19-03-2019 (Important News Clippings)

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19 Mar 2019
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Date:19-03-19

Goa After Parrikar

BJP must persist with Parrikar’s inclusive politics. Current turbulence will pass

TOI Editorials

In Manohar Parrikar’s passing, the country has lost a stalwart leader who personified simplicity and championed the middle road despite BJP’s lurch to the right in many states. Parrikar’s illness was a setback to Goa, which was counting on his return from Delhi to stamp out the political instability created by a hung assembly. It is a tribute to Parrikar’s acceptability that parties like MGP and GFP which campaigned on an anti-BJP platform in the 2017 elections were willing to ally with BJP after the polls provided Parrikar would become chief minister.

Credited with building BJP in Goa, Parrikar achieved the task without alienating the large Christian minority. Parrikar’s centrist and pragmatic positions and fielding of Christian candidates allayed fears of Hindutva in this coastal state with many fish and beef eaters. The IIT graduate turned industrialist turned CM, who drove his own car, hitched rides and cultivated an aam aadmi persona, was quick to gain national prominence. It was during Parrikar’s tenure as defence minister that India undertook surgical strikes against Pakistan in 2016 and implemented One Rank One Pension to assuage discontent in the armed forces.

Reduced to 12 MLAs in the 36-member Goa assembly, BJP will struggle without Parrikar. But it will take comfort in Congress, the single largest party with 14 legislators, struggling to regroup since the daring coup of 2017 when BJP formed the government despite being defeated. Since then, three Congress MLAs have resigned and crossed over to BJP. Though senior Congress leader Digambar Kamat has denied rumours of his impending defection, it sums up the disarray in Congress ranks. Despite staking claim to form government, Congress has been unable to impress the ten-member bloc of non-BJP, non-Congress MLAs who can be expected to bargain harder with both sides now.

While it makes sense for the present ruling coalition to be invited to form the government in the interest of continuity, only a floor test will determine who has the numbers in this murky scenario as the Supreme Court had ruled in its SR Bommai judgment. However, four seats in the house of 40 – 10% of the house strength – currently lie vacant and bypolls here could tilt the balance again. Goa may be a small state but having upped the stakes BJP cannot afford to lose it. Finding a leader as acceptable as Parrikar is critical to BJP’s fortunes.


Date:19-03-19

भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई की दिशा में अहम फैसला

संपादकीय

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष को देश का पहला लोकपाल बनाने का निर्णय लेकर भ्रष्टाचार से निपटने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की यह प्रमुख मांग थी। यह विचित्र संयोग है कि पिछली कांग्रेस सरकार काफी दबाव के बाद अपने कार्यकाल के अंत में लोकपाल व लोकायुक्त अधिनियम लाई थी और अब मौजूदा सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में लोकपाल के चयन का फैसला लिया है। लोकपाल की नियुक्ति न होना विवाद का विषय रहा है। नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर एनडीए सरकार की दलील थी कि विपक्ष के नेता की मौजूदगी के बिना लोकपाल की नियुक्ति नहीं की जा सकती और फिलहाल लोकसभा में कोई विपक्ष का नेता नहीं है।

2016 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी यह दलील ठुकराते हुए कहा कि विपक्ष के नेता की गैर-मौजूदगी से लोकपाल की नियुक्ति अवैध नहीं मानी जाएगी। जाहिर है सरकार ने चुनाव की बेला में यह फैसला लेकर एक और वादा पूरा करने का दावा पुख्ता कर लिया है। गौरतलब है कि लोकपाल की चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता व भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामांकित सुप्रीम कोर्ट का कोई जज और उन सदस्यों की सिफारिश पर अामंत्रित कोई ख्यात न्यायविद होते हैं। गौरतलब है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग के साथ मिलकर काम करने वाले लोकपाल को मौजूदा व पूर्व प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, सरकारी कर्मचारियों और यहां तक कि सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों के खिलाफ शिकायतों की जांच का अधिकार है। इसीलिए सत्ता में कोई भी दल क्यों न रहा हो, इस मामले में कोई कदम उठाने के प्रति उदासीनता ही दिखाई गई है। आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी रहे जस्टिस घोष वर्तमान में मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं और उन्हें मानवाधिकार कानूनों का विशेषज्ञ माना जाता है। लेकिन, उनके चयन की खबर आते ही आम आदमी पार्टी ने उनके समक्ष रफाल सौदे में भ्रष्टाचार की शिकायत करने की घोषणा की है। जहां यह शिकायत जायज भी मानी जा सकती है वहीं, यह सावधानी बरतनी होगी कि लोकपाल कहीं राजनीतिक रस्साकशी में न उलझ जाए।


