29-01-2024 (Important News Clippings)

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29 Jan 2024
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Date:29-01-24

Her Body Politic Is Totally Her Choice

ET Editorials

Last week, Delhi High Court reversed its January 4 order that allowed a widowed, 29-week pregnant woman to terminate her pregnancy. The order is based on the advice of an Aiims panel, which said that the foetus does not show any abnormality, so foeticide is neither justified nor ethical. Earlier, GoI had sought a recall of the January 4 order, stating that it’s ‘imperative’ that the high court considers protecting the life of the unborn child. It referred to the Supreme Court’s judgment of October 16, 2023, in ‘X v Union of India…’, in which the apex court recalled its earlier order allowing termination of pregnancy beyond the stipulated period after an Aiims panel’s opinion.

While the terms for abortion were liberalised in India after the Medical Termination of Pregnancy (MTP) Act was amended in 2021, it still does not recognise abortion as a woman’s choice that can be sought on demand, as is practice in 73 countries, including Nepal, Thailand and Cambodia. Instead, the Act allows termination only on medical advice. This caveat fails to consider three realities: abortion remains stigmatised in India, even among doctors; there is scope for increasing the upper gestational limit for termination, thanks to the advancement of medical technology; and denying women the right can push many to opt for unsafe abortions.

A 2016 Bombay High Court judgment on the condition of a prison inmate emphasised the right of a woman to control her body and fertility, and to decide what to do with their ‘own bodies, including whether or not to get pregnant and stay pregnant’. This forward-looking directive should be the guiding light on the issue. Abortion must remain a woman’s choice, as long as her health or life is not at risk.


Date:29-01-24

इतिहास की भूल को सुधारने का समय

हृदयनारायण दीक्षित, ( उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं )

मंदिर भारत की श्रद्धा हैं। जीवमान, प्रतिष्ठित और उपास्य हैं, लेकिन इस्लामी हमलावरों और शासकों ने भारत को नीचा दिखाने के लिए हजारों मंदिर गिराए और उसी सामग्री से उन्हीं स्थलों पर मस्जिद जैसे ढांचे बनाए। अयोध्या में मंदिर गिराकर कथित मस्जिद बनाई गई। यहां राम मंदिर के लिए 500 वर्ष संघर्ष चला। लंबे संघर्ष में अनेक लोग मारे गए। जन आंदोलन चला। न्यायिक कार्यवाही लंबी चली। सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। बीती 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना कर्तव्य निभाया।

काशी में ज्ञानवापी के संबंध में भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एजेंसी की रिपोर्ट आई है। यहां भी प्राचीन मंदिर के साक्ष्य मिले हैं। मथुरा की भी यही स्थिति है। देश की निगाहें बेशक मथुरा और काशी पर टिकी हैं, लेकिन मंदिर ध्वस्त कर मस्जिद बनाने की संख्या हजारों में है। मंदिर ध्वस्तीकरण का मकसद राष्ट्र को अपमानित करना और राष्ट्रीय स्वाभिमान को कुचलना था।
रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में सही लिखा है, ‘देश की सुरक्षा और खुशहाली किसी भी शासन के लिए गौरव के कार्य हैं, किंतु मुस्लिम इतिहासकारों ने अधिक प्रशंसागान उन सुल्तानों और गाजियों का किया, जिन्होंने अधिक से अधिक मंदिर तोड़े। कुरान के अनुसार कुफ्र का सबसे बुरा रूप सिर्क है। सिर्क का सबसे बुरा रूप मूर्ति पूजा है। हिंदुस्तान मूर्ति पूजकों का देश है। कुफ्र के दमन में मुसलमानों को जितने अत्याचार इस देश में करने पड़े उतने किसी और देश में नहीं।’

इस्लामी आक्रमणकारियों-शासकों द्वारा ध्वस्त मंदिर भारतवासियों के अंतस में शूल की तरह चुभते हैं। लिबरल-सेक्युलर ऐसी जघन्य कार्रवाई को भूल जाने का उपदेश देते हैं। क्या कोई भी कौम राष्ट्रीय स्वाभिमान को रौंदने की घटना प्रत्यक्ष देखकर भी भूल सकती है? क्या कोई राष्ट्र सोच-समझ कर किए गए राष्ट्रीय अपमान को भूल सकता है? क्या तमाम मंदिरों को तोड़कर उसी सामग्री से बनाई गई मस्जिद ‘कुव्वत उल इस्लाम’ को भुलाया जा सकता है?

