18-02-2017 (Important News Clippings)

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18 Feb 2017
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Date:18-02-17

अतिवाद की चपेट में राष्ट्रवाद

महात्मा गांधी और रवींद्र नाथ टैगोर के बीच एक संवाद हुआ था। दीनबंधु सी एफ एंड्रूज उस संवाद के साक्षी थे। गांधी को पहली बार महात्मा कहने वाले टैगोर संग गांधी के बीच बातचीत का वह दौर मुख्य रूप से दो मुद्दों पर आधारित था। उसमें पहला मसला मूर्ति पूजा से जुड़ा था तो दूसरे मुद्दे का संबंध राष्ट्रवाद से था। दोनों ही मुद्दों पर इन महान विभूतियों के विचार खासे भिन्न थे। गांधी की सोच थी कि जब तक भारतीय समाज तार्किक रूप से और सोच के स्तर पर परिपक्व नहीं हो जाता तब तक मूर्ति पूजा की परंपरा यथावत जारी रहनी चाहिए। वहीं टैगोर का मानना था कि इस समाज को शाश्वत रूप से अबोध मानना गलत है लिहाजा मूर्ति पूजा खत्म होनी चाहिए। इसी तरह राष्ट्रवाद पर गांधी की राय थी कि विश्ववाद के लिए राष्ट्रवाद प्रथम सोपान है बिलकुल उसी तरह जैसे युद्ध के बिना हम शांति की महत्ता नहीं समझ पाते। हालांकि यह बात अलग है कि गांधी का राष्ट्रवाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की अवधारणा के एकदम उलट था। बहरहाल इस घटना का जिक्र रोम्या रोलां की किताब ‘रोम्या रोलां और गांधी पत्राचार’ में विस्तार से किया गया है। शायद हम मौजूदा दौर में राष्ट्रवाद के अलंबरदारों को गलत तो मान रहे हैं, लेकिन यह नहीं सोचते कि चेतना के कई स्तर होते हैं और प्रत्येक स्तर पर सोच की गुणवत्ता भी बदलती रहती है। जो हाथ झारखंड और छत्तीसगढ़ में आए दिन मानसिक बीमारी से पीड़ित औरतों को डायन बताकर पत्थरों से मार देते हैं उन लोगों से ‘भारत माता की जय’ का जयकारा तो बुलवाया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि जय-जयकार के लिए हाथ उठाने वाले उस शख्स में वास्तविक राष्ट्र चेतना का बोध भी हो। असल में गांधी या पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जिस राष्ट्रभावना को लेकर टैगोर से मत-वैभिन्य प्रकट किया था वह गिरिराज सिंह और साध्वी निरंजन ज्योति वाली राष्ट्रभावना से कोसों दूर है।
गांधी की इसी परिकल्पना को आगे बढ़ाते हुए दीनदयाल ने भारतीय जनसंघ के प्रथम कानपुर अधिवेशन में अपने बीज वक्तव्य में कहा था, ‘हिंदू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है कि भारतीय जनजीवन और अपने उन अंगों के भारतीयकरण का महान कार्य अपने हाथ में ले जो विदेशियों द्वारा विदेशाभिमुख बना दिए गए हैं। हिंदू समाज को चाहिए कि उन्हें स्नेहपूर्वक आत्मसात करे। केवल इसी प्रकार सांप्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण और दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।’ दीनदयाल के 23 अप्रैल, 1965 को जनसंघ कार्यकर्ताओं को दिए गए अपने उद्बोधन (एकात्म मानववाद दर्शन के चार बीज वक्तव्यों में से दूसरा) में कहा था, ‘विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में प्रकटीकरण ही भारतीय संस्कृति का केंद्रीय विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का या संस्कृति का द्योतक नहीं, बल्कि विकृति का द्योतक है…. देखने को तो जीवन में भाई-भाई में प्रेम और बैर दोनों हीं मिलते हैं, किंतु हम प्रेम को अच्छा मानते हैं। बंधु-भाव का विस्तार हमारा लक्ष्य रहता है। बैर को मानव व्यवहार का आधार बना कर यदि इतिहास का विश्लेषण किया जाए और फिर उसमें एक आदर्श जीवन का स्वप्न देखा जाए यह आश्चर्य की ही बात होगी।’