Date:19-03-19

लोकपाल का गठन

संपादकीय

देश के पहले लोकपाल के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश पीसी घोष का नाम सामने आना एक अच्छी खबर तो है, लेकिन अगर उनके नाम की आधिकारिक घोषणा हो जाती है तो भी यह कहना कठिन है कि भ्रष्टाचार रोधी एक प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था आकार लेने वाली है। एक तो अभी लोकपाल सदस्यों के नाम भी तय होने हैं और दूसरे, इसका निर्धारण भी होना है कि लोकपाल व्यवस्था कैसे काम करेगी और वह सीबीआइ और सीवीसी के बीच कैसे संतुलन बैठाएगी? इस सवाल के बीच लोकपाल प्रमुख और उसके सदस्यों को लेकर विवाद भी छिड़ने के आसार हैं।

सच तो यह है कि विवाद छिड़ता हुआ दिख भी रहा है। देश में कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें उच्च पद पर किसी का चयन तब तक मंजूर नहीं होता जब तक वह उसे सही होने का प्रमाण पत्र न दे दें। हैरत नहीं ऐसे लोग जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते नजर आएं। जो भी हो, इस पर हैरानी नहीं कि लोकपाल चयन समिति में लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे ने हिस्सा नहीं लिया। उनकी शिकायत यह थी कि उन्हें नेता विपक्ष के तौर पर नहीं, बल्कि विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर बुलाया जा रहा है। अपनी इसी शिकायत के बहाने वह लोकपाल चयन समिति की बैठकों का बहिष्कार यह जानते हुए भी करते रहे कि कांग्रेस नेता विपक्ष की हैसियत हासिल करने में नाकाम रही है। वह इससे भी परिचित थे कि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलीलों पर गौर नहीं किया। ऐसा लगता है कि खड़गे असहयोग करने पर आमादा थे। पता नहीं उन्हें लोकपाल चयन समिति में अपनी राय रखने में क्या परेशानी थी? आखिर ऐसा भी नहीं कि इस पांच सदस्यीय समिति में वही सब कुछ होना था जो वह चाहते।

इस पर संतोष नहीं जताया जा सकता कि आखिरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ी, क्योंकि इसमें पांच साल की देर हुई है। यह प्रक्रिया तब आगे बढ़ सकी जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और उसने लोकपाल के गठन में देरी को लेकर सवाल खड़े किए। अच्छा होता कि आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के पहले लोकपाल के गठन का काम पूरा हो जाता। यह सही है कि लोकपाल निर्माण की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आगे बढ़ रही है, लेकिन आखिर यह कितना उचित है कि जब आदर्श आचार संहिता अमल में आ चुकी है तब लोकपाल का गठन हो रहा है?

हो सकता है कि आगामी कुछ दिनों में लोकपाल व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो जाए, लेकिन अगर वह राज्यों के लोकायुक्त की तरह ही काम करती है तो वह सपना शायद ही पूरा हो जो लोकपाल आंदोलन के दौरान देखा गया था। भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी व्यवस्था के निर्माण का कोई मतलब नहीं जो नेताओं और नौकरशाहों के कदाचार पर लगाम न लगा सके और जनता को राहत न दे सके। क्या कोई बता सकता है कि राज्यों में गठित लोकायुक्त व्यवस्था आम आदमी को किस तरह राहत दे रही है? बेहतर हो कि विचार इस पर भी हो कि भ्रष्टाचार विरोधी प्रभावी तंत्र कैसे बने ?


