27-12-2024 (Important News Clippings)

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27 Dec 2024
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         Date: 27-12-24

Greenlandish Idea

All that’s right about one country being able to buy land from another country, on free and fair terms

TOI Editorials

Greenland has been here before. It was on Trump’s radar in 2019 too. All the strategic logic for US to purchase Greenland from Denmark then, has only increased in salience since. Maybe the shocked gasps at the idea are louder this time. But why? Like other resources, such as copper, of which too Greenland has plenty, countries should be able to transact land. With proper, international norms in place, on free and fair terms. Consent of the peoples involved, as much as of the govts, must be clear and convincing. But with this under the belt, smooth land sales between countries could make the world more peaceable, prosperous and habitable for more of humanity.

At this point, Denmark is not willing to make the sale. It says, “Greenland is ours…we are not for sale and will never be for sale.” But it’s not like Greenland has been ‘theirs’ from time immemorial. Only from a time when Europeans went around the world ‘claiming’ this or that land in different ways. Likewise, when Tzar Alexander II sold Alaska to US, he spoke of ‘the uncivilised tribes’ as objects to be handed over alongside. When Napoleon sold Louisiana, he did not give a damn about local populations either. Today’s rights ethos is thankfully different. Only if the Greenland population is on board, and nearly 90% of it is Inuit, can Trump get his way. But if the former were to happen, the transaction would be perfectly legitimate in international law.

More than being legal, this is a desirable concept. With summers running inhumanly high in parts of India, this country, once it’s wealthier, too can look at others, colder ones, to buy land from. Or take tiny Singapore. It’s run so smartly and profitably, that taking those governance skills to a larger landmass would be a greater global good.


Date: 27-12-24

Pushed through

Political expediency must not be allowed to drive mega projects

Editorial

Prime Minister Narendra Modi flagging off work on the Ken-Betwa river interlinking project signalled that the national government is unbothered by the wide-ranging opposition to it. At a budgeted cost of ₹44,605 crore, the project will draw supposedly “excess” water away from the Ken river basin towards the Betwa river basin and thereon to farmland and human settlements. When the Union Cabinet approved the project in 2021, the National Green Tribunal was still deliberating a challenge to its green clearance. This was typical of the state’s tendency to pardon businesses found in violation of environmental laws after they had made considerable investments. The government itself has ignored critical comments from experts, including members of an empowered committee appointed by the Supreme Court, and bypassed due process. The law has strict terms for allowing hydroelectric power projects in ecologically sensitive areas — the Daudhan Dam will be erected inside the Panna Tiger Reserve — but there is little evidence of such scrutiny. Work on the dam will destroy lakhs of trees and destabilise fragile ecosystems. The government has also refused to release hydrological data of the basins claiming they are sensitive by virtue of being subsets of the international Ganga basin.

That a river interlink will water fields and quench thirst is irrefutable, but for how long? Various studies have asserted that the Ken and the Betwa basins suffer floods and droughts together, that the subcontinent’s rainfall and sedimentation patterns stand to be altered, and that the Betwa basin can be replenished more affordably by maintaining environmental flows and bolstering natural storage. The government’s principal claim is that the Ken and the Betwa basins are respectively water-surplus and water-deficient. This is disingenuous: the Betwa basin is water-deficient strictly because it hosts several lakh hectares of irrigated cropland. Should the demand in the Ken basin increase, both areas will suffer. Experts have instead suggested that the project is a ploy to pacify the electorate in Bundelkhand — as its approval months ahead of State polls in Uttar Pradesh also suggested — and/or to improve water supply to reservoirs in the lower Betwa thanks to other upstream blockades. The project seems more the product of political expediency and self-image than current ecological sense. The more resources the government sinks into it, the more unlikely changing or reversing course will become in the face of adverse developments. When they come to pass, the responsibility and costs of mitigating the adverse consequences of this and other projects, including the recently launched Parbati-Kalisindh-Chambal link, will fall to the people.


