27-04-2019 (Important News Clippings)

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27 Apr 2019
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Date:27-04-19

सवालों से जूझता सुप्रीम कोर्ट

मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न और एक वकील के फिक्सिंग संबंधी आरोपों का सच सामने लाना बड़ी चुनौती है।

विराग गुप्ता , (लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)

न्यायाधीशों को इसलिए पंच परमेश्वर कहा जाता है, क्योंकि वे न्याय केवल करते ही नहीं, बल्कि करते हुए दिखते भी हैं। न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद कहा था कि मृत्युदंड जैसे जरूरी मामलों पर ही त्वरित सुनवाई होनी चाहिए, लेकिन उन्होंने अपने मामले में, जिसमें एक महिला ने उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है, छुट्टी के दिन शनिवार को विशेष न्यायिक सुनवाई का फैसला किया। इसके चलते यह सवाल उठा कि उन्होंने महासचिव से स्पष्टीकरण दिलाने के बजाय उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की बैठक क्यों नहीं बुलाई?

सच तो यह है कि ऐसे एक नहीं अनेक सवाल तभी से उठ रहे हैं जबसे मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों का सनसनीखेज मामला सामने आया। सबसे प्रमुख सवाल यही है कि जस्टिस रंजन गोगोई ने अपने ऊपर लगे आरोपों पर व्यक्तिगत सफाई देने के बजाय खुद ही सुनवाई करने का फैसला क्यों लिया? करीब एक साल पहले जस्टिस गोगोई समेत चार जजों ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर मनमानी रवैये का आरोप लगाया था। उन आरोपों के तहत यह कहने की कोशिश की गई थी कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश स्थापित न्याय प्रक्रिया का पालन नहीं कर रहे हैं, पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए आरोपों को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से निपटाने के बजाय मुख्य न्यायाधीश ने अवकाश के दिन न्यायिक सुनवाई करके क्या संदेश देने की कोशिश की?

हालांकि सुनवाई में शामिल होने के बावजूद न्यायिक फैसले में जस्टिस गोगोई का नाम नहीं था, लेकिन इससे विवाद कम नहीं हुआ। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आम जनता के मामलों और साथ ही कुछ अहम मसलों पर तो तारीख पर तारीख लगती रहती है, लेकिन इस मामले को आनन-फानन निपटाने की कोशिश क्यों हो रही है? हालांकि विशाखा गाइडलाइन के अनुसार कार्यक्षेत्र में महिलाओं के उत्पीड़न की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय में भी 11 सदस्यीय आंतरिक जांच समिति बनी हुई है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के प्रशासनिक मुखिया भी हैं इसलिए यह समिति उनकी जांच नहीं कर सकती। विवाद बढ़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस बोबड़े की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की जांच समिति बनाई गई।

इस पर विवाद भी उठा खड़ा हुआ, क्योंकि महिला ने कहा कि जस्टिस रमन्ना तो जस्टिस गोगोई के करीबी मित्र हैं। इसके बाद जस्टिस रमन्ना ने खुद को इस समिति से अलग कर लिया। वैसे इसके पहले ही न्यायिक जगत में यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि कनिष्ठ न्यायाधीशों की जांच समिति मुख्य न्यायाधीश पर कोई कार्रवाई कैसे कर सकती है? इसका जवाब जो भी हो। कोर्ट को अब यौन उत्पीड़न के आरोपों के साथ न्यायपालिका में फिक्सिंग के आरोपों की भी जांच करनी है, क्योंकि एक वकील ने यह दावा किया है कि जस्टिस गोगोई पर लगे आरोप साजिश का हिस्सा हैं। जस्टिस अरुण मिश्रा की खंडपीठ ने न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद, बेंच फिक्सिंग आदि को जड़ से मिटाने की बात कहते हुए पूर्व न्यायाधीश एके पटनायक को उक्त वकील के दावों की जांच के लिए नियुक्त किया है, लेकिन ऐसा लगता है कि न्यायिक आदेश से बनी जस्टिस पटनायक समिति और प्रशासनिक आदेश से बनी जस्टिस बोबड़े समिति के सीमाधिकार पर तार्किक विमर्श नहीं हुआ।

जो भी हो, यह ठीक नहीं कि देशभर में व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए तत्पर उच्चतम न्यायालय की प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था इनगंभीर मामलों की जांच सही तरीके से करने में असमर्थ नजर आए। सवाल केवल न्याय का नहीं, न्याय के तरीके का भी है। उम्मीद है कि दोनों मामलों-महिला के आरोपों और साथ ही न्यायपालिका में फिक्सिंग के आरोपों की जांच जल्द ही किसी नतीजे पर पहुंचेगी। जांच का नतीजा जो भी हो, अभी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसलिए और भी नहीं कि जहां महिला के आरोप सनसनीखेज हैं वहीं खुद उस पर भी सवाल उठ रहे हैं। उस पर आरोप है कि उसने मुख्य न्यायाधीश से नजदीकियों का हवाला दे सुप्रीम कोर्ट में गु्रप-डी में भर्ती कराने के लिए किसी से पैसे लिए। जब उसने नौकरी न मिलने पर अपने पैसे मांगे तो उसे धमकाया गया। इस मामले में एफआईआर दर्ज होने के बाद दिल्ली पुलिस जांच कर रही है।

महिला के आरोप सामने आने पर आहत मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि इन घिनौने आरोपों के बाद अच्छे लोग जज बनना पसंद नहीं करेंगे, लेकिन यह बात तो अक्सर उठती है कि कुछ चुनिंदा परिवारों से जुड़े लोग न्यायपालिका पर हावी हैं। इसी तरह यह बात तो बहुत पुरानी है कि आखिर न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे कर देते हैं? यह भी ध्यान रहे कि देश में आज तक एक भी न्यायाधीश महाभियोग की प्रक्रिया के तहत हटाया नहीं जा सका है। नेता, अफसर, सरकार और एनजीओ के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश को लोकपाल बना दिया गया, पर न्यायाधीशों के गलत आचरण पर लगाम लगाने के लिए सक्षम शिकायत निवारण तंत्र भी नहीं बनाया गया है। आखिर ऐसा क्यों है ?

