29-04-2019 (Important News Clippings)
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Date:29-04-19
Unite For Security
Counterterrorism cooperation should transcend political divides
TOI Editorials
As Sri Lanka continues to investigate the Easter serial bombings, alert needs to be maintained across the region. Fresh violence shook Sri Lanka last Friday when security forces raided a bomb workshop in Kalmunai in the country’s east. Gun battles and explosions rocked the area; at least 16 people are reported killed. Another raid saw the recovery of flags and literature belonging to transnational terror outfit Islamic State (IS).
With IS losing almost all territory that it once controlled in Iraq and Syria, this was the danger that security experts had predicted. They believed that the group would switch to a franchise model where local radical outfits carry out terror activities in IS’s name. Add to this the potency of modern communication technology that can beam terror events across the globe. This in turn can be used to fuel social polarisation by creating suspicions among communities and gain fresh recruits for IS.
Sri Lanka was targeted because it has a history of fragile ethno-religious relations. Similar social fissures also exist in India. In fact, the recent release of a poster by a pro-IS channel on the Telegram online platform reading ‘Coming Soon’ in Bengali, exemplifies the modus operandi of the terrorists. This could be a plot to stir up communal polarisation in Bengal in the midst of a heated Lok Sabha election season. Despite political differences, Centre and state governments must work together to thwart any terror schemes in Bengal and other parts of the country. There must not be any politics over security. Else Sri Lanka’s massive Easter terror attacks – which apart from the loss of lives is billed to cost its economy $1.5 billion – is a standing example of what can happen. There can be no excuses for not heeding this warning.
Date:29-04-19
चुनावी बॉन्ड पर फौरी सुनवाई न होने से चूके एक और मौका
सोमशेखर सुंदरेशन, (लेखक एक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
चुनावी बॉन्ड के बारे में किसी भी ऐसी प्रतिक्रिया का आना मुश्किल है जिसमें हंसी, निराशा, कुंठा और दिल्लगी जैसे मनोभावों का समावेश न हो। आम चुनावों के जारी रहने के बीच में चुनाव आयोग ने उच्चतम न्यायालय ने यह शपथ-पत्र दिया है कि चुनावी बॉन्ड जोखिम से खाली नहीं हैं। पहले घटनाक्रम पर नजर दौड़ाते हैं। चुनावी बॉन्ड के बारे में पहली बार जिक्र फरवरी 2017 में पेश आम बजट में आया था। चुनावी बॉन्ड को जनवरी 2018 में जाकर लॉन्च किया गया। एक गैर-सरकारी संगठन ने उसके अगले ही महीने एक रिट याचिका दायर कर इसे चुनौती दी। इस बॉन्ड के जरिये अरबों रुपये राजनीतिक दलों की तिजोरी में पहुंच गए हैं। इस दौरान कई राज्यों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। अब लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद इस रिट याचिका पर विचार किया गया। लेकिन मामलों पर सुनवाई को फिर स्थगित कर दिया गया।