Date: 27-12-24

लोगों की इस मांग पर भी ध्यान दे जीएसटी काउंसिल

संपादकीय

अगर आपने मसालेदार पॉपकॉर्न खाए तो 5% जीएसटी, पैक्ड हो तो 12% और शुगर मिला हो तो 18% जीएसटी भरना होगा। इसी तरह मक्खन लगे ‘बन’ पर 18% जीएसटी पर खुद लेकर खाया तो 5% जीएसटी अप्रत्यक्ष कर लेने वाले 115 देशों में भारत सहित केवल पांच – इटली, घाना, लग्जमबर्ग और पाकिस्तान ही ऐसे हैं, जहां जीएसटी के चार स्लैब हैं। जबकि 28 देशों में दो और 49 में एक है। जटिल टैक्स प्रक्रिया से अफसर भी ये तय करने में स्वच्छंद होते हैं कि किस स्टेज पर बन में मक्खन लगा- किचन में या टेबल पर ग्राहक ने लगाया। कहना न होगा कि रेस्तरां मालिक और अफसर की सांठगांठ से सरकार को कितने टैक्स का चूना लगता होगा। उधर सरकार पर लगातार दबाव पड़ रहा है कि वह स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी कम करे, लेकिन ताकतवर निजी कंपनियों के दबाव में जीएसटी काउंसिल, पिछली तीन बैठकों से अपने को अन्य मुद्दों पर व्यस्त बताकर पल्ला झाड़ रही है। चूंकि भारत में सरकारी स्वास्थ्य सेवा नगण्य है और निजी सेवा बेहद महंगी है, लिहाजा गरीब और मध्यम वर्ग घर-दुकान बेचकर भी निजी अस्पताल जाता है। वह लगातार महंगे हो रहे बीमा से भी बचता है। आंकड़े बताते हैं कि सरकारी बीमा कंपनियां 500 बीमा दावों में केवल एक खारिज करती हैं, लेकिन निजी कंपनियां हर 35 में एक सरकारी नियामक भी इस मुद्दे पर लचर साबित हो रहे हैं।


Date: 27-12-24

भूख और कुपोषण की चुनौतियां

जयंतीलाल भंडारी

इन दिनों प्रकाशित हो रही कई रपटों में कहा जा रहा है कि भारत में गरीब और कमजोर वर्ग के 80 करोड़ से अधिक लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से मुफ्त खाद्यान्न दिए जाने से गरीबी में कमी जरूर आ रही है, लेकिन इस प्रणाली की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए कई चुनौतियों का समाधान जरूरी है। एक बड़ी चुनौती यह है कि अभी भी पीडीएस से दिया जाने वाला खाद्यान्न सभी वास्तविक लाभार्थियों तक नहीं पहुंच रहा है। पीडीएस के तहत पौष्टिक खाद्यान्न के वितरण की जरूरत है। अभी भी बड़ी संख्या में फर्जी राशन कार्ड हैं। इन चुनौतियों को दूर करने से ही भारत में जहां पीडीएस की प्रभावशीलता बढ़ाई जा सकेगी, वहीं आर्थिक कल्याण का नया अध्याय भी लिखा जा सकेगा।

हाल ही में ‘इंडियन काउंसिल फार रिसर्च आन इंटरनेशनल इकनामिक रिलेशंस’ के एक नए अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय खाद्य निगम और राज्य सरकारों द्वारा भेजे गए अनाज का 28 फीसद लाभार्थियों तक नहीं पहुंच पाता है। यानी सालाना करीब दो करोड़ टन अनाज का पता ही नहीं चलता। अर्थव्यवस्था को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। इस वजह से सालाना करीब 69 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का आर्थिक नुकसान होता है। चालू वित्त वर्ष 2024-25 के लिए केंद्र सरकार का खाद्य सबसिडी बिल 2.05 लाख करोड़ रुपए है।

