
27-05-2025 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date: 27-05-25
$4tn To $30tn, Fast
That India may become the world’s fourth largest economy by end-2025 is a reminder of unfinished reforms agenda. To become a real powerhouse, policy must be transformative
Amitabh Kant, [ The writer is India’s G20 Sherpa & former CEO Niti Aayog ]
A fortnight after Op Sindoor, economic data is buttressing the point that India and Pakistan can no longer be hyphenated. India’s set to become 4th largest economy by year-end, on course to becoming the 3rd largest in three years. Maharashtra’s economy is larger than Pakistan’s; Tamil Nadu’s is the same size. India’s $4tn economy is over 10x that of Pakistan. BSE and NSE’s capitalisation is 200x that of Pakistan Stock Exchange. Companies like HCL and Axis Bank command a market capitalisation equivalent to Pakistan’s entire stock exchange. LIC’s assets under management ($640bn) are nearly 2.5x of Pakistan’s national debt. Pakistan’s forex reserves: $16bn, India’s: $680bn.
As PM said post-Op Sindoor, the path to peace goes through power. And history shows economic power – not just military might – elevates nations on the global stage. If a $4tn economy gives India so much heft, imagine what a $30tn+ economy could do. So, now is the time to place ourselves among the most powerful economies with transformative, not incremental, reforms.
Less regulation | Because overregulation increases the cost of doing business by raising compliance costs, we must address regulatory overreach. Excessive licensing, sector-specific controls, and proliferation of circulars and NOCs need to be eliminated. We must institutionalise self-certification and certification by third-party professionals. All approvals must be digital with no human intervention. Regulators shouldn’t see themselves as instruments of control and overreach.
Rationalise GST | GST has enabled formalisation and encouraged ease of doing business. It’s time to rationalise GST rates and slabs, and simplify processes to reduce the compliance burden for small enterprises. In the spirit of cooperative federalism, GST Council should work towards developing a roadmap for incorporating petroleum products, electricity, and real estate into the GST regime.
Ease of borrowing | We must liberate financial markets to ensure adequate and reasonable business borrowing rates. RBI must create a roadmap to phase out the statutory liquidity ratio (SLR), which compels commercial banks to buy govt bonds. While this enables govt to finance the fiscal deficit, it curbs the availability of finance for MSMEs and impacts the development of a commercial bond market. Freeing up the SLR requirement will help reduce borrowing costs for private businesses. It’s also important to make the cost of public sector borrowing as high as that of the private sector.
Make for world | Our tariffs on intermediate goods and inputs are too high and must be brought down to push manufacturing in India. High tariffs on critical inputs, particularly in electronics, automobiles and machinery, blunt PLI scheme’s effectiveness. They also keep Indian companies out of global value chains. Non-tariff barriers, such as quality control orders (QCOs), must be rationalised. In textiles, QCOs have killed our ability to expand in manmade fibres and create jobs. We must engage with firms in China and Southeast Asia and handhold to shift their operations to India. Our approach with Apple in mobile manufacturing provides a template. At the same time, we must pursue more bilateral and regional trade agreements.
Need for speed | We’re a major importer of batteries, solar cells and modules, motors, controllers and wind turbines in the clean tech sector. If we don’t ‘Make in India’, we’ll never become energy-independent. So, speedy implementation of the Clean Tech Manufacturing Mission is critical. Thrust on infra must continue. High-speed rail and dedicated freight corridor projects must be sped up. Public-private partnerships must be rekindled, bringing more private investment in infra. Labour laws and Factories Act are outdated and need a complete overhaul. State govts must implement labour laws that Parliament has already passed to increase the size and scale of manufacturing.
Brain gain | To propel India to the forefront of R&D, we need to attract top-tier scientific minds. We should aim to attract 500 distinguished academics from top 100 global universities over five years, requiring them to spend at least six months annually at an Indian host institution. We must create 1,000 research sabbaticals for academics from the top 200 global universities. Speedy implementation of India AI Mission will ensure we build sovereign frontier models. We must also build multilingual and multimodal foundation models, given our 22 recognised languages.
Incredible India | Lastly, tourism offers India a huge opportunity. Tourists do not face any tariffs and the sector is not subject to retaliatory duties. It can provide India foreign exchange at scale. We have the finest hotels and the best airlines. India must roll out a global ‘Incredible India’ campaign inviting tourists from across the world, and demonstrate that there is no destination like India. This is India’s soft power.