किसी भी बॉन्ड के ढांचे पर एक नजर डालते हैं। मान लीजिए आप 15 दिनों की अवधि वाला बॉन्ड खरीदने के लिए भारतीय स्टेट बैंक जाते हैं। उस बॉन्ड को आप किसी भी राजनीतिक दल को भेंट में दे सकते हैं और इसमें आपकी गोपनीयता की पूरी गारंटी होगी। न तो आपको इस बॉन्ड की खरीद के बारे में खुलासा करना है और न ही आपको चंदे में यह बॉन्ड लेने वाली पार्टी के बारे में जानकारी देने की जरूरत है। ऐसे में राजनीतिक दल यह दावा कर सकते हैं कि उन्हें तो दानकर्ताओं के बारे में कुछ पता ही नहीं है। हालांकि यह महज मजाक ही नहीं है क्योंकि दलों को खूब पता होता है कि उन्हें बॉन्ड के रूप में चंदा किसने दिया है? उन्हें नकद में चंदा देने वालों के बारे में भी पता होता ही है। ये बॉन्ड दलों को अनामता का कानूनी आवरण पहनाते हैं और उन्हें चंदा देने वाले की पहचान उजागर करने की बाध्यता से भी छूट मिल जाती है।
राजनीतिक दलों की इस मिली-जुली साजिश ने राजनीतिक चंदों में पारदर्शिता लाने के लिए प्रयासरत एक संस्था को पहले ही कुंठित किया हुआ है। मुख्य सूचना आयुक्त ने सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत राजनीतिक चंदे से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक करने का निर्देश दिया हुआ था लेकिन चुनावी बॉन्ड के रूप में दलों को यह दिखावा करने का लाभ दे दिया है कि उन्हें चंदा देने वाले के बारे में जानकारी ही नहीं है। संक्षेप में, बॉन्ड राजनीतिक दलों की फंडिंग के स्रोत न बताने को वैधता देने वाली एक आधिकारिक युक्ति है। इसे दूसरी तरह से देखें तो चुनावी बॉन्ड चंदा-शोधन की एक सरकारी प्रणाली है। अटॉर्नी जनरल ने कथित तौर पर उच्चतम न्यायालय में ऐसी दलीलें दी हैं कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वालों के बारे में जानने की लोगों को कोई जरूरत नहीं है। राजव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा यह है कि सरकार बनाने के लिए नागरिकों से मत मांगने वाले दलों को फंड मुहैया कराने वालों के बारे में कोई जानकारी ही न हो। इसके चलते हमें पता ही नहीं होता है कि सरकार किन समूहों के दबाव के आगे झुक सकती है?
भारतीय चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। उच्चतम न्यायालय जो काम केवल न्यायिक ढंग से कर सकता है उसे चुनाव आयोग अर्द्ध-न्यायिक ढंग से अंजाम दे सकता है। नेताओं की जिंदगी पर बनी फिल्मों का प्रसारण रोकना इसका एक उदाहरण है। लेकिन इसके लिए भी उच्चतम न्यायालय को चुनाव आयोग को उसकी शक्तियां याद दिलाने की जरूरत पड़ी। यह इस संवैधानिक संस्था की नाकामी मानी जाएगी। इस कड़ी में अगला नाम अदालतों का है। देश की सर्वोच्च अदालत का असली काम गणराज्य के भविष्य के लिए रणनीतिक अहमियत रखने वाले ऐसे मामलों पर गौर करना है। चुनावी बॉन्ड की घोषणा नोटबंदी की तरह रातोरात नहीं की गई थी। बॉन्ड योजना वास्तव में शुरू करने के करीब साल भर पहले उसका ऐलान किया गया था और ऐलान के एक महीने बाद ही रिट याचिका दायर की गई थी। इस तरह उच्चतम न्यायालय के पास उस याचिका की सुनवाई के लिए समय था। यानी अगर चुनाव आयोग ने कुछ नहीं किया तो उच्चतम न्यायालय ने भी कुछ नहीं किया।
निष्पक्ष ढंग से कहें तो यह रवैया केवल चुनावी बॉन्ड को चुनौती देने वाली याचिका तक ही सीमित नहीं है। दूरगामी महत्त्व वाला हरेक निर्णय घोषणा होने के कुछ समय बाद लागू हो जाता है और फिर उस पर सुनवाई शुरू होती है जिससे यह पूरी कवायद महज अकादमिक परिचर्चा का विषय बनकर रह जाती है। नोटबंदी के मामले में भी कोई फौरी राहत नहीं दी गई थी जबकि उसमें कई गंभीर कानूनी अनियमितताएं थीं। इन याचिकाओं पर जब विचार होता है तो वह अकादमिक विमर्श ही माना जाता है। इसी तरह से आधार और धन विधेयक करार दिए गए कई विधेयकों के मामले में भी यही हुआ। आधार जिंदगी के सभी पहलुओं पर छा चुका था, तब जाकर उस पर सुनवाई शुरू हुई।
इसी महीने एक और रोचक मामले का निपटारा हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने एनरॉन की दाभोल परियोजना से संबंधित मुकदमे को इस आधार पर बंद करने का फरमान सुनाया है कि अब कोई प्रभावी आदेश नहीं जारी किया जा सकता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनावी बॉन्ड से संबंधित घटनाक्रम ट्रेजडी एवं कॉमेडी का मिला-जुला रूप हो सकते हैं। हमें सोचना होगा कि आखिर कहां पर हम रास्ते से भटक गए हैं?