इस रपट में कहा गया है कि निस्संदेह वर्ष 2016 से राशन की दुकानों में पाइंट आफ सेल (पीओएस) मशीनों की शुरूआत से ‘लीकेज’ में कमी आई है। वर्ष 2011-12 की खपत संख्या के आधार पर शांता कुमार समिति ने कहा था कि पीडीएस व्यवस्था में करीब 46 फीसद खाद्यानों का पता नहीं चलता। ऐसे में जरूरी है कि संरचनात्मक सुधारों की डगर पर तेजी से आगे बढ़ा जाए। यद्यपि देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का इतिहास दशकों पुराना है, लेकिन देश में गरीबों पर केंद्रित पीडीएस की शुरूआत जून 1997 में हुई है।

इस समय दुनिया में भारत सबसे बड़ी सार्वजनिक राशन वितरण प्रणाली के लिए जाना जाता है। देश भर में मौजूदा पांच लाख से अधिक उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से निशुल्क खाद्यान्न वितरण किया जाता है। खासतौर से सितंबर 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के पारित होने के साथ ही पीडीएस व्यवस्था में बड़ा सुधार हुआ है। यह अधिनियम देश की 67 फीसद आबादी को अपने दायरे में लेता है।

यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि सरकार द्वारा कोविड-19 महामारी के दौरान वंचित वर्गों के पात्र लोगों के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत अतिरिक्त अनाज दिया जाने लगा है। तब से लगातार अब तक केंद्र सरकार एनएफएसए के तहत देश के 81.35 करोड़ लोगों को निशुल्क खाद्यान्न मुहैया करा रही है। सरकार ने वर्ष 2028 तक इस योजना का लाभ सुनिश्चित किया है।

गौरतलब है कि विभिन्न वैश्विक और राष्ट्रीय रपटों में भारत में गरीबों के सशक्तीकरण और तेजी से गरीबी घटने के जो विवरण प्रकाशित किए जा रहे हैं, उनमें पीडीएस के माध्यम से मुफ्त अनाज की अहम भूमिका भी बताई जा रही है। विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित दुनिया में गरीबी संबंधी रपट 2024 में कहा गया है कि इस समय वैश्विक आबादी में करीब 70 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी यानी करीब 2.15 डालर प्रतिदिन से कम पर जीवनयापन कर रहे हैं। दुनिया के कई विकासशील और उप-सहारा अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में अत्यधिक गरीबी लगातार तेजी से घट रही है। रपट में कहा गया है कि भारत में ऐसे गरीबों की संख्या 2021 में 16.74 करोड़ रह गई और अब इस वर्ष 2024 में करीब 12.9 करोड़ ही रह गई है। अमेरिका के ‘द ब्रुकिंग्स इंस्ट्रीट्यूशन’ की रपट में कहा गया है कि जहां वर्ष 2011-12 में भारत की 12.2 फीसद आबादी अत्यधिक गरीब थी, वहीं यह वर्ष 2022-23 में घट कर महज दो फीसद ही रह गई है।

इसी तरह नीति आयोग की तरफ से जारी किए गए वैश्विक मान्यता के मापदंडों पर आधारित बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) 2024 के मुताबिक सरकार की विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं और पीडीएस की बहुआयामी गरीबी कम करने में अहम भूमिका रही है। वित्त वर्ष 2013-14 में देश की 29.17 फीसद आबादी एमपीआइ के हिसाब से गरीब थी। अब वित्त वर्ष 2022-23 में सिर्फ 11.28 फीसद लोग एमपीआइ के हिसाब से गरीब रह गए हैं। पिछले दस वर्षों में करीब 25 करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर आए हैं। 14 दिसंबर को प्रधानमंत्री ने लोकसभा में विशेष चर्चा को संबोधित करते हुए कहा कि सरकार ने बीते दस वर्षों में गरीबों के सशक्तीकरण के लिए जो प्रयास किए हैं, उसमें पीडीएस के माध्यम से प्रभावी रूप से निशुल्क वितरित किए गए खाद्यान्न की अहम भूमिका भी है।

इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि जहां प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत पीडीएस माध्यम से निशुल्क खाद्यान्न वितरण जहां गरीबों को राहत दे रहा है, वहीं देश में असमानता में भी कमी आ रही है। फिर भी अभी भी कमजोर वर्ग तक निशुल्क गेहूं और चावल के अलावा पोषणयुक्त श्रीअन्न यानी मोटे अनाज की पर्याप्त आपूर्ति न होने से करोड़ों लोग पोषण सुरक्षा से वंचित हैं। कई रपटों में सामने आया है कि भारत में बड़ी संख्या में लोगों की पोषण संबंधी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2024’ में भारत 127 देशों में 105वें नंबर पर है। पिछले साल 125 देशों में 111वें स्थान पर था और 2022 में 121 देशों में से 107वें स्थान पर था। यह चिंता की बात है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रपट में भी कहा गया है कि भारत में करीब 74 फीसद लोगों को पर्याप्त पोषण युक्त आहार नहीं मिल पाता है।

देश के कमजोर वर्ग के सभी लोगों तक और अधिक निशुल्क खाद्यान्न वितरण, लाभार्थियों तक इसकी पहुंच और पोषण युक्त खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए पीडीएस को मजबूत बनाना होगा। पीडीएस प्रणाली के तहत लाभार्थी लक्ष्यीकरण की सटीकता में सुधार भी जरूरी है। वहीं बहुआयामी गरीबी में उल्लेखनीय कमी के बीच लक्षित लाभार्थियों का भी दोबारा आकलन किया जाए। इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि जिस तरह पिछले दस वर्षों में फर्जी राशन कार्ड हटाए गए, उसी अभियान को आगे बढ़ा कर लाखों फर्जी लाभार्थियों के डुप्लीकेट राशन कार्डों को भी हटाया जाए।

उम्मीद करना चाहिए कि सरकार अधिकतम प्रयासों से पीडीएस के तहत अभी भी बने हुए करीब 28 फीसद ‘लीकेज’ को नियंत्रित करने के लिए तेजी से प्रयत्न करेगी, इससे लक्षित लाभार्थियों के लिए सबसिडी वाले खाद्यान्न की उपलब्धता बढ़ाई जाने के साथ-साथ आर्थिक रूप से वंचित लोगों में भूख और कुपोषण की चुनौती भी कम की जा सकेगी। निश्चित रूप से ऐसे रणनीतिक प्रयासों से पीडीएस को नया और लाभप्रद रूप दिया जा सकेगा। वहीं सरकार देश के कमजोर वर्ग के करोड़ों लोगों के लिए आर्थिक कल्याण की डगर पर और अधिक तेजी से आगे बढ़ती हुई दिखाई दे सकेगी।


Date: 27-12-24

दावों के बरक्स

संपादकीय

देश भर में फैले ज्यादातर कोचिंग संस्थानों में जितने भी विद्यार्थी पढ़ाई करने जाते हैं, उसकी मुख्य वजह यही होती है कि ऐसी जगहों के बारे में उन्हें यह बताया जाता है कि वहां से निकले सभी प्रतिभागियों को हर हाल में नौकरी मिलेगी। ऐसे कोचिंग संस्थानों के बारे में सार्वजनिक प्रचारों में वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों की कामवाली और मनपसंद जगह पर चुन लिए जाने के बारे में जैसे दावे किए जाते हैं, उनमें से ज्यादातर सच्चाई से दूर होते हैं, लेकिन वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले नए विद्यार्थियों को अपने आकर्षण के जाल में उलझाने में कामयाब हो जाते हैं। दरअसल, कोचिंग संस्थानों के बारे में तैयार प्रचार सामग्री को अक्सर आमक तरीके से पेश किया जाता है, तो कई बार झूठे दावे परोसने में भी संकोच नहीं किया जाता। ऐसा इस हकीकत के बावजूद किया जाता है कि सार्वजनिक रूप से किए गए ऐसे दावे कभी कसौटी पर भी रखे जा सकते हैं और उसके बाद उस पर सवाल उठाए जा सकते हैं।

