29-01-2025 (Important News Clippings)

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29 Jan 2025
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Date: 29-01-25

Learn to Catch Up On the Digital Lag

ET Editorials

A comprehensive, citizen-driven national report on India’s primary education system provides a vital perspective on how effectively taxpayer money is being utilised to educate and empower Gen Next — and building the foundation for a resilient economy. On Tuesday, Pratham released its Annual Status of Education Report (ASER) 2024, just days before the budget. It highlights areas where government priorities should focus. ASER’s central takeaway is clear: demand for education is immense.

NEP 2020 calls for universal early childhood education and quality care for children from birth to 6 years. ASER data shows over 80% of rural children aged 3-4 are enrolled in preprimary institutions. At the elementary level (ages 6-14), enrolment and foundational skills in reading and arithmetic have improved across all grades compared to 2022. Basic school infrastructure has expanded, and NIPUN (National Initiative for Proficiency in Reading with Understanding and Numeracy) Bharat now covers most schools. Encouragingly, government school students in classes 1-8 have surpassed pre-pandemic levels in reading and maths skills, underscoring the importance of sustained state investment.

For the first time, ASER included a section on digital literacy among 14-16-yr-olds. Here, a critical gap is revealed: gender disparities in access to smartphones and digital skills. Addressing this gap is urgent in a world where digital literacy is as essential as foundational education. Without timely intervention, these disparities will widen, undermining efforts to equip all students for the digital age. Proper budgeting and targeted policies are crucial to ensure digital skills receive the attention they deserve, fostering an equitable, well-rounded education system.


Date: 29-01-25

A question of hygiene

The GBS outbreak in Pune reveals the fragility of its urban systems

Editorial

At the heart of the current Guillain-Barré Syndrome (GBS) outbreak in Pune, where over 100 cases of suspected GBS have been recorded, is a bacterial infection. A health investigation has revealed Campylobacter jejuni, a bacteria found in contaminated food and water, to be behind the first cluster of cases. In almost all the patients, recent case history has shown episodes of gastroenteritis, vomiting, diarrhoea and nausea before the onset of the characteristic peripheral numbing of GBS, leading to paralysis. One case of death due to suspected GBS has also been recorded — of a patient who had visited Pune. This outbreak reveals the fragility of the scaffolding that urban systems in India are built on, with pathogens managing to breach all safety nets that humans have built for themselves, to emerge through and cause havoc. Any slip up in maintenance or in surveillance, clearly leads to discomfort, ill health and debility for a large number of people. GBS is a rare, autoimmune neurological disorder, in which a person’s immune system launches an attack on the peripheral nervous system, leading to tingling, weakening of muscles, numbing and paralysis in the arms and legs, not unlike in the acute flaccid paralysis of polio. It can be caused by viral or bacterial pre-infections, as per the World Health Organization (WHO). Globally, it is estimated that GBS has an incidence of 1-2 per 1,00,000 population, and is more predominant among adult males. While India-specific large epidemiological studies on GBS are lacking, as testing for GBS in a resource-poor setting is difficult, according to a WHO report (1993), it was estimated that 138 cases of GBS were seen annually in seven major teaching hospitals, with approximately 75% of cases occurring in adults. While studies across the world have shown numbers to rise in seasons of weather change, it is possible that this is India’s largest outbreak in recorded history.

Patients are treated with plasma exchange or intravenous immunoglobulin therapy, and most recover. However, these treatments are most effective if started within two weeks of the first symptoms, making early detection and initiation of treatment absolutely crucial. Rapid response teams in Pune are in place, collecting water samples and mounting surveillance on the community, and a central team has also been rushed to affected areas. It is key to ensure that all measures are in place to pick up patients, and initiate treatment as soon as possible. It is the duty of the local and State governance to provide clean drinking water to all residents and ensure that adequate social messaging is provided periodically on avoiding contaminated, unhygienic food.


Date: 29-01-25

चीन ने एआई में अमेरिका की चुनौती का जवाब दिया

संपादकीय

चीन ने एक नए और बेहद सस्ते एआई लैंग्वेज मॉडल ‘डीपसीक- आर 1’ को बाजार में उतारकर दुनिया में हलचल मचा दी है। सोमवार की रात इस खबर के बाद एआई की दुनिया के बेताज बादशाह एनवीडिया का शेयर जमीन आ गया और महंगे चैट-जीपीटी, गूगल- जैमिनी और अन्य यूरोपीय प्रयासों के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लग गया। करीब दो साल पहले जब अमेरिका की एक जानी-मानी एआई कंपनी के संस्थापक से चीन के प्रयासों को लेकर पूछा गया तो उनका जवाब था कि ‘कोई भूलकर भी यह कोशिश करेगा तो नाकामयाबी हाथ लगेगी!’ वे भूल गए कि उनके इस कथन के एक साल पहले ही चीन एआई-आधारित क्वांटम कंप्यूटिंग शोध पर 15.3 अरब डॉलर खर्च करने का ऐलान किया था, जो अमेरिका के इस मद में व्यय का पांच गुना और पूरे यूरोप के खर्च का दो गुना था। चीन के तकनीकी कौशल को लेकर अमेरिकी उद्यमी हिकारत का भाव रखते हैं। ‘डीपसीक- आर 1’ इसी अहंकार का जवाब था, जिसने वॉलस्ट्रीट को धराशायी कर दिया। मार्केट सेंटिमेंट गिरने का कारण था इस नए मॉडल का अमेरिकी मॉडल के मुकाबले मात्र 3 प्रतिशत मूल्य होना । अब अमेरिका पूरी दुनिया इसे डाउनलोड कर रही है। अमेरिका ने सेमीकंडक्टर बेचे जाने वाले देशों की लिस्ट में चीन को नहीं रखा था, चीन ने इसे चुनौती के रूप में लिया। देखें अब इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है।