‘कुव्वत उल इस्लाम’ का अर्थ इस्लाम की ताकत है। इस ताकत के प्रदर्शन का लक्ष्य भारतवासियों को बताना था कि इस्लाम की कूवत को चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस प्रत्यक्ष है। ईसापूर्व पहली सदी में शक राजाओं के काल में वासुदेव कृष्ण मंदिर तोरणद्वार विद्यमान था। गुप्त सम्राट ने भव्य मंदिर बनाया था। यह चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय भी था। इसे गजनी के मोहम्मद ने नष्ट कर दिया। राजा विजयपाल ने इसे फिर बनवाया। सिकंदर लोदी ने इसे फिर तोड़ा। ओरछा नरेश ने इसे फिर बनवाया। औरंगजेब ने इसे गिरवाया और आधे भाग में ईदगाह बनाया।

गजनी के मोहम्मद के कृत्य भी ऐसे ही थे। उसके अपने इतिहासकार उतबी ने लिखा था कि, ‘मोहम्मद ने मंदिरों-मूर्तियों को तोड़ा था।’ डा. टाइटस ने ‘इंडियन इस्लाम’ में लिखा है, ‘1669 में औरंगजेब को सूचना मिली कि मुल्तान और बनारस प्रांतों में ब्राह्मण तुच्छ पुस्तकों की व्याख्या करते हैं। उसने हुक्म दिया कि पाठशालाओं और मंदिरों को गिरवा दें। अधिकारियों ने सूचना दी कि विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त कर दिया गया है।’ बादशाहनामा के अनुसार शाहजहां को बताया गया कि बनारस में मंदिरों का निर्माण शुरू हो गया है। बादशाह ने हुक्म दिया कि बनारस और पूरी सल्तनत में मंदिरों को गिरा दिया जाए। मंदिर गिरा दिए गए। क्या भारत के लोग सुनियोजित राष्ट्रीय अपमान को यूं ही भूल सकते हैं?

प्रत्यक्ष रूप में ऐसी घटनाएं मंदिर ध्वस्तीकरण की हैं, लेकिन इनका मर्म दूसरा है। वास्तविकता यह है कि ऐसी वारदातें भारतीयों को स्थायी रूप में अपमानित करने की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा रहीं। राष्ट्रीय अपमान ही ऐतिहासिक सत्य है। इस सत्य को भुलाकर राष्ट्रीय स्वाभिमान की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे मामलों को टालने के लिए 1991 में धर्मस्थल कानून बनाया गया । इस कानून का भाव गले नहीं उतरता। इसमें 1947 के पहले के मंदिरों की स्थिति को ज्यों का त्यों स्वीकार करने की बात है। कानून मंदिर ध्वंस के इस्लामी अभियानों और तोड़े गए मंदिरों को विधिक विमर्श से बाहर रखता है। इस अधिनियम की उपयोगिता पर सम्यक पुनर्विचार आवश्यक है। मंदिर ध्वंस राष्ट्र के लिए पीड़ादायक। मंदिर ध्वंस के मामलों को सामान्य अपराध की तरह देखकर भूल जाना अनुचित होगा। मंदिर ध्वंस के तथ्य, सत्य और मंतव्य सुस्पष्ट हैं।

देश के सभी ध्वस्त मंदिरों को सूचीबद्ध किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे उपासना स्थलों की पूर्व स्थिति के रूप में पुनर्प्रतिष्ठा और प्राण प्रतिष्ठा की जानी चाहिए। जरूरी हो तो सभी ध्वस्त मंदिरों के पुनर्निर्माण का रास्ता निकालने के लिए आयोग का गठन किया जा सकता है। सोमनाथ का पुनर्निर्माण एक अच्छा माडल हो सकता है। जैसे राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री मोदी सम्मिलित हुए वैसे ही नवनिर्मित सोमनाथ मंदिर के कार्यक्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद भी सम्मिलित हुए थे।

