27-11-2017 (Important News Clippings)

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27 Nov 2017
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Date:26-11-17

भारत : एक भाव यात्रा

गिरीश्वर मिश्र

भारत के अपने चिंतन की मानें तो सत्य मूलत: एक है। उसकी अभिव्यक्ति अनेक रूपों में दिखती है, (‘‘एकं सत्यं बहुधा विप्रा: वदन्ति’)। ज्यादातर भारतीय चिंतन की परंपराओं में एकता को देखने की प्रवृत्ति प्रबल है। जड़-चेतन सब में एक तत्व की प्रधानता और सृष्टि में व्याप्त चेतना की उपस्थिति को बार-बार स्वीकार किया गया है 

भारत को समझने के दावे कई नजरिए से पेश किए जा रहे हैं। उन सबमें अपने-अपने ढंग से देश की छवि गढ़ी जा रही है। इन मागरे के गंतव्य और उनकी राहें भी भिन्न-भिन्न हैं। इनका आधार ज्यादातर ‘‘विविधता में एकता’ का नारा है। भारत की एकता देश की एक नई सामाजिक प्रॉजेक्ट है, और उसे बनाया जाना है। लेकिन आज एकतावाची सभी चीजों को प्रश्नांकित करते हुए नकारते चलने की प्रवृत्ति तीव्रता से बढ़ी है। इसका एक आशय समाज में समता और समानता की स्वाभाविक अनुपस्थिति की ओर संकेत करना है, और एकता को एक समस्या के रूप में प्रतिपादित करना है। यह भारत की सत्ता या अस्तित्व को देखने का एक पक्ष है, और सिर्फ आंशिक सत्य को ही व्यक्त करता है, जो कई मूलभूत तयों को नजरअंदाज करता है। भारत के अपने चिंतन की मानें तो सत्य मूलत: एक है। उसकी अभिव्यक्ति अनेक रूपों में दिखती है, (‘‘एकं सत बहुधा विप्रा: वदन्ति’)। ज्यादातर भारतीय चिंतन की परंपराओं में एकता को देखने की प्रवृत्ति प्रबल है। जड़ और चेतन सब में एक तत्व की प्रधानता देखना और पूरी सृष्टि में व्याप्त एक चेतना की उपस्थिति को बार-बार स्वीकार किया गया है।

सूक्ष्म और स्थूल के बीच संवाद और कलाओं में समग्रता का आग्रह सहज देखा जा सकता है। विविधता मूल नहीं है पर उसकी अभिव्यक्ति जरूर विविध वर्णो वाली है। तभी तो पृवी को माता और निवासियों को पुत्र कहा कहा गया। व्यष्टि और समष्टि के बीच एक आंतरिक छंद का रिश्ता पहचाना गया। इसी तरह लोकजीवन में सबसे जुड़ने और जोड़ते चलने के अवसर भी बनाए गए जो लोक गीतों, अनुष्ठानों और लोक कलाओं में परिलक्षित होते हैं। इस प्रसंग में यह प्रश्न कि ‘‘भारत’ के विचार को कहां से शुरू किया जाए महत्त्वपूर्ण हो जाता है। एक औपचारिक अर्थ में गणराज्य के रूप में कानून की वैधता वाली तिथि मानने पर भारत की स्थापना सिर्फ सत्तर साल पुरानी ही रहेगी और हम अंग्रेजों के उत्तराधिकारी ही बने रहेंगे। तब सवाल उठेगा कि उसके पहले का इतिहास विशेष रूप से जिसे ‘‘प्राचीन भारत’ कहा जाता है, वह भारत की अवधारणा का वाजिब हिस्सा होगा या नहीं? यहीं की धरती पर, यहीं के लोगों द्वारा जो कुछ किया गया, जो उपलब्धियां हुई उनके साथ हमारा क्या रिश्ता होगा? अतीत के साथ अपने वर्तमान को कैसे जोड़ें यह एक सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा समाज के हित में नहीं है। चूंकि इतिहास हमेशा रचा जाता है, हमें छूट होती है कि हम अपने पसंद से चुन कर उसे गढ़ें। इतिहास क्रम में बीसवीं सदी के मध्य में जब भारत ने अंग्रेजों से सत्ता पाई तो अपने को परिभाषित करने का एक अवसर भी मिला था। स्वतंत्रता की लड़ाई के प्रतीक बने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘‘हिंद स्वराज’ में भारत की एक छवि मिलती है, जिसमें स्वावलंबन और स्वदेशी की प्रवृत्ति वाले एक विकेंद्रीकृत भारत की संकल्पना की गई थी। इस दस्तावेज में ‘‘सर्व’ की ही प्रमुखता थी, और अंतिम जन की विशेष चिंता थी।