गौरतलब है कि केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण यानी सीखीपीए ने तीन कोचिंग संस्थानों पर इस वजह से पंद्रह लाख रुपए का जुर्माना लगाया है कि उन्होंने सिविल सेवा परीक्षाओं में प्रतिभागियों की सफलता की दर के बारे में आमक तथ्य परोसे थे। सीसीपीए ने अपनी पड़ताल में यह पाया कि कोचिंग संस्थानों ने जानबूझ कर यह बात छिपाई कि उनके ज्यादातर सफल अभ्यर्थियों ने केवल साक्षात्कार मार्गदर्शन कार्यक्रमों में पंजीकरण कराया था। जबकि इसी दावे की वजह से वहां के अन्य पाठ्यक्रमों की प्रभावशीलता के बारे में एक भ्रामक धारणा बनी विद्यार्थियों का आर्थिक शोषण और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किस पैमाने पर किया जाता है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सीसीपीए ने जिन कोचिंग संस्थानों पर जुर्माना लगाया है, उनमें से एक की ओर से अपने बारे में किए गए प्रचार में 2022 की संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 933 में से 617 चयन का दावा किया गया, जबकि वहां सफल अभ्यर्थियों में से ज्यादातर ने केवल साक्षात्कार की तैयारी के लिए पाठ्यक्रम में पंजीकरण कराया था। इसी तरह, कई बार प्रतियोगिता परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद एक ही उत्तीर्ण अभ्यार्थी की तस्वीर के साथ अनेक कोचिंग संस्थान अपने विज्ञापनों में उसके अपने यहां पढ़ाई किए होने का दावा करते हैं।

जाहिर है वह एक तरह का भ्रम परोस कर अपने संस्थान में पढ़ने के लिए आकर्षित करने की हरकत है। दूसरी ओर, अपने आंतरिक ढांचे के भीतर शिक्षण का प्रारूप, शिक्षकों और उनकी योग्यता का ब्योरा, संसाधन आदि के बारे में पारदर्शिता का निर्वाह शायद ही कभी किया जाता है। सवाल है कि जो तथ्य सार्वजनिक पटल पर होते हैं और उन्हें कोई भी थोड़ी कोशिश करके जान सकता है, उसके जरिए प्रकारांतर से ठगी का धंधा कैसे चलता रहता है। इस संबंध में केंद्र सरकार ने सख्त नियम भी बनाए हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत जानबूझ कर महत्वपूर्ण जानकारी छिपाने संबंधी प्रचार आमक विज्ञापनों के दायरे में आते हैं। हाल ही में सीसीपीए ने आमक प्रचार करने वाले कई अन्य कोचिंग संस्थानों पर भी भारी जुर्माना लगाया था। विडंबना यह है कि नियम-कायदों की अनदेखी करके अपने प्रचार के क्रम में कई कोचिंग संस्थान जो दावे करते हैं, उसमें पारदर्शिता सुनिश्चित करना उन्हें जरूरी नहीं लगता। यह समझना मुश्किल है कि सीमित अवसरों के दौर में ‘सौ फीसद चयन’ जैसी गारंटी का दावा करने में कोई संकोच क्यों नहीं होता !


