28-12-2020 (Important News Clippings)

Afeias
28 Dec 2020
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Date:28-12-20

New Britain

Brexit deal will lead to rearrangement of UK’s foreign economic policy and international relations, offers India an opportunity.

Editorial

The Christmas Day agreement on new terms of trade between Britain and its largest economic partner, the European Union, is unlikely to please everyone in Prime Minister Boris Johnson’s Conservative Party, but a majority is expected to back him. With the Labour Party already supporting the new framework as a welcome alternative to a “no-deal” hard Brexit from the EU, the deal is expected to be ratified by the British parliament this week. The European governments too are set to approve the deal that comes into force on January 1. To be sure, there will be multiple glitches in implementing the complex agreement, which guarantees tariff-free trade on most goods between two of the world’s largest economic entities. It also lays the basis for future cooperation on law enforcement, security, data flows among other important areas.

While Europe regrets the separation and looks forward to a new beginning with Britain, Johnson claims a major political victory in regaining British sovereignty to make its own laws and freedom to engage the world on its own terms. Johnson’s success should bring to an end the prolonged political divisions in Britain on the nature of its relationship with Europe after the Second World War. The schism in the Conservative party was even deeper. All the seven Conservative prime ministers who preceded Johnson — Theresa May, David Cameron, John Major, Margaret Thatcher, Edward Heath and Harold Macmillan — saw their political careers destroyed by the European question. Britain had voted with a thin margin to leave the EU in a referendum during the summer of 2016; but few had bet on London’s ability to negotiate an amicable separation. As he celebrated the deal, Johnson insisted that the agreement brings “a new stability and a new certainty” to a relationship that has long been fractious and difficult. “Although we have left the EU,” Johnson said, Britain “will remain culturally, emotionally, historically, strategically and geologically attached to Europe”.

The break from Europe will lead to a significant rearrangement of Britain’s foreign economic policy and international relations. London is actively negotiating multiple bilateral free trade agreements with major economic partners, trying to reinforce the traditional strategic partnerships with the US and Japan and leverage historic connections with Canada, Australia, New Zealand and other Commonwealth nations. Johnson’s visit to India, as the guest at the Republic Day next month, offers an opportunity for Delhi to take a close look at London’s post Brexit plans and make a big push for the transformation of a bilateral relationship that has long performed way below its natural potential.


Date:28-12-20

हिंसा की जड़ें

संपादकीय

भारतीय समाज सदा से महिलाओं और बच्चों को अनुशासित रखने के नाम पर उन्हें प्रताड़ित करने का पक्षधर रहा है। मगर मानवीय मूल्य इसकी इजाजत नहीं देते। जैसे-जैसे समाज में जागरूकता आई है, किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ स्वर ऊंचे होते गए हैं। खासकर महिलाओं के प्रति संकीर्ण सोच को खत्म करने के लिए कठोर कानून भी बनाए गए।”माना जाता है कि जिन समाजों में शिक्षा का प्रसार ठीक से नहीं हुआ है, उन्हीं में महिलाओं और बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार अधिक होता है। मगर यह धारणा अनेक घटनाओं से गलत साबित हो चुकी है। पढ़े-लिखे और सभ्य कहे जाने वाले समाजों में भी महिलाएं न तो सुरक्षित हैं और न उन्हें अपेक्षित सम्मान हासिल है। वहां भी वे दोयम दर्जे का ही नागरिक समझी जाती हैं। यही वजह है कि वे भी घरेलू हिंसा से नहीं बच पातीं। यह अलग बात है कि उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता अधिक है, इसलिए वे अपने प्रति हुए अन्याय की शिकायत करने का साहस दिखा पाती हैं। इस वर्ष मार्च में कोरोना संक्रमण पर काबू पाने के मकसद से लगाई गई पूर्णबंदी के दौरान दर्ज घरेलू हिंसा की श्किायतें इसका प्रमाण हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग के पास इस साल घरेलू हिंसा की पांच हजार से अधिक शिकायतें दर्ज कराई गई।