वर्तमान चिंतकों का एक बड़ा वर्ग खासकर वामपंथी चिंतक आज राष्ट्रवाद को गलत मानते हैं और उसे दक्षिणपंथी दुराग्रही सोच की परिणति मानकर उसका पुरजोर विरोध भी करते हैं। शायद इसमें उनकी गलती कम और उस वर्ग की ज्यादा है जो राष्ट्रवाद को सरस्वती वंदना या गोहत्या के विरोध तक सीमित करना चाहता है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किसी नीति को गलत कहने वाले पर या भारत माता की जय का नारा लगाने से इन्कार करने वालों पर राष्ट्रविरोधी होने का मुलम्मा चढ़ा रहा है और उन्हें ‘पाकिस्तान’ जाने की सलाह दे रहा है। इस प्रसंग में प्रश्न यह है कि क्या यह जिम्मेदारी उन निरपेक्ष चिंतकों की नहीं है कि वे राष्ट्रवाद की अवधारणा को वामपंथी या दक्षिणपंथी सांचे से निकालकर सही परिप्रेक्ष्य में सामने रखें? वास्तव में राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा और मूल भारतीय राष्ट्रवाद में जमीन-आसमान का अंतर है। यूरोपीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति ही चेतना के क्रमिक आध्यात्मिक विकास से न होकर चर्च के तानाशाही रवैये के खिलाफ और औपनिवेशिक शक्तियों को उखाड़ फेंकने की प्रक्रिया के रूप में हुई थी। अमेरिकी क्रांति इसका उदार चेहरा थी, जबकि यूरोप के पुनर्जागरण और फ्रांसीसी क्रांति और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप जर्मन राष्ट्रवाद इस किस्म के राष्ट्रवाद का उद्गम स्रोत रहे। राष्ट्रवाद की यूरोपीय परिभाषा के अनुसार राष्ट्र ऐसे लोगों के समूह से बनता है जो समान भाषा, समान पंथ या समान इतिहास के हों और साथ ही उनमें एक गृहक्षेत्र और शासक के लिए समर्पण और एकता का भाव हो। इस आधार पर तो भारत कभी राष्ट्र की उस परिभाषा पर खरा ही नहीं उतर सकता, मगर भारत उस प्राचीन काल से ही राष्ट्र के रूप में अवस्थित है जब यूरोप में आदिम सभ्यता अपने चरम पर थी। प्लेटो या संत ऑगस्टाइन ने नारी मुक्ति या दास प्रथा खत्म करने के बारे में सोचा भी नहीं था, जबकि भारत में अशोक ने इसे राज्य की नीति का प्रमुख हिस्सा बनाया। भारत दुनिया से जो कुछ साझा करता है वह है दस हजार साल से ज्यादा की समान वेद-उदभूत सोच, जीवन पद्धति, समान जीवन दर्शन, दक्षिण के शंकराचार्य का पूरे भारतवर्ष के चारों कोनों में पीठ की सर्वमान्य संस्था।
गांधी की परिकल्पना का भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक उत्थान की सीढ़ी का पर्याय है और शायद टैगोर भी इस बात को समझ नहीं पाए। आध्यात्मिक उत्थान के बिना लाया जाने वाला यूरोपीय सोच वाला राष्ट्रवाद आखिरकार फासीवाद की ओर ही ले जाता है। गांधी और पंडित दीनदयाल दोनों ही इससे अलग नजरिये वाले राष्ट्रवाद की हिमायत करते थे जो व्यष्टि से समष्टि तक जाता है। इसके मुताबिक आत्म-उत्थान के विभिन्न चरणों में राष्ट्रवाद भी एक पड़ाव भर है जिसकी परिणति अंत में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के रूप में होती है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि आज हम वसुधैव कुटुंबकम की बात कम और उस सेक्युलरिज्म की ज्यादा करते हैं जो भारत से सर्वथा भिन्न परिस्थितियों में यूरोप में उपजी। यदि हमने वसुधैव कुटुंबकम या फिर सर्वधर्म समभाव को अच्छे से आत्मसात किया होता तो शायद आज भारत दुनिया को दिशा दिखा रहा होता और कौन सेक्युलर और कौन नहीं की बहस में नहीं उलझा होता। आज यह जिम्मेदारी उन निरपेक्ष बुद्धिजीवियों पर आ पड़ी है कि वे राष्ट्रवाद की गांधीवादी अवधारणा और पंडित दीनदयाल के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दोनों तरह के अतिवादियों से बचाएं। जितनी जरूरत गिरिराज सिंह सरीखे लोगों से बचने की है उतनी है खुद को जेएनयू ब्रांड सेक्युलर बुद्धिजीवी कहने वालों से भी। दोनों ही किसी न किसी स्तर पर भारतीय समाज को कमजोर कर रहे हैं। जबकि आज जरूरत इसकी है कि भारतीय समाज कैसे हर तरह से सशक्त हो।