Date: 27-05-25
अभिव्यक्ति की आजादी पर दोहरा रवैया
उमेश चतुर्वेदी, ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं )
केरल सरकार का एक प्रस्तावित विधेयक इन दिनों सवालों के घेरे में है। विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को लेकर आशंका जताई जा रही है कि यह शिक्षकों को सरकार की नीतियों और कानूनों की आलोचना से रोकेगा। अमूमन पूरे देश में विश्वविद्यालय के शिक्षकों को कानूनों और नीतियों की आलोचना का अधिकार मिला है। उन पर आम सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की तरह सेवा नियमावली नहीं लागू होती।
इस प्रस्तावित विधेयक की आलोचना इसलिए ज्यादा हो रही है, क्योंकि यह उस विचारधारा की सरकार लेकर आ रही है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देती है। केरल में सीपीएम की अगुआई वाले वामपंथी गठबंधन की सरकार है। मोदी सरकार की आलोचना के लिए भाजपा विरोधी दल जिस औजार का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, उनमें अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल अहम है।
इस हिसाब से अभिव्यक्ति को लेकर गैर-भाजपा शासित राज्यों में वैसे आरोप सामने नहीं आने चाहिए, जैसे वे भाजपा शासित राज्यों पर लगाते रहते हैं, लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है। अशोक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी का अनेक विपक्षी दलों ने विरोध किया, लेकिन यदि गैर-भाजपा शासित राज्यों की पड़ताल करें तो अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करने, मीडिया पर पाबंदी लगाने की कोशिशें उनके यहां भी खूब हो रही हैं। ऐसे मामलों की अंतहीन सूची तैयार हो सकती है।
सत्ता का एक चरित्र होता है। वह अक्सर लोगों की आवाज दबाने की कोशिश करती है। दिलचस्प यह है कि विपक्ष में रहते वक्त सत्ताधारी दल की ऐसी कोशिशों का विरोध करने वाले भी सत्ता मिलते ही अपने क्षेत्र में लोगों की आवाज को सीमित करने की कोशिश करने में पीछे नहीं रहते। राहुल गांधी मोदी सरकार की आलोचना करते हुए मोहब्बत की दुकान की चर्चा जरूर करते हैं, लेकिन उनकी ही पार्टी की राज्य सरकारें छोटी सी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पातीं।
पिछले साल कर्नाटक में रिपब्लिक टीवी के कन्नड़ चैनल पर एक खबर प्रसारित हुई थी, जिसमें कहा गया था कि मुख्यमंत्री सिद्दरमैया के काफिले के लिए बेंगलुरु के एमजी रोड पर ट्रैफिक रोका गया, जबकि उस दिन सिद्दरमैया मैसूर में थे। हालांकि बाद में चैनल ने इसे अपनी गलती मानते हुए सफाई की खबर प्रसारित की, लेकिन राज्य की कांग्रेस सरकार ने चैनल और उसके प्रमुख पर फर्जी खबर चलाने का मामला दर्ज कर दिया।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने हाल में इस मामले को दुर्भावनापूर्ण माना। उसने कर्नाटक पुलिस से सवाल पूछा कि इस खबर में जब चैनल के प्रमुख की कोई भूमिका नहीं थी, तो फिर उनके खिलाफ मामला क्यों दर्ज किया गया? तेलंगाना की रेवंत रेड्डी सरकार पर भी अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के आरोप हैं।
गत दिनों तेलंगाना पुलिस ने पल्स न्यूज की प्रबंध निदेशक और उसकी एक रिपोर्टर को मुख्यमंत्री के खिलाफ फर्जी खबर इंटरनेट मीडिया पर साझा करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया, जबकि हकीकत में उन्होंने एक बुजुर्ग व्यक्ति का वीडियो साझा किया था, जिसमें वह रेवंत रेड्डी सरकार से नाखुशी जाहिर कर रहा है। हिमाचल प्रदेश की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार ने भी बीते साल एक पत्रकार के खिलाफ अपनी आलोचना करने के लिए मामला दर्ज किया था।
भारतीय राजनीति में अरविंद केजरीवाल का उभार लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती के साथ ही संस्थानिक सोच को बढ़ावा देने के दावे के साथ हुआ था, लेकिन सत्ता में केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी जैसे-जैसे ताकतवर होती गई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उसके लिए भी जुमला होती चली गई। बीते साल पंजाब की भगवंत मान सरकार ने पत्रकार आरती टिक्कू और रोहन दुआ को गिरफ्तार करने की कोशिश की। उन्होंने राज्य के एक पुलिस अधिकारी के सेक्स स्कैंडल को उजागर किया था। पंजाब सरकार ने ‘शीशमहल’ वाली खबर ब्रेक करने वाली पत्रकार को भी गिरफ्तारी करने की कोशिश की थी।
