28-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:28-05-18
Robust Economy, But Polity Vulnerable
ET Editorials
As the Modi government completes four years, it can look back with some satisfaction on the economy. However, the polity is a mixed bag. As the government gets into election mode in the run-up to three crucial state elections towards the end of the calendar year, with the next general elections due early on in 2019, it would do well to not take the foot off the pedal on the economic front and do better on the political one.
Economic growth has been at a creditable compound average growth rate of 7.3% over the last four years, assuming the statistical office’s estimate for 2017-18 GDP. A world economy struggling to emerge out of the fallout of the 2008 financial crisis was not particularly conducive to fast growth, except in terms of keeping commodity prices, especially that of crude, down, helping contain inflation, the subsidy burden and the fiscal deficit. Serious structural reform has been accomplished. The Insolvency and Bankruptcy Code closes a chapter of crony capitalism in which corporate chieftains brazenly defaulted on their bank loans without fear of losing their companies. The goods and services tax has finally been put in place, full 26 years after Manmohan Singh proposed a VAT in the 1991 reform Budget. State monopoly on coal has been scrapped, paving the way for efficient merchant mining of India’s abundant domestic energy source. Demonetisation was a sapping, fruitless disruption of the economy. The power sector continues to be hostage to political reluctance to make consumers pay for their power. While state-funded infrastructure is being built, gross fixed capital formation remains an anaemic 28.5% of GDP. Fixing the twin balance-sheet problem is on but has taken too long.
The BJP’s conquest of India had progressed strongly, till it stumbled in Karnataka. However, social divisions on religious and caste lines have aggravated. Four senior judges of the Supreme Court have alleged disorder in the court’s working. Money power in politics has grown, along with opacity of funding. Unverified news on social media degrade the political discourse.
Date:28-05-18
Functional Healthcare to Stop Pandemics
ET Editorials
The Nipah virus outbreak in Kerala is the latest instance of a zoonotic disease (in which the pathogen is transmitted from animals to humans) outbreak. Though authorities have contained its spread, the Nipah virus outbreak must serve as a wake-up call to improve public health delivery systems and for focusing attention on ensuring ecological integrity of habitats.
Agriculture and urbanisation have encroached on forests, shrinking the buffers separating wildlife from humans. The result is a dramatic rise in opportunities for easy transmission of pathogens from wild animals to humans. Experts say that the periodicity, intensity and geographical spread of zoonotic diseases will rise with climate change. This calls for both preventive and reactive measures: ensuring ecological integrity and improving the healthcare system. Protecting and restoring the natural habitat of wildlife would stem the transmission of pathogens. The stray animal population of cows, monkeys, dogs and cats, especially in densely populated areas, must be brought down. It is not possible to completely limit zoonotic diseases; so, a robust healthcare system is crucial, complete with surveillance capability, for local authorities to respond fast and seek out support from specialised agencies, as happened in Kerala. What is called for is a robust network of staffed and stocked primary care centres, linked to secondary and tertiary care centres, along with the capacity to mobilise the affected community to preventive action.
India must lay special emphasis on developing vaccines as well. India has the human and scientific resources required to produce low-cost vaccines whose production can be ratcheted up swiftly for mass deployment, when an emergency strikes. The Nipah outbreak is a wake-up call.
Date:28-05-18
कृत्रिम बुद्धिमत्ता का नौकरियों पर सकारात्मक असर मुमकिन
श्यामल मजूमदार
मई की शुरुआत में इस समाचारपत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2017-18 के दौरान देश की शीर्ष चार सूचना प्रौद्योगिकी सेवा कंपनियों की तरफ से नौकरियां देने की दर तीन-चौथाई कम रही। कई विश्लेषकों ने इस आंकड़े को इस बात का सबूत माना कि ऑटोमेशन आधारित उपकरणों और तकनीकों को तवज्जो मिलने से नौकरियां खत्म हो रही हैं, बढ़ नहीं रही हैं।
