लस्टर बस व्यवस्था तक ही सीमित रखा गया है। यहां तक कि डिम्ट्स के दायरे में दिल्ली की समूची बस परिवहन प्रणाली भी नहीं है क्योंकि सरकारी बस सेवा दिल्ली परिवहन निगम पर इसका कोई नियंत्रण नहीं है।
वैसे हालात धीरे-धीरे बदल रहे हैं। वर्ष 2006 में केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय शहरी परिवहन नीति (एनयूटीपी) जारी की थी जिसमें 10 लाख से अधिक आबादी वाले सभी शहरों में यूएमटीए के गठन की सिफारिश की गई थी। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश भर में 10 लाख से अधिक आबादी वाले 53 शहर हैं। वर्ष 2016 में भोपाल, हैदराबाद, जयपुर, कोच्चि, लखनऊ, तिरुचिरापल्ली और विजयवाड़ा जैसे कुछ गिने-चुने शहरों में यूएमटीए के गठन की कोशिशें हुईं। पिछले साल घोषित मेट्रो रेल नीति ने इन प्रयासों को और गति देने का काम किया है। मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे शहरों में भारतीय रेलवे पहले से ही उपनगरीय रेल सेवाएं संचालित करता रहा है लेकिन यूएमटीए के वजूद में आने के बाद इन सेवाओं की कमान भी प्राधिकरण के सुपुर्द करनी होगी। इसके बदले में यूएमटीए ढांचागत-उपभोग शुल्क और अन्य शुल्कों का रेलवे को भुगतान करेगा।
सिंगापुर लैंड ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी (एसएलटीए) समेकित परिवहन संभावनाओं का दायरा और शहरी यातायात पर इसका असर समझने का एक बढिय़ा उदाहरण है। एसएलटीए भूतल परिवहन के लिए हरेक पांच साल पर एक मास्टरप्लान लेकर आता रहा है। इसने 2008 में एक मास्टरप्लान पेश किया था और फिर 2013 में दूसरा प्लान लेकर आया। इन दोनों मास्टरप्लान का मकसद सिंगापुर के द्वीपीय शहर में सार्वजनिक परिवहन को पसंदीदा परिवहन विकल्प के रूप में स्थापित करना है। एसएलटीए के 2013 के मास्टरप्लान में वर्ष 2030 तक 20 किलोमीटर तक की दूरी वाली करीब 80 फीसदी यात्राओं को 60 मिनट के भीतर पूरा कर लेने, व्यस्ततम समय वाली 75 फीसदी यात्राओं के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने और करीब 80 फीसदी घरों से मेट्रो स्टेशन का फासला महज 10 मिनट के पैदल सफर तक पहुंचा देने का लक्ष्य रखा गया है। इस मकसद को पूरा करने के लिए सिंगापुर रेल नेटवर्क और ट्रेनों में नियोजित विस्तार करने, ढके हुए रास्तों का निर्माण और साइक्लिंग के लिए खास रास्ते का निर्धारण कर रहा है। अब वक्त आ गया है कि भारत के शहरों में भी परिवहन नीतियों को तय करते समय यात्रियों की जरूरतों को केंद्र में रखा जाए। इसके लिए यूएमटीए एक अपरिहार्य और अत्यावश्यक पूर्व-शर्त है।
Date:30-06-18
निजी क्षेत्र की समस्या
टी. एन. नाइनन
प्रभावशाली हलकों में यह एक स्वीकार्य धारणा है कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र का बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता रहा है जबकि निजी क्षेत्र ने भविष्य की राह दिखाने का काम किया है। इस धारणा को कुछ उदाहरणों से बल मिला। एयरटेल ने दूरसंचार बाजार में जबरदस्त कामयाबी हासिल की जबकि भारत संचार निगम लिमिटेड ने इसे नष्टï किया। निजी विमानन कंपनियों ने विमानन क्षेत्र के विस्तार में मदद की जबकि एयर इंडिया की हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में धातु कंपनियों की तकदीर निजीकरण के बाद बदल गई। इसके अलावा प्रौद्योगिकी उद्योग ने इसमें अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पारंपरिक भारतीय उद्यमियों के कारोबारी व्यवहार से अलग छवि बनाई।