पूर्णबंदी के दौरान महिलाओं से मारपीट, उनकी प्रताड़ना, अपमान आदि के पीछे एक कारण यह था कि पति-पत्नी और पूरा परिवार पूरे समय घर के अंदर रहने को मजबूर था। ऐसे समय में वैचारिक टकराव कुछ अधिक तीखे हुए और उनके साथ मारपीट की घटनाएं बढ़ीं। मगर बंदी खुलने के बाद भी ऐसी घटनाएं चिंताजनक स्तर पर बनी रहीं। इसका मुख्य कारण आर्थिक तंगी, रोजगार और कामकाज का बाधित होना या छिन जाना था। महानगरीय जीवन में तनाव और हिंसा की स्थितियां सामान्यता देखी जाती हैं। इसकी वजहों के कई तंतु हैं। अर्थिक तंगी की वजह से कई लोग अपने भीतर का तनाव परिवार के सदस्यों पर निकालते हैं। महिलाएं और बच्चे उनका आसान शिकार बनते हैं। इसके अलावा महत्त्वाकांक्षा भी एक वजह है, जिसके चलते महानगरीय चमक-दमक में कई लोग सपने तो बड़े पाल लेते हैं, पर जब वे पूरे होते नहीं दिखते तो उसकी खीझ पत्नी और बच्चों पर निकालते हैं। पूर्णबंदी के दौरान भी यही दोनों घरेलू हिंसा का अधिक कारण बने। अब राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने घरेलू हिंसा रोकने के उद्देश्य से जागरूकता कार्यक्रमों को और बढ़ाने का प्रयास शुरू कर दिया है।

घरेलू झगड़ों को सुलझाना, हिंसा पर विराम लगाना थोड़ा जटिल काम होता है। कुछ लोग आदतन हिंसक व्यवहार करते हैं, जो मामूली कमियों पर भी उग्र हो उठते हैं। बहुत सारे लोग अपने भीतर की उलझनों और तनावों के चलते किसी आवेश या नासमझी में हिंसक व्यवहार कर बैठते हैं। बाद में उन्हें अपने किए पर पछतावा होता है। इसी तरह कई महिलाएं तात्कालिक रोष में अपने पति के खिलाफ शिकायत तो दर्ज करा देती हैं, पर बाद में उनके साथ समझौता कर लेती हैं। सच्चाई यह भी है कि अपने प्रिय जनों के साथ हिंसा आखिरकार किसी को पसंद नहीं होती। इसीलिए आर्थिक तंगी वगैरह के चलते जिन परिवारों में कलहपूर्ण वातावरण देखा जाता है, उसके सुधरते ही सौहार्द भी पनप जाता है। लिहाजा, घरेलू हिंसा की वजहों का बारीकी से अध्ययन करने की जरूरत होती है। अर्थिक तंगी के चलते अगर लोगों के परिवारों का सुख-चैन छिन रहा है, तो इसे दूर करने के उपायों पर सोचना होगा।


Date:28-12-20

बहस खेती बनाम पूंजी की

डॉ. सी.पी. राय

इस समय किसान के खेत का आलू और सब्जियां आने लगी तो कितना सस्ता मिल रहा है सब कुछ।उससे पहले व्यापारी के गोदाम का था तो आलू ही 50/60 मिल रहा था, जिसे गरीब की सब्जी कहते हैं। यही हाल दूसरी चीजों का है। किसान पूरी मेहनत से पैदा करता है पर उसके पास भंडारण की क्षमता नहीं है और 80 प्रतिशत किसान छोटे या सीमांत किसान है जो सिर्फ उतना ही पैदा कर पाते हैं कि वो खा लें और बाकी बेच कर उसे तत्काल कर्ज चुकाना होता है, इलाज करवाना होता है जो वो रोके होता है फसल तक। जरूरी कपड़ा हो या खेती का सामान या फिर गाय भैंस सब उसी में से आगे पीछे करना होता है। बच्चों की किताब हो या बेटी को शादी सब करना होता है कुछ नकद और कुछ उधार जो उसे गांव या पास के व्यापारी से मिल पाता है खेत और फसल की गारंटी पर पैसे की सीमा के अनुसार। इन्हीं तत्कालिक जरूरतों के कारण उसे खाने लायक रोक कर अपनी फसल तत्काल बेचना होता है और इसी बात का फायदा उठाता है व्यापारी।

