28-07-2025 (Important News Clippings)
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Date: 28-07-25
Climate Justice Isn’t Just Hot Air
ET Editorials
Last week’s advisory on climate change by the International Court of Justice (ICJ) marks an extraordinary moment in the 30-plus years of international climate negotiations. Though non-binding, it provides courts the basis to hold states accountable for weak climate action, and for developing countries and vulnerable communities to seek justice and financial support.
States have concrete legal obligations grounded in existing treaties, human rights law and long-standing legal principles to protect the climate system. It is bigger than the Paris Agreement. It is not an aspirational goal but legal obligation, requir inggovernments to take meaningful action to prevent harm to the environment, work together to reduce emissions, and protect people from climate impacts. It connects to international human rights law-escalating impacts of climate change such as rising seas, deadly heat, water scarcity and food insecurity that pose a threat to fundamental rights. This reframing is critical, making climate inaction not just policy failure but legal breach. Governments are responsible for all actions within their jurisdiction. This will likely lead to repositioning protection of climate systems in policymaking. It also reaffirms the role of science in guiding legal accountability.
The advisory provided on the basis of the 2023 UN General Assembly resolution is the culmination of efforts by Vanuatu, a small Pacific Island nation, to find answers for years of slow climate action and unfulfilled promises. It reaffirms centrality of the principle of common but differentiated responsibilities and respective capabilities. While it points out that ‘developing’ is not a static category, it’s clear that developed states must take the lead.
Date: 28-07-25
भारत और भगदड़
संपादकीय

यह बड़े शर्म और दुख की बात है कि भगदड़ की एक और जानलेवा घटना घट गई। इस बार यह घटना हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में हुई। इसमें कुछ लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। वह भगदड़ यही बता रही है कि इस तरह की पहले की घटनाओं से कहीं कोई सबक नहीं सीखा गया। हाल के समय में भगदड़ की कुछ बड़ी घटनाएं हुई हैं। कुंभ में भगदड़ मचने से अनेक लोग मारे गए थे। इसके बाद बेंगलुरु में आरसीबी की जीत के जश्न में आयोजित समारोह में भगदड़ मचने से कई क्रिकेट प्रशंसकों की मौत हो गई। हाल ही में पुरी में भगदड़ जानलेवा साबित हुई। भगदड़ की घटनाओं के सिलसिले में हाथरस के एक आश्रम में बड़ी संख्या में लोगों के मारे जाने की घटना को भी नहीं भूला जा सकता। आखिर ऐसी कितनी घटनाओं के बाद शासन और प्रशासन चेतेगा। सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि भगदड़ की घटनाएं लगभग वैसे ही कारणों से रह रहकर होती रहती हैं, जैसे पहले हो चुकी होती हैं। हर बार जांच, कठोर कार्रवाई करने, सबक सीखने की बातें की जाती हैं, लेकिन नतीजा के ढाक के तीन पात वाला है। न तो शासन-प्रशासन कोई सबक सीख रहा है और न ही आम जनता संयम एवं अनुशासन का परिचय देने की आवश्यकता समझ रही है । भगदड़ की घटनाओं का सिलसिला कायम रहने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की बदनामी भी होती है, क्योंकि इन घटनाओं से यही संदेश जाता है कि भारत का शासन-प्रशासन भगदड़ रोकने में पूरी तरह नाकाम है। सार्वजनिक स्थलों पर भगदड़ की घटनाएं दुनिया के अन्य देशों में भी होती है, लेकिन उतनी नहीं जितनी अपने देश में होती ही रहती हैं।
मनसा देवी मंदिर में भगदड़ का कारण करंट फैलने की अफवाह को बताया जा रहा है। क्या इस तरह की अफवाह को रोका नहीं जा सकता था? हमारा प्रशासन कोई अनुमान लगाने में इतना अक्षम क्यों है? क्या इसका कारण उसकी संवेदनहीनता है अथवा वह कि संबंधित अधिकारी यह जानते हैं कि कैसी भी घटना हो जाए, उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला । आखिर हम दुनिया के अन्य देशों से कोई सबक सीखने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? भारत दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश है, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं हो सकता कि सार्वजनिक स्थलों और विशेष रूप से धार्मिक- सांस्कृतिक आयोजनों में लोग कुचलकर मारे जाएं। अच्छा यह होगा कि सरकारें भगदड़ की घटनाओं को लेकर प्रशासन को सच में जवाबदेह बनाना सीखें। इसके साथ ही आम लोगों को भी जापान जैसे देशों के लोगों से अनुशासन की सीख लेनी होगी। शासन- प्रशासन और आम जनता को अपने हिस्से की जिम्मेदारी इसलिए निभानी होगी, क्योंकि आने वाले समय में सार्वजनिक स्थलों पर भीड़ का दबाव और अधिक बढ़ेगा।