यह तो तब की बात है। अब हालात एकदम अलग हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के घोटालों में सरकार के लोग शामिल थे लेकिन उनके इस अपराध में कोयला और दूरसंचार क्षेत्र के निजी कारोबारी घराने सहभागी थे। जो बैंक ऋण फंसे हुए कर्ज में तब्दील हुआ उसका बहुत बड़ा हिस्सा निजी उद्यमियों को दिया गया था। नुकसान बैंकों को ही उठाना पड़ा लेकिन घाटा निजी उद्यमों के खाते गया। अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में एक बार फिर निजी क्षेत्र की नाकामी और गड़बडिय़ों की खबरें सामने आ रही हैं। एक समय अपनी चमक बिखेर रहा निजी क्षेत्र गलत वजहों से सुर्खियों में बन रहा है।
जरा हालिया घटनाओं पर विचार कीजिए। आईसीआईसीआई बैंक की समस्या एक समय मुख्य कार्याधिकारी तक सीमित थी जिसे हितों के टकराव की समझ नहीं थी। इसका ताल्लुक एक ऐसे बोर्ड से था जिसे अपने काम की समझ नहीं थी। परंतु अब यह समस्या कहीं अधिक बड़ी और व्यापक रूप लेती जा रही है। मामला खातों की वित्तीय स्थिति सुधार कर पेश करने तथा अन्य बातों तक पहुंच गया है। आमतौर पर देखा जाए तो इससे निजी क्षेत्र के बैंकों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है। हालांकि उनका प्रदर्शन सरकारी बैंकों से बेहतर रहा है। उसके बाद नीरव मोदी-मेहुल चौकसी के मामले ने अपेक्षाकृत सफल हीरा प्रसंस्करण उद्योग को लेकर आशंका पैदा कर दी है। सवाल यह उठ रहा है कि आखिर इस क्षेत्र के वित्तीय लेनदेन में परदे के पीछे क्या गड़बडिय़ां हैं?
विमानन में एयर एशिया इंडिया पर भुगतान से जुड़े कुछ आरोप हैं और उसके मुख्य कार्याधिकारी को निकाला जा चुका है। इस मामले से भी टाटा घराने का नाम जुड़ा हुआ है। सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी इन्फोसिस को एक कॉर्पोरेट अधिग्रहण के मूल्य के मामले में कड़े सवालों का सामना करना पड़ा। कंपनी छोड़कर जाने वाले वित्तीय अधिकारियों के भुगतान का मसला भी उठा। सभी दूरसंचार कंपनियों पर प्राय: अपने आंकड़ों में फर्जीवाड़ा करने का आरोप लगता है। खनन आदि कारोबार पर्यावरण और सुरक्षा मानकों को लेकर सवालों के घेरे में रहते हैं। इन मामलों में जन विरोध, हिंसा और मौत की घटनाएं आम हैं। इस बीच फोर्टिस अस्पताल और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज चलाने वाले सिंह बंधुओं का मामला चर्चा में है। उनके द्वारा फर्जी शोध नतीजों और खराब गुणवत्ता वाली इकाइयों के इस्तेमाल की जानकारी सामने आई है।
यह सूची बहुत विस्तृत नहीं है लेकिन इसमें सुधार के बाद के दौर के अधिकांश सफल कारोबारों का नाम शामिल है। इस्पात और बिजली क्षेत्र के कारण उपजी बैंकिंग समस्याओं को दुर्भाग्य माना जा सकता है क्योंकि उनका कारोबारी चक्र उठता-गिरता रहता है। परंतु बैंकों के जोखिम आकलन के साथ-साथ प्रमुख उद्यमों के कारोबारी निर्णय पर सवाल क्यों नहीं उठाया जाता? निजी क्षेत्र से जुड़े गठजोड़ की खबरें जो फिर सामने आने लगी हैं उनकी भी चर्चा नहीं हो रही। ऐसा हो सकता है कि एक भ्रष्टï राजनीतिक व्यवस्था में कारोबार भी भ्रष्टï हों। फंड चाहने वाले राजनेता सांठगांठ वाले पूंजीवाद को बढ़ावा देंगे। ऐसे राजनेता और राज्य के हस्तक्षेप के हिमायती सरकार की भूमिका को बढ़ाने की वजह मुहैया कराते हैं। कारोबारी अनिश्चितता की बातों के बीच जिनको कर, जांच या प्रवर्तन अधिकारियों के छापे का भय है वे देश छोड़कर चले जाएंगे। कई लोग जा भी चुके हैं। निजी कारोबारियों की विफलता ने बाजार आधारित सुधार की प्रक्रिया को झटका दिया है। हालांकि आगे जाने की एकमात्र राह वही है। निजीकरण राजनीतिक दृष्टिï से जोखिमभरा हो गया है। सुधारों को लेकर बहस बंद है और लोकलुभावन वादे बढ़ते जा रहे हैं।