Date: 29-01-25

पतन की ओर पश्चिमी सभ्यता

शंकर शरण, ( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

डेढ़ वर्ष पहले इजरायल पर ‘हरकत अल-मुकवामातुल इस्लामिया’ यानी हमास का हमला युद्ध की तरह लंबा चलता रहा। यूरोपीय शक्तियां इसमें निष्क्रिय या निष्प्रभावी रहीं। यह बदलते हालात का संकेत है। छह दशक पहले चार अरब देशों ने इजरायल पर चढ़ाई की थी और चारों को एक सप्ताह में मुंह की खानी पड़ी थी। अब स्थिति यह है कि कोई देश नहीं, बल्कि औपचारिक सत्ता से विहीन एक इस्लामी संगठन ने इजरायल को त्रस्त कर दिया। अभी भी युद्धविराम हुआ, कोई जीत-हार नहीं हुई, जबकि इन दशकों में युद्ध तकनीक में परिष्कार हुआ है। यह घटनाक्रम इस्लामी राजनीति के समक्ष यूरोप-पश्चिम के पिछड़ने और अंततः गिरने की आशंका को दर्शाता है। महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने 50 वर्ष पहले ही पश्चिम की मानसिक नैतिक स्थिति को आश्चर्यजनक रूप से दुर्बल होता पाया था। उन्होंने अनुभव किया कि जिन मूल्यों और चेतना से आधुनिक यूरोप महान बना, उससे वह दूर हो चुका है। अब मात्र भौतिक सुख-सुविधा मुख्य प्रेरणा बन रही है। ऐसा समाज किसी विकट चुनौती के सामने घुटने टेकने को तैयार रहेगा। समय ने उन्हें अक्षरशः सही ठहराया। दो दशक पहले इतालवी-अमेरिकी पत्रकार ओरियाना फलासी ने ‘रेज एंड प्राइड’ तथा ‘फोर्स आफ रीजन’ जैसी पुस्तकों में अपने लंबे अनुभव से लिखा था कि यूरोप मर रहा है। उसने अरब तेल के सामने अपनी प्रतिष्ठा ‘बेच दी’ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुका है। फलत: वहां बाहरी-अंदरूनी, दोनों रूपों में इस्लामी दबदबा बढ़ रहा है। हाल में अमेरिकी विद्वान बिल वार्नर और रिचर्ड बेंकिन ने यूरोप-अमेरिका तथा बांग्लादेश-भारत के घटनाक्रमों के लंबे शोध से वही पाया।

जिहाद इतिहासकार राबर्ट स्पेंसर के अनुसार अधिकांश यूरोपीय देशों का पतन होगा, जहां-तहां छिटपुट प्रतिरोध होते रहेंगे। अभी स्पेनिश लेखक अलवारो पेनास ने लिखा है कि इजरायल के अंततः विनाश की आशंका वास्तविक है। इसके प्रति यूरोपीय और अमेरिकी राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग उदासीन सा है। उसे यह भी समझ नहीं रह गई कि इजरायल के बाद अगला नंबर उसका ही होगा। यही स्थिति बांग्लादेश में हिंदुओं के क्रमशः विनाश के प्रति भारतीय राजनीतिक वर्ग की है। वह मामूली तथ्य देखने में असमर्थ है। इसकी चेतावनी वर्षों पहले बेंकिन ने अपनी शोध पुस्तक ‘ए क्वाइट केस आफ एथनिक क्लींजिंग’ में दी थी। उनका कहना था कि बांग्लादेश में हिंदुओं के विनाश का अगला चरण भारत में हिंदुओं तथा यूरोप में क्रिश्चियनों का पराभव होगा। अनेक मुस्लिम नेता और लेखक भी अलग-अलग भाव से यह कहते रहे हैं। उन चिंताओं, चेतावनियों, दावों का कभी तथ्यपरक खंडन नहीं हुआ। उन बातों को ‘अतिवादी’ कहकर अनसुना कर दिया जाता है। यदि कोई ध्यान दिलाए तो अधिकांश बौद्धिक हंस देते हैं कि वैसा भी संभव है भला, पर वे किसी तथ्य, आंकड़े, विवरण, उससे निकलते निष्कर्ष का कोई उत्तर नहीं देते।