Date: 28-07-25
मताधिकार का स्पष्ट आधार है नागरिकता
ए. सूर्यप्रकाश, ( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर प्रक्रिया को लेकर राजनीतिक मोर्चे पर तकरार जारी है। तकरार में एक मुझ नागरिकता और मताधिकार का भी है। आज सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई भी होनी है। राजनीतिक कोलाहल से इतर देखा जाए तो यह संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण मुद्दा हैं। इसके गहरे निहितार्थ हैं, क्योंकि संविधान यह प्रविधान करता है कि 25 साल से अधिक का कोई मतदाता देश के किसी भी हिस्से से विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री भी बन सकता है। इसलिए यह चुनाव आयोग का दायित्व बन जाता है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति मतदाता न बनने पाए जो भारत का नागरिक न हो। यह सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग को संविधान ने पर्याप्त अधिकार भी दिए हैं। अनुच्छेद 324 निर्वाचन आयोग को निर्वाचक नामावली के रखरखाव तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से निर्वाचन के संचालन की शक्ति देता है और उसके कार्यों को परिभाषित करता है। वहीं, अनुच्छेद 326 में यह उपबंध है कि लोकसभा और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे, भारत का प्रत्येक नागरिक जिसकी आयु इस संबंध में विधि द्वारा यथानिर्धारित तिथि को 18 वर्ष से कम न हो और जो अन्यथा अयोग्य घोषित न किया गया हो, ऐसे किसी भी निर्वाचन में मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का हकदार होगा।
नागरिकता का यही संदर्भ जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1950 की धारा 16 में है। इसके अनुसार जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं, वह मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का भी पात्र नहीं इस तरह संविधान और संसद द्वारा पारित निर्वाचन संबंधी कानून दोनों स्पष्ट रूप से यह प्रविधान करते हैं कि केवल भारतीय नागरिक को ही मतदान का अधिकार मिल सकता है। जनप्रतिनिधि कानून की धारा 14 यह भी निर्धारित करती है कि जहां तक मतदाता सूची को तैयार करने का सवाल है तो यह कवायद संबंधित वर्ष की जनवरी, अप्रैल, जुलाई या अक्टूबर से शुरू की जा सकती है। धारा 21 चुनाव आयोग को लोकसभा या राज्य विधानसभा चुनाव से पहले उपयुक्त तिथि के संदर्भ में अपेक्षाओं के अनुरूप मतदाता सूची तैयार करने या उसे संशोधित करने का अधिकार प्रदान करती है। इसे देखते हुए मतदाता सूची से जुड़ी चुनाव आयोग की कवायद पर सवाल उठाना बेतुका ही कहा जाएगा। इसका विरोध करने वाले राजनीतिक दलों के तर्क गले नहीं उतरते।
इस संदर्भ में एक बहुत दिलचस्प मामला है। यह मामला किसी और से नहीं, बल्कि खुद नेहरू-गांधी परिवार से जुड़ा है। इसमें गैर- भारतीय नागरिक के मतदाता बनने और फिर एक जागरूक नागरिक द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद उस नाम को मतदाता सूची से हटाना पड़ा था। यह जनवरी 1980 की बात है। दिल्ली में मतदाता सूची संशोधित की जा रही थी। उस संशोधन में सेनिया गांधी का नाम शामिल किया गया था, जबकि उस समय वे इटली की नागरिक थीं। उस समय जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 लागू था। उसके अंतर्गत सूची में शामिल होने के लिए मतदाता को अपना नाम, पता, जन्मतिथि की जानकारी के साथ यह उद्घोषणा भी करनी थी कि वह भारत का की नागरिक है। इन दावों के सत्यापन के बाद ही चुनाव प्राधिकारी संस्था संबंधित व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में दर्ज करती थी। उस कानून में यह प्रविधान भी था कि किसी गलत दावे या गलत प्रतिनिधित्व के मामले में ऐसा करने वाले व्यक्ति को छह महीनों की कारावास तक हो सकती थी।
सोनिया गांधी का मूल नाम एंटोनिया माइने था। उनका विवाह 1968 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी से हुआ था। नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत आवेदन करने पर पांच साल बाद 1973 में वे भारत की नागरिक बन सकती थीं, पर उन्होंने आवेदन ही नहीं किया। अपनी इतालवी नागरिकता के बावजूद नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र की मतदाता सूची में इंदिरा गांधी, राजीव गंधी, संजय गांधी और मेनका गांधी के साथ उनका नाम भी जोड़ दिया गया था। संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत के बाद इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को राजनीति में उतारा। चूंकि राजीव औपचारिक राजनीति में उतर गए थे और उस स्थिति में सोनिया के लिए अपनी इतालवी नागरिकता को कायम रखना विरोधियों के हाथों में एक मुद्दा थमा देता, इसलिए सोनिया गांधी ने अंततः 7 अप्रैल, 1983 को नागरिकता के लिए आवेदन