Date:28-04-19
भारत के लिए सबक
डॉ. दिलीप चौबे
श्रीलंका में इस सप्ताह राजधानी कोलंबो सहित कई नगरों में हुए घातक बम विस्फोटों ने जेहादी खतरे की ओर दुनिया का ध्यान बहुत शिद्दत के साथ आकृष्ट किया है। इस हमले में खलीफाशाही स्थापित करने का मंसूबा रखने वाले इस्लामिक स्टेट का हाथ साबित हुआ है। माना जा रहा था कि इराक और सीरिया में अमेरिका और रूस की सैनिक कार्रवाइयों से आईएस का सफाया हो गया है, और बड़े भूभाग पर कब्जा रखने वाला यह संगठन कोने में सिकुड़ गया है। श्रीलंका का हमला इस अनुमान को झुठलाता है। इस जेहादी संगठन की यह क्षमता उजागर हुई है कि वह दुनिया के किसी भी देश में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है। यूरोप और अमेरिका जैसे देशों द्वारा आव्रजन के कड़े नियमों लागू करने और संदिग्ध आतंकी संगठनों पर कड़ी निगरानी रखे जाने के कारण वहां किसी हिंसक कार्रवाई को अंजाम देना दुष्कर है। लेकिन उन देशों में जहां सुरक्षा और खुफिया पण्राली चाक-चौबंद नहीं है, आतंकियों की घुसपैठ और ऐसी घटनाओं की योजना बनाकर खूनखराबा करना ज्यादा मुश्किल नहीं है। श्रीलंका पर हमले इसी हकीकत की निशानदेही करते हैं।
आतंकी हमलों से भी खतरनाक दुनिया में जेहादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार है। मुस्लिम आबादी वाले देशों सहित यूरोप और अमेरिका में भी इस विचारधारा को फैलाया जा रहा है। आतंकी अब मदरसों से नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थान भी जेहाद की नर्सरी बन गए हैं। श्रीलंका के आत्मघाती हमलावर संपन्न परिवारों से और शिक्षित युवक थे। श्रीलंका को आतंकवाद से लड़ने का दशकों पुराना अनुभव है। तमिल छापामार संगठन लिट्टे के खिलाफ वहां के सुरक्षा बलों ने जंग जीती है। ऐसे देश में इतने बड़े हमले के प्रति सरकार कैसे बेखबर रही, यह चिंता का विषय है। भारत के लिए चिंता की बात यह है कि श्रीलंका में हुए हमलों के तार दक्षिण भारत से जुड़े हैं। एक आत्मघाती हमलावर मोहम्मद हाशिम लंबे समय तक दक्षिण भारत के कईराज्यों में रहा है। हमले के लिए जिम्मेदार नेशनल तौहीद जमात (एनटीजे) का भी दक्षिण भारत के एक इस्लामी संगठन से संबंध माना जा रहा है। जेहादी आतंकवाद पर नजर रखने वाले विश्लेषकों के अनुसार दुनिया में करीब पंद्रह से अधिक देशों में जेहादी इस्लामिक संगठन अपनी कार्रवाइयों को अंजाम दे सकते हैं। एशिया में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया, फिलीपींस, सऊदी अरब और इराक में इनकी मौजूदगी है। अफ्रीका के मिस्त्र, लीबिया, कांगो, माली, सोमालिया और नाइजीरिया में भी आईएस की मौजूदगी है। रूस और पूर्व सोवियत संघ के देशों में भी यह संगठन अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रहा है।
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि जेहादी आतंकवाद की विचारधारा सऊदी अरब के बहावी इस्लाम से ओतप्रोत है। सऊदी अरब दुनिया भर में बहावी इस्लाम का प्रचार करता है, और मदरसों और मजहबी संगठनों का वित्त पोषण करता है। ऊपरी तौर पर इन संगठनों को आतंकी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस प्रकार के धर्म प्रचार की परिणति जेहाद के रूप में सामने आ रही है। चिंता की बात यह है कि अमेरिका और पश्चिमी देश सऊदी अरब को अपना सहयोगी देश मानते हैं, और भू-रणनीति के आधार पर उसे समर्थन देते हैं। आतंकवाद से दशकों से जूझ रहा भारत भी सऊदी अरब से आने वाली इस विचारधारा को रोकने में सफल नहीं हो पाया है। रक्षा विश्लेषक ब्रह्मचलानी का मानना है कि जाकिर नायक जैसे बहावी धर्म प्रचारकों को वर्षो तक भारत में खुली छूट मिली रही। उसे सामान्य धर्मपरायण और शांतिपूर्ण धर्म प्रचारक माना गया। बांग्लादेश में आतंकी घटनाओं के बाद जाकिर नायक का आतंकी चेहरा सामने आया। उसने भारत छोड़कर मलयेशिया में शरण ली है। इसी तरह श्रीलंका के आतंकी हमलों से जुड़े आतंकी संगठन एनटीजे का संबंध भारत की तमिल नेशनल तौहीद जमात (टीएनटीजे) से माना जा रहा है। तमिलनाडु का यह संगठन आतंकवादी घटनाओं और जेहादी विचारधारा को नकारने का दावा करता है। संगठन के अनुसार वह केवल शांतिपूर्ण धर्म प्रचार, सामाजिक कार्य और राहत गतिविधियां चलाता है। श्रीलंका के हमले के बाद भारत की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां ऐसे संगठनों पर कड़ी निगरानी रखेंगी।