Date:29-06-18
बड़े देशों का बढ़ता दबाव और भारत का अडिग रुख
के सी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता
यह होना ही था। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत और अमेरिका एक बार फिर आमने-सामने आ गए हैं। पिछले सप्ताह इसकी बैठक में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व खाद्य सुरक्षा योजनाओं को लेकर भारतीय प्रतिनिधि ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए इनमें कोई बदलाव से इनकार कर दिया, जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा आदि देश खाद्य उत्पादों से जुड़ी भारत की रिपोर्ट में पारदर्शिता की कमी के आरोप लगा रहे थे। डब्ल्यूटीओ में अमेरिका ने शिकायत की थी कि भारत में गेहूं और धान पर दी जा रही एमएसपी व इससे जुड़ी योजनाओं को कम करके पेश किया जा रहा है। अमेरिका का आरोप था कि भारत 10 फीसदी सब्सिडी की सीमा को पार कर रहा है। मगर पूरी बैठक में भारत का रुख साफ था कि वह इन नीतियों में कोई बदलाव नहीं करने जा रहा।
डब्ल्यूटीओ की पिछली कुछ बैठकों से भारत पर सार्वजनिक भंडारण को खत्म करने और एमएसपी को सीमित करने का वैश्विक दबाव पड़ रहा है, मगर खाद्य सुरक्षा को लेकर किसी समझौते से परहेज भारतीय दल की उपलब्धि रही। भारत में किसानों के लिए एमएसपी और गरीब जनसंख्या के लिए सरकारी अनाज भंडारण, दोनों ही आवश्यक हैं और इसके लिए बड़े पैमाने पर सब्सिडी की जरूरत होती है। दिलचस्प यह है कि ‘यूनाइटेड स्टेट्स फार्म बिल’ के तहत वर्ष 2014 से अमेरिकी किसानों को अगले 10 वर्षों तक फार्म सब्सिडी देने का प्रावधान है। निर्यात संबंधी सब्सिडी में कोई कटौती न करने के कानून के साथ-साथ वहां किसानों को 956 बिलियन डॉलर की सब्सिडी मिलती है। 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में प्रत्येक किसान को औसतन 7,800 डॉलर की सब्सिडी दी गई थी। ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया समेत अन्य विकसित देश भी अपने किसानों को सब्सिडी में बड़ी राशि प्रदान करते हैं।
साल 2001 के ‘दोहा डेवलपमेंट एजेंडे’ के तहत 2013 तक निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी समेत अन्य सुविधाओं पर पाबंदी लगाने का फैसला थोपा गया था। हालांकि भारत ने तब इस फैसले को अस्वीकार कर दिया था। भारत का तर्क था कि खेती की आजीविका व खाद्य सुरक्षा पहलुओं के मद्देनजर विकासशील देशों के लिए एक खाद्य सुरक्षा बॉक्स बनाया जाना चाहिए। साथ ही गरीबी हटाने, ग्रामीण विकास, रोजगार, कृषि के विविधिकरण के लिए खर्च की जाने वाली सहायता यानी सब्सिडी घटाने की शर्त से बाहर रखा जाना चाहिए। 2013 में समय-सीमा की समाप्ति के बाद बाली की बैठक में खाद्य सुरक्षा व कृषि संरक्षण पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी को कम करने पर अंतिम निर्णय होना था, पर विकासशील राष्ट्रों की कड़ी आपत्ति के बाद यथास्थिति बनी रही और एक सुलह वाक्यांश अर्थात ‘पीस क्लॉज’ की व्यवस्था बहाल की गई, जिसके तहत सहमति बनने तक खाद्य सुरक्षा सब्सिडी को लेकर किसी देश पर प्रतिबंध न लगाने का प्रावधान किया गया।