Date: 27-12-24

सुधरता चुनाव

संपादकीय

भारतीय चुनाव आयोग ने साल 2024 में हुए चुनावों से संबंधित अनेक आंकड़ों को सार्वजनिक कर सराहनीय कार्य किया है। इन आंकड़ों का इंतजार चल रहा था और आयोग की आलोचना को भी बल मिल रहा था। लोकसभा चुनाव से जुड़े 42 डाटा रिपोर्ट और प्रति विधानसभा चुनावों से जुड़े 14-14 रिपोर्ट आयोग ने जारी कर दिए हैं और इससे चुनावी या लोकतांत्रिक अध्ययन करने वालों को बहुत सुविधा होने वाली है। संदेह नहीं कि पारदर्शिता, शोध और लोगों के विश्वास को मजबूत करने के लिए ही ये आंकड़े जारी होते हैं। जब आंकड़े देर से जारी होते हैं या नहीं होते, तो लोगों में संदेह बढ़ता है। आज जब राजनीति में कांटे की टक्कर दिख रही है, तब तो चुनाव आयोग को कहीं ज्यादा मुस्तैदी से आंकड़े जारी करने चाहिए, ताकि आलोचकों को सवाल उठाने का मौका न मिले। चुनाव आयोग अब इस कवायद को अगर दुनिया का सबसे बड़ा ‘डाटासेट रीलीज’ बता रहा है, तो वह गलत नहीं है। भारतीय चुनाव के आकार-प्रकार से किसी भी देश के चुनाव की तुलना नहीं हो सकती।

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में देश में मतदाताओं की संख्या 97.97 करोड़ हो गई, जबकि 2019 के चुनाव में यह संख्या 91.19 करोड़ थी। अगर पांच वर्ष में मतदाताओं की संख्या में 7.43 प्रतिशत की बढ़त हुई है, तो यह सराहनीय है। मगर गौर करने की बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 30 करोड़ मतदाताओं ने मतदान नहीं किया था, तो 2024 में मतदान न करने वालों की संख्या करीब 33 करोड़ तक पहुंच गई ।

साल 2019 के चुनाव में करीब 30 करोड़ मतदाताओं ने मतदान नहीं किया था, तो वर्ष 2024 में मतदान न करने वालों की संख्या लगभग 33 करोड़ तक पहुंच गई। मतदान से जी चुराने वालों की बढ़ती संख्या बहुत चिंताजनक है। ऐसे में, सवाल खड़ा हो जाता है कि अगर 80 प्रतिशत मतदाता भी वोट देते, तो चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ता ? बहरहाल, यह अच्छी बात है कि महिला मतदाता की संख्या पुरुषों से
अब नाममात्र ही पीछे है। एक रोचक पहलू यह भी है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव में थर्ड जेंडर समूह के 13,058 मतदाताओं ने मतदान किया है। यह फिर स्पष्ट हो गया है कि बीते आम चुनाव में असम की दुबरी सीट पर सर्वाधिक 92.5 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में सबसे कम 38.7 प्रतिशत मतदान हुआ, यहां यह संतोष किया जा सकता है कि श्रीनगर में 2019 के चुनाव में 14.4 प्रतिशत वोटरों ने ही मतदान किया था। यह चुनाव आयोग और संबंधित सरकारों के लिए अध्ययन का विषय होना चाहिए कि दुबरी में क्यों सर्वाधिक मतदान हुआ, तो श्रीनगर में मतदान पचास प्रतिशत तक भी क्यों नहीं पहुंचा? पूरे देश में 11 लोकसभा क्षेत्रों में 50 प्रतिशत से कम मतदान क्यों हुआ?

यह भी दिलचस्प है कि देश में 12,459 लोगों ने नामांकन दाखिल किया था, पर कुल 8,360 उम्मीदवार ही चुनाव लड़ पाए। यह संख्या भी याद रखने लायक है कि तेलंगाना की मल्काजगिरि सीट पर सर्वाधिक 114 उम्मीदवारों ने नामांकन दाखिल किया था। यह बात भी गौर करने की है कि पुडुचेरी और केरल में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं की संख्या को पार कर चुकी है। अपने देश में महिलाएं मतदान करने में पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं। इसका प्रभाव हम उनसे संबंधित चुनावी घोषणाओं में देख रहे हैं। वैसे, चुनाव लड़ने में महिलाएं अभी पीछे हैं, बीते चुनाव में कुल 8,360 उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या मात्र 800 थी। मतलब, लोकतंत्र व महिलाओं की मजबूती का एक लंबा सफर बाकी है।