आगे चल कर प. दीन दयाल उपाध्याय ने ‘‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा में व्यापक ऐक्य के भाव पर बल दिया गया। भारत देश को प्राचीन काल की निरंतरता में देखें तो हम हजारों साल पुरानी सभ्यता के वारिस बनते हैं, जिसमें एक जीवन दृष्टि है, ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाएं हैं, समृद्ध साहित्य है और परंपराओं की व्यवस्था है, जो किसी के लिए भी ईष्र्या का कारण हो सकती है। लोक-जीवन को गौर से देखें तो भाषा, व्यवहार और आचार-व्यवहार में अनेक परंपराएं अभी भी जीवंत रूप में उपस्थित दिखाई पड़ती हैं। उनके मन में एक भारत भावना के स्तर पर भी जीवित है, जो कुछ मूल्यों और आदशरे के रूप में ही नहीं हैं, बल्कि जिन्हें व्यवहार के स्तर पर जिया जा रहा है। पशु, पक्षी, मनुष्य सभी को जीव मानना, जीवों की रक्षा और भरण-पोषण करना, सृष्टि के विभिन्न तत्वों के बीच परस्पर अवलंबन और पूरकता का अहसास, प्रकृति के साथ नियंतण्रके बदले साझेदारी का रिश्ता, आपस में मिल कर भारत और भारतीयता को परिभाषित करते हैं। दुर्भाग्यवश जीवन के विभिन्न पक्षों में निरंतरता के बावजूद हम एक खंडित दृष्टि के शिकार होते जा रहे हैं। अब जब सांस्कृतिक विस्मरण का दौर चल पड़ा है, और हम नियंतण्र स्तर पर जलवायु और पर्यावरण के संकट से जूझ रहे हैं। भारतीय दृष्टि एक विकल्प के रूप में उपस्थित होती है, जिसमें जीवन की अपरिमित संभावना विद्यमान है। इसकी पुन: पहचान या प्रत्यभिज्ञा जरूरी हो गई है।


Date:26-11-17

मिथक भी इतिहास होता है

राजकिशोर

हमारे विद्वानों के अनुसार पद्मावती नाम की कोई रानी थी, या नहीं, यह संदेहास्पद है। उनका कहना है कि अलाउद्दीन खिलजी के काल और मलिक मुहम्मद जायसी के काल के बीच तीन सौ वर्षो का फासला है, और जब जायसी ‘‘पद्मावती’ नाम का महाकाव्य लिख रहे थे, तब उनके सामने कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं था। सिर्फ किंवदंतियां थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी कृति में आवश्यकतानुसार ढाल दिया। फिर, यह एक रूपक काव्य है, जिसमें सभी पात्र किसी न किसी धारणा का प्रतिनिधित्व करते हैं। जायसी सूफी थे। सूफी सिद्धांतों को कविता में पिरोना चाहते थे। इसलिए ‘‘पद्मावती’ में उन्होंने जिन घटनाओं का उल्लेख किया है, उन्हें इतिहास मान लेने का कोई कारण नहीं है। लेकिन क्या पद्मावती का अस्तित्व इसी बात से खत्म हो जाता है कि इतिहासकारों की नजरों में उसके होने का कोई सबूत नहीं दिखाई देता? ईर के होने का कौन-सा सबूत पेश किया जा सकता है? तय यही है कि ईर नहीं है, फिर भी वह करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित करता है। इस प्रसंग में सबसे अच्छा उदाहरण भूत-प्रेत हैं, जो कुछ के अनुसार भ्रम हैं, तो बहुतों की निगाह में वास्तविक।