[ लेखक एन के सिंह , राजनीतिक विश्लेषक एवं ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं ] 


Date:18-02-17


Date:18-02-17


Date:17-02-17

Not so great walls

Gated communities don’t make cities safer — only offer a bubble

 We are surrounded by them in all our suburbs. They are so ubiquitous that we don’t even think of them as a separate urban form. Big, private residential spaces, enclosed by a wall and tall gates, inside which are worlds unto themselves, containing a swimming pool, a club house and tennis court at least, and sometimes, restaurants, golf greens and spas. They have names like Nirvana, Garden City or Laburnum, that evoke luxury and exotic chic. Their ads describe them in florid prose, extolling their closeness to nature, exclusivity and promise of luxury.

Gated communities. The modern-day version of the fortresses that medieval nobility built to keep themselves safe and private. The trend for such dwellings picked up in southern California in the 1960s; these continue to form a major share of the real estate market in the US. But their most remarkable growth has been in countries like Argentina, Brazil, Mexico, Turkey and, of course, India, where they have proliferated largely because of a lack of confidence in law enforcement.

In India, as the middle class grew more disappointed with the state’s ability to assure personal safety or basic utilities like continuous power supply and clean water, it ran into the waiting arms of property developers, who offered walled residences where everything that the state failed to provide could be bought. A security industry, itself often dubious and ill-equipped, emerged in parallel. A fear of crime and the “outsider” have always been fundamental reasons for people moving into gated communities: But are we any safer here? In the US, when gated communities were growing rapidly in the 1990s, studies showed that the long-term crime rate altered very marginally. Some studies concluded that the crime gets pushed to low income, less secure neighbourhoods. In India too, there are frequent reports in the mass media about criminals who easily breach the porous security of a gated complex.

 Eventually, every gated community dweller must engage with the city. A woman living in a complex in Gurgaon still has to go to work, possibly in Delhi. Even if she drives a car, lonely parking lots, possible harassment at traffic signals and the risk of provoking road rage in a driver by daring to overtake him are still a reality. There is only so much running away from the city that you can do because you cannot fortify yourself from the business of living. There are offices and schools to attend, markets to visit, people to meet. To not keep looking over your shoulder — which Indian women are instinctively used to doing — our streets and public transport need to be safe. Outside the gates of the posh complex, the reality of the city bites hard.

In fact, it becomes even more stark because of the wall around the complex. All the action, children in playgrounds, kids playing football, happens within the gates. At some distance is a slum or a village. In-between are streets on which only a few walk, fearful of any passing motorbike, wary of the silence. If the wall wasn’t there, life would be conducted outside. Children would come to a public park to play, homemakers would walk to the neighbourhood market, retired people would stroll on the pavements. There would be more noise, more people out and therefore, greater social surveillance against petty crimes. That’s how it was just about two decades ago when there were no urban islands inviting you to live in “another place, another world”, to quote the taglines of a builder’s advertisement.

The tall gates of the complex are a message to the poor that their world is separate from ours and we wish to safeguard ourselves from the “contamination” they represent. The separation of “us” and “them” is anathema to social harmony and can only foster resentment, laying the basis for more crime. Gated communities may have made rich Indians “feel” more secure — but they haven’t made the streets any safer. That needs a different response altogether from the state. Hiding ourselves in private enclaves cannot be a solution to our unsafe cities.

Vasudevan studies urban spaces, mobility and gender and has authored ‘Urban Villager: Life in an Indian Satellite Town’