ममता बनर्जी सरकार को भी आलोचना पसंद नहीं। कुछ वर्ष पहले उनकी सरकार ने जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रो. अंबिकेश महापात्रा को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया था, क्योंकि उन्होंने ममता पर केंद्रित एक कार्टून फारवर्ड किया था। इसी आरोप में रिटायर इंजीनियर सुब्रत सेनगुप्ता भी गिरफ्तार किए गए थे। अंबिकेश को अंततः अदालत से राहत मिली। 2020 में एक बड़े बांग्ला अखबार के संपादक ने इस्तीफा दिया तो उसे भी ममता बनर्जी से जोड़कर देखा गया, क्योंकि कुछ दिन पहले ही उन्होंने उनकी आलोचना की थी।
बंगाल सरकार की आलोचना के चलते एक न्यूज पोर्टल ‘माध्यम’ पर भी कार्रवाई की गई। केरल में गत वर्ष ‘मकतूब मीडिया’ के एक पत्रकार को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उसने एक रिपोर्ट में केरल सरकार की कुछ नीतिगत आलोचना की थी। हाल में राज्य के मीडिया पोर्टल ‘मरूदानम मलयाली’ के संपादक को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। अगर सत्तापक्ष इसकी अवहेलना करता है तो विपक्षी दलों को उसका विरोध करना ही चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि विपक्ष में रहते वक्त वे बोलने की आजादी की दुहाई देते हुए सत्ता तंत्र पर सवाल उठाते रहें और जब खुद सत्ता में हों तो इसे भूल जाएं।
Date: 27-05-25
देश के विनिर्माण क्षेत्र का पुनरुद्धार जरूरी
टी जी श्रीनिवासन, ( लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस में क्रमशः एसोसिएट फेलो, विजिटिंग सीनियर फेलो और विजिटिंग सीनियर फेलो हैं। )
बीते कुछ सप्ताहों के दौरान दुनिया का ध्यान तेजी से वैश्विक व्यापार की ओर गया है। इसकी वजह रही है अमेरिकी प्रशासन द्वारा आयात टैरिफ में भारी इजाफा। इन बदलावों ने आर्थिक प्रतिस्पर्धा को लेकर बहस को नए सिरे से जगा दिया है। भारत के लिए इसमें चुनौतियां और अवसर दोनों छिपे हैं निर्यातकों को जहां उच्च व्यापार गतिरोधों का सामना करना पड़ सकता है। वहीं इस बात की भी संभावना है कि वे अपनी वैश्विक बाजार हिस्सेदारी में इजाफा कर सकें। परंतु लाख टके का सवाल यही है कि भारत कौन-सी रणनीति अपनाएगा?
अपने बड़े आकार के बावजूद भारत विनिर्माण क्षेत्र की वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) में शामिल होने के लिए संघर्ष करता रहा है जबकि उसके अन्य एशियाई साझेदारों के साथ ऐसी बात नहीं है। वैश्विक विनिर्माण निर्यात में भारत की हिस्सेदारी हाल के वर्षों में कमोबेश स्थिर रही है और वह 2017 के 1.7 फीसदी से बढ़कर 2023 में 1.8 फीसदी तक पहुंची है। इसी समान अवधि में वियतनाम की हिस्सेदारी 1.5 फीसदी से बढ़कर 1.9 फीसदी पहुंच गई है। इससे पता चलता है कि वियतनाम वैश्विक स्तर पर विनिर्माण व्यवस्था के साथ अधिक गहराई से जुड़ा है और वह अधिक निर्यातोन्मुखी है। आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि जीवीसी में अपने प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले भारत की भागीदारी को सीमित करने वाली संरचनात्मक बाधाओं को चिह्नित किया जाए और उनका समाधान किया जाए। हाल ही में जारी सीएसईपी प्रतिस्पर्धी सूचकांक में विनिर्माण प्रतिस्पर्धा के छह स्तंभों कारक परिस्थितियां, मांग के हालात, कंपनियों की रणनीति, सहायक उद्योग, नियामक गुणवत्ता और वैश्विक व्यापार नीति के आधार पर भारत की तुलना प्रमुख ‘चीन प्लस वन’ एशियाई अर्थव्यवस्थाओं मसलन मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और इंडोनेशिया के साथ की गई।