किया और 30 अप्रैल, 1983 को उन्हें भारतीय नागरिकता मिल गई। हालांकि इससे पहले ही बिना भारतीय नागरिकता के उनका नाम मतदाता सूची में जोड़ दिया गया था। इसे लेकर एक प्रबुद्ध नागरिक ने दिल्ली के मुख्य चुनाव अधिकारी के समक्ष शिकायत दर्ज कराई थी और 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से हटाना पड़ा था। नागरिकता और मताधिकार के जिस विवाद के केंद्र में स्वयं सोनिया गांधी रहीं, उसे देखते हुए कांग्रेसियों का यह राग अलापन समझ नहीं आता कि नागरिकता के पहलू का मतदान अधिकार से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।
समझ नहीं आता कि विपक्षी दलों के नेता बिहार में मतदाता सूची के सत्यापन की कवायद को लेकर क्यों आसमान सिर पर उठाए हुए हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी तो यहां तक कहने में लगे हैं कि चुनाव आयोग को भाजपा के निर्देश पर काम न करते हुए कानून के हिसाब से अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। चुनाव आयोग को बिल्कुल ऐसा ही करना चाहिए कि वह प्रत्येक कानूनी कसौटी के अनुसार आगे बढ़े। इस संदर्भ में उसे अपेक्षित अधिकार भी मिल हुए हैं। अनुच्छेद 326 से लेकर निर्वाचन संबंधी कानून यह स्पष्ट करते हैं कि केवल भारतीय नागरिक ही देश के मतदाता हो सकते हैं। चुनाव आयोग अपने इस कर्तव्य से बंधा हुआ है। वह ऐसी गुंजाइश बिल्कुल भी नहीं छोड़ सकता कि कोई गैर- भारतीय नागरिक मतदाता सूची का हिस्सा बन जाए।
Date: 28-07-25
बाजार संभावनाओं को भुनाने का मौका
डा. जयंतीलाल भंडारी, ( लेखक अर्थशास्त्री हैं )

देश में लोगों की बढ़ती आमदनी, शहरीकरण के कारण बदलती जीवनशैली और खानपान की आदतों में परिवर्तन के कारण भारत के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र का बाजार आकार तेजी से बढ़ रहा है। हाल में डेलायट और फिक्की द्वारा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग पर एक रिपोर्ट जारी की गई। इसके मुताबिक देश में परिवारों के खाद्य बजट का वित्त वर्ष 2000-01 में अनाज और दालों पर 40 प्रतिशत खर्च किया जाता था, वह वित्त वर्ष 2023-24 में यह खर्च घटकर महज 14 प्रतिशत पर पहुंच गया। देश में खानपान तो लगभग हर आय वर्ग का बदला है, लेकिन शहरी संपन्न वर्ग अब अपने मासिक खाद्य बजट का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा पैकेज्ड फूड, बाहर खाने और डिलीवरी पर खर्च कर रहा है। ग्रामीण भारत में भी इसी तरह का बदलाव दिख रहा है। ग्रामीण खपत अनाज से पेय पदार्थों और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की ओर बढ़ रही है। रिजर्व बैंक के अनुमान के अनुसार कृषि उत्पाद जब तैयार भोजन का रूप लेता है तो उसके मूल्य में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि होती है। पीएचडी चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के मुताबिक भारत के खाद्य प्रसंस्करण बाजार का आकार वर्ष 2023 में करीब 307 अरब डालर था, इसके वर्ष 2030 तक करीब 700 अरब डालर पर पहुंचने की उम्मीद है। साथ ही कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र से निर्यात बढ़कर वर्ष 2030 तक 125 अरब डालर होने की उम्मीद है।
इसे देखते हुए भारत ने खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए व्यापक सुधार शुरू किए हैं। भारत खाद्य प्रसंस्करण में सौ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना, सूक्ष्म खाद्य प्रसंस्करण उद्यमों का औपचारीकरण, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना (पीएलआइ) जैसी बहुआयामी पहलों के माध्यम से पौष्टिक दुनिया के निर्माण के सपने को साकार करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा रहा है। पिछले दस वर्षों में भारत को खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक का एफडीआई प्राप्त हुआ है। इस दौरान हमारी खाद्य प्रसंस्करण क्षमता 15 गुना बढ़कर दे सौ लाख टन से अधिक हो गई है। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र कई अन्य पूंजी आधारित उद्योगों की तुलना में ज्यादा रोजगार प्रदान करता है। भारत में खाद्य प्रसंस्करण के तहत डेरी, फल एवं सब्जी, अनाज मांस, मछली एवं पोल्ट्री तथा उपभोक्ता वस्तुएं पैकेट बंद खाद्य और पेय पदार्थ आते हैं।