श्रीअरविंद ने 1940 में ही कहा था कि यदि मुस्लिम मांगें मान ली गईं तो कश्मीर से हिंदुओं का सफाया हो जाएगा। उस समय भी हमारे तमाम प्रभावी नेताओं-बौद्धिकों ने उसे अनर्गल समझा था। कड़वी सच्चाइयों से मुंह फेरकर केवल अपनी ही काल्पनिक दलील के सहारे, तात्कालिक आरामदेह स्थिति में बने रहना ही यूरोपीय या भारतीय राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग का तरीका रहा है। इजरायल, बांग्लादेश या भारत में भी कश्मीर, बंगाल आदि इलाके वास्तविक स्थिति स्पष्ट दिखा रहे हैं, पर उसका औपचारिक, मौखिक प्रतिकार भी करने से राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग मुंह चुराता है। उलटे एक वोक किस्म का बौद्धिक वर्ग सदैव उत्पीड़ितों को ही दोषी ठहराने और उत्पीड़कों को आड़ देने में लगा रहता है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों और सामाजिक संगठनों पर वोक दबाव भी उसी का संकेत है। गत वर्ष अमेरिका के ओरेगन में एक आदेश जारी हुआ कि हाईस्कूल उत्तीर्ण होने के लिए ठीक-ठीक पढ़ सकने या सामान्य गणित का जोड़-घटाव करने की क्षमता अब आवश्यक नहीं। वोक बौद्धिक गणित, इतिहास, दर्शन, क्लासिक साहित्य आदि कितने ही ज्ञान-विषयों के विरुद्ध हैं। वे इन विषयों को ‘नस्लवादी’ मानते हैं। वे जिहाद जैसी वैश्विक परिघटना नहीं देखते। फलत: हमास के बदले इजरायल को दुष्ट कहते हैं। इसी क्रम में अमेरिकी और भारतीय सरकारों को दोषी मानते हैं। सच्चाई बताने वाले लेखकों, पत्रकारों को नस्लवादी, घृणा फैलाने वाले आदि कहकर अपमानित करते हैं। सज्जन मुस्लिमों का उदाहरण दिखाकर वे किसी जिहाद के अस्तित्व से ही इनकार करते हैं। उलटे इजरायल को नष्ट कर देने की चाह रखने वाले इस्लामी संगठनों का समर्थन करते या मौन रहते हैं। पश्चिमी बौद्धिकता और प्रभावी मीडिया में इसी समझ का अधिक प्रभाव है। कहीं भी वैश्विक जिहाद का खास नोटिस नहीं लिया जाता, सिवा इस रूप में कि इस बहाने निर्दोष मुसलमान परेशान किए जाते हैं। जिहादी हमलों ने मात्र पिछले साठ वर्षों में ही दुनिया भर में लाखों गैर-मुस्लिमों का संहार किया और इस कार्य में बाधक लगते मुसलमानों को भी मारा, मगर यह तथ्य मुख्यधारा के मीडिया एवं शिक्षण-विमर्श में लुप्त है। इतिहास, राजनीतिशास्त्र या साहित्य के शिक्षण में जिहाद पूरी तरह गायब है। ऐसी स्थिति में नई पीढ़ियां वास्तविकता से परिचित न हों तो भला क्या आश्चर्य!

पश्चिमी सभ्यता का अग्रणी बौद्धिक राजनीतिक वर्ग असुविधाजनक स्थितियों से शुतुरमुर्ग की तरह बचकर सब कुछ सामान्य देखना चाहता है। भारतीय नेता-बौद्धिक तो प्रायः पश्चिम के अंध-अनुयायी ही रहे हैं। सो दुखद सच के बदले सुखद झूठ को महत्व देते हैं। भविष्य का परिणाम पहले से सुनिश्चित नहीं होता। कोई भी अभी लघु दिखता तत्व कभी आगे बढ़कर निर्णायक हो सकता है या कोई आकस्मिक नया तत्व सारे अनुमानों को उलटफेर सकता है, किंतु दशकों से विभिन्न क्षेत्रों में विविध संकेतक क्या इंगित कर रहे हैं? राजनीतिक-कूटनीतिक या शैक्षिक-बौद्धिक या जनसांख्यिकी में सभी तथ्य आकलन के लिए सामने हैं।


Date: 29-01-25

प्रबंधन की पाठशाला बना महाकुम्भ

प्रशांत कुमार, ( लेखक उप्र पुलिस के महानिदेशक हैं )

महाकुंभ में अब तक 12 करोड़ श्रद्धालु डुबकी लगा चुके हैं। आस्था के इस महासागर का फैलाव बढ़ता जा रहा है। अनुमान है कि मौनी अमावस्या पर 10 करोड़ से अधिक श्रद्धालु स्नान लाभ प्राप्त करेंगे। एक स्थान पर एक समय में इतने विशाल जनसमुद्र की सुरक्षा उत्तर प्रदेश पुलिस के समक्ष हिमालय जैसी चुनौती है। हमारी सुगठित, सुव्यवस्थित और कुशल पुलिस इस चुनौती से सहजता से पार पा रही है। युद्ध और अस्थिरता के भय से जूझती दुनिया के लिए इस विराट मानवता के महोत्सव का सुरक्षित परिवेश और उत्कृष्ट प्रबंधन किसी चमत्कार से कम नहीं है। यह उत्तर प्रदेश पुलिस की असाधारण कार्यक्षमता और अटूट प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं की सेवा, सुरक्षा और सुविधा की सुनिश्चितता एक बड़ी चुनौती थी, किंतु मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कुशल नेतृत्व में उत्तर प्रदेश पुलिस इस चुनौती के सम्मुख ‘चैंपियन’ बनकर उभरी है। महाकुंभ में क्राउड मैनेजमेंट, ट्रैफिक कंट्रोल, आपदा प्रबंधन, सिक्योरिटी आपरेशंस और पब्लिक बिहेवियर मैनेजमेंट जैसे विभिन्न मोर्चों पर पुलिस ने अपनी दक्षता और उत्कृष्ट कार्यशैली का परिचय दिया है। यही कारण है कि देश-विदेश के प्रमुख संस्थान और विश्वविद्यालय महाकुंभ के प्रबंधन को अध्ययन का विषय बना रहे हैं। महाकुंभ दुनिया के लिए प्रबंधन की सबसे विशाल और जीवंत पाठशाला बन गया है।