भारत जैसे विकासशील देश ‘पीस क्लॉज’ से बाहर निकल खाद्य भंडारण व एमएसपी मसले पर स्थाई समाधान की मांग करते रहे हैं। अफसोस, 2015 की नैरोबी बैठक में भी दोहा सम्मेलन को आगे बढ़ाने और प्रतिबद्धता से काम करने पर कोई निर्णय नहीं हो पाया। इस क्रम में महत्वपूर्ण यह है कि एक तरफ भारत जहां दोहा दौर समेत अन्य लंबित विकास एजेंडे को पूरा करने के पक्ष में है, तो वहीं विकसित देश नए मुद्दों को शामिल कराने को प्रयासरत हैं। ये राष्ट्र ई-कॉमर्स, निवेश सुगमता, एमएसएमई जैसे नए विषयों को एजेंडे में शामिल कराना चाहते हैं। डब्ल्यूटीओ में विकसित देशों का नीतिगत वर्चस्व रहा है। वे छोटे व अल्प-विकसित देशों को अपना बाजार बनाने की दिशा में निरंतर प्रयासरत रहे हैं। उनकी मंशा है कि सरकार किसानों से अनाज न खरीदे और साथ ही सरकारी दुकानों की व्यवस्था को भी हटाए। मौजूदा व्यवस्था में सरकार किसानों से अनाज खरीदती है, जिससे खाद्य सुरक्षा कानून का अनुपालन, महंगाई पर नियंत्रण, राष्ट्रीय भंडारण आदि संभव हो पाता है। राहत है कि किसान और कृषि हितों को लेकर अब तक की सरकारें वैश्विक दबाव में नहीं आई हैं।
Date:29-06-18
कायांतरण से कितनी बदलेगी उच्च शिक्षा
हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक, बिमटेक
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के भविष्य को लेकर एक दशक से चली आ रही ऊहापोह पर विराम लगने को है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यूजीसी को भंग करके उसकी जगह पर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) बनाने के लिए एक ड्राफ्ट ऐक्ट का मसौदा जारी किया है और इस पर 7 जुलाई, 2018 तक शिक्षाविदों, संबंधित पक्षों और आम लोगों की राय मांगी है। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर का कहना है कि ड्राफ्ट ऐक्ट संसद के मानसून सत्र में पेश किया जाएगा और यूजीसी को भंग कर एचईसीआई बनाने का फैसला मोदी सरकार की ‘न्यूनतम शासन- अधिकतम सुशासन’ की सोच पर आधारित है। मंत्रालय के अनुसार, इस नए आयोग को उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों को दी जाने वाली ग्रांट जारी करने का अधिकार नहीं होगा, मगर उच्च शिक्षा नियमन में पारदर्शिता बढ़ाकर इंस्पेक्टर राज को खत्म किया जाएगा।
प्रस्तावित एचईसीआई के ड्राफ्ट ऐक्ट में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की जिम्मेदारी नई नियामक एजेंसी को सौंपी गई है। एचईसीआई को खराब गुणवत्ता वाली व फर्जी संस्थाओं को बंद करने का अधिकार भी होगा। आयोग नए संस्थान खोलने-बंद करने के मानक भी तय करेगा। ड्राफ्ट ऐक्ट में आयोग के आदेशों की अवहेलना करने वाली संस्था के सीईओ और प्रबंधन को तीन साल की सजा का भी प्रावधान है।
एचईसीआई के ड्राफ्ट ऐक्ट पर शिक्षाविदों में सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या नई एजेंसी मोदी सरकार का नारा ‘न्यूनतम शासन-अधिकतम सुशासन’ पूरा कर पाएगी? त्रुटि करने वाली संस्थाओं को दंडित करने का अधिकार उच्च शिक्षा में एक नए तरह के ‘इंस्पेक्टर राज’ की वापसी नहीं होगी? अभी तक यूजीसी के पास अच्छी गुणवत्ता वाली यूनिवर्सिटी-कॉलेजों को ज्यादा वित्तीय अनुदान देकर प्रोत्साहित करने का अधिकार था। ड्राफ्ट ऐक्ट में यह अधिकार मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास चले जाने से क्या यूजीसी सिर्फ ‘ज्ञान दाता’ बनकर नहीं रह जाएगी? यूजीसी के 350 से अधिक कर्मचारियों और अधिकारियों की सेवाएं नई नियामक संस्था में उनकी मौजूदा सेवा शर्तों पर जारी रहेंगी? क्या नियामक संस्था का महज नाम बदल देने से उसकी कार्यशैली भी बदल जाएगी?