राष्ट्र की अपेक्षा है कि इस्लामी विद्वान और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता निष्पक्ष राय दें। मंदिर तोड़कर बनाए गए सभी उपासना स्थलों पर एकसमान सर्वमान्य निर्णय में सहयोग करें। ध्वस्त मंदिरों का पुनर्निर्माण राष्ट्र का गौरव बढ़ाएगा। कुछ स्वयंभू इतिहासकार भी विदेशी हमलावरों को राष्ट्र विरोधी नहीं मानते। मंदिर ध्वंस के जघन्य अपराधों की निंदा नहीं करते। मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी, तैमूर लंग, बाबर और नादिर शाह से लेकर अहमद शाह अब्दाली तक सभी इस्लामिक आक्रांताओं का एजेंडा हिंदू धर्म का दमन और मंदिर विध्वंस का था।

मंदिर ध्वस्तीकरण विदेशी आक्रांताओं का पाप है। उनका स्मरण दुख देता है। इस समस्या को ज्यों का त्यों छोड़ना उचित नहीं होगा। भारत को सभी विवादित और ध्वस्त मंदिरों का समाधान चाहिए। मंदिर ध्वंस इतिहास का दुखद अध्याय है। विदेशी हमलावर इस इतिहास में अभियुक्त हैं। ध्वंस मंदिर साक्ष्य हैं। अब अभियुक्तों को सजा नहीं दी जा सकती, लेकिन उनके द्वारा किए गए अपकृत्य का संशोधन संभव है। यह राष्ट्र और समय की आवश्यकता है।


Date:29-01-24

फिर पाला बदल

संपादकीय

कहते हैं, गठबंधन की सरकार चलाना तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा होता है। इसलिए कई बार राजनीतिक दलों को अपने घोषित सिद्धांतों से समझौता भी करना पड़ता है। मगर जिस तरह बिहार में सियासी उलट-फेर हुआ है, वह विचित्र है। नीतीश कुमार ने एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल से नाता तोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है। फिर वे उसी भाजपा के साथ मिल कर सरकार बना रहे हैं, जिससे सत्रह महीने पहले नाता तोड़ते हुए कहा था कि भाजपा के साथ जाना उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। तब उन्होंने यह संकल्प भी दोहराया था कि चाहे उनकी जान चली जाए, पर वे भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। मगर सत्रह महीने बाद फिर उसके साथ हो लिए। राजनीतिक गठबंधन में मतभेद कोई नई बात नहीं, मगर राजद के साथ उनके क्या ऐसे मतभेद थे, जिसकी वजह से उन्होंने उससे अलग होने का फैसला किया, यह कई लोगों के लिए रहस्य बना हुआ है। दरअसल, राजद के साथ उनकी पार्टी के संबंध बिल्कुल सहज और सामान्य ही दिख रहे थे। नीतीश कुमार के इस तरह पाला बदलने से निश्चय ही अगर किसी को फायदा हुआ है, तो वह है भाजपा। आम चुनाव नजदीक हैं और बिहार में भाजपा के लिए कठिन चुनौती मानी जा रही थी, वह चुनौती अब आसान हो जाएगी।

सबसे बड़ी बात कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में नीतीश कुमार की सक्रियता से भी भाजपा को मुश्किलें पेश आ रही थीं। यह गठबंधन चूंकि नीतीश कुमार की पहल पर ही बना था, माना जा रहा था कि अगले लोकसभा चुनाव में यह भाजपा को टक्कर दे सकता है। नीतीश कुमार के भाजपा से हाथ मिला लेने के बाद वह गठबंधन कुछ और कमजोर हो गया है। ममता बनर्जी और आम आदमी पार्टी सीट बंटवारे को लेकर पहले ही अपना एतराज जता और स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का फैसला सुना चुके हैं। इस तरह यह भाजपा की दूसरी बड़ी कामयाबी कही जा सकती है। हालांकि नीतीश कुमार के पाला बदलने की अटकलें कई दिन पहले से लगाई जा रही थीं, मगर राजद के साथ उनके मनमुटाव की वजहें स्पष्ट नहीं थीं। नीतीश कुमार ने इतना भर कहा है कि उनके लोग दिन-रात मेहनत करके काम कर रहे थे और श्रेय दूसरे लोग ले जा रहे थे, इसलिए उनकी पार्टी में इसे लेकर नाराजगी थी। मगर भाजपा के साथ उन्हें अब कोई मुश्किल नहीं आएगी, इसका दावा वे शायद ही कर पाएं, क्योंकि उससे अलग होते समय भी नीतीश कुमार ने यही तर्क दिया था।