विश्व के सबसे विराट मानव समागम के सुरक्षित आयोजन के माध्यम से देश और दुनिया पुनः सुरक्षित, सुव्यवस्थित और सहयोगी उत्तर प्रदेश के सामर्थ्य से परिचित हो रही है। प्रयागराज महाकुंभ के मनोहारी, आधुनिक और नव-डिजिटल स्वरूप से समूचा विश्व आश्चर्यचकित है। विश्वस्तरीय आधुनिकतम तकनीक, उत्कृष्ट संसाधन, दक्ष मानव संपदा, कार्यक्रम केंद्रित विशेष रणनीति द्वारा प्रत्येक प्रकार की आकस्मिक और आपदा की अप्रिय स्थिति से निपटने की यहां पूरी तैयारी है। 10 जोन एवं 25 सेक्टर में बंटे मेला क्षेत्र में 56 थाने, 155 चौकियां, तीन पुलिस लाइन बनाई गई हैं। करीब 44,000 सिविल पुलिस, क्यूआरटी और अन्य विशेष सुरक्षा बलों की तैनाती की गई है। यहां 2751 से अधिक सीसीटीवी कैमरों, 22 वायरलेस ग्रिड, 233 वीएमडी के द्वारा संपूर्ण क्षेत्र की निगरानी की जा रही है। मेला क्षेत्र में 4,500 सामरिक ड्यूटी प्वाइंट्स चिह्नित किए गए हैं, जिनकी जिओ मैपिंग की गई है। 50 फायर स्टेशन, 20 चौकियां एवं 50 वाच टावर की स्थापना तथा प्रत्येक 60 मीटर पर करीब 7000 फायर हाइड्रेंट लगे होने से मेला क्षेत्र फायर प्रूफ बन गया है। जलीय सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान है। रिवर सेफ्टी हेतु जल पुलिस के तीन थानों में अत्याधुनिक कंट्रोल रूम स्थापित कर किसी भी इमरजेंसी हेतु वाटर एंबुलेंस की व्यवस्था की गई है। 31 बाढ़ राहत टीमें तैनात हैं। नावों के अपनी-अपनी लेन में आवागमन के लिए चार किमी की फ्लोटिंग रिवर लाइन बनाई गई है। ड्रोन से निगरानी और निरंतर रिवर पेट्रोलिंग हो रही है।

एआइ से लैस हजारों कैमरों से क्राउड मानिटरिंग, क्राउड डेंसिटी एनालिसिस, इंसीडेंट रिपोर्टिंग के साथ ही स्वच्छता एवं सुरक्षा के दृष्टिगत निगरानी की जा रही है। पुलिस, प्रशासन, सेना, सीएपीएफ, एटीएस, पीएसी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, एनएसजी समेत अनेक सुरक्षा इकाइयों के मध्य सुंदर समन्वय से महाकुंभ नगर का जल, थल, नभ अभेद्य दुर्ग बन गया है। यही कारण है कि आवागमन से आराधना तक, श्रद्धालु से सैलानी तक, स्नान से साधना तक, धर्माचार्यों से गृहस्थों तक, व्यापारियों से वैरागियों तक सभी सेवा और सुरक्षा की सुखद अनुभूति से अभिसिंचित हैं। महाकुंभ में अनुमानतः 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आगमन का अनुमान है। यह संख्या दक्षिण अमेरिका महाद्वीप की कुल आबादी से भी ज्यादा है। ऐसे में विश्व के अनेक देशों की जनसंख्या से भी अधिक व्यक्तियों के एक स्थान पर समागम में किसी व्यक्ति ने अपने साथ पुलिस कार्मिकों द्वारा दुर्व्यवहार की कोई भी शिकायत नहीं की है, जो ‘मित्र पुलिस’ का जीवंत एवं उत्कृष्ट उदाहरण है। इसके लिए महाकुंभ के आरंभ से पूर्व ही विगत महाकुंभों में सेवाएं दे चुके वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तथा देश की सर्वोच्च विशेषज्ञ संस्थाओं द्वारा साफ्ट स्किल्स पर पुलिस कर्मियों को प्रशिक्षण दिलाया गया था। जिस प्रकार महाकुंभ में सभी श्रद्धालु जाति, पंथ, मत, मतांतर को विस्मृत कर एकता, समता, समरसता की त्रिवेणी में स्नान कर ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की अनुभूति कराते हैं, वैसे ही यूपी पुलिस के सभी कर्मनिष्ठ कार्मिक भारतीयता के ‘विचार-सिंधु’ में गोते लगाकर ‘राष्ट्र प्रथम’ भाव को जीवंत स्वरूप प्रदान करते हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस उस भारत की आत्मा का प्रतिबिंब है, जो एकता, सहिष्णुता, समर्पण तथा कर्तव्यनिष्ठा के स्तंभों पर खड़ा है।

महाकुंभ का सफल आयोजन भारतीयता की विजय है। यह एक बड़ी सीख है कि पवित्र कार्य में बिना किसी निमंत्रण के भी सहभागी बनना चाहिए, जैसे असंख्य लोग महाकुंभ में बनते हैं। यह उद्घोष है कि हम अपनी आध्यात्मिक-सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने के साथ-साथ तकनीक और प्रबंधन के माध्यम से विश्व को नेतृत्व भी प्रदान कर सकते हैं। ऐसे अनेक अमृत विचारों से संवाद के लिए, सनातन संस्कृति की बहुआयामी छटा की दिव्य अनुभूति के लिए, एकात्मता के महासिंधु में डुबकी लगाने के लिए महाकुंभ अवश्य पधारिए।


Date: 29-01-25

डीपसीक और एआई में क्रांति

संपादकीय

चीन की आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) कंपनी डीपसीक ने दो एआई प्रोग्राम और चैटबॉट पेश किए हैं। कंपनी के इस कदम ने तकनीक के बाजार में उथलपुथल मचा दी है। डीपसीक ने अपने कुछ मॉडलों की ईजाद के साथ ही बड़े मुकाम हासिल किए हैं। कंपनी ने इन्हें तैयार करने के लिए करीब 56 लाख डॉलर खर्च किए हैं। चैटजीपीटी, लामा, ग्रोक, क्लाउड और दूसरे बड़े लैंग्वेज मॉडल तैयार करने में खर्च हुए करोडों डॉलर की तुलना में यह रकम कुछ भी नहीं है। मगर नए एआई का प्रदर्शन इन सभी उत्पादों को टक्कर दे रहा है। दिलचस्प है कि इसे बेहद सस्ते चिप के साथ तैयार किया गया है, जिसकी कीमत चैटजीपीटी बनाने में इस्तेमाल हुए ग्राफिक प्रोसेसिंग यूनिट (जीपीयू) से बहुत कम है। दावा किया जा रहा है कंपनी ने इसके प्रशिक्षण में केवल 2,000 जीपीयू का इस्तेमाल किया था, जो चैटजीपीटी में इस्तेमाल हुए जीपीयू की तुलना में बहुत कम हैं।