इसके निष्कर्ष बताते हैं कि भारत अधिकांश स्तंभों के मामले में समकक्ष देशों से पीछे है। उच्च टैरिफ, कम शोध एवं विकास निवेश, कंपनियों का अत्यधिक केंद्रीकरण, मुक्त व्यापार समझौतों यानी एफटीए में सीमित भागीदारी आदि इन ढांचागत दिक्कतों के कुछ हिस्से हैं। वाहन कलपुर्जे, औषधि, वस्त्र और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में औद्योगिक मशविरे भी इसकी पुष्टि करते हैं। ये रेखांकित करते हैं कि इन क्षेत्रों में निरंतर प्रतिस्पर्धी चुनौतियां बरकरार हैं। इन कारकों की वजह से ही सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी में निरंतर गिरावट आई है। यह 2015 के 16 फीसदी से घटकर 2023 में 13 फीसदी रह गई। लगातार नीतिगत प्रयास करने के बावजूद ऐसा हुआ। इस रुख को बदलने के लिए भारत को साहसी, दूरदर्शी रणनीति की आवश्यकता है जिसे चार अहम क्षेत्रों पर केंद्रित रहना चाहिए: टैरिफ को युक्तिसंगत बनाना, एफटीए को प्रगाढ़ बनाना, नियामकीय सुधार करना और तकनीक को अपनाने की गति तेज करना । सबसे पहले, भारत की उच्च और बंटी हुई टैरिफ व्यवस्था के कारण कच्चे माल की लागत बढ़ती है, निर्यात प्रतिस्पर्धा कम होती है और कंपनियां वैश्विक बाजारों के बजाय घरेलू बाजार पर अधिक ध्यान देती हैं। टैरिफ संबंधी सुधारों को केवल राजकोषीय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इन्हें वैश्विक मूल्य श्रृंखला से एकीकरण की एक रणनीति के रूप में भी देखा जाना चाहिए जिनके जरिये करीब 70 फीसदी वैश्विक व्यापार होता है शुल्क वापसी की योजनाओं ने जरूर कुछ राहत प्रदान की लेकिन वे अपर्याप्त हैं। जरूरत इस बात की है कि टैरिफ में एक व्यापक आपूर्ति श्रृंखला आधारित कमी की जाए बजाय कि चुनिंदा समायोजन करने के |
दूसरी बात, भारत को मुक्त व्यापार समझौतों को प्रगाढ़ बनाना होगा। नए साझेदारों के साथ समझौते करने होंगे और पुराने समझौतों को मजबूती देनी होगी। प्रमुख कारोबारी गुट मसलन क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक एवं प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) वियतनाम जैसे निर्यातकों की तुलना में भारत के निर्यात को पीछे धकेलते हैं।
ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात और यूरोपीय मुक्त व्यापार महासंघ (ईएफटीए) तथा यूनाइटेड किंगडम के साथ गत 6 मई को हुए मुक्त व्यापार समझौते को प्रशंसनीय कदम माना जा सकता है। बहरहाल, भारत को यूरोपीय संघ के साथ समझौते को अंतिम रूप देना चाहिए जो एक प्रमुख बाजार और आपूर्तिकर्ता है। आज के कारोबारी तनाव और बहुपक्षीय व्यवस्था के कमजोर पड़ने के दौर में द्विपक्षीय समझौते ही राजनीतिक रूप से सर्वाधिक व्यावहारिक विकल्प हैं। इन एफटीए में पारंपरिक टैरिफ कटौतियों से आगे बढ़कर व्यापक तत्वों को शामिल करना चाहिए। उन्हें निवेश के प्रवाह, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और सेवा व्यापार को सुविधाजनक बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही गैर टैरिफ बाधाओं को संबोधित करना चाहिए और मानकों की पारस्परिक मान्यता को भी बढ़ावा देना चाहिए।
तीसरा, नियामकीय सुधार भी कंपनियों के विकास के लिए आवश्यक हैं। मौजूदा श्रम कानूनों के मुताबिक श्रमिकों की संख्या एक खास सीमा को पार कर जाने के बाद कई तरह के अंकुश लग जाते हैं। इससे विस्तार को बढ़ावा नहीं मिलता। इन सीमाओं को बढ़ाकर और अनुपालन को सहज बनाकर बाधाओं को दूर किया जा सकता है। इसके अलावा प्रभावी शहरी नियोजन और किफायती आवास नीति भी श्रम की गतिशीलता और श्रमिकों और नियोक्ताओं के स्तर पर लागत कम करने के लिए जरूरी हैं। कामगारों के लिए डॉरमेटरी बनाने या परिवहन व्यवस्था सुधारने जैसे व्यावहारिक कदम कुशल श्रमिकों को आकर्षित कर सकते हैं, खासकर महिलाओं को जिनका श्रम शक्ति में बहुत कम प्रतिनिधित्व है। इन चुनौतियों को हल करने से श्रमिकों की कमी दूर करने में मदद मिलेगी, उत्पादकता बढ़ेगी और देश की विनिर्माण प्रतिस्पर्धा मजबूत होगी।
आखिर में, भारत को तकनीक को अपनाने को प्राथमिक देने की की जरूरत है और शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाने की भी आवश्यकता है। मूल्य श्रृंखला में ऊपर जाने के लिए यह आवश्यक है। उच्च मूल्य वाली वस्तुओं के मामले हम वैश्विक समकक्ष देशों से पीछे हैं। हम अपने जीडीपी का केवल 0.6 फीसदी शोध एवं विकास पर व्यय करते हैं जबकि मलेशिया और थाईलैंड जैसे देश क्रमशः 0.9 और 1.2 फीसदी राशि इस पर खर्च करते हैं। विभिन्न सरकारी प्रोत्साहनों के बावजूद शोध एवं विकास में निजी योगदान कम है। अधिक खुली और प्रतिस्पर्धी बाजार व्यवस्था जरूरी है ताकि भारतीय कंपनियों को मूल्य श्रृंखला में आगे ले जाया जा सके।