जिस समय आलू पैदा होता है किसान के खेत से 2 रुपये किलो तक चला जाता है और कभी-कभी बोरे की कीमत में। कभी तो ये हाल हो जाता है कि किसान वहीं बाहर आलू फेंक देता है कि जो ले जाना चाहे वो ले जाए। गन्ने के साथ भी हम अक्सर देखते हैं कि गन्ना खेत में ही जला देते हैं और टमाटर सड़क पर फेंकते दृश्य भी देखे हैं। पर कभी बिस्किट, कोक या फैक्टरी की चीजे फेंकते तो नहीं देखा न दवाई, केचप या चिप्स। और अगर कोई कारण फेंकने का आया तो मालिक खुद फैक्टरी मे आग लगवा कर उससे ज्यादा बीमा वसूल लेता है पर किसान के मामले में बीमा वाला 10 हजार करोड़ कमाता है और हजारों किसान आत्महत्या करते हैं क्योंकि उनका बीमा उनका वाजिब मुवावजा देता ही नहीं है। नेता बड़े-बड़े वादे किसानों से करते हैं पर विपक्ष में और सत्ता में आते ही पूंजीपतियों के पाले मे खड़े हो जाते हैं इसलिए किसान बदहाल है वर्ना एक समय तक तो पूरा भारत इसी खेती से ही जिंदा था और सोने की चिड़िया था। यहा तक की लॉकडाउन मे भी जब सब कुछ बंद था होटल, कारखाने, जहाज, कार और कपड़े भी आलमारी में थे तो जरूरत सिर्फ खाने का अन्न, सब्जी दूध सभी को और जो बीमार थे उनको दवाई की पड़ी और किसान ने कोई चीज कम नहीं होने दिया। इसके बावजूद कृषि को उपेक्षित रखा गया है। एक सवाल हमेशा से कचोटता है कि जो लोग हमारे सामने जमीन पर थोड़ा सा सामान बेच रहे थे या साइकिल पर बेच रहे थे या छोटा-मोटा लकड़ी का खोखा लगाकर बेच रहे थे वो देखते-देखते बड़ी पक्की दुकान के मालिक हो गए, बड़ी-बड़ी कोठियों के मालिक हो गए यहां तक कि फैक्टरी और होटल के मालिक हो गए। जब सवाल करो तो कहा जाता है कि उसने पैसा लगाया और मेहनत की पर किसान भी तो पैसा लगाये बैठा है और अधिकतर मामलों में इन व्यापारियों से ज्यादा क्योंकि किसान का खेत लाखों का है। उसमें वो खर्च भी करता है बीज, पानी-खाद पर और दिन, रात, जाड़ा, गर्मी और बरसात में पसीना बहाता है। तो किस मामले में वह व्यापारी से पीछे है। ये सवाल सत्ता से भी है और समाज से भी। जहां तक फसल कहीं भी बेचने का सवाल है; वो नियम पहले से है पर 80 फीसद से ज्यादा किसान अपने ब्लॉक या पास की मंडी के बाहर कभी नहीं जाते क्योंकि उतना उत्पादन ही नहीं है। उनके निकट मंडी बना और हर हाल में उनकी उपज खरीद कर और स्वामीनाथन आयोग के अनुसार मूल्य देकर तथा उद्योग की तरह सुरक्षा और बीमा देकर ही उसका भला किया जा सकता है तथा उसे कृषि में और गाव में रोका जा सकता है।

भारत का मूल गांव, किसान और खेती है; उसे मजबूत करना ही होगा। गांव को शहरों की बराबरी पर विकसित करने की जरूरत है। क्या ये तय नहीं हो सकता कि जो शहर में एक स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और फैक्टरी बना रहे हैं; उन्हें उस जिले के गांव में भी बनाना ही होगा और उसके लिए लालफीताशाही खत्म कर, पुलिस का आतंक और शोषण खत्म कर उसे गांव में लोगों को सुरक्षा का एहसास कराने की मूल जिम्मेदारी देकर तैयार करना होगा, जिससे ये सब खोलने वाले तथा उसमें काम करने वाले शौक से गांवों में जाने को तैयार हो। कोई तो होगा जो बड़ा सोचेगा, महात्मा गांधी के संदेश समझेगा। भारत को जनता के पैसे से बड़ा आदमी बने लोगों का देश नहीं बल्कि खुशहाल गांव और खुशहाल लोग वाला भारत बनाएगा। पर पहले उन सवालों का जवाब ढूंढना होगा और सत्ता को जवाबदेह होना होगा जो ऊपर उठे हैं।