कंपनी का यह प्रोग्राम आसानी से उपलब्ध ऐप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस वाला ओपन सोर्स कोड है। इसे कोई भी जांच या बदल सकता है और कोई भी प्रोग्रामर इसकी मदद से ऐप्लिकेशन तैयार कर सकता है। इसे ऑफ द शेल्फ यानी पहले से तैयार कंप्यूटरों पर इंस्टॉल करना और चलाना भी संभव है। बड़े हाइपर स्केलिंग डेटा सेंटर में तो इसे बेहद आसानी से चलाया जा सकता है। ओपनएआई, गूगल, मेटा और दूसरी एआई तैयार करने वाली कंपनियां डीपसीक के कुछ विचार जरूर अपना सकती हैं ताकि अगली पीढ़ी के जेनरेटिव एआई मॉडल बेहतर हो सकें। कोड से पता चलता है कि डीपसीक ने ज्यादा कारगर मेमरी मैनेजमेंट सिस्टम तैयार कर लिया है। इससे डीपसीक के लिए कम ताकतवर हार्डवेयर पर प्रशिक्षण और काम के बाद भी अपने प्रतिद्वंद्वियों की टक्कर का प्रदर्शन करना संभव हो जाता है।

संसाधनों की कमी के बीच कम लागत वाला रास्ता निकालने का यह बेजोड़ उदाहरण है। अमेरिका ने चीन को उच्च क्षमता वाले जीपीयू का निर्यात बंद कर दिया, जिससे मजबूरी ने डीपसीक ने यह ईजाद कर डाली। ऐसे में डीपसीक की यह उपलब्धि अमेरिकी संरक्षणवाद और उन्नत कंप्यूटिंग संसाधन साझा करने से उसके इनकार पर सवाल खड़ा कर देती है। इसकी वजह से नवाचार का ऐसा सफर शुरू हुआ, जो कम संसाधनों के साथ भी दमदार प्रदर्शन की राह तैयार कर सकता है। ओपन सोर्स अपनाकर और एआई आसानी से उपलब्ध कराकर कंपनी ने अल्गोरिद्म के प्रसार का रास्ता भी साफ कर दिया है। दुनिया भर में प्रोग्राम तैयार करने वाले लोग उन ऐप्लिकेशन की खोज में जुट गए हैं, जो इन मॉडलों का इस्तेमाल करेंगे। लागत कम होने के कारण इससे एआई के लिए होने वाले शोध एवं विकास में भी निवेश बढ़ेगा।

फिलहाल एआई में अमेरिका की तूती बोलती है लेकिन दूसरों को संसाधन नहीं देने की रणनीति पर उसे अब दोबारा विचार करना पड़ेगा। ओपन सोर्स कोड के जरिये नई तकनीक आने से सिलिकन वैली से ज्यादा ताकतवर जेनरेटिव एआई मॉडल बार आएंगे मगर उन्हें दूसरी जगह बन रहे मॉडलों से कड़ी टक्कर भी मिलेगी।

आर्थिक लिहाज से डीपसीक ने पूरे बाजार में तहलका मचा दिया है। एआई तकनीक में खासा दखल रखने वाली कंपनी एनवीडिया का शेयर पिछले कुछ दिनों में ऐसा लुढ़का है कि उसका बाजार मूल्यांकन 20 फीसदी कम हो गया। अन्य सूचीबद्ध कंपनियों कंपनियों और स्टार्टअप इकाइयों के मूल्यांकन में भी आई कमी आई है। भारतीय इंजीनियर इस तरह की चीजों के लिए अधिक तैयार रहते हैं बस उन्हें केवल प्रोत्साहन की जरूरत है। भारत में एआई से जुड़ी योजनाओं को बढ़ावा दिया गया तो देश में तकनीक की गति बढ़ेगी। देश में डेटा केंद्रों का विकास भी तेजी से हुआ है और मजबूत डिजिटल ढांचे की मदद से यहां का बाजार डीपसीक द्वारा तैयार तकनीकों के विकास के लिए पूरी तरह तैयार दिख रही है। ऐसे में भारत इन नए प्रयोगों के लिए माकूल स्थान बन सकता है।


Date: 29-01-25

कृषि उपज की वाजिब कीमत का सवाल

रिपुदमन सिंह

किसान लंबे समय से फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी गारंटी की मांग उठा रहे हैं। इसे लेकर उभरा किसान आंदोलन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा ने शंभू सीमा से दिल्ली के लिए किसानों का पैदल कूच करने का फैसला स्थगित कर दिया है। केंद्र सरकार की ओर से बैठक का प्रस्ताव आने के बाद जगजीत सिंह डल्लेवाल ने चिकित्सीय सहायता लेना भी स्वीकार कर लिया। अपनी मांगों को लेकर आमरण अनशन पर बैठे किसान नेता डल्लेवाल का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिर रहा था। इसलिए सरकार ने किसानों के साथ वार्ता करने का प्रस्ताव रखा, जिसे किसानों ने खुले मन से स्वीकार कर लिया। सन 2020 में केंद्र की भाजपा सरकार ने तीन कृषि कानून लागू करने की घोषणा की थी। सरकार ने कई मंचों पर उन कृषि कानूनों के फायदे भी गिनाए थे। उसके बावजूद किसान लगातार आंदोलन पर डटे रहे और आखिरकार सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े।