एक फलता-फूलता विनिर्माण उद्योग केवल वृद्धि से संबंधित नहीं है। यह देश की रोजगार संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए भी जरूरी है। जैसा कि 2023- 24 की आर्थिक समीक्षा में भी कहा गया, भारत को सालाना 78.5 लाख गैर कृषि रोजगार तैयार करने की आवश्यकता है। सेवा क्षेत्र उच्च कौशल वाले पेशेवरों को काम दे सकता है लेकिन अर्द्धकुशल और अकुशल लोगों को कृषि से बाहर रोजगार देने के लिए विनिर्माण क्षेत्र की मजबूती जरूरी है।
जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी को मौजूदा 13 फीसदी से बढ़ाकर अगले एक दशक में 25 फीसदी करने के लिए (6.5 फीसदी की अनुमानित जीडीपी वृद्धि के साथ) इस क्षेत्र को सालाना औसतन 13.6 फीसदी की दर से विकसित होना होगा। इस स्तर की वृद्धि घरेलू मांग के माध्यम से नहीं हासिल की जा सकती है। इसके लिए कहीं अधिक मजबूत निर्यात प्रदर्शन भी जरूरी है। फिलहाल देश के पास अवसर है। इसका लाभ लेने के लिए मजबूती से कदम उठाने होंगे ताकि विनिर्माण की पूरी क्षमताओं का लाभ लिया जा सके।
Date: 27-05-25
शहरों के विकास में नीली अर्थव्यवस्था का महत्त्व
अमित कपूर, ( लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कंपेटटिवनेस के चेयरमैन हैं। आलेख में मीनाक्षी अजित का भी योगदान है। )
एक लंबे अरसे से शहरों में जल को प्राकृतिक दृश्य या कारखानों एवं नालों से बहने वाले पानी के रूपों में देखा गया है। जल को एक रणनीति के रूप में तवज्जो नहीं दी गई है। मगर नीली अर्थव्यवस्था (ब्लू इकॉनमी) की अवधारणा में ये तीनों पहलू शामिल किए गए हैं। यह एक आशावादी सोच है। जब हम नीली अर्थव्यवस्था का जिक्र करते हैं तो हमारे जेहन में महासागर, समुद्री बंदरगाह, मछली पकड़ने वाली नौकाएं आदि आने लगते हैं। इसके उलट जब हम शहरों के बारे में सोचते हैं तो ऊंची इमारतें, सड़कों पर गाड़ियों की लंबी कतारें और रूफ-टॉप गार्डन हमारे दिमाग में उभरने लगते हैं। यह दो स्थितियां इस बात पर गौर नहीं कर पाती हैं कि कई भारतीय शहरों का जल से गहरा ताल्लुक है। भारत में तटीय क्षेत्र लगभग 7,500 किलोमीटर लंबा है। चेन्नई और सूरत जैसे बड़े शहर समुद्र के किनारे बसे हैं तो वाराणसी और पटना गंगा नदी के किनारे हैं। उदयपुर और श्रीनगर जैसे शहर झीलों के किनारे हैं। भारत में कम से कम 35-40 शहर हैं जिनका पानी के साथ गहरा रिश्ता रहा है। उनमें कई तो देश के सबसे बड़े शहरी केंद्रों में एक हैं।
भारत इस समय टिकाऊ विकास की जटिलताओं से गुजर रहा है, ऐसे में नीली अर्थव्यवस्था शहरी विकास को सामाजिक समावेश एवं पर्यावरण के लिहाज से टिकाऊपन के साथ जोड़ने की एक बेहद ठोस रणनीति की पेशकश कर रही है। जल मूल रूप से शहरी जीवन में समाया हुआ है। यह व्यापार को बढ़ावा देने के साथ ही जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार लाता रहा है। मगर शहरों के अंधाधुंध विकास से जल क्षेत्रों को नुकसान पहुंच रहा है।
नदियों में कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ एवं रासायनिक तत्व बहाए जा रहे हैं वहीं, तालों, तालाबों आदि में कचरे फेंके जा रहे हैं और निर्माण गतिविधियों के लिए आर्द्र भूमि का लगातार दोहन हो रहा है। शहरी व्यवस्था में जल निकायों को ‘अनुत्पादक जगहों’ के रूप में देखने के बजाय उन्हें समाधान के स्रोत के रूप में देखा जाना चाहिए। ताल, तालाब छोटे हों या बड़े उन्हें व्यापक जीवंत परिसंपत्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।
पूरी दुनिया में जल आधारित शहरी विकास में गहरी दिलचस्पी देखी जा रही है। कोलकाता, चेन्नई और वाराणसी जैसे शहरों में नीली अर्थव्यवस्था के सिद्धांत व्यवहार में उतारे तो गए हैं मगर उन्हें कोई औपचारिक नाम नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए केरल में कोच्चि ने 2023 में एक जलीय मेट्रो प्रणाली की शुरुआती की, जो इलेक्ट्रिक नौकाओं से चलती है। इससे सड़कों पर भीड़ कम होने के साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने में भी मदद मिल रही है और लोगों को एक स्वच्छ एवं सस्ती परिवहन प्रणाली भी मयस्सर हो पा रही है। गौर करने वाली बात यह है कि यह परियोजना जेटी के आस-पास जल की गुणवत्ता सुधारने के लिए शुरू हुई थी। इस पहल से स्थिर जल क्षेत्रों में जल की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है और स्थानीय मत्स्य कारोबार एवं लोगों को जीविकोपार्जन में भी मदद मिल रही है।