राजद के साथ मिल कर सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने निस्संदेह कई महत्त्वपूर्ण काम किए, जिसकी पूरे देश में सराहना हुई। उन्होंने जाति जनगणना कराया, खाली पदों पर त्वरित ढंग से भर्तियां कराईं। इस तरह नीतीश कुमार सरकार पर वहां के लोगों में भरोसा मजबूत हुआ। मगर अब उनके ताजा फैसले से निराशा नजर आने लगी है। भाजपा के साथ मिल कर वे सरकार तो चला लेंगे, मगर प्रदेश के लोगों का भरोसा कितना जीत पाएंगे, देखने की बात होगी। पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को खासा नुकसान उठाना पड़ा था। अब जब आम चुनाव नजदीक हैं, भाजपा के साथ जाकर वे उस नुकसान की कितनी भरपाई कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। भाजपा से अलग होकर उन्होंने राजद का हाथ पकड़ा था, तो उनकी काफी सराहना हुई थी। अब उनकी साख इस बात पर निर्भर करेगी कि नई गठबंधन सरकार में वे कितने जन कल्याणकारी फैसले करते हैं।


Date:29-01-24

रोहन बोपन्ना का कमाल

संपादकीय

भारतीय टेनिस खिलाड़ी रोहन बोपन्ना सबसे उम्रदराज ग्रैंड स्लैम चैंपियन भावनाय है। आस्ट्रेलियाई जोड़ीदार मैथ्यू एन्डेन के साथ ऑस्ट्रेलिया ओपन का पुरुष डबल्स खिताब जीतकर उन्होंने यह गौरव हासिल किया है। सही मायनों में बोपन्ना के कॅरियर में पिछला सप्ताह यादगार साबित हुआ जिसे वह कभी भी भूलना नहीं चाहेंगे। बोपन्ना ने सेमीफाइनल में विजय पाते ही विश्व का नंबर एक खिलाड़ी बनने की उपलब्धि हासिल की। वह सबसे ज्यादा उम्र में पहली बार विश्व के नंबर एक खिलाड़ी बने । बोपन्ना ने 2003 में कॅरियर की शुरुआत की और 2008 में युगल में खेलना शुरू किया लेकिन उन्हें ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने के लिए 2017 तक का इंतजार करना पड़ा। हालांकि 2010 में उन्होंने पाकिस्तानी खिलाड़ी एहतेशाम उल हक कुरैशी के साथ जोड़ी बनाई और पहले ही साल यूएस ओपन में पुरुष युगल के फाइनल तक चुनौती पेश करने में सफल भी रहे पर यह जोड़ी धमाल मचाने से पहले ही भारत-पाक संबंधों में खटास आने की वजह से टूट गई । बोपन्ना ने 2021 में लगातार असफलताओं की वजह से टेनिस से संन्यास लेने का विचार बना लिया था लेकिन परिजनों के समझाने पर खेल जारी रखने पर सहमत हो गए। दरअसल, दोनों घुटनों की तकलीफ के चलते वे नाकाम हो रहे थे। रोहन के पिता एमजी बोपन्ना बताते हैं कि रोहन पिछले दो सालों से आयंगर योग कर रहे हैं, इससे उनकी ऊर्जा में तो बढ़ावा आया ही, वह अच्छी फिटनेस बनाने में भी सफल रहे। इसने उनकी मौजूदा सफलता में अहम भूमिका निभाई है। रोहन से पहले भारत के लिए लिएंडर पेस, महेश भूपति और सानिया मिर्जा ने युगल में ढेरों सफलताएं हासिल की हैं पर देश विजय अमृतराज और रमेश कृष्णन के बाद कोई ढंग सिंगल्स खिलाड़ी नहीं निकल सका है। ऐसे में इस साल सुमित नागल के डेविस कप में खेलने से इंकार करने पर अखिल भारतीय टेनिस एसोसिशन ने सुमित का नाम ऑस्ट्रेलियन ओपन में वाइल्ड कार्ड के लिए भेजने से मना करना सही नीति नहीं लगती। देश में ज्यादातर टेनिस खिलाड़ी व्यक्तिगत प्रयासों के कारण ही आगे निकले हैं। अखिल भारतीय टेनिस एसोसिएशन को इस तरफ गंभीर प्रयास करने की जरूरत है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जरूरत उन्हें अच्छी तरह से मांजने की है।