कृषि उत्पादन व्यापार एवं वाणिज्य कानून के अनुसार किसान मनचाही जगह पर अपनी फसल बेच सकते थे। कोई भी अधिकृत व्यापारी किसानों से तयशुदा कीमत पर फसल खरीद सकता था। सरकार ने कृषि उत्पादकों के इस व्यापार को राज्यों द्वारा लगाए गए मंडी कर से भी मुक्त कर दिया था। इस किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा कानून द्वारा किसानों से अनुबंध खेती करने और अपनी फसल को स्वतंत्र रूप से बेचने का प्रावधान किया गया था। इसके अलावा, किसान की फसल मौसम या किसी अन्य कारण से नष्ट होने पर उसके नुकसान की भरपाई करने की जिम्मेदारी, करार करने वाली फर्म द्वारा ली जानी थी।

मगर किसानों को ये तर्क उचित नहीं लगे, उन्हें लगा कि नए कानूनों द्वारा अनुबंध करने वाली कंपनियां उनकी जमीन हथिया लेंगी तथा सरकार एमएसपी को धीरे-धीरे दरकिनार करके उद्योगपतियों के पक्ष में खड़ी हो जाएगी। पर वास्तव में सरकार नए कृषि कानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में नए निवेश के लिए दरवाजे खोलना चाहती थी, ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके। किसान विगत कई वर्षों से मानसून की अनियमितता, कम पैदावार, अस्थिर बाजार और संसाधनों की कमी की मार झेल रहे हैं। इसी दुश्वारी के चलते अनेक किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होते आए हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1955 से 2022 तक 2,06,485 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। नाबार्ड बैंक के अनुसार देश के किसानों पर 21 लाख करोड़ रुपए का कर्जा है। इन्हीं समस्याओं के चलते किसान संगठनों ने 2020 में बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया था। किसानों की प्रमुख मांग एमएसपी की कानूनी गारंटी देने की है। उनका मानना है कि प्रधानमंत्री की फसल बीमा और उर्वरकों पर सबसिडी जारी रखने की नए साल पर घोषणा एमएसपी को दरकिनार करती है। इसके अलावा, सरकार द्वारा हाल ही में जारी किए गए ‘अगले वर्षों के लिए कृषि विपणन की राष्ट्रीय रूपरेखा’ के मसविदे में एमएसपी का जिक्र तक नहीं है।

गौरतलब है कि सरकार हर वर्ष तेईस फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है। पर उपज का मूल्य एमएसपी में घोषित मूल्य के नीचे जाने पर उक्त फसल को एमएसपी पर खरीदने की सरकारी योजना प्रभावी साबित नहीं हो रही है। इसलिए किसान अपनी उपज को घाटे में बेचने पर मजबूर होते हैं। इस तरह एमएसपी में निहित न्यूनतम और समर्थन मूल्यों का कोई मतलब नहीं रह जाता है, यानी एमएसपी की कोई कानूनी गारंटी नहीं रहती। दरअसल, एमएसपी को महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादों के मूल्य को स्थिर रखने के लिए बनाया गया था। इसका आशय कृषि उत्पादों के मूल्यों को उतार-चढ़ाव से संरक्षित करना है। पर सरकार को लगता है कि अगर एमएसपी को कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया जाएगा, तो उसे प्रत्येक कृषि उत्पाद को एमएसपी में घोषित मूल्य पर क्रय करना होगा, जो सरकार के लिए संभव नहीं है। कानूनी रूप से बाध्यकारी एमएसपी का मूल सिद्धांत बहुत सरल है। किसानों को अपनी उपज का उचित/ वैधानिक मूल्य प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। इसलिए राज्य का यह दायित्व है कि किसानों को उनकी फसल का वैधानिक मूल्य प्राप्त हो, न कि किसानों की उपज को खरीदना, इसी प्रकार किसानों का अधिकार अपनी उपज का वैधानिक मूल्य प्राप्त करना है, चाहे वह इस मूल्य को किसी से प्राप्त करें।

अब समय आ गया है कि किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी देने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। एमएसपी लागू करने के लिए मुख्य रूप से तीन सुझाव हैं- विस्तारित खरीद, प्रभावी बाजार हस्तक्षेप तथा सुनिश्चित घाटा भुगतान। सर्वप्रथम हमें विक्रय के संचालन को विस्तारित और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में दालों, तिलहनों की अधिक खरीद करने की आवश्यकता है, क्योंकि इनका उचित मूल्य प्राप्त न होने के कारण किसान इन फसलों के उत्पाद को लगातार कम करता जा रहा है तथा इन उपजों को खाद्य सुरक्षा योजनाओं में शामिल करने की भी महती आवश्यकता है। इससे वर्तमान में व्याप्त असंतुलन को दूर करने में मदद मिलेगी। दूसरा प्रमुख बिंदु, बाजार में हस्तक्षेप करके मूल्यों की अस्थिरता को कम करना है। इसके तहत सरकार जब भी मूल्य एमएसपी से नीचे गिरने लगे, तो सीमित खरीद करके बाजार में नीलामी के माध्यम से न्यूनतम मूल्य पर स्थिर करके, वर्तमान गोदाम योजना में सुधार करके बाजार मूल्यों को एमएसपी के बराबर स्थिर कर सकती है।

इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय व्यापार नीति में बदलाव करना, एफपीओ (किसान उत्पादक संगठनों) को प्रभावी बनाना, ताकि छोटे किसान अपनी उपज का तब तक भंडारण कर सकें, जब तक वाजिब मूल्य प्राप्त न हो, आदि शामिल हैं। मगर उपरोक्त उपाय अगर कारगर साबित नहीं होते, तो सरकार को आखिरकार कानूनी तौर पर एमएसपी और औसत बाजार मूल्य के अंतर को किसानों को भुगतान करने का प्रावधान करना होगा। अगर पहले दो उपाय सरकार प्रभावी ढंग से लागू कर पाए, तो उसे एमएसपी और औसत मूल्य के अंतर का भुगतान करने की आवश्यकता ही नहीं होगी। सरकारी हस्तक्षेप तभी आवश्यक होगा जब किसी उपज का बाजार मूल्य एमएसपी से नीचे जाता है।