सरकार ने इन क्षेत्रों की व्यापक संभावनाओं का लाभ उठाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के लिए सुनिश्चित किए गए एक लाख करोड़ रुपये की वित्त पोषण सुविधा से खाद्य प्रसंस्करण उद्योग लाभान्वित हो रहा है। खाद्य प्रसंस्करण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार लाजिस्टिक्स क्षेत्र को बुनियादी ढांचे का दर्जा दे चुकी है। वर्ष 2020 से शुरू की गई किसान ट्रेनें भी खाद्य प्रसंस्करण बढ़ाने में अहम भूमिका निभा रही हैं। उल्लेखनीय है कि कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के अंतर्गत विभिन्न फलों, खाद्यान्नों और फूलों की खेती के लिए निर्यात संवर्धन मंच (ईपीएफ) का गठन किया गया है। मौजूदा ‘कृषि – क्लस्टरों को मजबूत करने और अधिक उत्पाद विशेष वाले क्लस्टर बनाने पर भी जोर दिया जा रहा है। छोटे फूड प्रोसेसिंग उद्योगों को वित्त, तकनीक और अन्य तरह की मदद पहुंचाने के लिए खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय केंद्रीय प्रायोजित पीएम फार्मलाइजेशन आफ माइक्रो फूड प्रोसेसिंग एंटरप्राइज योजना’ चला रही है। इस योजना के तहत राज्यों की जिम्मेदारी है कि वे कच्चे माल की उपलब्धता का ध्यान रखते हुए हर जिले के लिए एक खाद्य उत्पाद की पहचान करें। एक जिला- एक उत्पाद के आधार पर चुने गए उत्पादों का प्रोडक्शन करने वाले उद्योगों को प्राथमिकता के आधार पर मदद दी जा रही है। वस्तुतः खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र कृषि और विनिर्माण का महत्वपूर्ण घटक है। यह कृषि क्षेत्र में किसानों की आय बढ़ाने में मदद करता है, लेकिन इसमें भारत अभी बहुत पीछे है। भारत में कुल खाद्य उत्पादन का 10 प्रतिशत से भी कम हिस्सा प्रसंस्कृत होता है। सब्जियों के लिए प्रसंस्करण स्तर 2.7 प्रतिशत, फलों के लिए 4.5 प्रतिशत, मत्स्य पालन के लिए 15.4 प्रतिशत और दूध के लिए 21.1 प्रतिशत है।
भारत के खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर में पीछे रहने का एक बड़ा कारण खाद्यान्न भंडारण का अभाव है। अनाज के भंडारण की सही व्यवस्था नहीं होने की वजह से 12 से 14 प्रतिशत तक खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। कृषि उपज हासिल करने के तुरंत बाद किसानों को उसे बेच देना पड़ता है। देश में खाद्यान्न उत्पादन की तुलना में भंडारण की क्षमता आधी से भी कम करीब 1450 लाख टन ही है। उम्मीद है कि सरकार द्वारा हाल में स्वीकृत धन-धान्य और समृद्धि योजना से इसे बढ़ाने में मदद मिलेगी। खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर में बढ़ती हुई आर्थिक, निर्यात और रोजगार संभावनाओं का लाभ उठाने के लिए सरकार को इस सेक्टर के समक्ष आ रही बाधाओं का निराकरण करना चाहिए। खाद्य उत्पादों के प्रसंस्करण स्तर को बढ़ाया जाना चाहिए। कटाई के बाद फसलों की बर्बादी रोकने, खाद्य सुरक्षा, गुणवत्ता प्रमाणन व्यवस्था, तकनीकी उन्नयन और लाजिस्टिक सुधार से देश का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग तेजी से बढ़ेगा।

Date: 28-07-25
दृष्टिकोण में बदलाव
संपादकीय
पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा के दौरान दोनों देशों ने व्यापक आर्थिक और व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया और उस पर हस्ताक्षर किए। इसे हाल के वर्षों में भारत द्वारा किया गया सबसे व्यापक व्यापार करार माना जा रहा है। दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर पिछले कुछ वर्षों से चर्चा चल रही थी। इस बारे में जनवरी 2022 में औपचारिक वार्ता शुरू हुई थी और ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने उम्मीद जताई थी कि यह समझौता उसी साल दीपावली तक हो जाएगा। मगर तथ्य यह है कि समझौते पर अनौपचारिक चर्चा 2016 में ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए हुए मतदान से पहले से ही चल रही थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उस दौरान जो कुछ भी बातचीत हुई थी, उसकी रूपरेखा बदल गई थी। 6 या 7 साल पहले स्थिति यह थी कि जब तक किसी भी समझौते में बीजा या प्रवासियों का बझ मुद्दा शामिल न हो, भारत शुल्क कटौती पर चर्चा से इनकार करना चतुराई समझता था।
ऐसी मांगों के कारण 10 डाउनिंग स्ट्रीट में डेविड कैमरन की उत्तराधिकारी दरीसा मे के साथ बातचीत में बाधा आई थी। मगर इस दरमियान ब्रिटेन का राजनीतिक माहौल प्रवासन के खिलाफ हो चुका है। समझौते में महज 1,300 अतिरिक्त पेशेवर वीजा का वादा किया गया है। इस संयम की बुद्धिमत्ता तब स्पष्ट हो गई जब बचत योजनाओं में दोहरे योगदान संबंधी एक अहानिकर प्रावधान भी ब्रिटेन में बड़ा विवाद का कारण बन गया जबकि इस समझौते में अन्य कमियां भी हैं। उदाहरण के लिए निवेश पर अभी भी चर्चा होनी बाकी है। हालांकि यह कहना उचित होगा कि यह एक प्रमुख अर्थव्यवस्था के साथ सबसे व्यापक समझौता है और यह व्यापार को लेकर भारत की मानसिकता में महत्त्वपूर्ण बदलाव को प्रतिबिंबित करता है।