वैसे इसकी ठीक विपरीत बात भी सही हो सकती है। नई तकनीक अपनाने के मामले में तेजी दिखाने वाले उन्नत देशों के आंकड़े बताते हैं कि ऑटोमेशन के चलते नौकरियों में आई कमी की तुलना में नौकरियां देने में तेजी की दर बढ़ी है। मसलन, भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों के संगठन नैसकॉम के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में नई तकनीक एवं कारोबारी बदलावों के चलते हरेक साल 2.1 करोड़ नौकरियां चली जाती हैं लेकिन इनकी वजह से 2.3 करोड़ नई नौकरियां पैदा भी होती हैं। मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट का नया शोध भी कहता है कि तकनीकी स्वचालन के चलते दुनिया भर में वर्ष 2030 तक करीब 15 फीसदी नौकरियां कम हो जाएंगी लेकिन नई तकनीकों के चलते पैदा हो रहे नए रोजगार उसकी भरपाई कर देंगे। लेकिन ऐसा कर पाना काफी चुनौतीपूर्ण होगा। इसकी वजह यह है कि नई तरह का रोजगार पाने के लिए अधिक कुशलता की जरूरत होगी, सामान्य कुशलता की जरूरत वाली नौकरियां तो मशीनों के पास चली जाएंगी। मसलन, कृत्रिम बुद्धिमत्ता की निगरानी या स्वचालित कारों के लिए ढांचा तैयार करने के क्षेत्र में नए रोजगार पैदा होने की संभावना है। लेकिन यह एकतरफा नहीं होगा। कम दक्षता से संबंधित नौकरियों में उसी तरह की बढ़ोतरी नहीं होगी।
इसका मतलब है कि तमाम क्षेत्रों में अपने कार्यबल को नई कुशलता से लैस करना एक तात्कालिक और व्यापक स्तर की जरूरत है। जैसे, आईटी सेवा कंपनियां परंपरागत आईटी सेवाओं में प्रशिक्षित इंजीनियरों को रोजगार देती हैं लेकिन बाजार तेजी से डिजिटल दिशा में बढ़ रहा है लिहाजा एनालिटिक्स, एआई, डेटा साइंस, ब्लॉकचेन, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और मोबाइल तकनीक जैसे उभरते क्षेत्रों के लिए अलग तरह की दक्षता जरूरी होगी। फिक्की-नैसकॉम और ईवाई की संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट ‘फ्यूचर ऑफ जॉब्स इन इंडिया’ बताती है कि बदलाव काफी बड़े स्तर पर हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2022 तक करीब नौ फीसदी नौकरियां ऐसी होंगी जिनका आज वजूद भी नहीं है जबकि 37 फीसदी रोजगारों के लिए दक्षता का स्तर पूरी तरह बदल चुका होगा। बाकी 54 फीसदी नौकरियों के लिए जरूरी कौशल के पैमाने में कोई खास बदलाव नहीं आएगा।
इसका मतलब है कि सभी कंपनियों को लगातार सीखने की संस्कृति अपनानी होगी ताकि नई तरह का कौशल विकसित किया जा सके। किसी भी स्तर पर ऐसा कर पाने में नाकाम रहने का मतलब नौकरी गंवाने का जोखिम मोल लेना होगा। इस अध्ययन के मुताबिक संगठित विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में रोजगार मौजूदा 3.8 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2022 तक 4.6-4.8 करोड़ हो जाएगा। नई तरह के कुल रोजगार वर्ष 2022 तक संगठित रोजगार में 20-25 फीसदी बढ़ोतरी करने की स्थिति में होंगे।
आईटी उद्योग में कार्यरत करीब 40 फीसदी पेशेवरों को नए कौशल से लैस करने की जरूरत है ताकि अगले पांच वर्षों में होने वाले तकनीकी बदलावों के मुताबिक वे खुद को तैयार कर सकें। बड़ी आईटी कंपनियों ने तो इस दिशा में काम करना शुरू भी कर दिया है। इन्फोसिस ने अपने कर्मचारियों को नई तकनीक एवं नवाचार के लिए तैयार करने के मकसद से डिजाइन थिंकिंग प्लेटफॉर्म शुरू किया है और व्यापक स्तर पर मुक्त ऑनलाइन कोर्स चलाने वालों के साथ भी मिलकर काम कर रही है। टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) ने डिजिटल प्रौद्योगिकी में कार्यरत एक लाख लोगों को दक्ष बनाने की बात कही है। विप्रो ने अपने कर्मचारियों की कुशलता बढ़ाने के लिए न्यूटंस क्रेडल नाम से एक अभियान चलाया हुआ है। वहीं कॉग्निजेंट ने एक डिजिटल यूनिवर्सिटी प्लेटफॉर्म बनाया है जो उसके कर्मचारियों को विशेषज्ञता हासिल करने के लिए ग्रेड-आधारित काबिलियत विकसित करने में मदद करता है। कंपनी ने अपने कर्मचारियों, प्रोजेक्ट मैनेजरों और स्टॉफ के लिए एक ऐप भी बनाया है जो जरूरी दक्षता की पहचान करने, कौशल अंतराल को पाटने, नई मांग और काबिल लोगों की उपलब्धता में मदद करेगा।
इन्फोसिस ने एक स्वतंत्र बाजार शोध कंपनी की तरफ से कराए गए सर्वे के नतीजों को स्वीकार किया है। भारत समेत सात देशों में फैले सी-लेवल के कर्मचारियों के बारे में यह शोध रिपोर्ट कहती है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता तकनीकें अब पर्दे के पीछे या अनुसंधान तक ही सीमित नहीं रह गई हैं। उन्हें बड़े स्तर पर लागू किया जाने लगा है और उससे कारोबारी रणनीति पर भी असर नजर आने लगा है। सी-लेवल के 10 में से नौ कर्मचारियों ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता से अपनी कंपनी को अच्छा-खासा फायदा होने की बात भी कही है। शीर्ष प्रबंधन स्तर के करीब 70 फीसदी लोगों का मानना है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता से कम होने वाली नौकरियों की तुलना में नए रोजगार अवसर अधिक पैदा होंगे। उनका कहना है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता असल में इंसानों की दक्षता स्तर को बढ़ा रही है।
निष्कर्ष एकदम सरल है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता में निवेश करने वाले कारोबारी प्रतिष्ठानों को साथ-साथ अपने कर्मचारियों में भी निवेश करना होगा। उस संस्थान को होने वाला फायदा एकल निवेश से कहीं अधिक होगा। हालांकि इसमें एक अहम शर्त भी जुड़ी हुई है, कृत्रिम बुद्धिमत्ता से रोजगार अवसरों में बढ़ोतरी और कुशल कामगारों की संख्या में बढ़ोतरी की संभावना तभी होगी जब आर्थिक वृद्धि की रफ्तार तेज हो।