Date: 27-12-24

सुरक्षा के सवालों का संभलकर जवाब

विवेक काटजू, ( पूर्व राजदूत )

साल 2024 में भारत को पड़ोसी देशों के साथ-साथ घरेलू स्तर पर भी कई सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ा। चीन के साथ रिश्ते, पाकिस्तान का भारत के प्रति नजरिया और बांग्लादेश की आंतरिक घटनाएं बाहरी चुनौतियों में शामिल थीं, तो घरेलू मुश्किलों में जम्मू- कश्मीर और मणिपुर की चुनौतियां काफी अहम रहीं ।

साल 2020 में चीन ने 1990 के दशक के उन समझौतों का उल्लंघन किया था, जिसके तहत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति बहाल थी। यह जरूर है कि 2017 में भी डोकलाम में भारत और चीन एक- दूसरे के सामने आ गए थे, लेकिन राजनय के जरिये तब समाधान निकाल लिया गया था। मगर 2020 में गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें 20 भारतीय सैनिकों को वीरगति मिली। जान-माल का नुकसान चीन को भी हुआ, लेकिन उसने अब तक अपने यहां का आंकड़ा जारी नहीं किया है। पूर्वी लद्दाख में पांच स्थानों पर चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा के आगे बढ़ गया था। भारत सरकार ने चीन का मुकाबला किया। न सिर्फ सीमा पर भारतीय सैनिकों का जमावड़ा बढ़ाया गया, बल्कि बीजिंग को यह साफ संकेत भी दिया गया कि उसका विस्तारवाद हमें नामंजूर है। हालांकि, भारत ने सैन्य व राजनय के स्तर पर बातचीत का रास्ता भी नहीं छोड़ा था, मगर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि जब तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर उपजी स्थिति का समाधान नहीं हो जाता, तब तक नई दिल्ली व बीजिंग में रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते।

बातचीत का सिलसिला चार वर्ष तक चला और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल अक्तूबर में जब ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भाग लेने रूस के कजान पहुंचने वाले थे, तब विदेश सचिव ने एक बयान में यह संकेत किया कि 2020 में जो विवाद पैदा हुए थे, उनको अब हम पीछे छोड़ सकते हैं। अभी तक यह साफ नहीं हो सका है कि 2020 वाली स्थिति पूरी तरह से बहाल हुई है या नहीं, लेकिन कजान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अच्छी मुलाकात हुई, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कर दिया कि बहुध्रुवीय विश्व केवल बहुध्रुवीय एशिया द्वारा ही संभव है। इस मुलाकात के बाद भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीन के विदेश मंत्री व विशेष प्रतिनिधि के बीच भी बैठक हुई, जिसमें सामान्य स्थिति बनाने के लिए कदम उठाने की बात कही गई। इसमें यह भी तय हुआ कि कैलाश मानसरोवर यात्रा फिर से शुरू की जाए। हालांकि, भारत की तमाम सख्ती के बाद भी चीन से आयात बढ़ा है, जो हमारे लिए एक अलग चुनौती है।

वैसे, साल 2024 में दोनों देशों के बीच कुछ इलाकों में अलग-अलग गस्त करने पर सहमति एक कामयाबी में गिनी जा सकती है। इस साल चीन का रवैया कुछ नरम होता दिखा। आने वाले वर्षों में भारत को अपनी राष्ट्रीय शक्ति का पूर्ण उपयोग करना होगा, ताकि आर्थिक विकास को तेजी से बढ़ाया जा सके। तभी हम चीन का मुकाबला करने में सक्षम हो सकेंगे।