समय पर बाजार में हस्तक्षेप और ऊपर वर्णित सभी अन्य उपाय यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि बाजार मूल्य स्वचालित रूप से एमएसपी के करीब होगा और इस प्रकार सरकार को घाटा काफी कम होगा। वर्तमान दरों पर कानूनी रूप से गारंटीकृत एमएसपी की लागत केंद्रीय बजट का लगभग 0.5 से 0.6 फीसद होगा, क्योंकि विगत वर्ष सरकारी आंकड़ों के अनुसार मांगी गई एमएसपी के नीचे कुल घाटा 2,00,710 करोड़ रुपए आया। देश में चली आ रही कृषि संस्कृति को देखते हुए तथा किसानों के हाथों में आने वाली अतिरिक्त क्रय शक्ति को ध्यान में रखते हुए, जो अर्थव्यवस्था के सकारात्मक विकास को बढ़ावा देगी, यह व्यय किसानों की दशा सुधारने में अग्रणी कदम होगा। इसलिए एमएसपी पर कानूनी गारंटी लागू करने की संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए।


Date: 29-01-25

सराहनीय कदम

संपादकीय

उत्तराखंड में सोमवार से समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) लागू हो गया और इस तरह से आजाद भारत में यह पर्वतीय प्रदेश यूसीसी लागू करने वाला पहला राज्य बन गया। उत्तराखंड में भाजपा की सरकार के इस ऐतिहासिक कदम को दुराग्रहपूर्व दृष्टि से न देखकर इसे विभिन्न सामाजिक समूह के बीच सेतु बनाने की प्रक्रिया तहत लिया जाना चाहिए। जिस तरह से भारतीय दंड संहिता और आर्थिक विधान के अंतर्गत सभी सामाजिक सामुदायिक समूह एक ही प्रक्रिया से गुजरते हैं, उसी तरह से सभी सामाजिक समूह भी अगर समान सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों का पालन करेंगे तो इससे यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि उनके बीच सामाजिक और सांस्कृतिक आवाजाही बढ़ेगी और उनके पहचानगत दुराग्रह कमजोर पड़ेगी। यूसीसी में सभी पंथों, धर्मों या समुदायों के विवाह, भरण-पोषण, विरासत आदि मामलों के एक समान कानून का प्रावधान किया गया है। अर्थात समान नागरिक संहिता बहु-विवाह, बाल विवाह, हलाला और तीन तलाक जैसी सामाजिक बुराइयों पर रोक लगाता है। हालांकि आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में आकर मुसलमान भी एकल विवाह को अपनाने लगे हैं, फिर भी पिछड़े और दकियानूसी लोग इस्लाम धर्म में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं और ऐसे लोग यूसीसी का विरोध भी कर रहे हैं, लेकिन एक उनके विरोध से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। इनका विरोध पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है जो कुछ पलों में शांत हो जाएगा। अनुसूचित जनजातियों के रीति और परंपराओं का संरक्षण करने मकसद से इन्हें यूसीसी के दायरे से बाहर रखा गया जिसे दूरदर्शी भरा कदम कहा जा सकता है। लिव-इन रिलेशनिशप से जुड़ी उच्छृंखलता और दायित्वहीनता बोध को समान नागरिक संहिता कानून के जरिए नियंत्रित किया गया है। यह सराहनीय कदम है। लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वालों को एक महीने के भीतर पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा । उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने इसे लागू करने के बाद कहा कि राज्य के सभी नागरिकों के संवैधानिक और नागरिक अधिकार अब समान हो गए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यूसीसी भारतीय समाज में मौजूद बुराइयों को समाप्त करने में सहायक होगा।


Date: 29-01-25

सामाजिक सुरक्षा का घेरा बढ़ेगा

तेजस्वी प्रसाद यादव, ( नेता प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा )

यह हमारी प्रतिबद्धताओं का मर्म है कि कोई भी सामाजिक सुरक्षा योजना सौगात नहीं है और यह मुफ्त तो कतई नहीं है। सामाजिक सुरक्षा रेवड़ी भी नहीं है। सामाजिक सुरक्षा देश के संयुक्त संसाधन कोष से प्रदान की जाती है और नागरिकों का इस पर पूरा अधिकार है। अगर आज देश के नेता और औसत नागरिक सामाजिक सुरक्षा को सौगात, मुफ्त या रेवड़ी जैसे शब्दों से जोड़ते हैं, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। सामाजिक सुरक्षा के प्रति संकीर्ण और नकारात्मक आम समझ बनाने में अभिजात तबके और उसकी सदैव पैरवी करने वाले मुख्यधारा मीडिया की एक बड़ी भूमिका रही है। उद्योगपतियों को जब औने- पौने भाव जमीन, टैक्स हॉलिडे या सब्सिडी मिलती रहे, तो सब ठीक। हालांकि, अगर इससे रोजगार उत्पन्न हो रहे हैं, तो इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। दूसरी तरफ, अगर गरीब और मध्यमवर्ग के लोगों को कुछ राहत मिल जाए, तो यह तबका तिलमिला जाता है।