पिछले एक दशक से यूजीसी अनेक विवादों और आलोचनाओं के केंद्र में रही है। इसकी स्थापना 1956 में हुई और इसका मुख्य कार्य विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा के मानकों का निर्धारण और राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय करना था। भारत के संसदीय लोकतंत्र और यूजीसी जैसी नियामक संस्था की परिकल्पना हमारे जिन संविधान निर्माताओं द्वारा की गई, वे ग्रेट ब्रिटेन के वेस्टमिन्स्टर मॉडल और उसकी संस्थागत संरचना से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। यूजीसी की परिकल्पना ब्रिटिश यूजीसी के आधार पर की गई, जो 1919 में वित्त मंत्रालय के तहत थी और उसका मुख्य कार्य सार्वजनिक विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को अनुदान देना था। 1998 में ब्रिटेन ने यूजीसी को खत्म कर दो नई नियामक संस्थाएं स्थापित कर दीं, जिनका नाम हायर एजुकेशन फंडिंग काउंसिल और क्वालिटी एश्योरेंस एजेंसी है।
वर्ष 1956 में यूजीसी की स्थापना के समय उसके अधीन बमुश्किल 20 विश्वविद्यालय, 500 कॉलेज, 15,000 प्राध्यापक और लगभग दो लाख विद्यार्थी थे। यूजीसी व उसका 62 वर्ष पुराना ढांचा 21वीं सदी के भारत की उच्च शिक्षा की जरूरतों का सामना नहीं कर पा रहा है। अभी 18 से 24 साल के बमुश्किल 25 प्रतिशत युवा ही हमारे विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में दाखिला ले पाते हैं। अगर हम जीईआर को 50 प्रतिशत कर पाने की कल्पना करें, तो आने वाले दशकों में चार करोड़ से ज्यादा अतिरिक्त युवाओं की शिक्षा के इंतजाम करने होंगे। क्या प्रस्तावित एचईसीआई इस लक्ष्य को पूरा कर पाएगा? यूजीसी के साथ एक बड़ा विरोधाभास यह है कि इसका सांगठनिक ढांचा सरकारी यूनिवर्सिटियों व कॉलेजों को वित्तीय अनुदान देने के लिए बनाया गया था, किंतु वर्तमान परिस्थिति में इसके सामने बड़ी चुनौती यह है कि 895 यूनिवर्सिटियों और 42,338 कॉलेजों में तीन करोड़ भारतीय युवाओं को दी जा रही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता व मानक कैसे सुनिश्चित करे?
भारत की उच्च शिक्षा में सुधारों की चर्चा का एक प्रमुख बिंदु रहा है- नियामक एजेंसियों की बहुलता से पैदा होने वाली जटिलताएं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 व उसके क्रियान्वयन की रूपरेखा (1986 व 1992) में एक राष्ट्रीय उच्च शिक्षा काउंसिल बनाने का सुझाव दिया गया था। एक दशक तक यह सिफारिश ठंडे बस्ते में पड़ी रही। सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने 2007 में फिर से इस मुद्दे को उठाया और उच्च शिक्षा के लिए एक स्वयंशासी नियामक एजेंसी (आईआरएएचई) बनाने का सुझाव दिया। प्रोफेसर यशपाल कमेटी ने भी 2009 में अपनी रिपोर्ट में एक दर्जन नियामक संस्थाओं को विलीन करके उच्च शिक्षा व अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाने की राय दी थी। यूजीसी की जगह एक प्रभावशाली नियामक संस्था बनाने की चर्चा 30 वर्षों से चली आ रही है।
साल 2019 के आम चुनाव की पूर्व-वेला में यूजीसी के स्थान पर एचईसीआई के गठन का फैसला मौजूदा एनडीए सरकार के लिए राजनीतिक दृष्टि से लाभदायक है। लगता है, यह ड्राफ्ट ऐक्ट संसद के मानसून सत्र में पारित भी हो जाएगा। किंतु हमारी उच्च शिक्षा की समस्याएं बहुत गहरी हैं, जिनके समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति व दीर्घकालिक प्रयासों की जरूरत है। उच्च शिक्षा के अवसर निश्चित रूप से बढ़े हैं, लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा 20-25 प्रतिशत विद्यार्थियों को ही मिल पाती है।
भारत की उच्च शिक्षा की ज्यादातर समस्याएं वांछित वित्तीय साधनों की कमी और उच्च शिक्षण संस्थानों को समुचित स्वायत्तता न मिलने से पैदा हुई हैं। अभी भी उच्च शिक्षा पर होने वाला सरकारी व्यय सकल राष्ट्रीय उत्पाद के डेढ़ प्रतिशत से भी कम रहता है। एक और बड़ी समस्या कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के उच्च प्रबंधन में राजनीतिक दखल भी है। भारत की उच्च शिक्षा की हालत एक प्राचीन जीर्ण-शीर्ण मंदिर जैसी है, जिसका जीर्णोद्धार सिर्फ नए सिरे से निर्माण से ही हो सकता है, दीवारों पर रंग-रोगन और शिखर की तोरण-पताकाएं बदलने मात्र से कुछ नहीं हासिल होने वाला।