सवाल यह है कि मानसिकता में इस बदलाव को अब अन्य व्यापारिक भागीदारों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ (ईयू) पर कितना और किस तरह लागू किया जा सकता है भारत ईयू मुक्त व्यापार समझौता करने की समय सीमा निर्धारित की गई है और भारत के प्रधानमंत्री और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला बॉन डेर लेखेन ने कहा है कि इसे इस साल के अंत तक संपन्न हो जाना चाहिए। भारत ने ब्रिटेन से जो प्रतिबद्धताएं की हैं और रियायतें दी हैं, उनसे देश में बहुत कम या कोई राजनीतिक चिंता नहीं हुई है। इसलिए बातांकार यूरोपीय संघ के साथ बातचीत में शुल्क में अधिक कटौती का जोखिम उठा सकते हैं। यूरोपीय संघ के साथ वार्ता में इनमें से कुछ की आवश्यकता पड़ सकती है क्योंकि ईयू को अपने आकार और अफसरशाही ढांचे को देखते हुए अन्य की तुलना में अधिक व्यापक चर्चा और समझौते की आवश्यकता होगी। लेकिन इसके फायदे भी उतने ही व्यापक होंगे। ब्रिटेन के उलट यूरोपीय संघ अभी भी प्रमुख विनिर्माण ताकत है और कई वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के केंद्र में है, जिनमें भारतीय उत्पादकों को प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। इस दृष्टिकोण से, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौता आने वाले वर्ष में भारत की आर्थिक संभावनाओं को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा उठाया जाने वाला सबसे बड़ा परिवर्तनकारी कदम हो सकता है।
इसके अलावा भारत को रक्षात्मक कार्रवाई भी करनी होगी ताकि अमेरिका के साथ भारत की बाजार पहुंच और व्यापार अधिशेष की रक्षा हो सके। अमेरिका में आयात पर ऊंचा शुल्क लगाने की राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की दूसरी समय-सीमा नजदीक आ रही है और जापान जैसे कई देशों ने पहले ही उसके साथ समझौतों की घोषणा कर दी है। हालांकि इनमें से कोई भी समझौता उन देशों के पक्ष में ज्यादा अनुकूल नहीं हैं। ब्रिटेन अमेरिका से आयात की तुलना में कम निर्यात करता है, फिर भी उसे 10 फीसदी बुनियादी शुल्क का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका में जापान के उत्पाद पर 15 फीसदी कर चुकाना पह रहा है और उसे घटिया अमेरिकी चावल के खिलाफ सुरक्षा छोड़नी पड़ी है। इस विशेषाधिकार के बदले में उसने अमेरिका में 550 अरब डॉलर का निवेश करने का वादा किया है। भारत को भी इसी तरह की रियायतें देनी पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि भारत और अमेरिका किस स्तर का समझौता करेंगे।
Date: 28-07-25
नया अध्याय
संपादकीय
बीते लगभग दो वर्षों के दौरान तेज उतार-चढ़ाव के बाद भारत और मालदीव के संबंधों में जो नई गर्मजोशी देखी जा रही है, उसे दोनों देशों के अतीत के मजबूत सहयोग को फिर से नया स्वरूप देने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माले यात्रा के दौरान भारत ने मालदीव को 4,850 करोड़ रुपए की ऋण सुविधा देने की घोषणा की और जल्दी ही एक मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने पर भी सहमति बनी। इसके अलावा, दोनों पक्षों ने मत्स्य पालन और कृषि मौसम विज्ञान, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना, यूपीआइ, भारतीय ‘फार्माकोपिया’ और ऋण सुविधा के क्षेत्र में छह समझौतों पर हस्ताक्षर किए। रक्षा और समुद्री सुरक्षा सहित कई अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग को मजबूत करने के लिए हुई व्यापक वार्ता से यह उम्मीद की जा सकती है कि अब भारत और मालदीव के संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी। खासतौर पर भारत ने मालदीव के सामने जिस स्तर का धीरज दिखाया और अब भरोसे की दोस्ती को आगे बढ़ाने पर जोर दिया है, वह मालदीव के लिए भी सकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करेगा।
दरअसल, इस संदर्भ में सहयोग के नए सिरे खुलने की अहमियत इसलिए भी है कि ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक बेमानी मुद्दे पर मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू के रुख ने दोनों देशों के बीच नाहक ही एक कड़वाहट पैदा कर दी थी। तब मालदीव की ओर से भारत विरोधी कई बयान दिए गए थे और भारतीय सेना की उपस्थिति पर आपत्ति जताई गई थी। स्थिति ऐसी थी कि अगर भारत ने धीरज नहीं दिखाया होता तो तस्वीर दूसरी होती। मालदीव के अप्रत्याशित रुख के बावजूद भारत ने अपनी ओर से उसकी सहायता के दरवाजे बंद नहीं किए। नतीजा यह निकला कि कुछ समय बाद मालदीव को अपने रुख पर फिर से विचार करना पड़ा और आखिर उसकी ओर से संबंध सुधारने की दिशा में पहलकदमी हुई। हालांकि उस समय भी एक तरह से यह साफ था कि मालदीव की ओर से उठाए जाने वाले नाहक सवालों पर चीन का प्रभाव काम कर रहा था। खुद राष्ट्रपति मुइज्जू को चीन समर्थक माना जाता है।