कुल मिलाकर ये प्रयास यातायात, पारिस्थितिकी-तंत्र और अर्थव्यवस्था के विवेकपूर्ण सम्मिश्रण को परिलक्षित करते हैं। चेन्नई में मैंग्रोव (समुद्र के किनारे उगने वाली वनस्पतियों) के संरक्षण से तटीय इलाकों में बाढ़ से सुरक्षा का इंतजाम किया जा रहा है। भारत दुनिया के अन्य देशों में हो रहे श्रेष्ठ व्यवहारों का भी अनुपालन कर सकता है। बार्सिलोना में विकसित ओलिंपिक पोर्ट और हेलसिंकी बंदरगाह इस बात के उदाहरण हैं कि नीली अर्थव्यवस्था किस तरह कम इस्तेमाल होने वाले जल क्षेत्र में जान फूंक कर उन्हें जीवंत सार्वजनिक स्थानों एवं नवाचार केंद्रों में तब्दील कर सकती है। भारत और विदेश दोनों जगहों में ये प्रयोग दर्शाते हैं कि आर्थिक गतिविधियां और पर्यावरण संतुलन न केवल एक साथ हो सकते हैं बल्कि एक साथ फल-फूल भी सकते हैं।
बदलाव का यह अवसर ऐसे समय में और महत्त्वपूर्ण हो गया है जब ज्यादातर भारतीय शहर गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। पानी की उपलब्धता और उनकी गुणवत्ता दोनों ही मामलों में शहरों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष 2021 में आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने नदी केंद्रित शहरी नियोजन से संबंधित दिशानिर्देश तय किए थे। उन दिशानिर्देशों में नो डिवलपमेंट कंस्ट्रक्शन जोन्स (एनडीसीजेड), सक्रिय बाढ़ क्षेत्र का पुनर्वास और पारिस्थितिकी-तंत्र के प्रति संवेदनशील सुरक्षित क्षेत्रों के विकास पर जोर दिया गया था।
अगर ये उपाय पूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामुदायिक भागीदारी के साथ क्रियान्वित किए जाएं तो शहरी क्षेत्रों में जोखिम कम होने के साथ ही जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार हो सकता है। इन सिद्धांतों पर काम करने के लिए शहरों में क्षेत्रीय और संपूर्ण जल दृष्टिकोण नजरिया, दोनों ही अपनाया जा सकता है। क्षेत्रीय दृष्टिकोण में प्रत्येक शहर या क्षेत्र के विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र, सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय स्थितियों पर जोर दिया जाता है और अधिक सटीक एवं समावेशी स्थानीय रणनीतियों को बढ़ावा दिया जाता है। एक ही ढांचा सभी पर लागू करने के बजाय यह दृष्टिकोण विशेष सरकारी ढांचे, विभिन्न पक्षों की आपसी भागीदारी और एकसमान नीतियों का समर्थन करता है जो जल, शहरी नियोजन और आर्थिक क्षेत्रों में खामियों को दूर करता है।
इसके साथ संपूर्ण जल दृष्टिकोण स्वच्छ जल और जलीय तंत्र के आपसी जुड़ाव को दर्शाता है। यह स्रोत जल से लेकर तटों तक पूरे जल चक्र के एकीकृत प्रबंधन पर जोर देता है। यह नजरिया भारतीय शहरों के लिए महत्त्वपूर्ण है जहां ऊपरी प्रवाह प्रदूषण और अनियोजित विकास डाउनस्ट्रीम यानी निचली जलधाराओं के पास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य, टिकाऊपन और जीविका को सीधे प्रभावित करता है।
हालांकि, इन बातों का यह कतई मतलब नहीं है कि नीली अर्थव्यवस्था केवल बुनियादी ढांचे या नियमन तक ही सीमित है। इसका लोगों से ही उतना ही सरोकार है। शहरों को अपने जल निकायों के संरक्षक के रूप में काम करना चाहिए। इसके लिए लोगों में जागरूकता, नागरिकों की भागीदारी और सामुदायिक स्वामित्व जरूरी है। नदियों के किनारों को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने, नागरिक विज्ञान और तकनीक एवं नवाचार की मदद से नीली अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सुधार जैसी पहल समुदायों को नदियों से जोड़ने में मदद कर सकती हैं। इससे देखभाल और नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा।