न्यायाधीशों को नि:शुल्क आवास, पानी, बिजली, फोन, चपरासी, वाहन, मेडिकल, विदेश यात्रा, पेंशन समेत वेतन भी मिलता है। ऐसे में उनकी भी जवाबदेही बनती है। ताजा विवाद के बाद एक बार फिर से न्यायाधीशों के बच्चों और रिश्तेदारों पर सवाल उठ रहे हैं, जो वकालत करते हैं। आज जब आम चुनावों के चलते नेताओं और राजनीतिक दलों पर आचार संहिता लागू है तब संविधान के संरक्षक के नाते न्यायाधीशों और उनके परिवारजनों के लिए भी न्यायिक आचार संहिता बनना समय की मांग है।

संविधान के तहत देश में सभी नागरिक बराबर हैं। न्यायाधीश भय और पक्षपात के बगैर सही न्याय कर सकें इसलिए उन्हें अनेक विशेषाधिकार दिए गए हैं, लेकिन यह ठीक नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें। न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर सरकार और संसद को तो न्यायाधीशों द्वारा धता बता दिया गया, लेकिन कोलेजियम व्यवस्था जस की तस लागू है। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक महिला के यौन उत्पीड़न और एक वकील के फिक्सिंग संबंधी आरोपों के मामलों में सच सामने लाना एक बड़ी चुनौती है। उच्चतम न्यायालय को इस चुनौती का सामना करना ही होगा। उसे यह भी देखना होगा कि न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही कैसे बढ़े? ऐसा होने पर ही उच्चतम न्यायालय की साख का संकट दूर होगा।


Date:26-04-19

Vision For Our Cities

New government must learn from successes and failures of past urban schemes

Sama Khan , [ The writer is a research associate at the Centre for Policy Research, Delhi.]

With the country’s urban population rising and cities being seen as engines of economic growth, urban policy is gaining currency as a marker of political will. Hence, it is important to understand the strength and weaknesses of our urban programmes.

The Atal Mission for Rejuvenation and Urban Transformation (AMRUT) was launched as a continuation of the Jawaharlal Nehru National Urban Renewal Mission (JNNURM). But AMRUT focused only on big cities as opposed to the JNNURM that covered smaller towns as well. Even though the JNNURM was criticised for favouring big cities over small towns, it covered a wide variety of sectors from roads and transport to water and sanitation. AMRUT covers roads, transport, water and sewerage, but waste management was transferred to the massive sanitation programme — the Swachh Bharat Mission (SBM).

JNNURM also uncovered the lack of capacity of local governments with small and medium towns struggling to complete projects. JNNURM intended to promote self-governing cities and that’s why it included governance reforms, much like AMRUT. Even though, AMRUT was envisaged as a continuation of the previous regimes’ urban transformation project, it seem to have learnt very little from its predecessor’s experiences. A major achievement of the current urban programme, though, has been in decentralising the project sanction process — it was centralised under JNNURM. But this has hampered project monitoring, which, in turn, affected the dissemination of information.

The Pradhan Mantri Awas Yojana (PMAY) was launched to build one crore houses for the urban poor. The scheme includes components that enable the construction of houses through public-private partnership (affordable housing partnership, AHP) and empowers beneficiaries to build and upgrade their houses (Beneficiary-Led Construction). The AHP component of PMAY is similar to the previous regime’s Basic Services to the Urban Poor (BSUP) scheme that focused primarily on building houses on the peripheries of cities. AHP will, therefore, raise similar issues of non-occupancy and ineligible beneficiaries. Improvement of existing settlements is a far more sustainable option that considers actual improvement in people’s living conditions along with safeguarding their employment opportunities.

The Smart Cities Mission (SCM) was launched as a “bold, new” initiative to cater to the ambitions of the urban middle class, escalate the country’s digital transformation and justify the current government’s commitment to the eternal aspiration of modernity. But the mission largely covers traditional infrastructure projects which are already eligible under AMRUT, with only a few projects relying on new information and communication technologies. The formation of a special purpose vehicle for the implementation of the mission is at the cost of empowering local governments, which are seen as inefficient even in the delivery of basic services.

The Swachh Bharat Mission was widely publicised as the government’s flagship idea to improve the sanitation situation. It was meant to cater to every section of society as sanitation is a basic human right. Its focus primarily was on toilet construction. The larger gamut of sanitation services were included under AMRUT. The understanding that the sanitation cycle requires the proper functioning of several elements was missing from the programmes.

Deep-rooted inequalities have hampered project implementation and outcome. The efficiency of local governance holds the key to resolving this issue. Decentralisation should be encouraged but needs effective monitoring. The Centre will have to undertake timely data reporting protocols to ensure the proper functioning of its schemes. Moreover, one approach cannot work for urban areas of different sizes. We also need to reconsider the simplistic rural-urban binary in formulating policy. A graded urban policy that addresses the needs of the smallest urban settlements will be more effective in catering to every section of society.