संभव है कि उस समय किन्हीं वजहों से मालदीव की सरकार को भविष्य में पैदा होने वाली परिस्थितियों के बारे में आकलन में हड़बड़ी हुई हो मगर अब उसके रुख में बदलाव एक बेहतर भविष्य की राह खोल सकता है। पर्यटन मालदीव की अर्थव्यवस्था का एक सबसे बड़ा आधार है। वहां सबसे ज्यादा भारत और चीन के पर्यटक जाते रहे हैं। मगर विवाद के हालात पैदा होने के बाद भारत की ओर से कई पर्यटकों ने मालदीव न जाने को लेकर अभियान चलाया था। जाहिर है, अगर तनाव का वह रास्ता आगे की ओर बढ़ता, तो मालदीव के सामने नई आर्थिक चुनौतियां खड़ी हो सकती थीं। चीन के बारे में अब सभी जानते हैं कि वह किसी देश की मदद के संदर्भ में भी सबसे पहले अपना हित ही सुनिश्चित करता है। उसकी नजर में हिंद महासागर में मालदीव शक्ति संतुलन में एक बड़ी भूमिका निभाता है। वहीं, चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए भारत के लिए वहां अपनी रणनीतिक मौजूदगी को कायम रखना बेहद अहम है। हालांकि भारत परस्पर सहयोग और सद्भावना को प्रमुखता देने वाला देश रहा है। यही कारण है कि भारत ने मालदीव को पर्याप्त महत्त्व दिया है और शायद अब मालदीव को इसकी अहमियत समझ में आ रही है।
Date: 28-07-25
बढ़ रही है लोकप्रियता
विनीत नारायण
हाल में जारी हेनले पासपोर्ट इंडेक्स-2025 में भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला है। पिछले वर्ष के 85वें स्थान से 8 पायदान ऊपर चढ़ कर भारत अब 77वें स्थान पर पहुंच गया है। इसका सीधा लाभ पासपोर्टधारकों को मिल रहा है, और यह हमारी अर्थव्यवस्था तथा वैश्विक संबंधों के लिए भी शुभ संकेत है।
हेनले पासपोर्ट इंडेक्स एक वैश्विक बेंचमार्क है, जो दुनिया के पासपोर्टों को उनकी यात्रा स्वतंत्रता के आधार पर रैंक करता है यानी है कोई पासपोर्टधारक बिना पूर्व वीजा के कितने देशों की यात्रा कर सकता है। भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में यह सुधार सीधे तौर पर भारतीय नागरिकों के लिए अधिक वीजा मुक्त या वीजा- ऑन अराइवल देशों तक पहुंच का मार्ग प्रशस्त करता है। वर्तमान में भारतीय पासपोर्टधारक 59 देशों में बिना पूर्व वीजा के यात्रा कर सकते हैं, जबकि पिछले साल यह संख्या 57 थी। यह बढ़ी हुई पहुंच भारतीय यात्रियों के लिए कई मायनों में फायदेमंद है। वीजा प्रक्रिया अक्सर लंबी, जटिल और खर्चीली होती है। वीजा मुक्त या वीजा ऑन अराइवल की सुविधा यात्रा योजना को सरल बनाती है, समय बचाती है, और अचानक यात्राओं को संभव बनाती है। यह व्यापार, पर्यटन और व्यक्तिगत यात्राओं को बढ़ावा देती है। व्यापारिक पेशेवरों के लिए आसान अंतरराष्ट्रीय यात्रा व्यावसायिक अवसरों को बढ़ाने में मदद करती है। इससे विदेशी निवेश आकर्षित होता है, और भारतीय व्यवसायों को वैश्विक बाजारों तक पहुंचने में आसानी होती है। भारतीय पर्यटकों के लिए अधिक गंतव्यों तक आसान पहुंच अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को प्रोत्साहित करती है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है, और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा मिलता है। छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए आसान यात्रा विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन या शोध के लिए नये अवसर खोलती है, जिससे ज्ञान और सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ता है।
मजबूत पासपोर्ट किसी देश की वैश्विक प्रतिष्ठा और उसके नागरिकों की स्वीकार्यता को दर्शाता है। यह भारत की बढ़ती ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्त्वपूर्ण संकेतक है। भारतीय पासपोर्ट की रैंकिंग में उछाल के पीछे कई कारक हैं। भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने और वीजा समझौतों को उदार बनाने पर विशेष जोर दिया है। विदेश मंत्रालय की सक्रिय कूटनीति ने कई देशों को भारतीय नागरिकों के लिए वीजा नीतियों में ढील देने के लिए प्रेरित किया है। भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, और वैश्विक भू-राजनीति में इसकी भूमिका लगातार बढ़ रही है। भारत का आर्थिक उदय और रणनीतिक महत्त्व अन्य देशों को भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने और भारतीय नागरिकों को अधिक सुगम यात्रा सुविधाएं प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित करता है। किसी भी देश की पासपोर्ट रैंकिंग में उसकी आंतरिक सुरक्षा स्थिति और राजनीतिक स्थिरता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भारत में पासपोर्ट आवेदन प्रक्रिया को डिजिटल और सरल बनाने के प्रयासों ने भी अप्रत्यक्ष रूप से इस सुधार में योगदान दिया है। सुगम और पारदर्शी पासपोर्ट सेवाएं नागरिकों के लिए अंतरराष्ट्रीय यात्रा को और अधिक व्यवहार्य बनाती हैं। इसके साथ ही कोविड- 19 महामारी के दौरान यात्रा प्रतिबंधों के कारण दुनिया भर के पासपोर्टों की रैंकिंग प्रभावित हुई थी। अब जब वैश्विक यात्रा धीरे-धीरे सामान्य हो रही है, तो देशों के बीच समझौते और यात्रा की बहाली रैंकिंग में सुधार का कारण है। भारतीय पासपोर्ट की इस क्रमशः बढ़ती ताकत को बनाए रखना और उसे मजबूत करना सतत प्रक्रिया है। इसके लिए कई