जो भूत-प्रेत को नहीं मानता, वह किसी भी परिस्थिति में भूत से नहीं डरेगा, लेकिन जो मानते हैं, वे अंधेरी रात में पेड़ से पत्ते गिरने पर भी डर जा सकते हैं। जब कोई पद्मावती पर फिल्म बनाता है, या उपन्यास लिखता है, तो जरूरी नहीं कि इतिहास को ही प्रस्तुत करे। इतिहास लिखना इतिहासकारों का काम है, लेखक, चित्रकार और फिल्म निर्माता तो कल्पना से खेलते हैं, जो हमें इतिहास से ज्यादा प्रभावित कर सकती है। क्या कोई दावा कर सकता है कि ‘‘गोदान’ का होरी कोई वास्तविक मनुष्य था? उसकी जगह किस वास्तविक व्यक्ति के जीवन पर उपन्यास लिखा जा सकता था, जो उस समय की वास्तविकता को ज्यादा प्रभावशाली ढंग से चित्रित कर सके? इसी तरह ‘‘रश्मिरथी’ का कर्ण ठीक वही नहीं है, जो महाभारत में हैं। लेकिन कल्पना की भी एक सीमा है। जहां इतिहास एकदम स्पष्ट है, वहां कल्पना की छूट नहीं ली जा सकती। उदाहरण के लिए कोई फिल्म दिखाती है कि ब्रह्मर्चय का व्रत लेने के बाद भी महात्मा गांधी का सक्रिय सेक्स जीवन था, या उन्होंने इन-इन स्त्रियों से यौन संबंध स्थापित किया था, तो यह किसी के गले नहीं उतरेगा। चूंकि मिथक इतिहास नहीं होते पर उनमें वजन इतिहास से भी ज्यादा होता है, इसलिए मिथकों के साथ भी ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।लेकिन मैं मानता हूं कि किसी को भी सचाई के साथ-साथ अपनी कल्पना को भी लिखने या चित्रित करने का अधिकार है। उदाहरण के लिए कोई गांधी को खलनायक और गोडसे को नायक के समान मानता है, तो कोई कारण नहीं है कि उसे अपनी मान्यता को लिखने या उसके आधार पर चित्र या फिल्म बनाने से रोका जाए क्योंकि कल्पना भी बदलती रहती है, और इतिहास भी। रामचंद्र शुक्ल के पहले मलिक मुहम्मद जायसी को कितने लोग जानते थे? हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई के पहले किसे इस महान सभ्यता का पता था? औरंगजेब क्रूर था, अपने भाइयों की हत्या कर तख्त पर बैठा था, उसने जजिया कर लगाया था, लेकिन इतिहासकार बताते हैं कि उसने अनेक मंदिरों के लिए अनुदान भी दिया था।

इसलिए हर किसी को छूट होनी चाहिए कि वह जो जानता या समझता है, उसे व्यक्त कर सके। अपने प्रेम को भी, अपनी घृणा को भी। रोक सिर्फ ऐसी सामग्री पर लगाई जा सकती है, जिसके पीछे किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति विद्वेष हो।क्या संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती के बारे में कहा जा सकता है कि उसमें हिन्दू समाज के प्रति या राजपूतों के इतिहास के प्रति विद्वेष प्रकट किया गया है? लगता है कि फिल्म के बारे में भ्रम अधिक फैलाया गया है, और सचाई कम बतलाई गई है। राजस्थान की श्री करणी सभा के अध्यक्ष अपने को पद्मावती का वंशज बतलाते हैं, चाहते हैं कि उनकी स्वीकृति लेकर ही पद्मावती पर फिल्म बनाई जाए। अजीब इच्छा है। वंशज होने मात्र से किसी ऐतिहासिक या मिथकीय चरित्र पर किसी का एकाधिकार नहीं हो जाता। प्रसिद्ध व्यक्ति सार्वजनिक हो जाता है, उसके बारे में कोई भी राय व्यक्त कर सकता है।पद्मावती का दुर्भाग्य है कि भय और आतंक का ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि फिल्म के रिलीज होने पर ही एक तरह से रोक लग गई है। निश्चय ही यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भीड़वादी प्रहार है। हमारे देश में एक सरकारी संस्था है, जिसके द्वारा प्रमाणित किए जाने के पहले किसी भी फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। इसलिए जो पद्मावती फिल्म के विरु द्ध शोर मचा रहे हैं, धमकियां दे रहे हैं, वे हवा में लाठी भांज रहे हैं। सिर्फ काल्पनिक संभावना के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। सेंसर बोर्ड फिल्म को मान्यता दे देता है, तो कोई कारण नहीं कि शोर मचाया जाए। भंसाली का कोई कर्तव्य नहीं बनता कि फिल्म रिलीज होने के पहले सेंसर बोर्ड के साथ-साथ किसी नाराज समूह की स्वीकृति भी प्राप्त करें। यह ब्लैकमेल को मंजूर करने की तरह होगा।