भारत के खिलाफ चीन ने हमेशा पाकिस्तान का इस्तेमाल किया है। इन दोनों देशों की दुरभि संधि आने वाले दशकों में भी जारी रहने आशंका है। पाकिस्तान की बुनियाद दो राष्ट्र के सिद्धांत’ पर आधारित है और इसी आधार पर वह भारत से सामान्य रिश्ता नहीं चाहता । अलबत्ता, यह सुखद है कि 2021 में नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम का समझौता अब तक कायम है, लेकिन भारत के खिलाफ पाकिस्तान की सामरिक नीति का एक अहम हिस्सा आतंकवाद है। हमें मानकर चलना होगा कि वह खुद भले दहशतगर्दी का शिकार क्यों न हो जाए, भारत के खिलाफ इसका इस्तेमाल करना नहीं छोड़ेगा, विशेषकर जम्मू-कश्मीर में।

साल 2024 में पाकिस्तान को राजनीतिक और आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उसके सेना प्रमुख जनरल आसीम मुनीर और पीटीआई चेयरमैन व पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की आपसी लड़ाई का कोई अंत नहीं दिखा। पाकिस्तान के असामान्य हालात को देखते हुए भारत के लिए बातचीत का दरवाजा खोलने की न तो जरूरत थी, न ही कोई प्रेरणा अब क्रिकेट पर जो फैसला लिया गया है कि न टीम इंडिया वहां जाएगी और न ही उनकी टीम यहां आएगी, उसकी भी तारीफ की जानी चाहिए।

पड़ोसी देश बांग्लादेश से मिल रही सुरक्षा चुनौतियों के दो बड़े आयाम हैं। पहला, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को इस्लामी गुटों को काबू में रखना चाहिए, ताकि वहां के हिंदुओं पर हमले न हों। यदि वहां से अल्पसंख्यकों का पलायन भारत की ओर शुरू हुआ, तो दोनों देशों के रिश्ते काफी बिगड़ सकते हैं। इसीलिए, भारत सरकार ने बार-बार बांग्लादेश को इसके बारे में आगाह किया है, जो सही है। दूसरा, वहां की अंतरिम सरकार को यह बात भी मालूम होनी चाहिए कि अगर एक बार फिर वहां भारत विरोधी ताकतों को शरण मिली, तो द्विपक्षीय रिश्तों में तनाव ही बढ़ेगा। पिछले दिनों उसने अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग भी की है, लेकिन इस पर कोई सवाल ही नहीं उठना चाहिए, क्योंकि जिन व्यक्तियों के साथ भारत के अच्छे संबंध हैं, उनको मुश्किल वक्त में शरण देना नई दिल्ली का राजनयिक धर्म है।

इधर, जम्मू-कश्मीर की सांविधानिक स्थिति में बदलाव के बाद पहला विधानसभा चुनाव हुआ। अब वहां की स्थिति सामान्य होने लगी है, जो स्वागतयोग्य बात है। अब सरकार को सोचना होगा, जैसा कि उसने आश्वासन भी दिया है, कि उसे पूर्ण राज्य का दर्जा उपयुक्त समय में दे दिया जाए। यही उचित कदम होगा। हां, वहां आज भी पाकिस्तान से आतंकवाद को प्रोत्साहन मिल रहा है। इसका मुकाबला हमें आने वाले वर्षों में भी मजबूती से करना पड़ सकता है। रही बात मणिपुर की, तो इसकी स्थिति लगातार नाजुक बनी हुई है। इस पर विशेष गौर करने की जरूरत सरकार और राजनीति व सामाजिक वर्गों को है। इस समस्या के कई पहलू हैं, लेकिन हालात सामान्य बनाने के लिए यह आवश्यक है कि राष्ट्रीय हित के अलावा किसी अन्य पहलू पर विचार न किया जाए।

साफ है, इस साल हर देश की तरह भारत के सामने भी सुरक्षा चुनौतियां बनी रहीं, पर मोदी सरकार ने पूरी मुस्तैदी और प्रतिबद्धता के साथ इनका सामना किया है। 2025 में भी इन चुनौतियों पर नजर बनी रहेगी।