उपायों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। विदेश मंत्रालय को दुनिया के उन देशों के साथ बातचीत जारी रखनी चाहिए जो अभी भी भारतीय नागरिकों के लिए सख्त वीजा आवश्यकताएं रखते हैं। विशेष रूप से उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां भारतीय व्यापार, पर्यटन या छात्र समुदाय की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति है। भारत को अपनी आर्थिक वृद्धि दर को बनाए रखना चाहिए और वैश्विक व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों का सम्मान करना और उनका प्रभावी ढंग से पालन करना किसी भी देश की विश्वसनीयता को बढ़ाता है, जिससे अन्य देश उसके नागरिकों को अधिक वीजा स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। आंतरिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था का मजबूत ढांचा किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए महत्त्वपूर्ण है। यह पर्यटकों और व्यापारिक आगंतुकों के लिए सुरक्षित वातावरण का आश्वासन देता है। भारत को उन देशों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना चाहिए जो ई-वीजा या वीजा ऑन अराइवल की पेशकश नहीं करते। सरकार को भारतीय पासपोर्टधारकों के लिए उपलब्ध वीजा-मुक्त / वीजा ऑन अराइवल देशों के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिए। विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर नियमित अपडेट और सार्वजनिक जागरूकता अभियान इसमें मदद कर सकते हैं। भारत को ‘अतिथि देवो भव’ की अपनी परंपरा के अनुरूप विदेशी पर्यटकों का स्वागत करना जारी रखना चाहिए। सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आदान-प्रदान से भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ बढ़ती है, जिसके बदले में अन्य देशों से वीजा उदारता प्राप्त होती है। भारत की विदेश नीति को लेकर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। इस नीति के आलोचकों का कहना है कि हाल में हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के मामले में दुनिया का कोई भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ जबकि चीन, टर्की आदि ने पाकिस्तान को खुला समर्थन देने की घोषणा की थी। उधर, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दर्जनों बार दोहराया कि भारत पाकिस्तान के बीच उन्होंने ही सीज- फायर करवाई है जबकि भारत के विदेश मंत्रालय ने ट्रंप के इस दावे का बार-बार खंडन किया।
दरअसल, किसी भी देश की विदेश नीति का आधार उसकी आर्थिक प्राथमिकताएं व भू- राजनैतिक ( जियो पॉलिटिकल) बाध्यताओं से निर्धारित होती है। अंतरराष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में जहां एक तरफ अमेरिका और रूस की नजर हमेशा भारत के बड़े बाजार पर रहती है। वहीं चीन से संतुलन बनाए रखने के लिए इन्हें पाकिस्तान को भी साधना पड़ता है क्योंकि उसकी भौगोलिक स्थिति ही ऐसी है इन सब दबावों के बीच भारत अपनी विदेश नीति तय करता है।
Date: 28-07-25
व्यापार के नए दौर में भारत और ब्रिटेन
हर्ष वी पंत, ( प्रोफेसर, किंग्स कॉलेज, लंदन )
भारत और ब्रिटेन के बीच हुआ नया आर्थिक करार नई विश्व व्यवस्था में आपसी संबंधों का मजबूत आधार बनाने का काम करेगा। करीब तीन साल के लंबे इंतजार के बाद दोनों देशों ने आखिरकार बीते गुरुवार को मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। यह संधि एक ऐसे वक्त पर हुई है, जब विशेषकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीतियों के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल है।
भारत और ब्रिटेन का मुक्त व्यापार समझौता कई अर्थों में बेहद महत्वपूर्ण और दोनों देशों के अनुकूल भी है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कोर स्टारमर ने कहा है कि यह समझौता ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाएगा और ब्रिटिश कंपनियों के लिए फायदेमंद साबित होगा। समझौते की शर्तों के मुताबिक, व्हिस्की, कार, ऑटोमोबाइल क्षेत्रों में काम करने वाली ब्रिटिश कंपनियां अब कहीं अधिक आसानी से भारत में नियत कर सकेंगी। इसके बर अक्स, करीब 99 प्रतिशत भारतीय निर्यात वहां शुल्क मुक्त कर दिए गए हैं। यहां से जाने वाले रत्न आभूषण, समुद्री उत्पाद, वस्त्र, खाद्य तेल आदि उत्पादों पर अब कोई कर नहीं चुकाना होगा। यही वजह है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समझौते से व्यापार, निवेश, विकास व रोजगार- सृजन के नए रास्ते खुलने की उम्मीद जताई है।