आज हरेक बिहारवासी जानता है कि हम भारत का एक ऐसे राज्य हैं, जिसकी कुछ खास चुनौतियां हैं और इसे एक नए नजरिये की आवश्यकता है। विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग खैरात नहीं, बल्कि राज्य के सामाजिक-आर्थिक और ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़ी है। बिहार भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के बावजूद, राज्य की आर्थिक वृद्धि देश के कई अन्य क्षेत्रों से पिछड़ गई है। विशेष दर्जा मिलने से बिहार को केंद्र सरकार से अधिक वित्तीय सहायता प्राप्त हो सकेगी, जिससे राज्य के लिए विकास कार्यक्रमों को लागू करना, बुनियादी ढांचे में सुधार करना और सामाजिक असमानताओं को दूर करना आसान हो जाएगा। बिहार में हुए जातिगत सर्वेक्षण से उजागर भयावह सामाजिक-आर्थिक हकीकत के मद्देनजर भी केंद्र को बिहार के संदर्भ में अपनी उदासीनता को दरकिनार करना चाहिए था। इस पृष्ठभूमि में हमें आज पूरी गंभीरता और जिम्मेदारी से यह समझना होगा कि सामाजिक सुरक्षा मानव क्षमता और राष्ट्रीय विकास में एक रणनीतिक निवेश है। महामारी के दौरान अमेरिकी सरकार ने अपने नागरिकों को 814 अरब डॉलर का आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज दिया था।

राष्ट्रपति जो बाइडन प्रशासन ने तत्काल आर्थिक राहत प्रदान करने और व्यापक वित्तीय पतन को रोकने के लिए प्रति पात्र व्यक्ति 1,400 डॉलर के प्रोत्साहन चेक जारी किए थे। इस नीति ने कई महत्वपूर्ण उद्देश्यों को पूरा किया था नौकरी से हटाए जाने वाले और काम के अभाव का सामना कर रहे लाखों अमेरिकियों को तत्काल सहायता दी थी; परिवारों के जरूरी खर्ची को पूरा किया था और आर्थिक गतिविधि को बनाए रखने के लिए उपभोक्ता खर्च को प्रोत्साहित किया था। इस प्रकार अमेरिकी सरकार ने नागरिकों को व्यापक आर्थिक राहत प्रदान कर गहरी मंदी पर रोक लगाई थी। भारत में भी महामारी के दौरान 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा हुई थी। उसके अंतर्गत किसे क्या लाभ मिला, कुछ पता नहीं चला। आर्थिक नीतियों का लाभ असंगत रूप से कॉरपोरेट और धनी वर्गों पर केंद्रित है, जबकि आम नागरिकों को निरंतर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। क्षेत्रीय स्तर परविकास नीतियों में भी भेदभाव झलकता है। कुछ राज्यों को तरजीह दी जाती है, जबकि बिहार जैसे ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर रहे राज्यों को आर्थिक रूप से हताश रखा जाता है। यह दृष्टिकोण सहकारी संघवाद के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, संतुलित क्षेत्रीय विकास को कमजोर करता है, और ऐतिहासिक असमानताओं को कायम रखता है।

नोटबंदी और जीएसटी की मार खाई अर्थव्यवस्था कोविड- 19 महामारी में और सुस्त हुई। अब हालात ऐसे हैं कि गरीब और मध्यमवर्गं सिकुड़ते आर्थिक अवसर और महंगाई की मार से परेशान हैं। ऐसे में, राहत की सख्त जरूरत है। इसी के चलते हम वृद्धावस्था और विधवा मासिक पेंशन को 400 रुपये से बढ़ाकर 1,500 रुपये करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। बिहार में सामाजिक सुरक्षा योजनाएं न केवल सबसे गरीबों के लिए, बल्कि सामाजिक विकास व आर्थिक स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। हम हर घर को प्रति माह 200 यूनिट निःशुल्क बिजली उपलब्ध कराने का भी वादा करते हैं। राजद द्वारा माई-बहिन मान योजना रणनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से बिहार की महिलाओं के लिए व्यापक सशक्तिकरण का वादा करती है। इसके अंतर्गत परिवार की महिला मुखियाओं को प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता प्रदान करते हुए 2,500 रुपये की मासिक वित्तीय सहायता मिलेगी। इस योजना का उद्देश्य महिलाओं के सशक्तिकरण के कई आयामों को संबोधित करके उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बदलना है, जिससे महिलाओं के विकास और सामाजिक गतिशीलता के लिए स्थायी मार्ग तैयार किए जा सकें।

युवाओं की सामाजिक सुरक्षा भी आवश्यक है। छात्र युवाओं को उनकी अध्ययन सामग्री, कोचिंग खर्ची, पंजीकरण शुल्क, साक्षात्कार और परीक्षाओं के लिए यात्रा व्यय देने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार कर जल्द ही सामने रखूंगा। साथ ही हम बिहार के छात्र- युवाओं को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी डोमिसाइल नीति पर परामर्श कर रहे हैं, जिससे राज्य के अधीन रोजगार के अवसरों पर पहला हक स्थानीय का हो।

75 वर्ष पहले हमने अपने आपको एक सुरुचिपूर्ण और शक्तिशाली संविधान दिया था उस समय बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ और ‘एक वोट एक मूल्य’ के सिद्धांत को मान्यता देंगे, पर अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे।

समय आ गया है कि अब हम पूरी दृढ़ता के साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय को साथ में जोड़ें और संघर्ष करें। हमारी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं हाशिये पर मौजूद वर्गों को खर्च योग्य आय प्रदान करके स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करती हैं। यह गुणक प्रभाव न केवल व्यक्तिगत लाभार्थियों को, बल्कि पूरे समुदायों को लाभान्वित करता है। जब लोगों के पास बुनियादी आर्थिक सुरक्षा होती है, तब वे शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास में निवेश करते हैं। ये योजनाएं सौगात नहीं, बल्कि स्मार्ट आर्थिक नीति हैं। यह हमारे सामूहिक भविष्य में एक निवेश है, व्यक्तिगत हैंडआउट नहीं।