Date:18-03-19

आयोग का परामर्श

संपादकीय

चुनाव आयोग का राजनीतिक दलों से चुनाव अभियान में सैनिकों और सैन्य अभियानों की तस्वीर का इस्तेमाल करने से बचने का आग्रह स्वाभाविक है। सामान्य तौर पर विचार करने से ही लगता है कि सैनिकों का राजनीतिक दलों से कोई लेना-देना नहीं। जवानों के बलिदानों या सैन्य अभियानों को राजनीतिक मोर्चाबंदी से दूर रखा जाना चाहिए। आयोग ने 2013 में भी इसका परामर्श जारी किया था। इस बार भी उसका ही हवाला दिया गया है। तो देखते हैं कि राजनीतिक दल इसका क्या उत्तर देते हैं? इस समय सीमा पार वायुसेना की कार्रवाई के बाद से सेना को लेकर देश में अलग किस्म का भाव है। इसके बीच हो रहे आम चुनाव में इस वातावरण का लाभ उठाने की कोशिश राजनीति के वर्तमान चरित्र को देखते हुए अस्वाभाविक नहीं है। देश में व्याप्त भावना से राजनीति बिल्कुल अलग हो जाए यह संभव भी नहीं है। वैसे एक पक्ष यह भी है कि शहीद या वीरता प्रदर्शित करने वाले जवानों की तस्वीरों के उपयोग से देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा मिलती है। जवान किसी एक दल की बपौती तो हैं नहीं। कोई भी दल इनका इस्तेमाल कर सकता है। अगर एक दल करता है तो दूसरे को समस्या नहीं होनी चाहिए। चूंंकि चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से पूर्व परामर्श के सख्ती से पालन का अनुरोध कर दिया है, इसलिए इनका उपयोग तब तक संभव नहीं है, जब तक चुनाव आयोग को इसके पक्ष में तर्क देकर तैयार नहीं कर लिया जाता। हमारे राजनीतिक दलों में इतना आत्मविास और साहस नहीं बचा है कि वो चुनाव आयोग के सामने उसकी किसी सलाह के विरु द्ध अपना पक्ष लेकर प्रस्तुत करें।

एक समय था जब चुनाव आयोग ने सारे राजनीतिक दलों से उनका घोषणा पत्र मांगा था, और कई ने दे भी दिया। तब भाजपा के अध्यक्ष के रूप में लालकृष्ण आडवाणी ने इसका विरोध किया और कहा कि यह हमारा सिद्धांत है, इससे चुनाव आयोग का लेना-देना होना नहीं चाहिए। उसके बाद चुनाव आयोग ने अपना आदेश वापस लिया था। इस बार ऐसा शायद न हो क्योंकि भाजपा विरोधी ज्यादातर दल इस परामर्श के लागू होने के पक्ष में हैं। जो भी हो यह ऐसा विषय है, जिस पर देश में एक राय संभव नहीं। चुनाव आयोग की सलाह को यदि राजनीतिक दल मान भी लें तो वे तस्वीर नहीं लगाएंगे किंतु उनको बोलने से तो नहीं रोका जा सकता। इसलिए हमारा मानना है कि चुनाव आयोग ऐसे परामर्श देने में थोड़ा ज्यादा सतर्क रहे।


Date:18-03-19

सौहार्द का गलियारा

संपादकीय

भारत-पाक रिश्तों में कड़वाहट की बड़ी वजह राजनीतिक है। खासकर कश्मीर और आतंकवाद के मसले पर दोनों में तालमेल नहीं बैठ पाता, जिसके चलते रह-रह कर दोनों के बीच तल्खी बढ़ जाती है। मगर लंबे समय से वकालत की जाती रही है कि दोनों देशों के आम लोगों के आपस में मिलने-जुलने में कोई बाधा पैदा नहीं आनी चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय इसी मंशा से सड़क और रेल मार्ग खोल कर लोगों के आने-जाने की सुविधा प्रदान की गई थी। वाजपेयी सरकार का कहना था कि अगर दोनों देशों के लोग आपस में मिले-जुलेंगे, एक-दूसरे के यहां की स्थितियों को समझेंगे, तो उनके मन की कड़वाहट कम होगी। इसी सिलसिले में सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी बढ़ावा देने पर जोर दिया गया था। पर आतंकी घटनाओं के चलते राजनयिक कदम के तहत इन गतिविधियों में रुकावट आती रही। आम लोगों के बीच भी आवाजाही, मिलने-जुलने का अपेक्षित सिलसिला नहीं बन पाया। ऐसे में करतारपुर साहिब गुरुद्वारे तक भारतीय लोगों के आने-जाने का रास्ता खोलने की पहल सकारात्मक कही जा सकती है। इस मसले पर दोनों देशों के आला अधिकारियों की बातचीत का सिलसिला चल पड़ा है। शुरुआती चरण में ही पाकिस्तान ने इस पर सकारात्मक रुख दिखाया है। कुछ तकनीकी पहलुओं को छोड़ दें, तो अब श्रद्धालुओं के करतारपुर साहिब जाने में आने वाली दिक्कतें लगभग दूर हो गई हैं।