Date:27-04-19
कानून की भावना
संपादकीय
नियामक इस बार खुद उल्लंघन में फंस गया है। हालांकि फिलहाल तो मामला उल्लंघन से भी ज्यादा अवहेलना और अवमानना का है। अगर आप सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले की अवहेलना कर देते हैं, तो अवमानना के आरोपी बन जाते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने यही किया और शुक्रवार को उसे न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की फटकार सुननी पड़ी, बल्कि अदालत ने उसे अल्टीमेटम भी दे दिया। मामला हालांकि कई साल पुराना है, जब कुछ लोगों ने सूचना के अधिकार कानून के तहत रिजर्व बैंक से कई बैंकों की जांच की रिपोर्ट मांगी थी और ऐसे लोगों को ब्योरा मांगा था, जो विभिन्न बैंकों से लिए कर्ज का जान-बूझकर भुगतान नहीं कर रहे हैं। रिजर्व बैंक ने यह जानकारी देने से मना कर दिया। इसके लिए उसने अपनी नॉन डिस्क्लोजर नीति का हवाला दिया। इसके खिलाफ जानकारी मांगने वाले अदालत में चले गए और 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि रिजर्व बैंक को सूचना-अधिकार कानून के तहत यह जानकारी देनी ही पड़ेगी। देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के बावजूद रिजर्व बैंक टस से मस नहीं हुआ और ये सारी जानकारियां उसकी फाइलों से नहीं निकलीं। जाहिर है, इस बार मामला सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का बन गया। और अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि रिजर्व बैंक की यह नॉन डिस्क्लोजर नीति सूचना के अधिकार कानून का उल्लंघन है। जाहिर है कि अब रिजर्व बैंक के पास बचने का कोई रास्ता नहीं है और मांगी गई सारी जानकारी उसे देनी ही होगी।
इस पूरे मामले को हमें एक दूसरे ढंग से भी देखना होगा। मान लीजिए, चार साल पहले जब सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला आया था या उसके भी पहले जब रिजर्व बैंक से जानकारी मांगी गई थी, उसी समय अगर बैंकों का उधार न लौटाने वालों की सूची आ जाती, तो बैंकिंग क्षेत्र उन कई झटकों से बच सकता था, जो पिछले कुछ साल में उसे झेलने पडे़ हैं। अगर यह सूची पहले ही सार्वजनिक जानकारी में होती, तो बैंकों पर भी एक दबाव रहता कि वे अपने कर्ज को वसूलने के लिए सख्ती बरतें, और ऐसी व्यवस्था बनाएं, जिससे उनके कर्ज डूबे नहीं। ऐसा नहीं हुआ और विजय माल्या-नीरव मोदी जैसे बड़े कर्जदार किसी भी सख्ती से पहले ही देश छोड़ भाग जाने में कामयाब हो गए। इससे कर्ज तो डूबे ही, सरकार की भी खासी किरकिरी हुई। यह एक ऐसा मुद्दा बन गया, जो इन दिनों चुनावी सभाओं तक में गूंजता दिख रहा है। वैसे जिन बैंकों के कर्ज डूबे हैं, उनमें से ज्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के ही हैं, यानी एक तरह से यह जनता का पैसा ही है। जिनका पैसा डूब रहा है, आप उन्हें ही जानकारी न दें, यह नैतिक रूप से भी गलत है। रिजर्व बैंक की उन नीतियों को, जो इसे रोकती हों, किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