ब्रिटेन के नजरिये से देखें, तो उसे इस समझौते की बेहद जरूरत थी। खासतौर से 2020 के बाद से, जब वह यूरोपीय संघ से अलग हुआ था, उसे ऐसी बड़ी आर्थिक ताकतों की तलाश रही है, जो उसकी अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद कर सके। भारत इस पैमाने पर खरा उतरता है। भारत फिलहाल चौथी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत है, जो जल्द ही शीर्ष तीन में शुमार होने वाला है। लिहाजा, वह ब्रिटेन के हित में है कि वह भारत का साथ लेकर आगे बढ़े। इधर, भारत की इच्छा समान सोच वाले देशों के साथ अच्छे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंध विकसित करने की रही है। नई दिल्ली उन तमाम ऐसे देशों का साथ चाहती है, जिनसे भारत की आर्थिक क्षमता को बल मिले। इससे भारत की विकास दर में भी इजाफा होगा। जाहिर है, इस समझौते में दोनों देशों के हितों को पूरा करने की भरपूर संभावना दिखती है।
‘ब्रेग्जिट’ के बाद से ब्रिटेन का किसी देश के साथ यह सबसे महत्वपूर्ण और सबसे अधिक महत्वाकांक्षी समझौता है। एक तरह से यह समझौता उसकी विदेश और आर्थिक, दोनों नीतियों को फिर से परिभाषित कर रहा है। अब उसके बाजार में आने वाले भारतीय उत्पादों की कीमतें घट जाएंगी। चूंकि 99 फीसदी भारतीय उत्पाद अब टैरिफ मुक्त हो गए हैं, इसलिए वहां भारतीय कंपनियों को विस्तार करने का मौका मिलेगा। इसमें ब्रिटेन में काम कर रहे भारतीयों को सामाजिक सुरक्षा में मिलने वाली तीन साल की छूट भी काफी मददगार साबित हो सकती है। माना जा रहा है कि 75,000 भारतीयों को इसका लाभ मिलेगा। इस तरह की व्यवस्था ब्रिटेन ने अमेरिका, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ के देशों के साथ ही कर रखी है।
देखा जाए, तो इस समझौते की एक बड़ी बुनियाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तैयार की है। वह जब से व्हाइट हाउस में आए हैं, अपने टैरिफ संबंधी फैसलों से तमाम देशों की उलझनें बढ़ा रहे हैं। आलम यह है कि कई देश अमेरिकी बाजार से विमुख होने के बारे में सोचने लगे हैं और अपने उत्पादों के लिए नए ठिकाने की तलाश कर रहे हैं। भारत और ब्रिटेन जैसे देश आर्थिक नीतियों में स्थिरता के हिमायती रहे हैं। इसीलिए, उन्होंने इस समझौते पर मुहर लगाई, जिसे व्यापक आर्थिक व्यापार समझौता भी कहा जा रहा है। कुछ उद्योगों में भारत को काफी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ रहा था, क्योंकि उनमें श्रम का ज्यादा इस्तेमाल होता है। अब उसमें भारत को फायदा मिल सकता है। ब्रिटेन के बाजार में भारतीय उत्पादों को जो औसतन 15 फीसदी शुल्क देना पड़ता था, वह भी घटकर पांच प्रतिशत पर आ गया है। इन सबसे एक नया आर्थिक रोडमैप तैयार होगा।
हालांकि, इस समझौते में पेशेवर कामगारों के आवागमन की चर्चा तो है, पर भारत ने वीजा व्यवस्था में जो रियायत की मांग की थी, विशेषकर आईटी और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवरों की सहूलियत का जो मसला उठाया था, वह उतना प्रभावी रूप से समझौते में शामिल नहीं हो सका। मगर भारत ने उदारता दिखाने का ही संकेत दिया है, ताकि बन रही ‘ग्लोबल वैल्यू चेन’ में वह बेहतर तरीके से शामिल हो सके। ‘ग्लोबल वैल्यू चेन’ का आशय किसी उत्पाद या सेवा के निर्माण व वितरण की उस श्रृंखला से है, जो कई देशों में फैली होती है। यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पसरा उत्पादन नेटवर्क है, जिसमें विभिन्न देशों में स्थित कंपनियां एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करती हैं। चूंकि भारतीय उद्योग लगातार अंतरराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला कर रहे हैं, इसलिए इसमें हमारा शामिल होना फायदेमंद होगा।
हालांकि, इस समझौते का एक और पहलू भी है। ‘ब्रेग्जिट’ के बाद से ब्रिटेन ऐसी विदेश नीति की खोज में है, जिसमें नए अवसरों की उसकी तलाश पूरी हो सके। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जिस तरह से नए समीकरण बन रहे हैं, उसमें उसे भारत से बेहतर कोई दूसरा साथी नहीं मिल सकता था। प्रधानमंत्री मोदी की पूरी यात्रा में इसकी तस्दीक भी होती है। इस दौरे में आर्थिक समझौता तो किया ही गया, तकनीक, रक्षा और सुरक्षा, शिक्षा आदि पर भी आपसी संबंधों को आगे बढ़ाने पर जोर दिया गया। दोनों देशों के बीच आम लोगों के जुड़ाव के ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। इस रिश्ते को भी नए ढांचे में गढ़ने की जरूरत बताई गई है। भारत विरोधी अतिवादी समूहों पर कड़ी कार्रवाई करने की बात कही गई है। चूंकि दोनों देश चरमपंथ से जूझ रहे हैं, इसलिए सरकारी और खुफिया तंत्रों के एक साथ काम करने पर भी उन्होंने हामी भरी है।
कुल मिलाकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिटेन यात्रा आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक व सामरिक नजरिये से भी अहम रही। दोनों देश न सिर्फ आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, बल्कि एक-दूसरे के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए भरपूर उत्साह दिखा रहे हैं। इसीलिए यह गलत नहीं कहा जा रहा कि नई विश्व व्यवस्था में दोनों देश आपसी संबंधों को नए सिरे से गढ़ रहे हैं।