Date:28-12-20

कृत्रिम बुद्धिमत्ता पर नजर

संपादकीय

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नैतिकता सुनिश्चित करने की किसी भी कोशिश का स्वागत और अनुकरण होना चाहिए। पिछले दिनों आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में सबसे प्रतिष्ठित सम्मेलन का ऑनलाइन आयोजन हुआ है, जिसमें नैतिकता की दृष्टि से एक उदाहरण स्थापित करने की कोशिश हुई है। न्यूरल इन्फॉर्मेशन प्रोसेसिंग सिस्टम्स के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में अपनी प्रस्तुति देने वालों को अपने शोध से संबंधित यह जानकारी भी देनी थी कि उनका शोध कैसे समाज को प्रभावित करेगा। शोधकर्ताओं से यह भी पूछा गया कि क्या उनके शोध से समाज पर किसी नकारात्मक असर की आशंका है? यह एक बड़ी उपयोगी पहल है, जिसके लिए आयोजक बधाई के पात्र हैं। नेचर पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, आयोजकों ने नैतिक चिंताओं से संबंधित दस्तावेजों की जांच के लिए समीक्षकों का पैनल भी गठित किया है। इसके पीछे कोशिश है कि किसी भी ऐसे शोध को हतोत्साहित किया जाए, जिसका नकारात्मक इस्तेमाल मुमकिन हो। एआई विशेषज्ञ कनाडावासी जैक पॉल्सन कहते हैं कि लोगों को इस विषय पर सोचना चाहिए, क्योंकि आज इसका बहुत महत्व है। यह जरूरी है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता अर्थात एआई के क्षेत्र में शोध की एक सकारात्मक संस्कृति विकसित हो। अच्छे उत्पादों या अच्छी सेवाओं का विकास हो। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी एआई उत्पाद का दुरुपयोग न हो सके।

तकनीक या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विगत वर्षों में नैतिकता संबंधी विवाद भी बढ़े हैं और चिंताएं भी। हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि एआई की वजह से बड़ी संख्या में लोगों को परेशानी भी हो रही है और लोग शोषण के भी शिकार हो रहे हैं। सुविधा बढ़ाने की आड़ में ऐसी प्रौद्योगिकी का भी विकास किया जा रहा है, ताकि जल्दी से जल्दी लोगों के अर्ध-ज्ञान या अज्ञान का फायदा उठाकर कमाई की जा सके। इस क्षेत्र में तरक्की बहुत तेज है और दुनिया में पुलिस व्यवस्था इतनी कुशल नहीं है कि उच्च प्रौद्योगिकी के जरिए किए गए अपराधों को तत्काल पकड़ा जा सके। कई अपराध तो ऐसे भी हैं, जो विकसित देशों की पुलिस की पकड़ से भी बाहर हैं। ज्यादा चिंता प्रौद्योगिकी के उन उत्पादों या सेवाओं को लेकर है, जिनके जरिए आम लोगों को सीधे-सीधे छला जा रहा है। ऐसे में, यदि स्वयं वैज्ञानिक या शोधकर्ता ही सचेत हो जाएं, तो समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी।

लंदनवासी एआई विशेषज्ञ ईसन गैब्रियल कहते हैं, पहले ‘टेक्नो आशावाद’ का दौर था, लेकिन हाल के वर्षों में परिदृश्य बदल गया है। इसलिए नैतिकता सुनिश्चित करने की कोशिश करता यह उपयोगी सम्मेलन हर लिहाज से प्रशंसनीय है। सम्मेलन में 9,467 शोध पत्र रखे गए, जिनमें से चार शोध पत्रों को नैतिकता के आधार पर सीधे खारिज कर दिया गया। यह पूरी कवायद अच्छे भविष्य का संकेत है। इस सम्मेलन में उन प्रस्तुतियों पर भी आपत्ति की गई है, जिनमें लोगों के व्यक्तिगत डाटा, फोटो इत्यादि का उपयोग बिना मंजूरी किया गया था। भारत में भी डाटा दुरुपयोग पिछले दिनों बहुत बढ़ गया है। चूंकि भारत एआई के क्षेत्र में दुनिया के टॉप 20 देशों में गिना जाता है, और एआई शोध में तीसरे स्थान पर है, इसलिए यहां नैतिकता सुनिश्चित करने के प्रयास स्थानीय स्तर पर भी बहुत जरूरी हैं।