Date:17-02-17

सुर्खियों का आयोग

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग-जिसकी सिफारिशें सुर्खियों में रहा करती थीं-इन दिनों खुद सुर्खियां बना हुआ है। वजह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त के पास भेजी गई यह सिफारिफ कि भारत के इस अग्रणी आयोग का अक्रिडिशन नवम्बर, 2017 तक टाल दिया जाए। इसका मतलब होगा कि आने वाले नवम्बर माह तक भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकेगा। आखिर, ऐसा क्या हुआ कि इतना बड़ा फैसला संयुक्त राष्ट्र संघ से संबद्ध आयोग की तरफ से लिया गया। दरअसल, भारत के मानवाधिकार आयोग में जिस तरह लोगों का चयन होता है, और जिस तरह नियुक्तियां की जाती हैं, उसमें कोई समरूप पैमाना नहीं अपनाया जाता। न ही उच्च पदों की रिक्तियों को लेकर विज्ञापन निकाले जाते हैं। वही मसला इस बार निशाने पर आया है। प्रस्तुत सिफारिश संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग से संबद्ध ग्लोबल एलायंस फॉर नेशनल ह्यून राइट्स इंस्टिटय़ूशंस की तरफ से की गई है। ग्लोबल अलायंस की तरफ से कहा गया है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से जुड़े स्टाफ में महज 20 फीसदी महिलाएं हैं। वर्ष 2004 से उसके संचालक मंडल पर एक भी महिला नहीं रही है। आयोग के ढांचे में जिस तरह पूर्व मुख्य न्यायाधीश को प्रमुख बनाने और न्यायपालिका के वरिष्ठ सदस्यों से सदस्य चुनने की जरूरत को अनिवार्य किया गया है, उससे महिलाओं को नियुक्त करने में जबरदस्त बाधा आती है। रिपोर्ट ने यह भी पूछा है कि आखिर, आयोग के जांच विभाग में किस आधार पर पूर्व या मौजूदा पुलिस अधिकारियों को रखा जाता है। यह प्रश्न इस वजह से भी अहम हो जाता है कि आयोग को सरकार एवं उसकी एजेंसियों, जिसमें पुलिस भी शामिल होती है, द्वारा अंजाम दिए गए मानवाधिकार उल्लंघन की जांच करनी होती है। अब हम स्टेटस ऑफ नेशनल इंस्टिटय़ूशंस, 1993/पेरिस प्रिन्सिपल्स/पर गौर करें तो औपचारिक तौर पर यही बात उसमें दर्ज है कि मानव आयोगों को कार्य के स्तर पर एवं वित्तीय मामलों में स्वतंत्र होना चाहिए। याद कर सकते हैं कि कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त ने अपने पांच पेजी पत्र में इस बात को स्पष्ट किया गया था कि 1993 के कानून द्वारा गठित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कई स्तरों पर इन्हीं पेरिस सिद्धांतों का उल्लंघन करता दिखता है, जिसमें उसकी संरचना से लेकर कार्यपण्राली पर सवाल खड़े किए गए थे। मालूम हो वर्ष 1991 में पेरिस में आयोजित मानवाधिकार के लिए सक्रिय राष्ट्रीय संस्थाओं के पहले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में इन सिद्धांतों को परिभाषित किया गया था, जिनको बाद में संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार आयोग ने (1992) में अपनाया। प्रस्तुत पत्र में मुख्यत: पांच बिंदुओं पर आयोग की आलोचना की गई थी। पहला सवाल आयोग की संरचना में विविधता के अभाव से जुड़ा था। दूसरा अहम सवाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दो अहम पदों-सेक्रेटरी जनरल और डायरेक्टर जनरल ऑफ इंवेस्टिगेशंस-से जुड़ा था। आयोग के संविधान के हिसाब से इन दो पदों पर नियुक्त व्यक्ति सरकार की तरफ से भेजे जाएंगे। पत्र के मुताबिक इस प्रावधान के चलते आयोग की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है। तीसरी आपत्ति मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ सीमित अन्तरक्रिया से जुड़ी थी। एक अहम बात यह नोट की गई थी कि आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह नागरिक समाज के साथ अन्तरक्रिया और सहयोग नहीं करते। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा तैयार की जाने वाली वार्षिक रिपोटरे को सार्वजनिक दायरे में पहुंचने में होने वाले विलंब को लेकर पत्र में आपत्ति दर्ज की गई है। भले ही आयोग के निर्माण के वक्त यह प्रावधान बनाया गया था कि आयोग की सालाना रिपोर्टे सरकार द्वारा तैयार कार्रवाई रिपोटरे (एक्शन टेकन रिपोटरे) के साथ जारी होंगी। फिलवक्त इस बात का कयास नहीं लगाया जा सकता कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस मामले में किस कदर आगे बढ़ेगा। क्या केंद्र सरकार इसे गंभीरता से लेगी। मगर उसे कितना सफर तय करना है, यह इससे भी स्पष्ट होता है कि पिछले दिनों से वह इस वजह से विवादों में था। सत्ताधारी पार्टी से जुड़े एक व्यक्ति को उसका सदस्य नियुक्त किया गया था, और नागरिक अधिकार संगठनों तथा न्यायप्रेमी लोगों द्वारा आपत्तियां दर्ज करने के बावजूद उसमें तत्काल कोई परिवर्तन नहीं किया गया।
स्रेत- कानून मंत्रालय

सुभाष गाताडे


 

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