Date:29-01-24

चाँद पर साथ

पिछले सप्ताह जब मूनलैंडर स्लिम चांद पर उतरा, तो जापान इस उपग्रह पर पहंचने वाला दुनिया का पांचवां देश बन गया। स्लिम चांद के उसी दक्षिणी ध्रुव पर उतरा है, जहां कुछ महीने पहले भारत का चंद्रयान-3 उतरा था। यानी चांद के इस क्षेत्र में अपने यान को उतारने वाला वह दूसरा देश बन गया है। कार के आकार जितने 200 किलोग्राम के स्लिम को जब चांद की सियोली खाई के पास उतारा गया, तो वैज्ञानिक समुदाय में चर्चा इस बात की हुई कि जापान ने आश्चर्यजनक रूप से जिस जगह यान को उतारना तय किया था, तकरीबन उसी जगह पर उतारा। तय जगह और उतरने वाली जगह का जो फर्क था, वह सौ मीटर भी नहीं था। इसके पहले तक यह फर्क आमतौर पर एक किलोमीटर से भी ज्यादा हो जाता था। सवाल यह उठा कि स्लिम की इतनी सटीक लैंडिंग कैसे संभव हो सकी? इसका जवाब अब मिला है। दरअसल स्लिम ने इसके लिए चंद्रयान-2 के आर्बिटर की मदद ली और उसकी तस्वीरों के सहारे वह सटीक जगह पर उतरने में कामयाब रहा।

यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि चंद्रयान-2 का भारत का पूरा अभियान ठीक से चला था, लेकिन इसका लैंडर एकदम अंतिम समय में चंद्रमा की सतह पर ठीक से उतरने में नाकाम रहा था। हालांकि इसका आर्बिटर अभी भी चांद के चक्कर लगाता हुआ सक्रिय है और लगातार डाटा भेज रहा है। इन्हीं डाटा में वे तस्वीरें भी हैं, जिनकी मदद जापान के स्लिम ने ली। हालांकि, इस खबर का महत्व इसके तकनीकी ब्योरे में नहीं है। इसके पहले यह कब हुआ था कि किसी काम के लिए जापान को भारत की तकनीकी मदद लेने की जरूरत पड़ी हो? भारत के लोग लंबे समय से जापान की तकनीकी उलब्धियों के कायल रहे हैंऔर हमारे देश में न जाने कितने उद्योग और परियोजनाएं ऐसी हैं, जो जापान या वहां की कंपनियों के तकनीकी सहयोग से ही चल रही हैं। वैसे, स्लिम के मामले में जो हुआ, वह यह बताता है कि तकनीक की दुनिया में भारत की स्थिति कैसे बदल रही है। यह सच है कि बाकी क्षेत्रों के मुकाबले अंतरिक्ष क्षेत्र में जापान बहुत देरी से उतरा है। इस क्षेत्र में भारत का अनुभव काफी बड़ा है, लेकिन ऐसा कम ही होता रहा है कि खुद अपनी तकनीक विकसित करते समय जापान किसी अन्य देश की इस तरह से मदद लेता हो।

अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत और जापान का यह सहयोग कुछ और रास्ते भी खोल सकता है। इस समय दुनिया के तकरीबन सभी विकसित देश किसी न किसी रूप में चंद्र अभियान चलाने की सोच रहे हैं। अनुमान यह है कि अगले दस साल में सौ से भी ज्यादा ऐसे अभियान शुरू हो सकते हैं। निजी कंपनियां भी इस क्षेत्र में उतर पड़ी हैं और स्पेस फाउंडेशन का आकलन कहता है कि चंद्र अभियान का यह पूरा कारोबार 546 अरब डॉलर का हो चुका है। ऐसे में, भारत और जापान जैसे दो देशों का सहयोग इस बाजार के समीकरण बदल सकता है। लगभग तीन साल पहले चीन और रूस ने भी ऐसे ही सहयोग का समझौता किया था। उन्होंने संयुक्त अभियान का भी फैसला किया था, लेकिन यूक्रेन युद्ध शुरू हो गया और बात आगे नहीं बढ़ पाई। भारत और जापान इस बात को अब आगे ले जा सकते हैं। दोनों साथ आते हैं, तो यह एक बराबरी का सहयोग होगा। यह ध्यान देने की बात है कि ऐसे अभियान बहुत महंगे होते हैं, अत: सक्षम देश अगर मिलकर सौ प्रतिशत सफलता के लिए प्रयास करें, तो ज्यादा बेहतर है।