सूचना के अधिकार कानून को लागू हुए 14 साल हो चुके हैं, मगर दिक्कत यह है कि देश की बहुत सी सार्वजनिक संस्थाएं अभी तक इसकी भावना को आत्मसात नहीं कर सकी हैं। इस कानून से उम्मीद थी कि वह संस्थाओं और सरकारों को पारदर्शी बनने के लिए बाध्य करेगा, लेकिन जानकारी छिपाने की उनकी पुरानी आदत अभी भी छूटी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उम्मीद है कि रिजर्व बैंक ही नहीं, सभी सार्वजनिक संस्थाएं और सरकारी विभाग इससे सबक लेंगे।
Date:27-04-19
संकट और साख
संपादकीय
भारत की न्यायपालिका गंभीर संकट में है। यह संकट उसकी साख और विश्वसनीयता को लेकर उठा है। मामला ज्यादा चिंताजनक इसलिए है कि देश के आम नागरिक से लेकर खास, अमीर-गरीब और सत्ता प्रतिष्ठान, सबके लिए न्याय की अंतिम आस सुप्रीम कोर्ट से रहती है। यहां से जो विधि-सम्मत न्याय मिलता है, वही अंतिम माना जाता है और संदेह से परे होता है। इसलिए अगर न्याय के इस मंदिर के बारे में ऐसी बातें सुनाई देने लगें जो आमजन के भीतर इसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा करने वाली हों, छवि को धूमिल करने वाली हों और न्याय करने वाले माननीय न्यायाधीश गंभीर आरोपों में घिरने में लगें, तो लोकतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ के लिए इससे ज्यादा बुरा कुछ नहीं हो सकता। चिंता की यही ध्वनियां माननीय न्यायाधीशों की ओर से आ रही हैं। इसीलिए अदालत को उन लोगों को चेताने को मजबूर होना पड़ा है जो सर्वोच्च न्यायपालिका को बदनाम करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। पिछले हफ्ते देश के प्रधान न्यायाधीश पर सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी ने अमर्यादित आचरण करने का आरोप लगा कर सबको सकते में डाल दिया था। इस आरोप की जांच तीन जजों की एक कमेटी कर रही है।
लेकिन प्रधान न्यायाधीश पर ऐसे आरोप के बाद जिस तरह के घटनाक्रम बने और बातें सामने आईं, वे कहीं ज्यादा चिंताजनक और हैरान करने वाली हैं। एक वकील के इस दावे से कि प्रधान न्यायाधीश पर लगे आरोप के पीछे बड़ी साजिश और फिक्सर कॉरपोरेट लॉबी काम कर रही है, सब सन्न रह गए। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस वकील के आरोपों और दावों की जांच के लिए तत्काल सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश एके पटनायक को इसकी जांच सौंप दी। साथ ही सर्वोच्च अदालत ने सीबीआइ, खुफिया ब्यूरो (आइबी) और दिल्ली पुलिस के प्रमुख को इस जांच में न्यायमूर्ति पटनायक के साथ मदद करने को कहा गया है। साख को बचाने के लिए न्यायपालिका को आरोपों की तह तक जाना जरूरी है ताकि सच्चाई सामने आ सके और साजिश करने वालों का पर्दाफाश हो सके। प्रधान न्यायाधीश पर लगे आरोपों से ज्यादा कहीं गंभीर बात तो यह है कि न्याय के इस पवित्र और सर्वोच्च संस्थान को बाहर से नियंत्रित करने के प्रयासों की बातें सामने आ रही हैं। जांच में भले ऐसे आरोप बेबुनियाद निकलें, लेकिन तत्काल देश की जनता के भीतर न्यायपालिका को लेकर जो संदेह पैदा हुए होंगे, उन्हें आसानी से दूर नहीं किया जा सकता।
अपने ऊपर आरोप लगने के बाद प्रधान न्यायाधीश ने साफ कहा था कि वे कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करने वाले हैं और इस तरह के आरोप उन पर दबाव बनाने के लिए लगाए गए हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले ऐसे मामले पहले भी सामने आए हैं जब न्यायाधीशों को भारी दबाव का सामना करना पड़ा है, लेकिन वे इन दबावों के आगे झुके नहीं। पिछले साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने सार्वजनिक रूप से प्रधान न्यायाधीश पर जो आरोप लगाए थे, उनमें एक बड़ा आरोप रोस्टर को लेकर था। तब प्रधान न्यायाधीश पर कुछ खास मुकदमों को अपने पास रखने और परंपरा के विपरीत काम करने का आरोप लगा था। हालांकि अभी तक इन आरोपों की सच्चाई सामने नहीं आई है। इसलिए अगर अब फिर से ऐसे आरोप लग रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट में फिक्सरों की भूमिका है, तो इससे न्यायपालिका के प्रति अविश्वास पैदा होगा। कुछ महीनों पहले सीबीआइ में जिस तरह का घमासान मचा, उससे जांच एजेंसी की साख को भारी बट्टा लगा। अगर न्यायपालिका और जांच एजेंसियों की आजादी पर इस तरह से हमले होंगे और इनकी विश्वसनीयता को लेकर लोगों के मन में शक पैदा किया जाएगा तो ये संस्थान कैसे बचेंगे और लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाएंगे !
Date:27-04-19
Gender Benders
Induction of women as jawans is a small, big step towards full parity between men and women in the Indian Army.
Editorials
The Indian Army has taken a small — and long overdue — step on the road to gender equity by deciding to induct women soldiers in the military police. Till now, women had been allowed in select corps of the army such as medical, legal and engineering as officers. The military police are tasked with maintaining order in army establishments and cantonments, handling prisoners of war, among other duties. With 1,700 women inducted in the corps, the tiny proportion of women in the army — less than four per cent — might not get a substantial boost. But in a country where the number of women in the workforce has plunged alarmingly in recent years, this is at least one door of opportunity yanked open.
That’s still short, however, of what a progressive armed force in 2019 should aim for — full parity between men and women, including in combat roles. Armies of Israel, America, Australia, Denmark, among others, are already there, having pitchforked women soldiers into the frontline and found them as capable as men. In India, the debate over the role of women has often tripped on cultural vetoes, which are often nothing but patriarchal squeamishness in disguise. There is the argument made that the rank and file of Indian men, often drawn from conservative social pools, will refuse to fight side by side with women. That is simply imagining an element of wilfulness in Indian soldiers that does no credit to a disciplined force like the army. Quibbles about biology or the imagined impediment of parenthood are too antiquarian to be admitted in 2019. Societies and their inherent structures do shape institutions; but the converse is equally true. Hard, progressive decisions also have the power to bend institutions towards equity. The Indian Army, with its rich, varied history and diverse composition, is up to such challenges. The logic of this decision, therefore, must be followed through — and not get tangled in the usual tokenism. A roadmap to induct women across the board, across roles and ranks in the Indian army, must be drawn up — with definite deadlines.
Valour, heroism and honour are aspirations that have driven human imagination through the ages. But the thrill and pride of war has been exclusively a man’s domain — though enough women warriors have turned up in history to contest that logic. The young Indian woman, vested with the uniform, too, is ready to claim that full range of human potential, whether it is the responsibility of violence or the code of the soldier’s life. True, the internal structures of the Army might rumble and resist the change. But that’s a battle well worth fighting.