रॉटरडैम की ब्लू सिटी (एक स्विमिंग पूल जिसे चक्रीय अर्थव्यवस्था के केंद्र के रूप में विकसित किया गया) नदी आधारित पुनर्विकास के सामाजिक एवं रचनात्मक संभावनाओं को दर्शाती है। लिहाजा नीली अर्थव्यवस्था की संभावनाओं का लाभ उठाना न केवल विकास का एक पहलू है बल्कि एक व्यावहारिक ढांचा भी है जिसमें जल को शहरों की सोच, उनकी योजना एवं उनके विकास के केंद्र में रखा जाता है। जल की किल्लत, शहरी जीवन के विस्तार और आर्थिक असमानता से जूझ रहे भारतीय शहरों के लिए नीली अर्थव्यवस्था एक बड़ी महत्त्वाकांक्षा से अधिक आधुनिक, प्रणालीगत स्तर पर समस्या के समाधान का तरीका है। संदेश बिल्कुल साफ है कि हम नदियों और तटीय क्षेत्रों के महत्त्व की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। जल एवं जल स्रोतों को मजबूत बनाकर ही हम अपना जीवन सुरक्षित कर सकते हैं।
Date: 27-05-25
राज्यपाल की शक्ति से बढ़ती शिकायत
एस श्रीनिवासन
पिछले हफ्ते 21 मई को मद्रास उच्च न्यायालय ने उस कानूनी व्यवस्था पर रोक लगा दी, जो तमिलनाडु सरकार को यह अनुमति दे रही थी कि राज्यपाल को दरकिनार करते हुए वह कुलपतियों की नियुक्ति कर सकती है। अदालत में पेश की गई दलीलें अपनी जगह हैं, लेकिन यह मामला राज्यपाल की भूमिका, केंद्र- राज्य संबंधों और कार्यपालिका की शक्तियों पर कई महत्वपूर्ण सवाल उठाता है।
इस मुद्दे पर गैर-भाजपा शासित राज्यों की करीबी नजर है, क्योंकि आमतौर पर वे ही राज्यपालों की सक्रियता और अधिकारों के अतिक्रमण का शिकार बनते हैं। केरल और पश्चिम बंगाल ने भी कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपालों की शक्तियों को वापस लेने की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है। 8 अप्रैल के फैसले का हवाला देते हए, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर फैसला करने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति की समय सीमा तय की गई है, केरल ने यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि यह फैसला उस पर भी लागू होता है। वहां की वाममोर्चा सरकार ने राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने के लिए केरल के राज्यपाल और राष्ट्रपति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। उधर, पश्चिम बंगाल सरकार भी तमिलनाडु और केरल की तरह राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल की शक्तियों को वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी।
इसके बाद पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने राज्य सरकार से परामर्श किए बिना ही कुलपतियों को नियुक्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की दखल और खोज व चयन समिति में यूजीसी के एक सदस्य को शामिल करने के बाद राज्य ने अपना रुख नरम किया। कुछ कुलपतियों को जरूर नियुक्त किया गया, लेकिन मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच विवाद अब भी जारी है।
सुप्रीम कोर्ट ने विगत 8 अप्रैल को अपने एक ऐतिहासिक फैसले में राज्यपाल व राष्ट्रपति के लिए भी विधेयकों पर निर्णय की समय सीमा तय कर दी थी। शीर्ष अदालत की दो सदस्यीय पीठ ने अनुच्छेद 142 के प्रावधानों का सहारा लिया, जो आला अदालत को अपने विचाराधीन विशिष्ट मामलों में ‘पूर्ण न्याय’ देने के लिए आदेश जारी करने का अधिकार देता है।
शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति के लिए भी समय-सीमा तय कर दी कि वह राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयक को या तो अपनी मंजूरी दें या टिप्पणियों के साथ उसे संबंधित विधानसभा को लौटा दें। चूंकि विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अंतिम माना जाता है, इसलिए अदालत ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए अपनी सहमति देने की समय सीमा तय की है। इसके बाद राष्ट्रपति ने इस फैसले के आलोक में 14 सवाल सर्वोच्च न्यायालय से पूछे हैं, ताकि कुछ बातें साफ हो सकें। इन सवालों में तमाम बातों के अलावा यह पूछा गया है कि क्या अनुच्छेद 142 को उपयोग ऐसे निर्देश जारी करने के लिए किया जा सकता है, जो सांविधानिक व्यवस्था का उल्लंघन करते हों ?