करतारपुर साहिब गुरुद्वारे तक जाने के लिए सिख संप्रदाय के लोगों को कड़ी वीजा प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जबकि यह गुरुद्वारा भारतीय पंजाब की सरहद से सटा हुआ है। वहां पैदल भी जाया जा सकता है। मगर वीजा प्रक्रिया जटिल होने की वजह से बहुत सारे लोग वहां जा नहीं पाते। सरहद पर लगी दूरबीनों के जरिए ही दर्शन करके संतोष पा लेते हैं। इसलिए लंबे समय से मांग की जा रही थी कि करतारपुर साहिब गलियारे को वीजामुक्त किया जाए। पाकिस्तान सरकार इस पर राजी हो गई है। हालांकि भारत की तरफ से मांग की जा रही है कि गलियारा सातों दिन खुला रखा जाए, वहां जाने के लिए किसी प्रकार का वीजा न मांगा जाए। इसे लेकर पाकिस्तान की तरफ से कुछ हिचक है, पर इसके दूर होने की उम्मीद की जा सकती है। दरअसल, दोनों देशों के बीच जिस तरह के तनाव भरे रिश्ते हैं, उसमें श्रद्धालुओं की आड़ में शरारती तत्त्वों के घुसपैठ करने की आशंका बनी रह सकती है। यह स्थिति दोनों देशों के लिए खतरनाक साबित होगी। ऐसे में एहतियाती उपायों का ध्यान रखना ही पड़ेगा। इस यात्रा को निर्विघ्न बना देना फिलहाल संभव नहीं होगा।

इन दिनों दोनों देशों के बीच जैसे संबंध चल रहे हैं, उसमें करतारपुर साहिब को लेकर शुरू हुई सकारात्मक पहल के शुरुआती चरण में ही बहुत सारी शर्तें थोप देना और गुरुद्वारे की जमीन आदि पर कब्जे जैसे मुद्दों को लेकर जिद ठान लेना बाधा साबित हो सकता है। ऐसे मसलों में एक बार शुरुआत हो जाए, तो फिर बाकी पहलुओं पर धीरे-धीरे बातचीत के जरिए समाधान के लिए आगे बढ़ा जा सकता है। इसमें अहम मुद्दा फिलहाल यह होना चाहिए कि दोनों देश करतारपुर साहिब गलियारे को खुला रखने संबंधी शर्त पर दृढ़ता दिखाएं। कई बार देखा गया है कि ऐसे मसलों पर समझौता हो तो जाता है, पर किन्हीं तनातनी के क्षणों में उस पर अमल रोक दिया जाता है। इससे आपसी सौहार्द संबंधी पहल बेमानी साबित हो जाती है।


Date:18-03-19

The Urban Question

A charter designed by civil society organisations, workers’ collectives, and the urban poor reimagines our cities

Akriti Bhatia & Evita Das, [ Akriti Bhatia is a Ph.D. scholar at the Delhi School of Economics. Evita Das is an urban researcher at the Indo-Global Social Service Society ]

While agrarian distress has slipped into the pre-election discourse as an important political subject, it is imperative to ask why the urban question is no less political. India’s cities are grappling with acute urban livelihood issues relating to jobs, housing, migration, living conditions, mobility, sanitation, climate change and sustainability.

A group of civil society organisations, workers’ collectives, and over two lakh urban poor across India have been deliberating on a citizens’ charter of demands for inclusive and just urban development — words that most governments have only been paying lip service to.

The charter, which enjoys endorsements from 12 political parties, conceives of “just and liveable cities for all” as an alternative to “smart cities”. The latter tend to adopt techno-centric models of urbanisation facilitated by unelected entities, such as special purpose vehicles that are dependent on private investments. This often results in the participative planning process of urban local bodies (ULBs) being bypassed. On the contrary, the charter pushes for autonomy of the ULBs, capacitating them with funds for proper staffing, regularisation of municipality workers, and entrusting them with decentralised decision-making powers.

It is appalling that despite occupying only about 5% of urban land, slum dwellers in cities are labelled as encroachers. These people, who constitute 30% of the population in cities, often live in subhuman conditions without basic services. The charter looks at housing as a fundamental right and proposes to confer land titles on slum dwellers. It proposes a zero-eviction policy, in situ slum upgradation programmes that focus not on the number of houses built but also on ownership rights and service provision. It proposes that self-built houses by city dwellers be recognised.

The majority of these residents constitute urban ‘informal’ workers (about 20 crore people) who have migrated due to rural distress, and termination of contracts and mass lay-offs in industries. The charter advocates universal minimum social security (as a portable scheme for the benefit of migrant workers), which includes healthcare, maternity, insurance, pension benefits, and fixing universal minimum wages. It welcomes the proposal for a National Urban Employment Scheme, recognising the right to work. It also emphasises the need for gender-friendly cities and infrastructure. And given that cities contribute more than 60% to India’s GDP, it advocates that a minimum of 5% of this GDP be used for the development of urban areas, up from the current 1%, through Central schemes.

We must reimagine our cities by rejecting inequalities, unjust designs, and unsustainable growth, and redefine the urban agenda from the lens of the working poor, with participative planning at its heart.


 

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