दरअसल, तमिलनाडु सरकार ने अदालत का दरवाजा इसलिए खटखटाया था, क्योंकि राज्यपाल आर एन रवि ने विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयकों को लंबे समय तक रोके रखा। उन्होंने न उनको राष्ट्रपति के पास भेजा और न ही विधानसभा को लौटाया। जबकि, संविधान के मुताबिक, एक बार जब विधेयक राज्य विधानसभा द्वारा पारित हो जाता है, तो राज्यपाल को उसे अपनी सहमति देनी चाहिए या अपने सवालों के साथ वापस विधानसभा को भेजना चाहिए या फिर राष्ट्रपति के पास भेज देना चाहिए। इतना ही नहीं, यदि विधानसभा उस विधेयक को दूसरी बार पारित करते हुए उनके पास भेजती है, तो उस पर हस्ताक्षर करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होता।
चूंकि राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गई थी, इसलिए राज्यपाल ने दो विधेयक राष्ट्रपति को भेजे। शेष 10 को दो-तीन साल तक रोके रखने के बाद बिना किसी टिप्पणी के वापस विधानसभा को लौटा दिया। जब विधानसभा ने उन विधेयकों को पुनः पारित करके राज्यपाल को भेजा तो उन्होंने उनको राष्ट्रपति के पास भेज दिया। इनमें सदन द्वारा पारित वह विधेयक भी था, जिसमें कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल की शक्ति वापस लेने और उसे कार्यपालिका ( मुख्यमंत्री) को सौंपने का प्रावधान किया गया है।
विश्वविद्यालय और उनका प्रबंधन लंबे समय से केंद्र और राज्यों के बीच संघर्ष का मैदान रहा है, खासकर तब जब दोनों सरकारें भिन्न विचारधारा वाली पार्टियों हों। केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल संविधान के मूल विचार को भूलकर राज्य सरकार से परामर्श किए बिना मनमाने फैसले लेते रहे हैं, जबकि संविधान उनको राज्य मंत्रिमंडल के फैसलों के अनुसार काम करने को कहता है। राज्य इसे अपनी शक्तियों का अतिक्रमण मानते हैं, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच तनाव पैदा होता है। राज्य विधानसभाएं अवाम की ओर से कानून पारित करती हैं, जो अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सदन में भेजते हैं। राज्यपाल अनिवार्चित व केंद्र द्वारा नियुक्त होते हैं और उनके पास सीमित शक्तियां होती हैं। माना जाता है कि वे कार्यपालिका की सिफारिशों के अनुसार काम करेंगे और केंद्र व राज्य के बीच सेतु की भूमिका निभाएंगे। मगर बीते कुछ समय से राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों में टकराव शुरू हो गया है, खासकर उन राज्यों में, जहां केंद्र सरकार के विरोधी दल की सरकारें हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल को दरकिनार करते हुए कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू कर दी थी, जो सीधे मुख्यमंत्री को रिपोर्ट करते। इसके बाद ही एक वकील ने मद्रास में अवकाशकालीन उच्च न्यायालय का रुख किया। मद्रास हाईकोर्ट की दो सदस्यीय अवकाश पीठ ने राज्य सरकार की कवायद पर रोक लगा दी और कहा कि यह यूजीसी के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है। द्रमुक सरकार के वकील ने दलील दी कि यह मामला पहले से सुप्रीम कोर्ट में है। उन्होंने याचिकाकर्ता पर ‘फोरम शॉपिंग’ का आरोप लगाया, यानी नियुक्तियों को रोकने के लिए सामान्य अदालत के बजाय अवकाश अदालत की जान-बूझकर शरण ली गई। अदालत ने इन दलीलों को खारिज कर दिया। राज्यपाल को करीब दो महीने बाद राहत मिली है, पर यह मुद्दा शायद ही शांत हो। सवाल यह है, जीत किसकी होनी चाहिए लोगों की इच्छा की या सांविधानिक पदाधिकारियों की ?